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मूल्यों के मरने पर जनमती हैं मूर्तियां

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मूल्यों के मरने पर
जनमती हैं मूर्तियां
अबकी बारी आपकी
प्रभु!
सरयू तट स्थापित होंगे
रुपए दो सौ करोड़ में
दुनिया भर में खड़ी
गगनचुंबी प्रतिमाओं की
नींव में दफ़्न हैं
सिद्धांत महापुरुषों के
पढ़ा है
आपके महल में भी थीं
प्रतिमाएं पूर्वजों की
पर इतनी भव्य तो नहीं
रघुवंशियों को प्रिय थी प्रजा
प्रतिमा नहीं
किंतु प्रजातंत्र में
प्रजा सिर्फ मतदाता
निर्णायक है सत्ता
और दंश सत्ता का
कौन जानेगा आपसे अधिक
किशोरावस्था में
ऋषियों की रक्षा
राक्षसों के संहार को
पठाए गए वन
राज्याभिषेक की जगह
चौदह वर्ष का वनवास
लौटने पर
सत्ता तो मिली
सीता चली गई
छली सत्ता के समक्ष
कितने असहाय थे आप
कि अंततः शरण ली
सरयू मैया की गोद में
उसी के तट
फिर उभारेंगे
गगनचुंबी प्रतिमा आपकी
शायद उतनी ऊंचाई से
देख पाओगे
दवाओं के अभाव में मरते
दुधमुंहे बच्चों को
शिक्षकों सुविधाओं के अभाव
भटकते लव कुशों को
धरती में प्रतिदिन समाती
सीताओं को
और रामनामी ओढ़े
रावणों को
मैं सोच सकता हूं
कितने असहाय होंगे
इस बार आप
अब तो
डूबने भर को
पानी भी नहीं होगा सरयू में
फिर भी
मैं रहूंगा आपके साथ
हर हाल में
भीतर की श्रद्धा मर जाती है
तब बाहर बनती हैं
मूर्तियां
विशालकाय

  • हूबनाथ पांडे

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