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शांति वार्ता का झांसा देकर सीपीआई (माओवादी) के महासचिव बासवराज का हत्या किया मोदी-शाह गिरोह ने

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शांति वार्ता का झांसा देकर सीपीआई (माओवादी) के महासचिव बासवराज का हत्या किया मोदी-शाह गिरोह ने
शांति वार्ता का झांसा देकर सीपीआई (माओवादी) के महासचिव बासवराज का हत्या किया मोदी-शाह गिरोह ने

28 जुलाई, 1972 को (20 हज़ार से अधिक बंगाली युवाओं की क्रूरता से हत्या करने के बाद) माओवादी आंदोलन के प्रथम महासचिव चारु मजूमदार की पुलिस हिरासत में हत्या कर दी गई थी. अब तक़रीबन 50 साल बाद एक बार फिर 21 मई, 2025 को माओवादी आंदोलन के महासचिव बासवराज की पुलिस ने मुठभेड़ में हत्या कर दी.

नंबाला केशव राव, जिन्हें बासवराज या बसवराजू के नाम से जाना जाता है, सीपीआई (माओवादी) के महासचिव थे. उनका जन्म 10 जुलाई 1955 को आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम में हुआ था और वे 21 मई 2025 को छत्तीसगढ़ में मारे गए. वे विस्फोटकों और सैन्य रणनीति के विशेषज्ञ थे. उनकी मौत माओवादी आंदोलन के लिए एक बड़ा झटका तो ज़रूर है लेकिन इसकी दीर्घकालिक प्रभाव पर बहस जारी है.

व्यक्तिगत और शैक्षिक पृष्ठभूमि

बासवराज का जन्म एक साधारण परिवार में हुआ था और उन्होंने वारंगल के क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज से बी.टेक की डिग्री हासिल की. वे वामपंथी छात्र राजनीति में सक्रिय थे और 1980 में माओवादी आंदोलन में शामिल हुए. 2018 में वे सीपीआई (माओवादी) के महासचिव बने. उनकी जीवनयात्रा और योगदान माओवादी आंदोलन के संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं.

शारीरिक रूप से, बसवराज लगभग 6 फीट लंबे थे, गेहुआं रंगत वाले, और चेहरे पर दाढ़ी नहीं रखते थे. वे अपने बालों को नियमित रूप से रंगते थे और एक एके-47 लिए रहते थे. वे अबूझमाड़ और एओबी जोनल कमेटी क्षेत्र में रहते थे, और उनकी चाल तेज थी, चलते समय दोनों तरफ झूलते थे.

उनके सिर पर 2.02 करोड़ रुपये का इनाम था, और वे राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) की सबसे वांछित सूची में शामिल थे. छत्तीसगढ़ सरकार ने केंद्रीय कमेटी और पोलित ब्यूरो के सदस्यों के लिए 1 करोड़ रुपये का इनाम घोषित किया था.

बासवराज 1979 में, वे वारंगल के आरईसी में एक संघर्ष के लिए गिरफ्तार हुए, जिसमें एक छात्र की मौत हुई थी, लेकिन उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया. 1980 के दशक की शुरुआत में, वे विशाखापत्तनम में अय्यप्पा दीक्षा भेष में पकड़े गए, लेकिन भागने में सफल रहे. वे 28 साल से भूमिगत थे.

बासवराज का जन्म 10 जुलाई 1955 को आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के जियानापेटा में एक साधारण परिवार में हुआ था. उन्होंने वारंगल के क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज (अब एनआईटी) से 1980 में बी.टेक की डिग्री हासिल की. वे वॉलीबॉल में आंध्र प्रदेश का राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व कर चुके थे और अपने छात्र जीवन में वामपंथी छात्र राजनीति में सक्रिय रहे. 1980 में, वे सीपीआई (एमएल) पीपुल्स वॉर में शामिल हुए, जो बाद में सीपीआई (माओवादी) बन गया.

संगठनात्मक भूमिकाएं और नेतृत्व

बसवराज ने सीपीआई (माओवादी) में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया, जिसमें प्रमुख है –

– केंद्रीय सैन्य आयोग (सीएमसी) के कमांडर इन चीफ
– दंडकारण्य वन क्षेत्र के प्रमुख
– पोलित ब्यूरो, स्टैंडिंग कमेटी, और केंद्रीय कमेटी के सदस्य
– अवाम-ए-जंग के संपादकीय बोर्ड के सदस्य

2017 में, उन्होंने मुपल्ला लक्ष्मण राव उर्फ गणपति का स्थान लिया और 2018 में औपचारिक रूप से सीपीआई (माओवादी) के महासचिव के रूप में घोषित किए गए. वे एक आक्रामक सैन्य रणनीतिकार थे, जिन्हें विस्फोटकों और आईईडी के उपयोग में विशेषज्ञता के लिए जाना जाता था. उन्होंने एलटीटीई से जंगल युद्ध, सैन्य रणनीति, और आईईडी के उपयोग में प्रशिक्षण लिया था.

