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जनविरोधी व दमनकारी ऑपरेशन कगार बंद करने और शांति-वार्ता बहाल करने हेतु कन्वेंशन

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जनविरोधी व दमनकारी ऑपरेशन कगार बंद करने और शांति-वार्ता बहाल करने हेतु कन्वेंशन
जनविरोधी व दमनकारी ऑपरेशन कगार बंद करने और शांति-वार्ता बहाल करने हेतु कन्वेंशन

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के महासचिव बासवराज की हत्या भारत सरकार की पुलिस ने एक मुठभेड़ के बाद जीवित पकड़ने के बाद कर दी. उनके परिजनों की ओर से हर तरीक़े की कोशिश करने के बाद भी उनका पार्थिव शरीर सरकार ने नहीं दिया और भगत सिंह की ही भांति उनके और उनके साथियों के पार्थिव शरीर को जला दिया. पुलिस की ओर से निर्लज्जतापूर्वक यह तर्क दिया गया कि उन शवों का कोई दावेदार नहीं आया, जबकि उनके परिजनों पहले दिन से ही पार्थिव शरीर को हासिल करने की कोशिश कर रहे थे.

आम नागरिकों के बीच चर्चा ज़ोरों पर है कि सरकार और पुलिस की ओर से बासवराज और उनके साथियों के पार्थिव शरीर परिजनों को नहीं दिया गया क्योंकि सरकार को डर था कि उनके परिजनों को उनके पार्थिव शरीर देने के बाद उनके अंतिम संस्कार में लाखों लोगों की भीड़ जुट सकती थी, इससे एक ओर जहां उनकी लोकप्रियता साबित हो जाती, वही दूसरी ओर मोदी-शाह की खूंखार घिनौनी फासीवादी सरकार की दुनिया भर में किरकिरी मच जाती. इससे बचने के लिए ही उनके परिजनों को पार्थिव शरीर नहीं देकर जला दिया.

एक और चर्चा ज़ोरों पर है कि अगर सरकार बासवराज और उनके साथियों के पार्थिव शरीर को परिजनों को सौंपा जाता तो पूरी संभावना थी कि उनके पार्थिव शरीर का दुबारा से पोस्टमार्टम परिजनों के द्वारा कराया जाता, जिससे माओवादियों के उन दावों की पुष्टि हो जाती जिसमें उन्होंने पुलिस पर आरोप लगाया है कि उसने मुठभेड़ के बाद बासवराज को जीवित पकड़ा था और भारी यातना देकर उनकी हत्या कर दी थी. इससे पुलिस और मोदी-शाह की क्रूरता की पोल पूरी दुनिया में खुल जाती.

चूंकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के महासचिव बासवराज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के नेता थे, इसलिए मोदी सरकार ने उनके पार्थिव शरीर को परिजनों को सौंपने के बजाय जला देने से माओवादियों के दावे (बासवराज की हत्या उनको जीवित पकड़ने के बाद किया गया) और जनता के बीच के चर्चा (उनकी अंतिम यात्रा में लाखों लोगों की भीड़ जुटती) की अनौपचारिक पुष्टि कर दी. जिससे लोगों का आक्रोश मोदी-शाह की खूंखार सरकार के खिलाफ फूट पड़ा है.

दुनिया भर के लोगों के साथ साथ भारत की जनता के बीच सवाल उठ रहे हैं. इसी कड़ी में 3 जून को पटना (बिहार की राजधानी) में ‘जन-अभियान’ द्वारा ‘जनविरोधी व दमनकारी ऑपरेशन कगार बंद करने और शांति-वार्ता बहाल करने हेतु’ कन्वेंशन का आयोजन किया गया था, जिसमें हज़ारों लोगों ने भाग लिया और इस अनर्थ के खिलाफ सड़कों पर भी उतरने का आह्वान किया. इसी दौरान इस कन्वेंशन में एक पर्चा भी जारी किया गया, जिसका मज़मून इस प्रकार है –

साथियों, भारत में पिछले करीब सात दशकों से और खासकर पिछले एक दशक से चल रही भारत के शासक वर्गों की तथाकथित विकासोन्मुख आर्थिक नीतियों ने भारत के विभिन्न प्रदेशों में बसे आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन के उनके अधिकार से वंचित करके उन्हें विस्थापित-शोषित जीवन जीने को विवश कर दिया है.

