Home गेस्ट ब्लॉग आज़ादी की लड़ाई में आदिवासियों के संग्राम का इतिहास

आज़ादी की लड़ाई में आदिवासियों के संग्राम का इतिहास

22 second read
0
0
169
आज़ादी की लड़ाई में आदिवासियों के संग्राम का इतिहास
आज़ादी की लड़ाई में आदिवासियों के संग्राम का इतिहास

कुछ लोग 1857 को आजादी की लड़ाई की प्रथम घटना बताते हैं, यह पूर्णतया गलत है. अंग्रेजों से आजादी की प्रथम लड़ाई जिन लोगों ने शुरू की थी, वे भारत के मूलनिवासी आदिवासी थे. चुआङ विद्रोह (अंग्रेज़ों के खिलाफ भुमिज आदिवासियों की प्रथम लङाई) सन् 1767 से 1833 तक चला, जो अंग्रेजों के गलत नीति नियम का विरोध करते हुए गंगा नारायण सिंह, रघुनाथ सिंह जैसे कई भुमिज आदिवासी वीर जंगल महल (वर्तमान झारखंड) में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गये.

भारतीय जनता ने ब्रिटिश शासन का प्रतिरोध आरम्भ से ही किया. सन् 1857 तक मुश्किल से ही कोई साल बीता होगा, जिसमें देश का कोई न कोई भाग सशस्त्र विद्रोह से प्रकंपित न हुआ हो. मोटे तौर पर विद्रोह क्रमबद्ध तीन रूपों में सामने आये-नागरिक विद्रोह, आदिवासियों के विद्रोह और किसानों के आन्दोलन तथा बाद में सामूहिक विद्रोह. आदिवासियों ने सैकड़ों विद्रोहों में हिस्सा लिया.

एक तरफ आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से युक्त ब्रितानी अनुशासित सेनाएं थीं, और दूसरी तरफ तीर-धनुष और टांगियों जैसे आदिकालीन हथियारों वाले आदिवासी. गैर बराबरी की लड़ाइयों में लाखों की संख्या में आदिवासी मारे गये. उनके अनेक विद्रोहों में से सन् 1820 से 1837 तक कोलों का, सन् 1855 से 1856 तक संथालों का, सन् 1879 में रम्पाओं और सन् 1895 से 1901 तक मुंडाओं का विद्रोह महत्वपूर्ण हैं.

10 जुलाई 1806 को वेलोर में कम्पनी की सेना के देशी सैनिकों ने विद्रोह किया. 30 अक्तूबर 1824 को कलकत्ता के निकट बैरकपुर छावनी में विद्रोह हुआ. 1831 से 1833 तक कोल विद्रोह हुआ. 1848 को कांगडा, जसवार और दातापुर के राजाओं ने विद्रोह किया और 1855-56 में संथालों का विद्रोह हुआ.

यद्यपि अंग्रेजों ने अपनी सैनिक शक्ति के बल पर इन सारे विद्रोहों का दमन कर दिया, किन्तु इन विद्रोहों ने 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार कर दी. सन् 1857 का विद्रोह अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध सबसे व्यापक विद्रोह था, जिसमें निम्न से भी निम्नतर वर्ग ने भाग लिया. अंग्रेजी हुकूमत का कोप भाजन दलित वर्ग और आदिवासी समुदाय ज्यादा रहा.

आदिवासियों का आंदोलन

सन् 1857 की क्रांति के पूर्व भारत में कृषक वर्ग में भी व्यापक स्तर पर असन्तोष था, आदिवासियों के आन्दोलन ने अंग्रेजों के विरुद्ध आन्दोलन को मुखर वाणी दी. सबसे व्यापक आदिवासी विद्रोह छोटा नागपुर क्षेत्र में संथालों का पंच महल के जंगलों में निवास करने वाली नाईक दास नामक जनजाति को भी अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र आंदोलन करना पड़ा.

सन् 1857 की क्रांति के पूर्व चौबासा क्षेत्र के मुण्डा आदिवासी समुदाय में अंग्रेजी शासन के प्रति काफी नाराजगी थी, बाद में बिरसा मुण्डा ने मुण्डा आन्दोलन को उग्र किया. पूना के उत्तर-पश्चिम में आबाद कोली जाति की स्त्रियों को जरायम पेशा बनाने को मजबूर किया जाता था, इससे उनमें भारी असन्तोष था, कोली नेता होनया ने जबरदस्त आंदोलन चलाया.

कुन्बी जनजाति ने भी कोलियों की राह अपनाई. मद्रास प्रेसीडेंसी के अंतर्गत गोदावरी जिले में पहाड़ी क्षेत्र के रंपा आदिवासियों ने नये टैक्स और अंग्रेजी पुलिस के अत्याचारों के कारण रंपा विद्रोह करके पुलिस को नाकों चने चबवा दिये.

आंध्र प्रदेश के गौंड जन-जातीय समुदाय ने अपनी छीनी गई जंगली जमीनों के लिए अंग्रेजों से लोहा लिया. बाद में मध्य प्रदेश के गौंड आदिवासियों ने भी भारी विद्रोह किया. आदिवासी आंदोलन के ही कारण 1857 में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध दलितों, आदिवासियों, किसानों तथा नागरिकों में महान क्रांति का जन्म हुआ.

