Home कविताएं सुब्रतो चटर्जी की दो कविताएं

सुब्रतो चटर्जी की दो कविताएं

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हर रोज़
समंदर की तरफ़
खुलती है
एक हत्यारी खिड़की
और वो लड़की
अपनी तर्जनी के
पोर में समेटकर
एक चुटकी अमावस
खींच लेती है दो रेखाएं

उसे यक़ीन है
दुनिया के मटमैले मानचित्र को
देखने में मददगार है
अमावस का टुकड़ा

हत्यारी खिड़की
बहा ले जाती है उसे
उसके खुले बाल
बर्फीली आंधी में बची
उष्मा की तरह
चिढ़ाती है मृत्यु को

इसी तरह
जब जब थम जाती हैं हवाएं
गुमसुम समंदर की छाती पर
उभर आता है
एक पुराना रोमांटिक गाना
किसी भटके हुए जहाज़ की तरह

अमावस की दो लकीरें
खींच जाती हैं
षोडशी के थर्राते गालों पर

लड़की
कोई जतन नहीं करती
कलुष धोने का

उसके हाथ
भरे हुए हैं
फूलों के गुच्छों से
जिन्हें अभी अभी चढ़ाना है उसे
एक परित्यक्त कब्र पर
जो लेटा है चुपचाप
हत्यारी खिड़की के बाहर

स्मृतियां

स्मृतियां पारस हैं
माज़ी के कबाड़ में
भूले हुए लोहा लक्कड़ को छू कर
प्राण डाल देतीं हैं उन में

दुर्गा की खोयी हुई कानों की बालियों का मिलना
अपु को देते हैं उसके
नये संसार की आधारशिला

बिछुड़े हुए लोगों की बदरंग तस्वीरों में
क़ैद हैं मेरे जीवन के सबसे ज़्यादा सुनहरे दिन

अचानक
अंधेरे में टटोलते हुए
पाँव से टकरा जाती है
एक पुरानी, जंग लगी
लोहे की ज़ंजीर
जो कभी काम आता था
मेरे उद्दंड बुल डॉग को क़ाबू में करने के लिए

फंदा आज भी अक्षुण्ण है
लेकिन, उसके बीच से कब का
फिसल कर बहुत दूर चला गया है
मेरा कुत्ता
मुस्कुराते हुए सोचता हूं मैं

इस कबाड़ के ढेर में
हरेक चीज़
मेरे प्रिय लोगों को
अपना बनाये रखने की
मेरी नाकाम कोशिशों की गवाही है

स्मृतियां पारस हैं
अब मेरे पास
सोने का वर्क चढ़ा हुआ एक काला संसार है
काले सागर पर बिखरे हुए
सुबह की सुनहरी किरणों की तरह

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