2004 में अपने गठन के बाद पहली बार, CPI-माओवादी में महासचिव पद पर बदलाव हुआ, और नंबाला केशव राव, उर्फ ​​बसवराज को इसका महासचिव नियुक्त किया गया. उनके नाम का प्रस्ताव प्रतिबंधित संगठन के संस्थापक महासचिव मुप्पला लक्ष्मण राव, उर्फ ​​गणपति ने अपने पोलित ब्यूरो सदस्यों की एक बैठक में किया था. 10 नवंबर 2018 को, CPI-माओवादी ने इस विकास की घोषणा करने के लिए एक प्रेस बयान भी जारी किया था.

गणपति की तुलना में, जो विचारधारा के प्रति अधिक झुकाव रखते थे, बसवराज जमीन पर मजबूत सैन्य रणनीति पर ज़ोर देते थे. यही कारण है कि बसवराज का तात्कालिक उद्देश्य पीएलजीए को मजबूत करना था.

विचारधारा के बजाय सैन्य रणनीति पर ज़ोर देने का परिणाम यह निकला कि खुले संगठन धीरे धीरे ख़त्म हो गये और जब कॉरपोरेट घरानों के लठैत मोदी-शाह ने भीषण दमनचक्र चलाया तो महज़ एक साल के अंदर ही 400 से अधिक माओवादी गुरिल्ले और नेतृत्व ख़त्म कर दिये गये. अंत में वे स्वयं भी एक मुठभेड़ में ख़त्म हो गये.

पुलिस और एजेंसियों का दावा है कि गणपति लंबे समय से बीमार चल रहे थे और संगठन के दूसरे बड़े नेता दबाव डालते रहे कि वो अब पद त्यागकर ‘मार्गदर्शक मंडल’ में रहें. अधिकारियों का कहना है कि दबाव डालने वालों में प्रोसेनजीत बोस उर्फ़ ‘किशान दा’ भी हैं जो विलय के बाद एमसीसी से आए थे और उस समय माओवादियों के पोलित ब्यूरो के सदस्य थे. अभी वे अपनी पत्नी समेत जेल में हैं और एक रिपोर्ट के अनुसार जेल में वे रामायण और गीता पढ़ने में व्यस्त हैं.

माओवादी मामलों के जानकार बताते हैं कि सीपीआई (एमएल) पीपुल्स वार का एमसीसीआई के साथ विलय काफ़ी घातक साबित हुआ. अपराधी प्रवृत्तियों के लोगों को बड़े पैमाने पर एमसीसीआई में भर्ती करने के कारण विलय के बाद नवगठित पार्टी सीपीआई (माओवादी) में ऐसे अपराधियों की भरमार हो गई. फलतः पार्टी बिहार में लगभग पूरी तरह ख़त्म हो गई और अब झारखंड के एक कोने में जाकर सिमट गई.

ज्ञात हो कि भारत में मुख्यतः तीन पार्टी थी जो सशस्त्र संघर्ष चला रही थी, जिसमें पीपुल्स वार, पार्टी यूनिटी और एनसीसी था. पार्टी यूनिटी और एनसीसी का मुख्य इलाक़ा अमूमन न केवल संयुक्त बिहार ही था, अपितु लगभग एक ही इलाक़े दोनों के होते थे. फलतः दोनों में भयानक खूनी संघर्ष चला, जिसमें दोनों ओर से सैकड़ों लोग मारे गये.

वर्ष 2000 में पीपुल्स वार और पार्टी यूनिटी का विलय हो गया. विलय की सूचना के अगले ही दिन से एनसीसी ने नवनिर्मित पीपुल्स वार पर भयानक हमला कर दिया और पीपुल्स वार के दर्जनों नेताओं और कार्यकर्ताओं को मार डाला. यही एनसीसी बाद में ख़ुद को एमसीसीआई में बदल लिया और पीपुल्स वार के साथ विलय कर माओवादी पार्टी बना लिया.

जानकार बताते हैं कि यही कारण है जिस पीपुल्स वार को भारत सरकार ख़त्म नहीं कर पाई, उसे एमसीसी ने मिटा दिया. सूत्र यह भी बताते हैं कि बासवराज का मिज़ाज एमसीसी से मिलता था. फलतः विचारधारा पर ज़ोर देने की गणपति की नीति को पीछे कर बासवराज की सैन्य मज़बूती की नीति ने न केवल पार्टी को भारी नुक़सान पहुंचाया अपितु स्वयं बासवराज का भी जान ले लिया.

