एक अनाम मुल्क एक नया नागरिकता कानून पारित करने के बाद अपने ही नागरिकों के बीच से दसियों लाख ‘शरणार्थी’ तैयार करता है. यह उन्हें देश बदर नहीं कर सकता, इसके पास उन सभी को कैद करने के लिए जेल बनाने के पैसे नहीं हैं लेकिन इस अनाम मुल्क को किसी गुलाग या यातना शिविर बनाने की जरूरत भी नहीं होगी. यह उन शरणार्थियों को बस स्विच ऑफ कर सकता है.
यह उनके स्मार्टफोनों में सरकार को स्विच ऑफ कर सकता है. इसके बाद इसके पास काम करने के लिए तैयार एक बहुत बड़ी आबादी होगी, मजदूरों का एक ऐसा उपवर्ग होगा, जिसके पास कोई अधिकार नहीं होगा, जिनके लिए कोई न्यूनतम मजदूरी नहीं होगी, जिनके पास वोट डालने के, स्वास्थ्य सेवाओं के, राशन पाने के अधिकार नहीं होंगे.
उन्हें आधिकारिक आंकड़ों और रिपोर्टों में शामिल करने की जरूरत भी नहीं होगी. इससे आंकड़ों में अनाम मुल्क की एक बेहतर तस्वीर उभरेगी. यह एक पूरी तरह सक्षम और परदर्शी कार्रवाई हो सकती है. यह एक महान लोकतंत्र की तरह भी दिख सकती है.
अरुंधति रॉय
मैं स्वीडिश अकादमी का शुक्रिया अदा करती हूं कि आपने मुझे इस सम्मेलन में बोलने के लिए बुलाया और मुझे यह खास मौका दिया कि मैं दूसरे वक्ताओं को सुन सकूं. इसकी योजना दो साल से अधिक समय पहले तब बनी थी, जब कोरोना वायरस की वैश्विक महामारी की पूरी दहशत हमारे सामने आना बाकी थी और जब यूक्रेन पर रूसी हमला नहीं हुआ था.
लेकिन इन दोनों तबाहकारी घटनाओं ने उस जोखिम को सिर्फ गहरा ही बनाया है, जिस पर गौर करने के लिए हम यहां जमा हुए हैं – वो यह परिघटना है कि लोकतंत्र एक ऐसी चीज में तब्दील होते जा रहे हैं जो पहचान से परे है, लेकिन बड़े डरावने रूप में उसमें पहचाने हुए रूप भी दिखते हैं. और दिन ब दिन बोलने पर पाबंदियां बढ़ती जा रही हैं, जिनका तरीका बहुत पुराना है, और बहुत नया भी. ये पाबंदियां एक ऐसे मुकाम पर पहुंच रही हैं कि खुद माहौल एक किस्म की ऐसी मशीन में बदल गया है जो यह पता लगाता है कि कौन गुमराह है, और उन्हें सजा देता है. हम बड़ी तेजी से एक ऐसी जगह पहुंचते हुए दिखाई दे रहे हैं जो एक बौद्धिक बंद गली या गतिरोध जैसी लगती है.
मैं इस भाषण की शुरुआत करूंगी अपने शीर्षक के आखिर में कही गई बात से, और सबसे पहले मैं नाकाम होते लोकतंत्र की परिघटना पर बोलूंगी.
स्वीडन में मैं आखिरी बार 2017 में गोटेनबुर्ग बुक फेयर के लिए आई थी. अनेक एक्टिविस्टों ने मुझसे पुस्तक मेले का बहिष्कार करने को कहा था, क्योंकि मेले ने फ्री स्पीच (बोलने की आज़ादी) के नाम पर चरम-दक्षिणपंथी निय टीडर अखबार को अपना स्टॉल लगाने की इजाजत दी थी।श. उस वक्त मैंने कहा था कि मेरे लिए ऐसा करना बहुत बेतुका होगा, क्योंकि मेरे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो दुनिया के रंगमंच पर बहुत गर्मजोशी से बुलाए जाते थे (और अभी भी बुलाए जाते हैं) आरएसएस के आजीवन सदस्य हैं. यह आरएसएस 1925 में बना एक चरम-दक्षिणपंथी हिंदू श्रेष्ठतावादी संगठन है, जिसे मुसोलिनी की नेशनल फासिस्ट पार्टी के ‘पूर्ण स्वयंसेवी’ अर्धसैनिक धड़े ब्लैकशर्ट्स की तर्ज पर बनाया गया था.
