'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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कविताएं

आमरण अनशन

अन्न पाणी त्याग थोड़ा-थोड़ा मरने से हुक्मरान की संवेदनाएं लौट आएंगी मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है मैं हवा में बातें नहीं कर रहा मैं देख रहा हूं बस्तर के जंगलों में छोटे छोटे बच्चों के हाथों की ऊंगलियां कटते हुए उनके गले और सिर में गोलियां लगते हुए धान काटने गये किसानों को फर्जी मुठभेड़ में मरते हुए छोटी-छोटी बच्चियों …

भेड़िये

  वे भेड़िये हैं भोले भाले भालू नहीं हैं कि मेरे शांत, स्पंदनहीन, सर्द शरीर को देख कर आगे बढ़ जाएं वे मुर्दों को भी खाते हैं मैं तो फिर भी ज़िंदा हूं इसलिए, वे मेरी सर्द त्वचा में अपने दांतों को गड़ा कर ढूंढ लेंगे उसके नीचे बहते हुए मेरे गर्म लहू को और मेरा निष्क्रिय निरपेक्ष होना कोई …

कवि रघुवीर सहाय के जन्मदिन पर – ‘विचित्र सभा’

एक सभा हुई उसमें आंदोलन के नेता बुलाये गये पहले वे आ नहीं रहे थे फिर आ गये क्योंकि मैं भी सभा के पक्ष में था सभा अन्त होने लगी तब बाजा बज उठा, उसके बन्द होते ही मंच पर अंधेरा हुआ और मंच पर बैठे लोगों के पीछे आकृतियां खड़ी हो गयीं रोशनी पीछे थी आकृतियां काली थीं उन्होंने …

लोहे के पुल

लोहे के पुल लोहे की ज़ंजीरें भी थीं वक़्त के साथ टूट गए बहते हुए पानी में गला कर अपना लोहा अब एक परछाईं सी उभरती है नीचे रेत में मुंह छुपाती हुई नदी में वो नदी जिसमें कभी प्रगाढ़ होती थी तुम्हारी छाया घनाती हुई सांझ के साथ साथ अल्बम ने तो बहुत कोशिश की थी अपनी चौहद्दी में …

जलभूमि

जलभूमि जीवन का सोच्चार चीत्कार है तुम्हारे अरदास के पलटते पन्ने परिंदों के पंख के परवाज़ अदिती क्यों बार बार मैं विघ्न डालता हूं तुम्हारी पूजा में मुझे तो मालूम है सूर्यास्त का सच क्रौंच वध की बेला में छूट गए जो वाण अनायास शक्ति की संहिता में एक पन्ना मेरा भी हो इसी अथक प्रयास में घूर्णी में आत्मसात …

गिर

गिर और गिर गिरता जा निचाइयां अतल हैं गिरने का साहस तुझमें गजब है गिर और गिर अबे और गिर ओ मूर्ख रुक मत सांस मत ले चड्डी गिरने की परवाह मत कर गिर गिरनेवाले की नंगई कौन देखता है रे तू तो गिर अरे जब तूने गिरने का व्रत लिया है तो फिर ईमानदारी से गिर कैमरे पर गिरता …

चरवाहा

चरवाहा देश के बारे में नहीं जानता प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के बारे में नहीं जानता पर चरवाहा जंगल के बारे में जानता है पेड़ों के बारे में जानता है यहां बहने वाली नदियों के बारे में जानता है अपनी बकरियों, गायों और भैंसों के बारे में जानता है यहां रहने वाले लोगों के बारे में जानता है उसके लिए इन …

क्रांति का रास्ता खेतों से हो कर ही जाता है !

किसानों को देख कर लगता है कि क्रांति होगी चाहे वो किसान बस्तर का हो या पंजाब का इनकी बात ही कुछ और है जब ये सत्ता से टकराते है तो चिंगारी निकलने लगती है जो काफी है जंगल में आग लगा देने के लिए इस चिंगारी को दावानल बनाना ही मेरा काम है मुझे कविता के लिए शब्द इस …

प्रह्लाद

प्रह्लाद तुम्हारा नहीं उसका है बेटा तुम्हारा तुम्हारे नाम भर का है वह न तुम्हारा न तुम्हारे हित का रहा पूरी तरह अब वह उसके हित साधनमें है पूरी तरह उसके छलावे में है अफ़ीम की उसने कुछ ऐसी मस्करी गोली खिलायी है कि वह भूल गया है बाप बेटे के बीच का रिश्ता तुम्हारा दुश्मन अब उसका ख़ास अपना …

लौट आओ…

मैं जिस बसंती का हाथ थामे एक रंग बिरंगे जंगल में समाना चाहता हूं वहां तुम्हारी चाहतों का एक चिपचिपा सा लेप मौसम की पहली मंजरी सा आम के डंठल पर टिकने को बेक़रार है आम के गाल पर टपके हुए आंसू प्रेम के अतिरेक से उपजे हुए स्वेद हैं यह और बात है कि किसान की भूख और आम …

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