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‘कास्ट एंड रिवोलुशन’ : जाति उन्मूलन का एक क्रान्तिकारी नज़रिया

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‘कास्ट एंड रिवोलुशन’ : जाति उन्मूलन का एक क्रान्तिकारी नज़रिया
‘कास्ट एंड रिवोलुशन’ : जाति उन्मूलन का एक क्रान्तिकारी नज़रिया
मनीष आज़ाद

नक्सलबाड़ी आन्दोलन के दौरान जब कॉमरेड चारू मजूमदार के नेतृत्व में CPI [ML] की पहली कांग्रेस 1970 में हुई तो केन्द्रीय कमेटी के लिए चुने जाने वाले कामरेडों में से 90 प्रतिशत सवर्ण जाति से थे. 2004 में जब माओवादी पार्टी की स्थापना हुई तो सवर्ण जाति से आने वाले कामरेडों की संख्या घटकर 49 प्रतिशत रह गयी. 2016 में यह संख्या और ज्यादा घटकर महज 31 प्रतिशत रह गयी. यानि अब माओवादी पार्टी की केन्द्रीय कमेटी में 69 प्रतिशत आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग से आने वाले कॉमरेड थे.

अभी हाल ही में 21 मई को एक मुठभेड़ में मारे जाने वाले माओवादी पार्टी के जनरल सेक्रेटरी कॉमरेड केशव राव उर्फ़ बासवा राजू भी पिछड़े वर्ग से ही आते थे. सीतारमैया की गिरफ्तारी के बाद पीपुल्स वार पार्टी के जनरल सेक्रेटरी के.जी सत्यमूर्ति बने, जो दलित इसाई पृष्ठभूमि से आते थे.

उपरोक्त महत्वपूर्ण जानकारी इसी साल छप कर आयी किताब ‘कास्ट एंड रिवोलुशन’ (Caste and Revolution) में इसके लेखक एन. रवि (Ravi Narla) ने दी. कॉमरेड रवि खुद माओवादी आन्दोलन का हिस्सा रहे हैं और अपने 7 साल के जेल जीवन में उन्होंने माओवादी पार्टी के अनेक शीर्ष नेताओं से मुलाक़ात की है और उनसे लम्बी-लम्बी बातचीत की है. इसलिए इस किताब में लेखक ने बेहतरीन तरीके से माओवादी आन्दोलन के भीतर जाति को लेकर चल रहे चिंतन और उसके सामाजिक-राजनीतिक व्यवहार की बहुत ही वस्तुगत और संतुलित समीक्षा की है.

इस किताब में कुल पांच चैप्टर है. हरेक चैप्टर में जाति से जुड़े अलग-अलग पहलू को बहुत ही सरल शब्दों में लेकिन गहराई के साथ व्याख्यायित किया गया है.

पहले चैप्टर में लेखक ने अब तक का सबसे विवादास्पद विषय जाति और वर्ग के बीच के अंतरसम्बन्धों की बदलते हुए एतिहासिक सेटिंग में पड़ताल की है. लेखक का कहना है- ‘जाति एक खास तरह का वर्ग सम्बन्ध ही था जो भारत की खास परिस्थितियों में पैदा हुआ.’ [p-8]

डॉ. अंबेडकर के इस सूत्रीकरण कि जाति ‘बंद वर्ग’ (closed class) है, से एक हद तक सहमति जताते हुए वह इसे और विकसित किये जाने की बात करते हैं.

अंग्रेजों के आने के बाद जाति-वर्ग के अंतरसम्बन्धों में बड़ा बदलाव होता है. रवि बहुत स्पष्ट तरीके से इसे रेखांकित करते हैं- ‘जब अंग्रेज भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में घुसे तो इससे जाति-वर्ग संबंधों में बहुत से परिवर्तन हुए. इन्होने जाति-वर्ग की नजदीकी समरूपता को बाधित किया. इन परिवर्तनों में पिछले 6-7 दशकों में और भी तेज़ी आयी है और इससे स्थितियां वहां पहुंच गयी हैं कि अब कोई भी यह दावा नहीं कर सकता कि वर्ग और जाति एक ही है.’ [p- 8]

‘मेकिंग हिस्ट्री: द हिस्ट्री ऑफ़ कर्नाटक’ के लेखक साकेत राजन को उधृत करते हुए भारतीय सामन्तवाद की इसी विशेषता के कारण भारतीय सामन्तवाद को ‘जाति-आधारित सामन्तवाद’ या ‘जाति-सामन्तवाद’ की संज्ञा देते हैं.