यह सर्वविदित है कि विकास के नाम पर आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर भूमि के अधिग्रहण का काम शुरू किया गया था, इसी की आड़ में आदिवासियों को धकियाने और कहें तो खदेड़ने का सिलसिला चला और आज भी चल रहा है. इसके चलते देश के प्रमुख आदिवासी इलाकों से हजारों परिवार विपन्न और असहाय होते चले गए हैं. इन स्थितियों से उबरने के लिए जहां भी विरोध हुआ है या हो रहा है वहां प्रशासन कानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर बार-बार क्रूरतम दमन अभियान चला रहा है.

सही में कहें तो सरकार के पास उजाड़े जा रहे आदिवासियों के पुनर्वास के लिए कोई कारगर नीति नहीं है. उल्टे, भूमंडलीकरण की नीतियों के लागू होने के साथ-साथ आदिवासी इलाकों में दोहन-शोषण व दमन चक्र और तेज होता गया है. वर्तमान दौर में देशी-विदेशी पूंजी महानगरों, नगरों और कस्बों के बाजार हथियाने के बाद आदिवासी क्षेत्रों तक अपने खूंखार पंजे फैला रही है. अपने साम्राज्यवादी आकाओं के हित साधने में लगा भारत का शासक वर्ग आदिवासियों को जल, जंगल और जमीन से विस्थापित करने की नीति छोड़ने से रहा.

जल, जंगल ,जमीन, अपने हक़-अधिकार और अपनी अस्मिता बचाने के लिए आदिवासी इलाकों में दमनकारी सरकारी नीतियों के खिलाफ तरह-तरह के जन-संघर्ष सहित सशस्त्र संघर्ष भी चल रहे हैं. इस संघर्ष को दबाने के लिए अतीत में केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अनेक नामों से ऑपरेशन चलाए गए हैं. बड़ी संख्या में आम आदिवासियों से लेकर हथियारबंद आदिवासियों की शहादतें हुई हैं तथा पुलिस व अर्द्धसैनिकबलों को भी अपनी जान गंवानी पड़ी है. बावजूद इसके समस्यायें यथावत बनी रही हैं. सभी सरकारों ने समस्या के मूल में जाकर उनका समाधान ढूढ़ने के बजाय दमन का ही रास्ता अख्तियार किया है.

प्रत्येक वर्ष सत्ताधीशों में, स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की शपथ खाने के बावजूद जनतांत्रिक सोच, प्रशासन में पारदर्शिता, समान अवसर, न्यायसंगत माहौल बनाने के प्रति घोर उदासीनता है. एक तरफ शानदार बंगले हैं, चमचमाती कारें हैं, शानदार पोशाकों में सजे नर-नारियां हैं तो दूसरी तरफ, भूख है, भयावह कुपोषण है, अंतहीन गरीबी है, अशिक्षा है, जलालत भरी जिंदगी है. इन आर्थिक और सामाजिक गैर-बराबरी, भेदभावों, भयावह दोहन-शोषण और दमन ने विद्रोह को जन्म दिया. बहुत सारे क्षेत्रों में ऐसे विद्रोहों को ही माओवाद के रूप में परिभाषित किया गया.

सही बात तो यह है कि माओवादी सशस्त्र प्रतिरोध दरअसल भूख के खिलाफ रोटी के लिए, बेरोजगारी के खिलाफ रोजगार के लिए, गैर-बराबरी के खिलाफ बराबरी के लिए, शिक्षा, चिकित्सा, नौकरी, इज्जत-आबरू, न्याय और सभी क्षेत्रों में समान भागीदारी की मांग के साथ उपजा. इसी प्रतिरोध को दमन और जनसंहारों के बल पर कुचलने के लिए सरकारों ने विभिन्न नामों से सैन्य अभियान चलाया है. 2014 में घोर फासिस्ट मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद हत्याओं और दमन का क्रम और भी तेज हुआ है. ऑपरेशन कगार दरअसल उसी की एक कड़ी है.

