Home कविताएं कोल्हू

कोल्हू

1 second read
0
0
941

कोल्हू

बंजर नहीं है हमारी मनोभूमि
उसमें भी लहलहाती हैं फसलें,
सपनों की…

हमारी दृष्टिपटल पर भी बिंबित होते हैं स्कूल, किताबें
और सजे संवरे हंसते खिलखिलाते हमउम्र बच्चे
जब देखता हूं उनको स्कूल ग्राउंड में
उछलते कूदते खेलते हुए
ललचा जातीं हैं आंखें मेरी
उठती है एक हूक कलेजे से
हमें नहीं बदा……

हर रोज याद आ ही जाता है वह दिन –
जब जाता था स्कूल मैं भी
कितना होता था खुश !
जब पढ़ाती थीं मैडम –
क कबूतर… ख खरगोश…
एक ही दिन में सीख गया था

मैडम जी ने रोज देती थीं अनमोल इनाम- ‘वेरी गुड’ का
मगर परसाल जब बाबू को डस लिया
कोरोना का कीड़ा
अनाथ हो गया मै
बंद हो गई पढ़ाई
तब अम्मा ने कहा-
भूख बड़ी कि पढ़ाई…..!

उसी दिन से पड़ गया जुआ
और नध गया उसी कोल्हू में….
जिसमें नधती आ रही हैं
हमारी पीढ़ियां…

  • आशुतोष कुमार सिंह

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे…]

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • औरत

    महिलाएं चूल्हे पर चावल रख रही हैं जिनके चेहरों की सारी सुन्दरता और आकर्षण गर्म चूल्हे से उ…
  • लाशों के भी नाखून बढ़ते हैं…

    1. संभव है संभव है कि तुम्हारे द्वारा की गई हत्या के जुर्म में मुझे फांसी पर लटका दिया जाए…
  • ख़ूबसूरत कौन- लड़की या लड़का ?

    अगर महिलायें गंजी हो जायें, तो बदसूरत लगती हैं… अगर महिलाओं की मुंछें आ जायें, तो बद…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

मज़दूर दिवस पर एक अव्यावहारिक सुझाव

ये तो सर्वविदित है कि कि निजी पूंजी का महल मज़दूरों के शोषण की नींव पर खड़ी है. सुदूर शिका…