जाति-वर्ग के बीच आये इस बदलाव के दूसरे महत्वपूर्ण कारण के रूप में लेखक ने पिछले करीब 150 सालों में चले जाति-विरोधी आंदोलनों और सामन्तवाद विरोधी आन्दोलनों का प्रमुखता से जिक्र किया है. इसका सूत्रीकरण करते हुए रवि कहते हैं- ‘जन-संघर्ष और पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली, इन दोनों ताकतों ने जाति और सामन्ती व्यवस्था में परिवर्तन लाने में एक दूसरे को प्रभावित और मजबूत किया.’ [p-9]

जमीन पर इसके ठोस बदलाव को चिन्हित करते हुए रवि लिखते हैं- ‘और इस प्रक्रिया में ये खेतिहर शूद्र जातियां उच्च जातियों के जातिगत उत्पीड़न से बाहर निकल आयी. 1947 तक, देश में लगभग हर जगह, इन शूद्र जातियों के कुछ हिस्से ग्रामीण अभिजात वर्ग के रूप में उभरे और ‘उच्च’ जाति की विरासत को संभालते हुए खुद जाति उत्पीड़क बन गए.’ [p-9]

लेखक का यह अवलोकन काफी महत्वपूर्ण है. 1947 के बाद दक्षिण भारत में दलितों पर जितने भी बड़े अत्याचार/हत्याकांड हुए हैं, वो सभी ‘पिछड़ी’ जातियों द्वारा अंजाम दिया गया है. हम उत्तर प्रदेश में भी देख सकते हैं कि गांवों में दलितों पर किये जाने वाले अत्याचार में यादव और कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों की भूमिका बढ़ती जा रही है.

इसी विश्लेषण के आधार पर लेखक आज के बहुचर्चित ‘बहुजन एकता’ के नारे को महज एक भ्रम मानते हुए इसकी व्यवहारिकता से इंकार करते हैं. सच तो यह है कि एक समय खुद डॉ. अंबेडकर भी इसका प्रयास कर चुके थे. इस प्रयास में वे सहजानंद सरस्वती और पेरियार से मिल रहे थे. (सहजानंद सरस्वती हालांकि खुद भूमिहार जाति के थे, लेकिन उनके किसान संगठन में मुख्यतः पिछड़ी जाति के किसान ही थे) लेकिन उन्हें उस समय भी असफलता ही हाथ लगी थी, क्योंकि उस वक़्त भी पिछड़ी जातियों के अंदर आर्थिक वर्गीकरण तेज़ होने लगा था. जबकि दलितों में यह न के बराबर था.

1947 के बाद मुख्यतः आरक्षण व कुछ अन्य वजहों से दलितों के अंदर भी एक छोटा ही सही लेकिन एक मध्य वर्ग पैदा होने लगा. जिसके अपने वर्ग हित व जटिलताएं थी.

मार्क्सवादी खेमे में आधार-अधिरचना की बहुचर्चित बहस में हस्तक्षेप करते हुए लेखक स्पष्ट तौर पर कहते हैं कि जाति आधार और अधिरचना दोनों का हिस्सा हैं, जिसे शुरूआती कम्युनिस्ट अपनी संशोधनवादी लाइन के कारण समझ नहीं पाए.

जाति प्रश्न के बारे में डॉ. अंबेडकर के योगदान को रेखंकित करते हुए लेखक ने बहुत स्पष्ट तौर पर कहा है कि जाति और इसके उन्मूलन के सवाल को जिस तरह से उन्होंने समाज में स्थापित किया वह अभूतपूर्व था. लेकिन इसके साथ ही वे इस बात को भी रेखंकित करते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने जाति के सवाल को जाति आधारित सामन्ती/अर्धसामंती उत्पादन संबंधों में खोजने की बजाय हिन्दू धर्म और धार्मिक ग्रंथों तक सीमित कर दिया. यानि जाति उन्मूलन के सवाल को जमीन के सवाल से नहीं जोड़ा. बाद के दलित/अंबेडकरवादी आन्दोलन भी इस सीमा को तोड़ नहीं पाए.