हत्याओं और दमन का यह चक्र मनमोहन सिंह सरकार के गृह मंत्री पी. चिदंबरम के ऑपरेशन ग्रीन हंट से आगे बढ़कर आज ऑपरेशन कगार तक आया है, जिसके नाम पर आदिवासियों की हत्या और विस्थापन का सिलसिला जारी है. ऑपरेशन कगार वर्तमान गृहमंत्री अमित शाह की पसंदीदा परियोजना है. यह वस्तुतः माओवाद को खत्म करने और अपनी राजनीतिक साख चमकाने की परियोजना है जिसने छतीसगढ़ में अभूतपूर्व रक्तपात किया है.

एशियन आतंकवाद पोर्टल बेबसाइट के अनुसार 2025 के पहले तीन महीने में ही सुरक्षा बलों ने 140 कथित माओवादियों को मार गिराया है. अब तक यह आंकड़ा लगभग 200 तक चला गया है. 2023-24 की तुलना में यह वृद्धि चौकानेवाली है जहां कुल 23 कथित माओवादी मारे गए थे.

साथियों, ऑपरेशन कगार छतीसगढ़ में कथित माओवादी विद्रोहियों के खिलाफ दशकों से चल रहे युद्ध की निरंतरता है,जिसे समझने के लिए पूर्व के अभियानों को समझना जरूरी है. सबसे पहले भारतीय राज्य ने अमेरिका के पेंटागन द्वारा सूत्रबद्ध कम तीव्रता के संघर्ष (लो इंटेंसिटी कनफ्लिक्ट) की नीति के तहत हथियारों और अन्य संसाधनों की आपूर्ति कर कुख्यात सलवा जुडूम जैसा अभियान शुरू किया था. यह सलवा जुडूम राज्य द्वारा और अर्द्ध सैनिक बलों की मौजूदगी और समर्थन के सहारे खड़ी की गयी एक जन मिलिशिया थी, जिसे भरपूर मात्रा में हथियार, खुफिया जानकारी उपलब्ध कराई गयी थी. इसने आतंक मचाकर 640 गांवों को जला दिया था, हजार के करीब लोगों को मार डाला था और लगभग साढ़े तीन लाख ग्रामीणों को विस्थापित कर दिया था.

इस मिलिशिया को बनाने के पीछे राज्य सरकार की मंशा स्पष्ट थी. कुछ दिन पहले टाटा, एस्सार और अन्य के साथ किये गये समझौता-ज्ञापनों को लागू करने के क्रम में कई गांवों में खनन के लिए जगह बनाई गई थी. सलवा जुडुम के द्वारा किये गये नरसंहार और हत्या का फल कॉरपोरेट्स को कुछ यूं मिला कि टाटा और एस्सार स्टील ने खदानें स्थापित करने के लिए खाली करवाई गई जमीन को आसानी से हथिया लिया.

इसके तहत की गई अवैध हत्याओं, बड़े पैमाने पर मानवाधिकार उल्लंघनों, यातनाओं, सामूहिक बलात्कारों, नाबालिगों की हत्याओं तथा नरसंहार की खबरों के बाद नागरिक समाज ने इनपर तीव्र प्रतिक्रिया और कठोर निंदा की. इसी के बाद सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम को अवैध घोषित कर दिया और 2011 में इसे भंग करने का आदेश दिया.

इस अभियान के तहत हत्याओं और तबाहियों का आलम अभी थमा भी न था कि ऑपरेशन ग्रीन हंट की शुरुआत कर दी गई. यह माओवादियों से मुकाबला करने के लिए भारतीय राज्य का एक आधिकारिक ऑपरेशन था जिसमें ग्रे हाउंड्स, कोबरा, स्कॉर्पियन जैसे विशेष बल, केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल, बीएसएफ और यहां तक कि भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल समेत हजारो अर्द्धसैनिक बलों का इस्तेमाल किया गया.

