'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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जलभूमि

जलभूमि जीवन का सोच्चार चीत्कार है तुम्हारे अरदास के पलटते पन्ने परिंदों के पंख के परवाज़ अदिती क्यों बार बार मैं विघ्न डालता हूं तुम्हारी पूजा में मुझे तो मालूम है सूर्यास्त का सच क्रौंच वध की बेला में छूट गए जो वाण अनायास शक्ति की संहिता में एक पन्ना मेरा भी हो इसी अथक प्रयास में घूर्णी में आत्मसात …

गिर

गिर और गिर गिरता जा निचाइयां अतल हैं गिरने का साहस तुझमें गजब है गिर और गिर अबे और गिर ओ मूर्ख रुक मत सांस मत ले चड्डी गिरने की परवाह मत कर गिर गिरनेवाले की नंगई कौन देखता है रे तू तो गिर अरे जब तूने गिरने का व्रत लिया है तो फिर ईमानदारी से गिर कैमरे पर गिरता …

यह आर्तनाद नहीं, एक धधकती हुई पुकार है !

जागो मृतात्माओ ! बर्बर कभी भी तुम्हारे दरवाज़े पर दस्तक दे सकते हैं. कायरो ! सावधान !! भागकर अपने घर पहुंचो और देखो तुम्हारी बेटी कॉलेज से लौट तो आयी है सलामत, बीवी घर में महफूज़ तो है. बहन के घर फ़ोन लगाकर उसकी भी खोज-ख़बर ले लो ! कहीं कोई औरत कम तो नहीं हो गयी है तुम्हारे घर …

आजादी

मन मस्त हवा के पंखों से मत पूछ आजाद उड़ानें कैसी हैं कैसी हैं चंचल पतवारें, सागर में गोते खाते आजाद ये मौजें कैसी हैं मदमस्त जीवन का संगीत तराना सारा सरगम गीत की प्रीतें ये कैसी हैं धरती अम्बर के मिलन बिन्दु पर आजाद ख्याल की बीछी सीमाएं कैसी हैं हम नए युग के वाशिंदे बधे बहो पास से …

स्वतंत्र जांच

युद्ध से समतल हुए शहर में जहां पर ज़मीन तीन महीने के गर्भ से दिखी वहीं पर एक सामूहिक कब्र निकला इस सामूहिक कब्र की खोज किसी देश के पुरातत्व विभाग ने नहीं किया था इसकी खोज लाश सूंघने वाले कुत्तों ने किया था जो अपने गले में लगे पट्टों से खींचते हुए कुछ सत्यान्वेषियों को यहां तक ले आए …

मैं चाहता तो…

मैं चाहता तो आवाज़ बदल कर बातें कर भी सकता था तुम से चेहरा बदल कर मिल भी सकता था तुम से जो जर्जर पुल मेरे और तुम्हारे दरम्यान थे अगर वे मेरे भार ढोने के काबिल नहीं थे तो मैं भी उन पुलों पर किसी भारहीन कीड़े की तरह रेंग कर उस पार पहुंच भी सकता था जहां मेरी …

अंधी सड़कें

अंधी सड़कें नहीं देख पाती शार्क के खुले जबड़े आदमी मच्छी के कांटे सा फंसा हुआ है उसके नुकीले दांतों के बीच गांव दर गांव शहर दर शहर कंकाल के हाथ लाल सलाम कहते हुए लाल कार्ड सरकारी बनिये की चौखट पर कीड़े में चावल बीनते कीड़े एक संप्रभु राष्ट्र की धर्म ध्वजा है जिसे बनाए रखने के लिए करोड़ों …

कैसे हो मिर्ज़ा ?

पचहत्तर के बोयाम में पांव घिसते हुए जिस क्षरण से तुम वाक़िफ़ हो सत्य की वह गंगा अब किसी पांच सितारा होटल के नीचे बहते गटर में समा गई है इस शेरवानी और टोपी में तुम एक चलन के बाहर का सिक्का दिखते हो क्या इतना भी नहीं मालूम तुम्हें तुम्हारे दोस्त अब हाईवे के समानांतर बने परित्यक्त, जर्जर पुल …

आदमी

आदमी बुन लेता है सपने बना लेता है घरौंदा तोड़ देता है कई दिवारें बनाते हुए अपने इर्द-गिर्द कई दिवारें प्यार करता है धोखा खाता है फिर से प्यार करता है और अंत तक ज़िंदा रहने की जुगत में रहता है चाहे इसके लिए उसे अपने पिछले प्रेम में जफ़ा ही क्यों न ढूंढना पड़े आदमी झूठ के सहारे ही …

सुब्रतो चटर्जी की दो कविताएं

हर रोज़ समंदर की तरफ़ खुलती है एक हत्यारी खिड़की और वो लड़की अपनी तर्जनी के पोर में समेटकर एक चुटकी अमावस खींच लेती है दो रेखाएं उसे यक़ीन है दुनिया के मटमैले मानचित्र को देखने में मददगार है अमावस का टुकड़ा हत्यारी खिड़की बहा ले जाती है उसे उसके खुले बाल बर्फीली आंधी में बची उष्मा की तरह चिढ़ाती …

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