  1. क्या 1857 पहला स्वतंत्रता संग्राम था ? इससे पहले भी विद्रोह हुए हैं ? उन्हें स्वतंत्रता संग्राम क्यों नहीं कहा गया ? क्या इसके पीछे कोई साजिश या दुर्भावना थी ?
  2. दूसरा विवाद इस पर है कि यह स्वतंत्रता संग्राम था भी या नहीं और क्या यह साम्राज्यवाद के विरोध में लड़ा गया था अथवा यह मात्र स्वतःस्फूर्त सिपाही विद्रोह या धर्म युद्ध था, जिसके पीछे धार्मिक भावना सभ्यताओं का टकराव तथा राजा, महाराजा, नवाबों के व्यक्तिगत या निजी राजनैतिक स्वार्थ थे ?

नकारने की साजिश

मुख्य विवाद दो बिन्दुओं पर है- विद्रोहों की एक लम्बी श्रृंखला को नजरअंदाज कर केवल सिपाही विद्रोह को ही प्रथम स्वतंत्रता संग्राम घोषित करना, पर उसका स्वतंत्रता संग्राम होना ही संदिग्ध माना जाता है. यह निश्चत है कि 1857 के सिपाही विद्रोह के पहले भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह हुए थे और वे राजा महाराजाओं ने नहीं, बल्कि जनता की एक अनुसूचित जमात ने, जिन्हें आदिवासी कहते हैं, छेड़े थे.

ये विद्रोह कोई राज पाने के लिए नहीं थे. ये तो अंग्रेजों द्वारा लादी गई एक नई व्यवस्था व उसे लागू कराने के लिए अंग्रेजों तथा उनके कारिन्दों व दलालों की मार्फत किये गए जुल्मों व शोषण के खिलाफ, अपने बल-बूते पर अपने औजार और हथियारों से लैस आदिवासी जनता ने छेड़े थे. उनके पास अपनी समानता आधारित सामूहिक जीवन शैली और वैकल्पिक प्रशासनिक व्यवस्था तथा तौर तरीका था, जिसे वे बरकरार रखना चाहते थे.

यह एक निर्विवाद सत्य है कि 1857 से पहले झारखण्ड के आदिवासियों और महाराष्ट्र के खान देश ने विद्रोह का बिगुल फूका था, राजा-महाराजाओं ने नहीं, आम जनता ने. सन् 1857 के घोषित तथाकथित प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से पहले ही आदिवासी जनसमुदाय ने अपने-अपने स्तर पर अनेक हैरतअंगेज लड़ाइयां लड़ी थी. झारखण्ड में अंग्रेजों के विरुद्ध सबसे पहले विद्रोह सन् 1857 से 91 वर्ष पहले यानी सन 1766 में ही पहाड़िया लोगों ने शुरू कर दिया था, जो 1778 तक चला. फिर तो झारखण्ड में विद्रोहों की झड़ लग गयी.

संघर्ष का कारण

आदिवासियों के इलाकों के जंगल व जमीन पर राजा, नवाबों या अंग्रेजों का नहीं आदिवासी जनता का कब्जा था. राजा, नवाब तो उन्हें लूटकर चले जाते थे. वे उनकी संस्कति और व्यवस्था में दखल नहीं देते थे. अंग्रेज भी शुरू में वहां जा नहीं पाये थे. रेलों के विस्तार के लिए जब उन्होंने पुराने ‘मानभूम’ और ‘दामन–ए–कोह (वर्तमान संथाल परगना) के इलाकों में जंगल काटने शुरू किये और बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित होने लगे तो आदिवासी चौंके और मंत्रणा शुरू हुई. साथ ही साथ अंग्रेजों ने जमींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वे गांव जहां वे सामूहिक खेती करते थे, जमींदारों, दलालों में बांटकर राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों को नाराज कर दिया.

तब बड़े पैमाने पर वे लोग आंदोलित हुए. उस व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह शुरू हुए. आदिवासियों ने अपना शत्रु अंग्रेजों, उनके कारिंदों और दलालों को माना, जो अपनी नई व्यवस्था जबरन उन पर लागू कर रहे थे. ये युद्ध महाजनों और जमींदारों के खिलाफ, अंग्रेज अधिकारियों के खिलाफ यानी अंग्रेजों के हर प्रतीक के खिलाफ थे, चाहे वह उनका कार्यालय, थाना, कमिश्नरी हो या अधिकारी, कारिंदा, दलाल या गुमाश्ता अथवा सामन्त–साहूकार.

यह था आदिवासी जनता का विद्रोह ! इस संघर्ष में न धर्म था, न राजसत्ता की ललक. इसमें थी अपनी परम्परागत प्रशासनिक व्यवस्था को जारी रखने की चाह. संस्कृति, भाषा तथा मुक्ति की सुरक्षा की अभिलाषा. राज-पाट हथियाना उनका लक्ष्य नहीं था. इस जन विद्रोह या जनसंघर्ष को इतिहासकारों द्वारा दर्ज नहीं किया जाना एक षड्यंत्र था. यह विद्रोह देशी-विदेशी शोषकों के विरुद्ध धर्म संघर्ष भी था. इसमें जनता ने हर स्तर पर आदिवासी विद्रोहियों का साथ दिया था. तन, मन, धन, कपड़े-लत्ते, हरवे – हथियार, औजार एवं अस्त्र-शस्त्र सब दिये थे.