ऑपरेशन ग्रीन हंट के प्रभाव सलवा जुडूम की तरह ही विनाशकारी थे. इसके तहत राज्य के विकास के झूठे दावे बिलकुल स्पष्ट थे. प्रसिद्ध लेखिका अरुंधति राय ने मित्तल, टाटा, जिंदल, एस्सार, पास्को, रियो, टिंटो, बीएचपी, वेलिंगटन, वेदांता के हजारों एमओयू में राज्य के मिशन और उद्देश्यों को सार्वजनिक किया और बताया कि उस क्षेत्र में मौजूद हर पहाड़, नदी और जंगल का मैदान एक-एक एमओयू (समझौता पत्र) से बंधा हुआ है. इन समझौतों पर अमल करने के लिए ही पुलिस कैम्प उन इलाकों में सबसे ज्यादा लगाए जा रहे हैं जहां अडानी समेत अन्य कारपोरेट कंपनियों की खदानें हैं.

2017 में ऑपरेशन ग्रीन हंट के अंत में ऑपरेशन समाधान-प्रहार शुरू किया गया. इसके तहत अकेले बस्तर में 90 से अधिक अर्द्धसैनिक शिविर बनाए गए. बस्तर में हर तीन से चार किलोमीटर पर एक शिविर है, जो इसे दुनिया के सबसे ज्यादा सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक बनाता है. इन शिविरों का उद्देश्य महज माओवादियों को खत्म करना नहीं, बल्कि खनन कार्यों के लिए हर तरह के प्रतिरोध को खत्म करना था. उदाहरणस्वरूप रावघाट में खनन क्षेत्र की घेराबंदी के लिए 22 अर्द्धसैनिक शिविर लगाए गए, जहां वस्तुतः कोई सशस्त्र प्रतिरोध या माओवादी आंदोलन नहीं है.

इसी की प्रतिक्रिया में बस्तर में एक मजबूत ‘कैंप विरोधी आंदोलन’ शुरू हुआ जिसमें बड़े पैमाने पर आम लोग शांतिपूर्वक धरना दे रहे थे. वहां उपस्थित लोग अपने गांव पर कैंप बनाने के सरकार के फैसले का विरोध करने के लिए धरने में शामिल होते थे, पर अर्द्धसैनिकबलों ने वहां क्या किया ? इन धरनार्थियों पर गोलीबारी करके उनमें भय और आतंक का वातावरण पैदा किया.

उधर इस समाधान-प्रहार अभियान के तहत माओवादी खतरे का मुकाबला करने के नाम पर रक्षा बजट में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गई. इसके तहत 2014-24 के बीच 6456.36 करोड़ रुपए की चौंका देने वाली राशि खर्च की गई. देश की संपत्ति की यह बर्बादी उस खतरे का मुकाबला करने के लिए है, जिसके बारे में सरकार लगातार प्रचार कर रही है कि वे कमजोर हो रहे हैं और खत्म होने के कगार पर हैं.

पूर्व की तरह यह ऑपरेशन कगार भी एक लोकतांत्रिक और जन-केंद्रित विकास के खिलाफ अभियान है. ऑपरेशन कगार की शुरुआत में ही अनगिनत अत्याचार के किस्से सामने आए हैं. ‘स्टॉप वॉर ऑन द पीपुल’ पत्रिका की रिपोर्ट बताती है कि दिनांक 12.5.2024 को गुड़गांव, बीजापुर में 12 अनजान ग्रामीणों को उस वक्त जंगलों से घसीटा गया, जब वे तेंदूपत्ता इकट्ठे कर रहे थे और फिर गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई. बाद में फर्जी मुठभेड़ में उन्हें माओवादी करार दिया गया.

पीड़िया, बीजापुर की रिपोर्ट है कि दिनांक 11 .5.2024 को सुरक्षा बलों द्वारा बलात्कार के बाद युवा आदिवासी लड़कियों को गुरिल्ला वर्दी पहनने के लिए मजबूर किया गया और फिर उनकी गिरफ्तारी दिखाई गई. हाल ही में मुठभेड़ में 29 माओवादी लड़ाकों को मारा गया. रिपोर्ट के अनुसार 12 लोग गोलीबारी में मारे गए और 17 को बांधकर प्रताड़ित किया गया तथा फिर उन्हें मुठभेड़ दिखाकर मार दिया गया.

इसी तरह 2 अप्रैल 2025 को छत्तीसगढ़ के नेन्द्रा में एक नाबालिग मूक-बधिर लड़की के साथ बलात्कार और यातना के साक्ष्य पाए गए जिसे राज्य डीआरजी बलों द्वारा एक मुठभेड़ करार देकर 12 अन्य लोगों के साथ मार दिया गया.