हालांकि भूमि के राष्ट्रीयकरण की बात जरूर डॉ. अंबेडकर ने की है. लेकिन इसे कौन सी सामाजिक शक्तियां अंजाम देगी, इस पर डॉ. अंबेडकर ने कुछ नहीं कहा है.

कम्युनिस्टों/नक्सलवादियों के साथ दलित/अंबेडकरवादी आन्दोलन के जुड़ाव में यह एक मुख्य बाधा बनी रही. कामरेड रवि साफ़ साफ़ लिखते हैं कि कम्युनिस्टों/नक्सलियों ने समय के साथ अपने अनुभवों से सीखते हुए जाति के सवाल पर अपनी गलतियों को काफी हद तक दुरुस्त कर लिया है. लेकिन अंबेडकरवादी अभी भी अधिरचना में ही भटक रहे हैं. (यह मजेदार है कि यही अंबेडकरवादी कम्युनिस्टों/नक्सालियों पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वे जाति को सिर्फ आधिरचना का प्रश्न मानते हैं.)

किताब का अंतिम चैप्टर ‘आनंद तेलतुम्बे’ की बहुचर्चित किताब ‘खैरलांजी: ए स्ट्रेंज एंड बिटर क्रॉप’ की लेखक द्वारा की गयी शानदार समीक्षा है. इस समीक्षा के बहाने लेखक ने अपनी उपरोक्त प्रस्थापना की पुष्टि की है. महाराष्ट्र के भंडारा जिले के एक गांव की यह घटना है. जिस परिवार के साथ यह क्रूर अत्याचार हुआ वे महार जाति के थे. और अत्याचार करने वाले कुनबी नामक पिछड़ी जाति के थे. उस इलाके में ज्यादातर जमीने इसी जाति के लोगों के पास हैं.

जब यह हत्याकांड अंजाम दिया गया तब उस वक़्त लगभग सभी प्रशासनिक पदों पर दलित बैठे थे. भंडारा जिले के एस पी, डी एस पी, सम्बंधित थाने के सब इंस्पेक्टर, एरिया कांस्टेबल, पोस्टमार्टम करने वाले सिविल सर्जन और जूनियर डॉक्टर सभी दलित थे और इनमें से ज्यादातर खुद महार जाति के थे. लेकिन इसके बावजूद पीड़ित महार परिवार को इसका कोई लाभ नहीं मिला. रवि कहते हैं- ’दलितों के लिए यह उम्मीद करना कि राज्य मशीनरी में उनकी जाति से किसी के बैठने से राज्य का चरित्र बदल जायेगा, मासूमियत के सिवा और कुछ नहीं है.’ [p-97]

इस लेख के अंत में आनंद तेलतुम्बे से अपनी सहमति व्यक्त करते हुए, एक तरह से उपरोक्त विमर्श का निचोड़ पेश करते हुए रवि साफ-साफ कहते हैं- ‘जाति चेतना, जाति पहचान, और जाति पहचान पर आधारित आन्दोलन की जमीन पर खड़े होकर जाति का उन्मूलन संभव नहीं हैं.’ [p-101]

इस किताब का तीसरा चैप्टर ‘कास्ट- थ्योरी एंड प्राक्सिस ऑफ़ दी रेवोलुशनरी मूवमेंट’ काफी महत्वपूर्ण है. इसमें लेखक ने जाति के सवाल पर बहुत ही संक्षेप में लेकिन सूत्रवत कम्युनिस्ट आन्दोलन की (विशेषरूप से नक्सलबाड़ी/माओवादी आन्दोलन की) एक सरसरी लेकिन महत्वपूर्ण समीक्षा की है.

बिना किसी लाग लपेट के लेखक सीपीआई के दो महासचिवों के बारे में साफ़-साफ़ लिखते हैं- ‘पी.सी जोशी और एस.ए डांगे जैसे लोग अपना ब्राह्मणवादी नजरिया त्याग नहीं पाए.’[p- 50] इससे मुझे एक घटना याद आ रही है. डांगे के दामाद ने वेदों की प्रशंसा में एक किताब लिखी थी. इसकी भूमिका डांगे ने लिखी थी. इसमें डांगे ने अतीत का गैर-वैज्ञानिक गौरवगान किया था. इसको लेकर पार्टी में कुछ विवाद भी हुआ था.