विद्रोहों की श्रृंखला

दरअसल ये विद्रोह ही स्वतंत्रता संग्राम के सोपान थे, जिन्हें आदिवासियों ने अपने परम्परागत संघर्षों की तरह लड़ा –

  1. प्रथम विद्रोह था झारखण्ड पहाड़िया लोगों का, सन् 1766 में रमना अल्हाड़ी के नेतृत्व में शुरू किया गया पहाड़िया विद्रोह. यह सन् 1778 तक चला.
  2. सन् 1781 में रानी सर्वश्वरी ने विद्रोह का झण्डा बुलंद किया.
  3. सन् 1784 को जनवरी के पहले सप्ताह में तिलका मांझी ने सैनिकों का जत्था लेकर भागलपुर समेत मुंगेर और संथाल परगना को जीत लिया. तिलका मांझी ने अंग्रेज कमिश्नर अगस्त स क्लीवलैण्ड को एक आदिवासी लड़की से बलात्कार करते हुए देख लिया और उसे तीर से मार गिराया था. बदले की भावना से अंग्रेजों ने आदिवासियों पर जुल्म किये. तिलका मांझी को गिरफ्तार कर चार घोड़ों से बांधकर सुल्तानपुर से भागलपुर तक घसीटते हुए ले गए और भागलपुर चौक पर पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी.
  4. विष्णु मानकी ने 1797 से 1798 तक अंग्रेजों के खिलाफ ‘बुंडू विद्रोह की कमान हाथ में ले ली. आदिवासियों और अंग्रेजों के मध्य यह संघर्ष दो वर्षों तक चलता रहा.
  5. सन् 1800 से 1808 तक आदिवासी विद्रोह की कमान दुक्खन मानकी के हाथों में थी. तमाड़ में विद्रोह की चिंगारी भड़का कर उसे ज्वालामुखी बना दिया.
  6. 1819 से 1820 तक तमाड़ में ‘मुण्डा विद्रोह’ चला.
  7. ’रूगदेव’ और ‘कोन्तामुण्डा’ ने कोल विद्रोह किया.
  8. 1820 में ही हो विद्रोह हुआ, जो बहुत लम्बे समय तक चला.
  9. 1828 और 1832 में पूनः बिन्दराय, सिंहराय के नेतृत्व में कोल विद्रोह हुआ. राजमहल पर कोलों ने कब्जा कर लिया.
  10. 1857 के पहले ही आदिवासियों ने अपनी स्वतंत्र सरकार का गठन कर लिया था.
  11. 1853-56 तक’ हु ल ब यार जितकार’, ‘हुल हेगल जितका’ के नारों के साथ ‘सिदो, कान्ह और चांद, भैरव मुर्मू नामक चार आदिवासी भाइयों के नेतृत्व में ‘संथाल हूल’ या ‘संथाल विद्रोह’ चला. इसमें दस हजार आदिवासी मारे गये.
  12. 1766 में शुरू हुए आदिवासियों के विद्रोह, 1853 में ‘संथाल विद्रोही अपने तेज तीखे तेवर पर पहुंच चुके थे. विद्रोह भीतर ही भीतर सुलग रहा था. इस बीच अंग्रेजों की राजस्व व्यवस्था, जमींदारी, ठेकेदारी, महाजनी, सूदखोरी के खिलाफ और जंगल, जमीन का हक पाने हेतु विद्रोह 1895 में हुआ, बिरसा के ‘ऊल गुलान’ 1900 तक जारी रहा.
  13. ये विद्रोह रुका नहीं, 1902 में अंतिम बार फिर भड़का संथाल विद्रोह आदिवासियों के युद्ध को खरबार, मांझी, कोरवा, तलंगर, खड़िया, गोंड और मुण्डाओं ने जारी रखा.
  14. सतपुड़ा की गोद में बसा पूरा ‘खान देश जो आदिवासी इलाका है, सन् 1825 से ही अंग्रेजों की खिलाफत करने लगा था. ये युद्ध बीसवीं सदी तक चलते रह  या गोली के बल पर अंग्रेज इस इलाके में शांति कायम नहीं कर सके.
  15. महाराष्ट्र के पुणे, नासिक तथा ठाणे क्षेत्र के आदिवासियों को भी अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम संघर्ष करने का श्रेय जाता है.
  16. मध्यप्रदेश में हजारों भीलों ने अंग्रेजों की सेना से 1878 में युद्ध लड़ा. हजारों लोग फांसी पर चढ़ा दिए गए.
  17. कर्नाटक में 19वीं सदी के शुरू में यानी 1824 के आस-पास ही रानी चेन्नमा ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ा. रानी चेन्नमा ने रानी झांसी से 33 वर्ष पहले अंग्रेजों से युद्ध किया था. रानी चेन्नमा ने भी अपने गोद लिए वारिस पुत्र को गद्दी दिलाने के लिए अंग्रेजों से विद्रोह किया था. उनकी गिरफ्तारी के बाद ये जन संग्राम बन गया.