दिनांक 21 मई, 2025 को छतीसगढ़ के नारायणपुर – बीजापुर में 27 कथित माओवादियों को मार दिया गया. इस कथित मुठभेड़ में एक डीआरजी जवान की भी मौत और कई अन्य के गंभीर रूप से घायल होने की भी खबर है. ऑपरेशन के नाम पर अपने ही देश के नागरिकों के दुखद अंत की स्थिति चिंताजनक है .

ऑपरेशन कगार के अंतर्गत अंधाधुंध हत्याओं और दमन का सिलसिला अबाध गति से जारी है. इसके तहत सुरक्षा बल आदिवासियों के खेतों, घरों और गांवों पर बमबारी कर रहे हैं. ताजुब्ब की बात है कि इन नरसंहारों पर न्यायालय खामोश हैं. इससे उनकी सहमति जाहिर होती है जबकि संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्य अंतरराष्ट्रीय नियमों में यह साफ निर्देश है कि कोई भी देश अपने नागरिकों पर बमबारी नहीं कर सकता. यहां बम के गोले जिंदगियां बर्बाद कर रहे हैं.

इनसे संबंधित 12 मई, 2024 की एक रिपोर्ट पर गौर करें. यह बताती है कि इन बम के गोलों के टुकड़े बच्चों को कैसे खत्म कर रहे हैं. बोदगा गांव के निवासी क्रमशः 9 और 12 साल के लक्ष्मण और बोली ओयाम तेंदु पत्ता डीलर के साथ काम करने के दौरान पत्तों के बंडल को सुखाने में उसकी मदद करते हुए इन बमों के कुछ टुकड़ों के संपर्क में आ गए. प्रोपेलर का अंतिम हिस्सा जमीन के ऊपर दिख रहा था जबकि विस्फोटक सामग्री से भरी उभरी हुई बल्बनुमा चीज जमीन के नीचे धंसी हुई थी.

जिज्ञासावश बच्चे लकड़ी और पत्थर से इस अजीब से खजाने को खोदने लगे. इनमें से एक में अभी भी विस्फोट नहीं हुआ था. उसी दौरान उसमें विस्फोट हो गया और दोनों के दोनों मर गए. वहां बस्तर टॉकीज न्यूज पोर्टल के सक्रिय पत्रकार विकास तिवारी ने इस क्षेत्र से लाइव वीडियो जारी करते हुए स्पष्ट कहा था कि यहां अभी भी बिना विस्फोट वाले बम या उसके टुकड़े गांव के आसपास फैले हुए हैं. उन्होंने अधिकारियों से गुहार लगाई थी कि वह इस बात पर ध्यान दें और इसे साफ करें. इसके बावजूद पुलिस और प्रशासन ने कुछ नहीं किया मानो बस्तर में जीवन का कोई मूल्य ही नहीं है.

छत्तीसगढ़ की सामाजिक कार्यकर्ता और आदिवासियों की आवाज सोरी सोनी ने, जिनके साथ रूह कंपा देनेवाली यातनामयी कार्रवाई की गई थी, बताया कि कुन्मम गांव के लोगों ने 7 शवों को पहाड़ियों से नीचे लाते और उस दौरान डीआरएफ, सीआरपीएफ और एसटीएफ वालों को खुशी से नाचते देखा. प्रत्येक शव के ऊपर उनके मूल्य की पर्ची लगी थी. 31 मार्च, 2026 तक आवंटित इनाम की राशि को बांट दिया जाएगा और उनके बहीखातों को बंद कर दिया जाएगा.

सच तो यह है कि हर बार ऑपरेशन के नाम पर साम्राज्यवादी आकाओं और कॉरपोरेट्स को खुश करने के लिए निर्दोष, आम नागरिकों और विरोध के संवैधानिक तरीकों को अपनाने वालों पर उतना ही हमला किया जाता है, जितना कि उन नक्सलवादी ताकतों पर, जो स्थानीय आबादी के जल, जंगल, जमीन, सम्मान, विस्थापन और अधिकार पर जबरन हमले का मुकाबला करने के लिए उभरी थीं.