इसी तरह पी.सी जोशी के नेतृत्व में 1942 में सीपीआई की दूसरी कांग्रेस हुई तो कांफ्रेंस-हाल में नेहरु-गांधी की भी तस्वीर लगी थी. इससे उस वक़्त की सीपीआई का वैचारिक दिवालियापन उजागर होता है. ऐसे में सीपीआई से जाति प्रश्न पर सही अवस्थिति लेने की उम्मीद कैसे की जा सकती है.

जाति-सवाल के सार को पहली बार नक्सलवादी आन्दोलन के दौरान पकड़ा गया. चारू मजुमदार का नारा कि गरीब और भूमिहीन किसानों से घुल मिल जाओ, इसी ओर इशारा करता है क्योंकि गरीब-भूमिहीन किसान का बहुतायत दलितों का था. इस दौरान जमीनी स्तर पर सामन्तवाद-विरोधी संघर्ष के अभिन्न अंग के रूप में कई जाति-विरोधी या दलित उत्पीड़न के खिलाफ भी ऐक्शन हुए.

लेकिन यहां भी रवि इस बात को चिन्हित करने में नहीं हिचकते कि गांधी के प्रति अत्यधिक आलोचनात्मक होते हुए भी सीपीआई (एमएल) के नेतृत्व ने अपने साहित्य में उनका ‘हरिजन’ शब्द अपना लिया. जबकि डॉ. आंबेडकर द्वारा प्रयुक्त ‘दलित’ शब्द चलन में आ चुका था. हालांकि बाद के नक्सलवादी आन्दोलन ने यह गलती सुधार ली और अब वहां दलित शब्द का ही इस्तेमाल होता है.

इसके बाद कामरेड रवि विस्तार से बताते हैं कि जाति के बारे में सिद्धांत और व्यवहार के स्तर पर मुकम्मल समझ नक्सलवाद के दूसरे दौर में विशेषकर 1977 के बाद बननी शुरू हुई. वे बताते हैं कि पीपुल्स वार पार्टी द्वारा प्रस्तुत (1979) कृषि क्रांति दस्तावेज में पहली बार जाति के सवाल पर विस्तृत चर्चा हुई.

इसके बाद 2004 में माओवादी पार्टी के गठन के समय जाति और जाति-उन्मूलन के सवाल पर ‘परिप्रेक्ष्य दस्तावेज’ पेश किया गया जो एक तरह से अब तक के नक्सल आन्दोलन के व्यवहार और सिद्धांत का निचोड़ था. 2007 में माओवादी पार्टी के एकता कांग्रेस में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पास हुआ था कि किस तरह से दलितों, आदिवासियों, और दूसरी दलित जातियों व अल्पसंख्यकों को नेतृत्व में लाया जाय.

इस वैचारिक यात्रा के साथ साथ लेखक जाति के मोर्चे पर उन शानदार उपलब्धियों का भी जिक्र करना नहीं भूलते जो जाति-उन्मूलन की लड़ाई में नक्सलियों/माओवादियों को अग्रिम कतार में खड़ा करती है. इसमें महत्वपूर्ण है बिहार में सवर्णों की निजी सेनाओं (जैसे सनलाईट सेना, ब्रह्मर्षि सेना, रणवीर सेना आदि आदि) का नक्सलियों/ माओवादियों द्वारा खात्मा.

नक्सलवादी/माओवादी आन्दोलन के कारण भले ही दलितों का आर्थिक तौर पर बहुत भला न हुआ हो, लेकिन दलितों के आत्म सम्मान के लिए इस आन्दोलन का योगदान अप्रतिम है. और इसका प्रधान कारण यही है कि नक्सलियों/माओवादियों ने जमीन के मुद्दे को केंद्र में रखते हुए (‘लैंड टू द टिलर’) दलितों और अन्य शोषितों को लामबंद किया. दलितों की 90 प्रतिशत से ज्यादा आबादी भूमिहीन है. नक्सलियों/माओवादियों ने अपने क्रांतिकारी व्यवहार से यह साबित कर दिया है कि ‘दलित सवाल अपने मूल में एक वर्गीय सवाल ही है.’ [p-59]

इस किताब का चौथा चैप्टर संविधानवाद पर है. इसमे लेखक ने बहुत ही शानदार तरीके से सामान्य और विशिष्ट रूप में भारतीय संविधान की समीक्षा की है और इसके निर्माण में डॉ. अंबेडकर की वस्तुगत भूमिका की भी चर्चा की है.