  18. इसका नेतृत्व किया सांगोली के वीर धनगर आदिवासी रायन्ना ने, जो अंग्रेजी सरकार का कर संग्रहक था. 15 अगस्त को जन्मे रायन्ना को 26 जनवरी 1831 को अंग्रेजों ने फांसी दे दी.
  19. केरल में कुरूचिया आदिवासी लडे और तलक्कर ‘चंद्’ और वीरांगना नीली ने अंग्रेजों से लोहा लिया. वे फांसी पर चढ़ा दिए गए.
  20. आंध्र प्रदेश में 25 दिसम्बर 1922 को अल्लूरी सीताराम राजू ने अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा खोला, दर्जनों अंग्रेजों को मार गिराया. लड़ाई अंग्रेजों के खिलाफ थी, महाजनी के खिलाफ थी, शराब के खिलाफ थी और थी सत्ता विकेन्द्रीकरण करने हेतु परम्परागत पंचायती राज के लिए. इस लड़ाई में उपनिवेशवाद के विरोध की चेतना जग चुकी थी. गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ उल्लूरी के इस विद्रोह को गलत करार दिया. हैरत इस बात पर है कि गांधी की कांग्रेस और गांधी ने ‘उल्लूरी’ के मरने के बाद उनके विद्रोह को सराहा. ये दोमुंही भाषा सदियों से भारत में चली आ रही है और चल रही है. इसी कारण आदिवासी विद्रोह स्वतंत्रता संग्राम नहीं कहलाये और राजा, महाराजा स्वतंत्रता संग्राम के अगुवा घोषित कर दिये गए.
  21. भीमा गोंड भी आंध्रप्रदेश का वीर था, जिसने निजाम के खिलाफ भूमि के सवाल पर विद्रोह किया और फांसी चढ़ गये.
  22. पूर्वोत्तर में तो ईस्ट इण्डिया कम्पनी के समय से ही सरदारों और राजाओं ने विद्रोह किए.
  23. मेजर हैनीकर के साथ जैन्तिया के राजा का पहला युद्ध सन् 1774 से 1821 तक चला, जिसमें हजारों आदिवासियों को जान माल की क्षति उठानी पड़ी.
  24. ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों द्वारा सड़कों का मनमाना निर्माण करने और मेघालय की सीमाओं में जबरन घुसने के खिलाफ मेघालय में सुगबुगाहट शुरू हो गई. तिरोत सिंह ने अंग्रेजों का एग्रीमेंट नहीं माना 4 अप्रैल 1829 को अंग्रेजों ने उन पर हमला बोल दिया. आदिवासियों ने अंग्रेजों की पूरी चौकी का सफाया कर दिया. तीन वर्ष तक यह विद्रोह चला. तिरोत सिंह को नजरबंद कर दिया गया.
  25. मेघालय में अंग्रेजों ने मुर्दे दफन करने पर तथा उत्सव पर टैक्स थोप दिया, जिससे विद्रोह भड़का.
  26. यूकियांग नंगबाह ने 1861 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया. अंग्रेजों की कई पलटनें उसके खिलाफ गईं. उन्हें धोखे से गिरफ्तार कर लिया और हजारों लोगों को जबरन बुलाकर उनके सामने पेड़ पर फांसी दे दी.
  27. नागालैण्ड में अंग्रेजों से पांच माह तक आदिवासियों का युद्ध चलानागा लोग फिर संगठित होकर उन्नीस वर्ष तक अंग्रेजों से लड़ते रहे.
  28. आदिवासियों की ‘रानी रूपलियानी ने मिजोरम में 1889 में ऐलान कर दिया-‘हम अंग्रेजों को खदेड़ कर छोड़ेंगे. वह 1893 में गिरफ्तार हो गई. 1895 में जेल में उनकी मृत्यु हो गई.
  29. राजस्थान के गोविन्द गुरु ने विद्रोह किया, जिसमें 1500 आदिवासी एक ही रात में गोलियों से भून दिये गए. यह नरसंहार 17 नवम्बर 1913 को आनन्दपुरी के पास मानगढ़ की पहाड़ी पर हुआ.
  30. देश के भीतरी व सुदूर क्षेत्रों में आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ 1766 से 1945 तक लगभग दो सदियों तक लम्बा और निरंतर संघर्ष किया. 7 मई 1922 को विजयनगर मेवाड़, राजस्थान के पालछितरिया गांव में 1200 भीलों को गोलियों से भून दिया गया.

