'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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कविताएं

कैसे हो मिर्ज़ा ?

पचहत्तर के बोयाम में पांव घिसते हुए जिस क्षरण से तुम वाक़िफ़ हो सत्य की वह गंगा अब किसी पांच सितारा होटल के नीचे बहते गटर में समा गई है इस शेरवानी और टोपी में तुम एक चलन के बाहर का सिक्का दिखते हो क्या इतना भी नहीं मालूम तुम्हें तुम्हारे दोस्त अब हाईवे के समानांतर बने परित्यक्त, जर्जर पुल …

आदमी

आदमी बुन लेता है सपने बना लेता है घरौंदा तोड़ देता है कई दिवारें बनाते हुए अपने इर्द-गिर्द कई दिवारें प्यार करता है धोखा खाता है फिर से प्यार करता है और अंत तक ज़िंदा रहने की जुगत में रहता है चाहे इसके लिए उसे अपने पिछले प्रेम में जफ़ा ही क्यों न ढूंढना पड़े आदमी झूठ के सहारे ही …

सुब्रतो चटर्जी की दो कविताएं

हर रोज़ समंदर की तरफ़ खुलती है एक हत्यारी खिड़की और वो लड़की अपनी तर्जनी के पोर में समेटकर एक चुटकी अमावस खींच लेती है दो रेखाएं उसे यक़ीन है दुनिया के मटमैले मानचित्र को देखने में मददगार है अमावस का टुकड़ा हत्यारी खिड़की बहा ले जाती है उसे उसके खुले बाल बर्फीली आंधी में बची उष्मा की तरह चिढ़ाती …

प्रेम की अधूरी कविताएं

दोस्त कहते हैं – प्रेम पर कविता क्यों नहीं लिखते ? मैं दिखाता हूं उन्हें कई डायरियां, कुछ भरी, कुछ अधूरी आड़े – तिरछे रेखाचित्रों से सजे पन्ने प्रेम कविताओं के …. जिनमें से बहुत कम ही हैं जो पूरी हो सकीं डायरी के पन्ने के बीच रखे गुलाब की पंखुड़ियां सूख कर झड़ चुकी थीं बचा हुआ था एक …

मेरे पिताजी का चश्मा…

बिस्तर कपड़े जूते चप्पल छाता लाठी सबकुछ दान में जाने के बाद बारी आई चश्मे की पिताजी का चश्मा जो उनकी मोतियाबिंद भरी आंखों को 6/6 की दृष्टि देने की कोशिश में घिसटते हुए घिस गई थी और कचकड़े के फ़्रेम से इस क़दर चिपकी थी जैसे ढोर के बदन से लीच किसे देता किसे ज़रूरत थी मेरे आस पास …

मैं ईश्वर नहीं बनना चाहता

मैं ईश्वर नहीं बनना चाहता मैं ईश्वर का अवतार भी नहीं बनना चाहता क्यों कि ईश्वर और उनका अवतार बनने के लिए मुझे दास की ज़रूरत होगी और दास प्रथा के विरुद्ध हूँ मैं मुझे नहीं चाहिए कोई भी छोटी लकीर अपने नीचे मैं चाहता हूं कि जो भी वृत्त मेरी परिधि से निकले बड़ा और बेहतर हो मुझसे पूर्णाहुति …

हिंदू राष्ट्र में हम कहां ?

आपके हिंदू राष्ट्र में चमार कहां रहेंगे ? हमारी जूती के नीचे, मरी गायों के पीछे, अकेला में रहेंगे ! आपके हिंदू राष्ट्र में अहीर कहां रहेंगे ? हमारे महल के पीछे, बाग बगियन के नीचे, तबेला में रहेंगे ! आपके हिंदू राष्ट्र में गडेरिया कहां रहेंगे ? हमारी ऊनी गद्दी के नीचे, अपने भेड़ों के पीछे, रेला में रहेंगे …

यहां उजालों के अंधेरे हैं

ग्रीन रूम में मसखरा उतार रहा है चेहरे का रंग रोगन लाल लाल होंठों और नाक के नीचे से उभर रही है एक उथली हुई बदबूदार लाश गिद्ध की आंखों का मोतियाबिंद उसे घ्राण के सहारे जीने को बाध्य करता है मसखरा सूंघ लेता है लाश और ढाल लेता है लाशों को टकसाल में आख़िर खून में व्यापार है कुछ …

दुर्भिक्ष

नदियों की लपलपाती जीभ सूखे चट्टानों के तालु में सट गई है आग ढोती हवाओं में मनुष्य की घृणा का समायोजन सिंफ़नी के नौवें सुर को सर के बल खड़ा कर दिया है हरेक उल्टी तस्वीर शांत झील में पड़ रहे देवदारु के अचल वृक्ष नहीं होते आदमी जब सिक्कों सा जम जाता है ख़ून की लकीर पर मसान यात्रियों …

हाशिये पर…

और इस तरह धीरे धीरे उन्होंने धकेल दिया मुझे हाशिये पर फुटपाथ की ज़िंदगी पर छपे रिसालों में छपी हुई मेरी कविताएं चकले पर रात बीताने वालों को पसंद नहीं आई ये और बात है कि आमदनी घटने के बाद ज़्यादातर लोगों ने यहां अपने घरों को ही मुफ़्त का चकला समझ लिया जहां आदमी का शरीर बस एक कशकोल …

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