‘18 वीं ब्रुमेर’ में मार्क्स के विश्लेषण की रोशनी में रवि कहते हैं- संविधान एक तरह से वर्ग संघर्ष की ही देन होता है और इसमें कई सामाजिक रिश्तों की भूमिका होती है. इसी अर्थ में डॉ. अंबेडकर और दूसरे प्रगतिशील-जनवादी ताकतों ने जनता की तत्कालीन जागरूकता को संविधान में अधिकारों के रूप में सूत्रबद्ध करने में अपनी महती भूमिका निभाई.

इसी के साथ लेखक ने संविधान के साथ डॉ. अंबेडकर के अटूट रिश्ते के मिथक को खुद डॉ. अंबेडकर को ही उद्धृत करते हुए तोड़ डाला. यह मिथक भी आज दलित आन्दोलन के पैरों की बेड़ी बन चुका है. 3 सितम्बर 1953 को राज्य सभा में बोलते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा- ‘मेरा उत्तर यह है कि मैं संविधान का निर्माता नहीं हूं, मैं एक अपरिचित राजनीतिक व्यक्ति हूं. मुझसे जो भी कहा गया वो मैंने अपनी इच्छा के विरुद्ध जाकर किया.’  [p-80]

किताब में अनेक जगहों पर इस बात पर अत्यधिक जोर दिया गया है कि सामंतवाद विरोधी आन्दोलनों, जाति विरोधी आन्दोलनों (विशेषकर दक्षिण का ब्राह्मणवाद विरोधी आन्दोलन), सीमित जमींदारी उन्मूलन और गांवों में पूंजीवाद के प्रवेश ने लगभग सभी जगह गांवों में ‘ऊंची’ जाति के लोगों को जमीन के स्वामित्व से बेदखल कर दिया है. और उनकी जगह विभिन्न पिछड़ी जातियों से निकले छोटे से अभिजात्य वर्ग ने ले ली है. यहीं वर्ग आज दलित उत्पीड़न का मुख्य स्रोत है.

लेखक की यह समझ दक्षिण के लिए तो सच हो सकती है, लेकिन उत्तर भारत (विशेषरूप से उत्तर प्रदेश) के लिए यह सच नहीं है. यहां पर गांवों में अभी भी ब्राह्मण, ठाकुर और भूमिहारों के पास ठीक ठाक जमीनें हैं और ये जातियां पिछड़ी जातियों के सामन्ती तत्वों के साथ मिलकर गांवों के दलितों का बड़े पैमाने पर उत्पीड़न करती हैं. हमने ‘गांव चलो अभियानों’ के दौरान इसे खुद देखा है और आंकड़े भी इसकी गवाही देते हैं.

आज जब माओवादी आन्दोलन को यह सरकार पूरी तरह से कुचलने पर आमादा है तो ऐसे में जाति के सवाल पर उनकी वैचारिक-व्यवहारिक उपलब्धियों को समझना बहुत जरूरी है. और यह आत्मसात करना भी बहुत जरूरी है कि माओवाद को ख़त्म करने के नाम पर किन विचारों को कुचलने का प्रयास किया जा रहा है. और यह विचार हमारे सामन्ती समाज के जनवादीकरण के लिए कितने जरूरी हैं.

इस महत्वपूर्ण किताब को हैदराबाद स्थित ‘चेंज पब्लिकेशन्स’ ने छापा है और इसका मूल्य महज 150/- रूपये हैं. यह किताब फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध है. आप इस +91 70326 68635 पर वाट्सअप करके भी किताब प्राप्त कर सकते हैं. इसके साथ ही इस लिंक पर भी क्लिक करके किताब का ऑर्डर कर सकते हैं.

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