राजस्थान में आन्दोलन

राजस्थान में भील, मीणा, गरासिया आदि जनजातियां प्राचीन काल से रह रहीं हैं. ये जातियां यहां की मूल निवासी हैं. राजपूतों के राज्य स्थापित होने के पूर्व इन जातियों के छोटे-बड़े अनेक जनपद थे. मेवाड़ की रक्षा में वहां के भीलों ने सदैव महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यही कारण था कि मेवाड़ के राजचिन्ह में राजपूतों के साथ एक धनुर्धारी भील का चित्र अंकित था.

समय की धारा में ये जातियां पिछड़ गईं. उन्हें वनवासी, आदिवासी और कहीं-कहीं जरायम पेशा जातियां कहा गया. ब्रिटिश काल में देश के अन्य भागों की तरह यहां भी इनका शोषण होता रहा. राजपूतों को भय था कि ये जातियां संगठित होकर भील राज्य स्थापित न कर लें. राजपूतों ने इनके बड़े संगठन सम्प सभा के आयोजनों के विरुद्ध अंग्रेजों के कान भरने शुरू किए.

प्रति वर्ष की भांति सन् 1913 को मानगढ़ पहाड़ी पर सम्पसभा का विराट सम्मेलन हुआ, जिसमें भारी संख्या में भील शामिल हुए. मानगढ़ की पहाड़ी चारों ओर से ब्रिटिश सेना द्वारा घेर ली गयी. भीलों की भीड़ पर गोलियों की बौछार कर दीफलस्वरूप 1500 आदिवासी घटनास्थल पर ही शहीद हो गये. इनके गुरु गोविन्द और उनकी पत्नी को गिरफ्तार कर लिया गया. अदालत ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई. भारी विरोध के बाद बीस साल की सजा और फिर दस साल की सजा कर दी.

वर्ष 1921 में अंग्रेजी और रियासती फौजों ने भीलों के विद्रोह को दबाने के लिए नीमड़ा सम्मेलन में 1200 भीलों का संहार कर दिया, हजारों घायल हो गये. भील नेता तेजावत ने महात्मा गांधी की सलाह पर आत्मसमर्पण किया. उन्हें 7 साल जेल की सजा हुई. भील, मीणा, गरासियों ने देश की आजादी के लिए लगातार संघर्ष किया.

मीणा कभी राजस्थान की शासक जाति थी. खोहगंग, मांची, गेटोर, झोटवाड़ा, आमेर, भाण्डारेज, नरेठ, शोभनपुर आदि मीणाओं के जनपद थे. अंग्रेजों के सहयोग से देशी रजवाड़ों ने मीणाओं को दबाए रखा. अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करते समय डूंगरपुर राज्य पुलिस के हाथों नानाभाई खाट व भील कन्या काली बाई शहीद हो गये. आजादी के आंदोलन में भील व मीणाओं ने अंग्रेजों के साथ-साथ देशी रियासतों के साथ दोहरा संघर्ष किया.

आज़ादी की मशाल आदिवासियों ने जलाई

क्रांति में आदिवासियों और छोटे कस्बों के मूलनिवासियों का योगदान बहुत था. ज्यादतियों के खिलाफ पहली आवाज उसी वर्ग से उठी, जिसे हिन्दू आर्य हाशिए पर समझते हैं. समाज का वही वर्ग जो छोटे गांवों या दूर दराज के जंगलों के किनारों पर रहता है, वही अपने असंतोष को ऐसी आवाज और पहचान देने का साहस रखता है, जिसमें आगे चलकर पूरी व्यवस्था बदलने की ताकत होतीहै. आदिवासी मूलनिवासियों ने ही सबसे पहले आजादी की मशाल जलाई थी. आदिवासी दो सौ वर्षों तक अकेले लड़े.

सन् 1766 से 1902 तक आदिवासियों का संघर्ष लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक निरन्तर चला, जिसमें हजारों नहीं लाखों आदिवासी देश पर कुर्बान हो गये. याद रखने की बात है कि अंग्रेजों के विरुद्ध असन्तोष की चिंगारी सबसे पहले आदिवासियों में सुलगी. राख के ढेर में छिपी यह चिंगारी 1857 में पुनः सुलगी, किन्तु दबा दी गई और इसका अखिल भारतीय स्वरूप बीसवीं सदी के मध्य के ठीक कुछ वर्षों पहले उभरा.

आदिवासियों के श्रृंखलाबद्ध स्वतंत्रता समर पर आर्य हिन्दू इतिहासकारों ने दुर्भावनावश इतना नहीं लिखा, जितना लिखना चाहिए था, क्योंकि इतिहास को इतिहास लेखन धर्म से लिखा ही नहीं गया, अगर लिखा जाता तो आर्य हिन्दू नायक आदिवासी नायकों की कुर्बानियों के आगे बौने हो जाते.

आदिवासी विद्रोहों के कुछ परिणाम भी निकले. अंग्रेजों को बाध्य होकर आदिवासियों के लिए विशेष कानून बना कर उन्हें अपने तरीके से रहने की छूट देने हेतु विशेष प्रावधान करने पड़े. अंग्रेज यह समझ गए थे, कि वे उनसे लम्बी लड़ाई नहीं लड़ सकते.

आदिवासी गुरिल्ला लड़ाई में निपुण थे, जिससे अंग्रेज शांतिपूर्वक उन पर हुकूमत नहीं कर सकते थे. जमीन के कानून विभिन्न राज्यों में अंग्रेजों ने ही बनाए थे. सच तो यह है कि आदिवासियों का शोषण जितना आंतरिक उपनिवेशवाद के कारण आर्य हिन्दुओं ने किया, उतना अंग्रेजों ने नहीं किया. इसके बावजूद आदिवासी अंग्रेजों और उनकी व्यवस्था के खिलाफ अपनी व्यवस्था और संस्कृति को बरकरार रखने हेतु निरन्तर लड़ते रहे. रमणिका गुप्ता ने लिखा है –

अजीब विडंबना है कि शासन करने वाले, देश की रक्षा का बीड़ा उठाने का ढोंग करने वाले, हिन्दू शासक और उनकी जातियां व ऊंची बिरादरी के लोग बिकते रहे, झुकते रहे, लोभ में पड़कर देश को बेचते रहे, लेकिन वे आदिवासी लोग, जिन्हें इन्हीं शासकों व जातियों ने जंगलों, पहाड़ों में भागने को मजबूर करने और सभ्यता से दूर रखने की साजिश रची थी, आखिरी दम तक लड़ते रहे. वे मारे गए, पर लोभ में नहीं पड़े. ऐसे असंख्य गुमनाम आदिवासी वीर हैं, जिनमें से कुछ के नाम खोजे जा चुके हैं, ये वे वीर हैं, जिन्हें इतिहासकारों ने दर्ज करने लायक ही नहीं माना था, हालांकि वे ही अंग्रेजों के खिलाफ प्रथम स्वतंत्रता विद्रोहों के सूत्रधार थे, प्रेरक थे, जनक थे.