नागरिक समाज की एक रिपोर्ट बताती है कि 2024 के बाद यहां नौ नागरिकों पर एक सुरक्षा कर्मी तैनात है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अबूझमाड़ में आज पिछले एक साल में अर्द्ध सैनिक बलों और राज्य के सुरक्षा बलों ने 8 सुरक्षा कैंप स्थापित किये हैं तथा हाल के महीनों में कई अग्रिम चौकियां खोली हैं. लगातार चल रही इन राज्य समर्थित कार्यवाहियों ने बस्तर के जंगलों को युद्ध क्षेत्र में बदल डाला है. यहां आदिवासी बच्चे और ग्रामीण राज्य की क्रूर हिंसा का सामना कर रहे हैं.

बस्तर के सैन्यीकरण के कारण नियमित मुठभेड़ें हो रही हैं, जिनमें बच्चों तक को गोली मारी जा रही है, आम नागरिकों की खुलेआम हत्याएं की जा रही हैं और पूरे समुदाय को आतंकित किया जा रहा है. इस क्षेत्र के लोगों से न्याय दूर चला गया है क्योंकि हत्याओं के मामलों में सरकार किसी भी तरह की जवाबदेही को नजरअंदाज करती है. माओवादियों से लड़ने के नाम पर अनवरत जारी यह हिंसा बस्तर के नौजवानों से उनका बचपन और अक्सर उनका जीवन ही छीन लेती है.

2024 में बस्तर में हुई अब तक की सबसे ज्यादा मुठभेड़ों में 65 मौतें और सबसे ज्यादा आत्म-समर्पण की घटनाएं दर्ज की गई हैं. सरकारी आंकड़ों के अनुसार वहां 1000 लोग गिरफ्तार हुए, 837 ने समर्पण किया और 287 लोग मारे गए हैं. सरकारी आंकड़ों को सफलता के रूप में पेश करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बाजाप्ता ऐलान किया कि 31 मार्च, 2026 तक नक्सलियों को छत्तीसगढ़ से खत्म कर दिया जाएगा. यह उनके द्वारा घोषित की गई एक महत्वपूर्ण तिथि है. यह सब कुछ वहां की जमीन और खनिज संपदा की लूट के लिए हो रहा है.

गौरतलब है कि दंतेवाड़ा में जमीनी हकीकत के लिए एक फैक्ट फाइंडिंग टीम गई थी. उसने वहां 150 से अधिक महिलाओं से रिपोर्ट ली थी. इनमें से 70 उत्पीड़ित महिलाओं ने वहां की भयावह स्थिति का विवरण रिकॉर्ड कराया था जो छत्तीसगढ़ पीयूसीएल की वेबसाइट पर उपलब्ध है. सरकार कारपोरेट के लिए एजेंट की तरह काम कर रही है.

ऑपरेशन कगार के रूप में बर्बरता का यह भयानक दौर है. इसमें सीआरपीएफ, कोबरा, डीआरजी, एसटीएफ और राज्य पुलिस के एक लाख से अधिक जवान शामिल है. इसमें ड्रोन, एआई और उपग्रह इमेजरी जैसे उन्नत निगरानी उपकरणों का उपयोग करके और बमों व गोलों का प्रयोग करके अपने ही नागरिकों का सफाया किया जा रहा है. यह ऑपरेशन चार आयामी रणनीति का दावा करता है-

  1. छत्तीसगढ़ के बस्तर में अग्रिम परिचालन बेस ( एफ ओ बी ) स्थापित करना,
  2. खुफिया जानकारी जुटाने के लिए ड्रोन और सेटेलाइट इमेजिंग का सिस्टम तैनात करना,
  3. अपने कब्जे में ले लिए क्षेत्रों में 612 से अधिक किलेबंद पुलिस स्टेशन स्थापित करना और
  4. एक उदार आत्मसमर्पण नीति लागू करना.

सरकार जिस माओवाद को समाप्त करने के नाम पर यह ऑपरेशन चला कर बड़े पैमाने पर धन-जन की क्षति कर रही है, उन माओवादियों के प्रवक्ता ने सरकार के साथ शांति-वार्ता का प्रस्ताव भेजा है जिस पर सरकार की ओर से कोई भी सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं आई है. उल्टे, उन्होंने हथियार सौंप कर ‘समर्पण करो या मौत के घाट उतारे जाओ’ का आप्शन ही बार-बार दुहराया है. दमन और नरसंहार की यह कार्रवाई निरंतर जारी है.

