सुनामी की तो याद होगी ही न आपको. यह कोरोना वायरस ने उसकी तबाही को भुला दिया. तमाम पूर्व तटीय इलाकों में उसका कहर टूटा था, तबाही का तांडव हुआ था.
जापान में जब सुनामी आई तो एक बूढ़ी औरत फुटपाथ पर ही फड़ लगाकर कुछ घरेलू सामान बेचने लगी. पहले कभी किसी ने उस बुढ़िया को वहां सामान बेचते नहीं देखा था.
BBC के एक रिपोर्टर ने उससे जब बेचे जा रहे सामान के रेट पूछे तो पता चला कि वह बूढ़ी औरत तो बाजार भाव से भी सस्ते दाम पर बेच रही है. स्वाभाविक ही था कि रिपोर्टर में कुछ और जानने की इच्छा पैदा होती. उसमें भी हुई और उस बूढ़ी औरत से उसकी वजह पूछी.
बूढ़ी औरत ने बताया कि ‘वह तो होलसेल मार्केट से थोक में सामान ले लाती है, इसलिए सस्ता मिल जाता है. उसी दाम पर वह सारा माल अपने मुसीबतज़दा देशवासियों को बेच देती है. इतनी अमीर तो वह भी नहीं कि सबको फ्री में सामान बांट दे, अगर होती तो वह भी करती. फिलहाल तो यही एक रास्ता बचा है मेरे पास. मुसीबत की इस घड़ी में यही मेरा देशसेवा है, यही मेरा राष्ट्रवाद है.’
पर हमारा राष्ट्रवाद तो बस नारे लगाने भर तक सीमित है. किसी दूसरे धर्म के अनुयायी को मार-मार कर वंदे मातरम् बुलवाने में है. मीडिया में कोरोना वायरस से बचने के लिए सावधानी के तौर पर प्रचारित हैंड सेनिटाईज़र और फ़ेसमास्क अचानक गायब हो जाते हैं दुकानों से और मिलते भी हैं तो दस गुना ज्यादा क़ीमत पर.
सरकार राष्ट्रीय आपदा घोषित करती है तो कालाबाजारियों की चांदी कटने लगती है. कुछ लघु उद्योग जब एल्कोहोल बेस्ड सेनेटाइजर बनाने की कोशिश करते हैं तो सरकार उन पर कानून का चाबूक ले कर टूट पड़ती है. सरकार के समर्थक हो या विरोधी, दुकानदारों की पहली प्रतिक्रिया होती है इस मुसीबत में जरूरी सामान एकत्र कर लेने और फिर मनमाने दामों पर बेचने की.
ज़रा-सी अफ़वाह उड़े तो पड़ोस की दुकान से आटा, चावल, दाल की क़ीमत में इज़ाफ़ा हो जाता है. हद तो तब हो जाती है जब उत्तराखंड में बाढ़ में फंसे लोगों को आसपास के गांव वाले 500-500 रुपये की एक पानी की बोतल बेच देते हैं.
सरकार हो या जनता, हक़ीक़त यही है कि हम सभी लोग मुनाफ़ाखोर और संवेदनहीन हो गए है. दूसरों के दुख-दर्द से तो कोई वास्ता ही नहीं रह गया हमारा. सब का अपना-अपना एक द्वीप है. यह द्वीप है घर-परिवार का. वह ठीक तो देश समाज सब ठीक, उन्हें ठीक रखने के लिए, खुश रखने के लिए कुछ भी करते हैं लोग. फिर भी मजेदार बात तो यह है कि खुद को आूूस्थावान लोग बताते हैं ये लोग. लानत है ऐसी आस्था और ऐसी धार्मिकता पर.
कड़वी है पर कहनी तो पड़ेगी ही कि हमारा राष्ट्रवाद तो सिर्फ़ और सिर्फ़ नफरत फैलाने, लोगों को मारने और उन्हें प्रताड़ित करने के लिए है. यह नफरत हम अपने चाहने वाले, पड़ोसी तक से करते हैं. उनसे भी करते हैं जिनसे हमारा रोजाना का संबंध होता है.
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