ब्रिटिश संसद के रिकार्ड के अनुसार गवर्नर जनरल की रिर्पोटों में यह बात दर्ज है कि ‘बागियों की तरह बूढ़ी औरतों और बच्चों का भी बलिदान कर दिया जाता है. उनको इरादतन फांसी नहीं दी गई, बल्कि गांवों में आग लगाकर उनको मार डाला गया.. और जो बचे रहे, उनको गोली मार दी गई.’

महिला सैनानी

स्वाधीनता आंदोलन में लोकगीतों के माध्यम से भी प्रेरणा दी गई थी. चाईबासा की सुशीला देवी सामंत ने स्वाधीनता आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में राष्ट्रीय भावना की कविताएं प्रस्तुत की थीं. भारत में आदिवासियों के प्रथम स्वाधीनता संग्राम की घटनाओं को और उनके वीर नायक और वीरांगनाओं को इतिहास की गुमनाम गलियों से दलित साहित्यकार ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हैं. एक दिन इतिहास में आजादी के प्रथम नायक आदिवासी ही कहलाएंगे, अब इतिहास को सच बोलना ही पड़ेगा.

अंग्रेजों के विरुद्ध स्वाधीनता से ग्राम में बिहार के छोटा नागपुर–संताल परगना का संघर्ष बड़ा महत्वपूर्ण था. सदियों से यहां के आदिवासी अपनी आजादी के लिए लड़ते रहे न केवल पुरुष, बल्कि आदिवासी महिलाओं का जुझारूपन भी स्तुत्य है. संताल महिलाओं ने भी ब्रिटिश शासन की खिलाफत करने में पूरा सहयोग दिया था, अंग्रेजों को वे सेता यानी कुत्ता कहती थीं. पिछड़ी जनजाति की महिलाओं ने स्वाधीनता के लिए तीखे तेवर दिखाए, यातनाएं सहीं पर अंग्रेजों के विरुद्ध अडिग रहीं.

‘संताल हुल’ आंदोलन में महिलाओं का योगदान कभी भुलाया नहीं जा सकता. सिद्धो, कान्हू, चांद और भैरो चार सगे भाइयों ने नेतृत्व संभाला. अंग्रेजों ने इनकी मां को उनका पता पूछने के लिए भारी यातनाएं दीं. भादो हेम्ब्रम व उसके पुत्र लाल हेम्ब्रम को पकड़ने के लिए उसकी मां को कड़ी सजा दी, घर जला दिया, वह भिखारिन हो गई. मोहा मरांडी की दादी और मां पुत्र को बलिदान करने के बाद भी संताल महिला–पुरुषों को संघर्ष के लिए प्रेरित करती रहीं.

मुण्डा आंदोलन में महिलाओं ने पुरुषों के बराबर संघर्ष में भाग लिया. सेनापति गया मुण्डा की पत्नी माकी, बेटा और पोता बहू नगी और घिगी बच्चों को गोद में बांध कर अंग्रेजों के विरुद्ध फरसा–बलुआ चलाती थी. बिरसा की एक शिष्या सैनिक बन कर सदैव साथ रहती थी. बिरसा आंदोलन में अनेक मुण्डा महिलाओं ने अपना खून बहाया, उनके बारे में इतिहास मौन है.

1912-14 में जतरा भगत ने ‘टाना आंदोलन चलाया. भगत के जेल जाने पर बट्कुरी परगने की देवमनिया उरांइन ने टाना संघर्ष का नेतृत्व किया. देवमनिया के नेतृत्व में ढाई लाख स्त्री-पुरुषों ने अंग्रेजों से संघर्ष किया. लाखों मारे गये लाखों घायल हो गये. हो महिलाओं की प्रेरणा से सिंहभूम निवासी जग्गू दीवान ने ‘हो-आंदोलन’ चलाया, जिसमें स्त्रियों ने पुरुषों के कंधे से कंधा मिला कर साथ दिया था.

मांझी आंदोलन से लेकर आजादी के आंदोलन (1766-1947) तक आदिवासी महिलाओं का योगदान सराहनीय था. भूमिज विद्रोह, पलामू का चेरा विद्रोह, सरदारी विद्रोह, ठाकुर विश्वनाथ साहदेव, गणपतराय, बुधु भगत का विद्रोह, संताल विद्रोह या बिरसा विद्रोह, सब में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आदिवासी महिलाओं की सहभागिता थी. खूटी क्षेत्र में आदिवासी महिलाओं का सुड़ा संगेन सैन्य संगठन था, जिसमें अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण दिया जाता था.

ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अनाचारों की काल रात्रि को सर्वप्रथम भेदने और उसके विरुद्ध विद्रोह का झण्डा उठाने का श्रेय मेवाड़ के भीलों को है. प्राचीनता की दृष्टि से भील यहां के आदिवासियों में अग्रणी हैं. मेवाड़ में जब महाराणा का राज्याभिषेक किया जाता था, तो सर्वप्रथम भील सरदार अपने अंगूठे को चीर कर अपने खून से महाराणा का राजतिलक करते थे. यही परम्परा जयपुर राजघराने की थी. वहां मीणा सरदार अंगूठा काट कर राजा का राज्याभिषेक करते थे. मेवाड़ और उसके दक्षिण पश्चिम के भोमट क्षेत्र डूंगरपुर, बांसवाड़ा व सिरोही रियासतों में भील बड़ी संख्या में आबाद हैं, जिनमें गरासिया आदिवासी जाति की संख्या अधिक है.

भीलों का सर्वप्रथम उल्लेख गुणाढ्य कृत ‘कथासरित्सागर में हुआ है. प्राचीन संस्कृत साहित्य में अनेक स्थानों पर भीलों का उल्लेख मिलता है, जिससे उनके इतिहास और संस्कृति की जानकारी मिलती है. ये ईश्वर भक्ति और धार्मिक भावनाओं से रहित परम्परागत जादू टोनों में और अपने ही बनाए कानूनों में विश्वास करते हैं. अपनी रीति-रिवाजों और परम्पराओं के प्रति संवदेनशील होने के कारण इनमें राज्य के बंधनों का विरोध करने की प्रवृत्ति आज भी विद्यमान है. आदिवासियों की अपनी प्राचीन परम्पराएं हैं, जिन्हें वे सदियों सदियों से संजाए हुए हैं.

प्रथम आंदोलन

भीलों का प्रथम आंदोलन तब शुरू हुआ था, जब मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह ने जनवरी 1818 की संधि कर ली, जो भीलों के हितों पर कुठाराघात थी. इससे भील क्रोधित हो उठे. जागीरदारों ने अपनी सेनाएं भंग कर दीं, उससे भील सैनिक बेरोजगार हो गये. यही नहीं मेवाड़ के ब्रिटिश पोलिटिकल एजेंट कर्नल जेम्स टॉड ने (तत्कालीन राजस्थान के इतिहास का लेखक) गांवों की चौकीदारी और यात्रियों की सुरक्षा के बदले गमेतियों (भील सरदारों) को ‘रूखाली’ और ‘भोलाई’ से प्राप्त होने वाली आय को समाप्त करवा दिया और भीलों पर नियंत्रण के प्रयास करने लगा.

सन् 1823 में भीलों ने दौलजी खींची के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया. ब्रिटिश सेनाएं भोमट पहुंची और दमन की कार्यवाही शुरू कर दी. अंग्रेजों ने 14 पुलिस थाने बनाए, जिन पर भीलों ने आक्रमण कर दिया. भीषण संघर्ष हुआ. विष बुझे भीलों के तीरों से अंग्रेज मारे गए और कुछ भाग खड़े हुए. अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने संधि कर ली और भील कोर रेजीमेंट की स्थापना की, जिससे राज्य का प्रबंध अंग्रेजों ने अपने हाथों में ले लिया और भीलों को अपनी सेना में ले लिया.

द्वितीय आंदोलन

सन् 1858 में भारत का शासन सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथों में चला गया और कई प्रशासनिक फेरबदल हुए. परम्परागत अधिकारों को आघात पहुंचा. अंग्रेजों ने भीलों के बिना भू-राजस्व दिये खेती करने और वनों से शहद, गौंद, लकड़ी के अधिकार समाप्त कर दिये. तम्बाकू, नमक, अफीम पर कर लगाये और शराब बनाने पर प्रतिबंध लगाया. भीलों से जबरन कर वसूले जाने लगे, अंग्रेज क़र अमानवीय व्यवहार करने लगे.

कर चुकाने के लिए भीलों को अपने बच्चों तक को बेचना पड़ता था. धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं पर भी प्रतिबंध लगे. सन् 1881 की जनगणना ने अनेक संदेह पैदा कर दिये. जब भीलों ने एक अधिकारी से गणना का कारण पूछा तब एक थानेदार ने कहा, ‘अब तुम्हारी औरतें नाटे के साथ नाटी और लम्बे के साथ लम्बी मिला कर बदल दी जायेंगी.’  इस घटना ने चिंगारी का काम किया. भीलों ने उस थानेदार और गणक दल को मार डाला.

मार्च 1881 ई. में पदोना गांव में पलिस अत्याचारों के कारण असंतोष का विस्फोट हुआ. बारापाल के थानेदार ने एक सवार भेजकर पदोना गांव के गमेती (भील सरदार) को गवाही देने थाने में बुलवाया. गमेती (सरदार) ने साथ जाने से मना कर दिया, तो सवार ने जबरदस्ती करने की कोशिश की तो भीलों ने उसे मार डाला.

गमेती को बाद में गिरफ्तार करके यातनाएं दी गई, जिससे वह मर गया. इससे क्रुद्ध भीलों ने पदोना और बारापाल पुलिस थानों पर हमला कर दिया. टीडी और कोटड़ा के भील भी विद्रोहियों के साथ मिल गए. थानों और चौकियों को जला दिया, सैनिकों को भी मार डाला. इस विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सेना आईं. भीलों ने भारी संघर्ष किया बाद में मेवाड़ के महाराणा के हस्तक्षेप से भील शांत हुए.

