जाति और धर्म के समाज में प्रगतिशीलता एक गहरी सुरंग में फंसा दिखाई देता है. कह सकते हैं कि उनमें प्रगतिशील दृष्टि है ही नहीं. वह शून्य है. समय-समय पर वह उनके जातीय श्रेष्ठता और धार्मिक आकर्षण में, नमूदार होते रहता है. श्रेष्ठता बोध अहंकार की चरम परिणति है. इसकी जड़ें इतनी विस्तारित है कि वर्गों के समाज में विरले …
जाति और धर्म के समाज में प्रगतिशीलता एक गहरी सुरंग में फंसा है