इसके बावजूद बासवराज का महासचिव के तौर पर एक महत्वपूर्ण योगदान के रुप में याद किया जायेगा जिसमें उन्होंने पार्टी के अंदर मौजूद अवसरवादी तत्वों को समय रहते निकाल बाहर कर सीपीआई (माओवादी) में विभाजन करने की नापाक कोशिशों पर पानी फेर दिया.

मृत्यु और प्रभाव

21 मई 2025 को, छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के अबूझमाड़ जंगलों में एक लंबे और माओवादी विरोधी अभियान ‘कगार’ में डीआरजी के सरकार पोषित गुंडों ने बसवराज को मार गिराया, जिसमें 26 अन्य माओवादी भी मारे गए. इस मुठभेड़ को नक्सलवाद के खिलाफ तीन दशकों की सबसे बड़ी सफलता माना गया.

माओवादी विरोधी अभियान में शामिल केंद्रीय सुरक्षा बलों के साथ ही गुप्तचर विभाग भी सक्रिय है, जो जनता का पैसा पानी की तरह बहा रहा है. नक्सल उन्मूलन अभियान के नाम पर इन गुप्तचर एजेंसियों को सरकार की ओर से मोटा बजट मिलता है जिसका कोई लेखा जोखा यानी ‘ऑडिट’ भी नहीं होता है.

गृह मंत्री अमित शाह ने एक X पोस्ट में इसकी घोषणा की, जिसमें कहा गया, ‘आज, छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में एक ऑपरेशन में हमारे सुरक्षा बलों ने 27 खूंखार माओवादियों को मारा है, जिनमें सीपीआई-माओवादी के महासचिव, शीर्ष नेता और नक्सल आंदोलन की रीढ़ नंबाला केशव राव उर्फ बसवराजू भी शामिल हैं.’

बासवराज ने माओवादियों को कंधे से चलने वाले रॉकेट लॉन्चर बनाने की तकनीक सिखाने का एक परियोजना शुरू किया, हालांकि यह तकनीकी रूप से विफल रहा. उन्होंने चेरुक्कुरी राजकुमार उर्फ आजाद के साथ र्यथु कूलि संगह की स्थापना की और 2004 में पीडब्ल्यूजी और एमसीसी के विलय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. वे ‘रेड कॉरिडोर’ और ‘जनताना सरकार’ की रणनीति के मुख्य रणनीतिकार थे, विशेष रूप से छत्तीसगढ़ में.

बासवराज की मृत्यु माओवादी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ है. उनकी जीवनयात्रा और योगदान माओवादी आंदोलन की जटिलताओं को समझने में मदद करते हैं, जिसमें हिंसा, रणनीति, और नेतृत्व की भूमिका शामिल है.

उनकी मौत को माओवादी आंदोलन के लिए एक महत्वपूर्ण झटका माना जाता है, क्योंकि वे एक रणनीतिकार और संगठन के लिए रीढ़ की हड्डी थे. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह सशस्त्र माओवादी संघर्ष के अंत की शुरुआत हो सकती है, जबकि अन्य का कहना है कि संगठन नए नेतृत्व के साथ फिर से संगठित हो सकता है.

अब बासवराज नहीं है लेकिन वे मुद्दे मौजूद हैं जिसके कारण माओवादी आंदोलन पैदा हुआ था. लोगों के रोटी, कपड़ा, मकान, चिकित्सा, शिक्षा की समस्या विकराल रूप में मौजूद है. लोगों के जल, जंगल, ज़मीन पर कॉरपोरेट घरानों का लूट और क़ब्ज़ा करना जारी है. पुलिसियों द्वारा महिलाओं के खिलाफ बलात्कार और हत्या का दौर जारी है, अन्याय और ज़ुल्मों का नंगा नाच जारी है.

जबतक यह दौर जारी है, माओवादी आंदोलन को कुचला नहीं जा सकता. माओवादी आंदोलन के प्रथम महासचिव चारु मजूमदार की हिरासत में हत्या के बाद भी शासक वर्ग ने इसी तरह जश्न मनाया था और आंदोलन के ख़त्म होने का घोषणा भी कर दिया था, लेकिन आंदोलन ज़बरदस्त रफ़्तार से आगे बढ़ा. तत्कालीन सत्ता को लोगों ने उखाड़ फेंका था.

माओवादी आंदोलन के महासचिव बासवराज की हत्या मोदी-शाह की हिन्दू ब्राह्मणवादी फासीवादी सत्ता ने किया है, जनता इसे उखाड़ फेंकेगी. मोदी-शाह जैसे कॉरपोरेट घरानों के निजी लठैतों ने जनता का विश्वास खो दिया है. शांति वार्ता का झांसा देकर जिस तरह बासवराज का हत्या किया है, उसने न केवल देश के अंदर बल्कि दुनिया के मेहनतकश लोगों की नज़र में उसे घृणित बना दिया है.

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