सुदूर जंगल से लगा एक कस्बा एक खाली इमारत, चन्द कुर्सियां गहरी रात का पहर पांच वाट की पीली रोशनी कुर्सी के पीछे बंधे हाथ दो चमकती आंखे और पसीने से तरबतर शरीर उसे घेरकर खड़े कुछ वर्दी वाले रोबोट एक कड़कती हुई आवाज- ‘यहां किसके कहने पर आए ?’ कुएं से निकलती एक धीमी मगर दृढ़ आवाज- ‘अपनी अंतरात्मा …
‘लो मैं जीत गया…’