भीलों का आंदोलन मेवाड़ से फलीभूत होकर सम्पूर्ण राजस्थान में फैल गया. शोषित और उत्पीड़ित भीलों को गोविन्द गुरू के रूप में नया मसीहा मिल गया.

मानागढ़ का आदिवासी नरसंहार किसी जलियांवाला बाग काण्ड से कम नहीं था, बल्कि जलियांवाला बाग काण्ड से तीन गुणा अधिक था. जलियांवाला बाग काण्ड में 389 भारतीय शहीद हुए, जबकि मानागढ़ में 1500 से अधिक भीलों ने शहादत दी. मानागढ़ आदिवासी हत्याकाण्ड का जिक्र करना इसलिए जरूरी है कि इतने बड़े हत्याकाण्ड का विवरण इतिहास में साधारण घटना के रूप में किया जाता रहा है, जबकि जलियांवाला काण्ड का भारतीय इतिहासकारों ने अद्वितीय घटना के रूप में यशोगान किया है.

गोविंद गुरु के नेतृत्व में राजस्थान के डूंगरपुर से लेकर मध्य प्रदेश और गुजरात की सीमा तक आदिवासियों के आंदोलन की दुंदुभी बजी थी. इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य जमींदारों के शोषण, अंग्रेजी दमन और आदिवासियों के पैतृक संस्कारों में सुधार था. इस आंदोलन का केंद्र था राजस्थान और गुजरात सीमा के निकट आनंदपुरी के पास की मानागढ़ की वह पहाड़ी, जहां आदिवासियों की सभाएं होती थीं.

ब्रिटिश हुकमरानों का दमन, सामन्तों के शोषण एवं आदिवासियों की बुरी आदतों में सुधार करने के मुद्दों को लेकर धर्मगुरु गोविंद गुरु ने संपसभा (संप का अर्थ प्रेम भाव रखना एका करना) की स्थापना की. गोविंद गुरु वनवासियों के बीच गांव-गांव, जाकर सुधार के साथ अंग्रेजों की गुलामी और सामंतों के अत्याचारों के विरुद्ध विद्रोह की अलख जगाते थे. भील शोषण से मुक्ति के लिए कटिबद्ध हो गये, इससे जमींदारों और सामंतों को खतरा महसस होने लगा.

डूंगरपुर, बांसवाड़ा, कुशलगढ़, संतरामपुर और बारीया के राजाओं ने अंग्रेजों के कान भरने आरम्भ कर दिये. इन राजे-रजवाड़ों ने अन्य कई आरोपों के साथ आदिवासियों पर यह संगीन आरोप भी लगाया कि ये आदिवासी अंग्रेजों के खिलाफ एक अलग भील राज्य की स्थापना करना चाहते हैं.

गुरू गोविन्द का जन्म 20 दिसम्बर सन् 1858 में डूंगरपुर राज्य के बांसिया ग्राम में एक बनजारे के घर हुआ. इन्होंने थोडा अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लिया था. सन् 1883 में इन्होंने सम्पसभा की स्थापना की. इन्होंने डूंगरपुर, मेवाड़, ईडर, गुजरात, विजयनगर, मालवा तक के भील, मीणा गरासियों को संगठित कर लिया था.

इन जातियों का प्रथम अधिवेशन सन् 1903 में गुजरात के निकट मानागढ़ पहाड़ी पर किया, जो प्रति वर्ष होने लगा और तमाम जनजातियां उनके नेतृत्व में संगठित होने लगीं. आस-पास की रियासतों के शासक सहम उठे, उन्हें भय हो गया कि ये जनजातियां सुसंगठित हो कर भील राज्य की स्थापना करेंगी.

उन्होंने ब्रिटिश सरकार से प्रार्थना की कि भीलों के इस संगठन को सख्ती से दबा दिया जाये. 17 नवम्बर 1913 को मानागढ़ की पहाड़ी पर सम्प सभा का विराट अधिवेशन हुआ, जिसमें डेढ़ लाख की भारी संख्या में भील स्त्री-पुरुष शामिल हुए. मानागढ़ की पहाडी चारों ओर से ब्रिटिश सेना द्वारा घेर ली गई. उसने भीड़ पर गोलियों की बौछार कर दी.

1500 आदिवासी घटनास्थल पर ही शहीद हो गये और हजारों घायल हो गये, उनमें से कई बाद में मर गये. गोविंद गुरु और उनकी पत्नी को गिरफ्तार कर लिया गया. गोविन्द गुरु को अंग्रेजों की अहमदाबाद की अदालत ने फांसी की सजा सुनाई, जो भारी विरोध के बाद क़ैद में बदल दिया गया.

  • आदिवासी रविन्द्र सरदार

Read Also –

भूमकाल विद्रोह के महान आदिवासी क्रांतिकारी गुंडाधुर : हैरतंगेज दास्तान
आदिवासी समस्या

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लॉग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लॉग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

जनविरोधी व दमनकारी ऑपरेशन कगार बंद करने और शांति-वार्ता बहाल करने हेतु कन्वेंशन

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी के महासचिव बासवराज की हत्या भारत सरकार की पुलिस ने एक मु…