इस अंधाधुध कत्लेआम के अभियान के दौरान प्रतिदिन लाशों की संख्या में इजाफा होता चला जा रहा है और यह सवाल अपनी जगह यथावत है कि जिस विकास के नाम पर यह नरमेध संचालित हो रहा है वह विकास आखिर किसके लिए ?  साम्राज्यवादियों, भारतीय बड़े पूंजीपतियों के लिए या आम जनता की खुशहाली के लिए ?

यह विकास- आखिर किसके द्वारा ? इसके लाभों को प्राप्त करने वाले मुट्ठीभर कॉरपोरेट्स या इसकी वास्तविकताओं को भुगतने वाली बहुसंख्यक जनता द्वारा ? इस विकास को परिभाषित कौन कर रहा है ? भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सत्ता या सदियों से पीड़ित मेहनतकश जनता ?

स्पष्ट है कि साम्राज्यवादपरस्त भारतीय पूंजीपति और उनके प्रतिनिधि राजनीतिक दल आज लोकतंत्र की आड़ में असमानता और शोषण को बनाए रखने वाली तथा क्रूर दमन को बढ़ावा देने वाली एक घोर जनविरोधी व्यवस्था चला रहे हैं. वह शोषक वर्गों के हितों की रक्षक है. वर्तमान मुनाफाखोर पूंजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था का स्वभाव और चरित्र भारत की आम जनता के जीवन को नष्ट करने वाला है. इसलिए एक ऐसी वैकल्पिक व्यवस्था की जरूरत है जो पूंजी के हित में नहीं, श्रम के हित में हो और सही अर्थों में जनपक्षधर हो.

ऐसी परिस्थिति में जन अभियान, बिहार सभी प्रगतिशील, लोकतांत्रिक, क्रांतिकारी, जनपक्षधर, न्यायपसंद व्यक्तियों और समूहों से अपील करता है कि जिस तरह से व्यापक गोलबंदी के साथ आपने व्यवस्था के अन्य दमनात्मक कार्रवाइयों का विरोध किया है. उससे आगे बढ़कर ऑपरेशन कगार के खिलाफ जन-कार्यक्रमों में शरीक हों ताकि साम्राज्यवादी ताकतों और कॉरपोरेट्स के साथ इस सत्ता और व्यवस्था के जनविरोधी और अमानवीय चेहरे को बेनकाब किया जा सके.

जन अभियान, बिहार इस कन्वेंशन के माध्यम से मांग करता है कि –

  1. छत्तीसगढ़ में चलाए जा रहे ऑपरेशन कगार को तत्काल प्रभाव से बंद किया जाए तथा इसमें लगाए गए सुरक्षा बलों को वहां से हटाया जाए.
  2. आदिवासियों व आम ‘जनता के खिलाफ दायर सभी फर्जी मुकदमे वापस लिए जाएं.
  3. हाल के वर्षों में छत्तीसगढ़ में हुई सभी मुठभेड़ों और मारे गए आदिवासियों के मामलों की जांच सर्वोच्च न्यायालय के पीठासीन जज की अध्यक्षता में हो और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई की जाए.
  4. जल, जंगल, जमीन से संबंधित देशी और विदेशी कॉरपोरेट कंपनियों से किए गए सभी समझौते को रद्द किया जाए. माओवादी संगठन से शांति-वार्ता की जाए और समस्या के मूल में जाकर उसका समाधान निकाला जाए.

यह पर्चा जन अभियान, बिहार की ओर से आयोजित इस कन्वेंशन हेतु जारी किया गया था. जन अभियान के घटक संगठनों में जन संघर्ष वाहिनी, सर्वहारा जन मोर्चा, नागरिक अधिकार रक्षा मंच, जनवादी लोक मंच, कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया, सीपीआई (एमएल), सीपीआईएमएल (न्यू डेमोक्रेसी), एमसीपीआई (यू ) हैं.

कन्वेंशन का विडियो –

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ROHIT SHARMA

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