गोटेनबुर्ग में मैंने नॉर्डिक रेजिस्टेंस मूवमेंट को जुलूस निकालते देखा. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से यूरोप में पहला नाजी जुलूस. सड़कों पर युवा फासीवाद-विरोधियों ने इसका विरोध किया. लेकिन आज एक चरम-दक्षिणपंथी पार्टी स्वीडन में सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है, भले ही वह खुले तौर पर नाजी न हो. और नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अपना नौवां साल पूरा करने वाले हैं.
नाकाम होते लोकतंत्र की बात करते हुए मैं मुख्यतः भारत के बारे में बोलूंगी. इसलिए नहीं कि यह दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है, बल्कि इसलिए कि यह वो जगह है जिसे मैं प्यार करती हूं, वो जगह है जिसे मैं जानती हूं और जहां रहती हूं, वो जगह जो हर रोज मेरा दिल तोड़ती है और उसका इलाज भी करती है.
यह याद रखिए कि मैं जो कुछ भी कहूंगी, वह मदद की पुकार नहीं है, क्योंकि भारत में हम लोग बखूबी जानते हैं कि कोई मदद नहीं आएगी. कोई मदद आ नहीं सकती. यहां बोलते हुए मैं आपको एक ऐसे मुल्क के बारे में बता रही हूं जो, खामियों के बावजूद, किसी वक्त अनोखी संभावनाओं से भरपूर था, एक ऐसा मुल्क जिसने खुशहाली, संतुष्टि, सहिष्णुता, विविधता और स्थायित्व की ऐसी समझ पेश की जो पश्चिमी दुनिया से पूरी तरह अलग थी. वह सब कुछ खत्म किया जा रहा है, उसकी रूह को कुचल दिया जा रहा है.
भारत के लोकतंत्र को बहुत व्यवस्थित रूप से पुर्जे-पुर्जे उधेड़ा जा रहा है. सिर्फ रस्में बची हुई हैं. तय है कि अगले साल आप हमारे सरगर्म, रंग-बिरंगे चुनावों के बारे में बहुत कुछ सुनेंगे. बस जो बात दिखाई नहीं देगी वो यह है कि सबके लिए निष्पक्ष और समान दिखने वाली यह समतल जमीन – जो निष्पक्ष चुनावों की बुनियाद होती है – असल में एक तीखी ढलान वाली चोटी है, जहां एक तरह से सारी दौलत, सारा डाटा, मीडिया, चुनाव प्रबंधन और सुरक्षा व्यवस्था लुढ़क कर सत्ताधारी दल के हाथों में आ गई है.
स्वीडन का वी-डेम इंस्टीट्यूट अपने विस्तृत, और व्यापक डेटा सेट के साथ लोकतंत्रों की सेहत को मापता है. उसने भारत को एक ‘चुनावी निरंकुशता’ का दर्जा दिया है और इसे एल साल्वादोर, तुर्की और हंगरी के साथ रखा है. उसने अंदेशा जताया है कि चीजें बदतर होने वाली हैं. हम 1.4 अरब लोगों के लोकतंत्र से महरूम होने और एक निरंकुश शासन में धकेल दिए जाने की बात कर रहे हैं. या यह उससे भी बुरा हो सकता है.
लोकतंत्र को पुर्जा-पुर्जा करने की प्रक्रिया मोदी और आरएसएस के सत्ता में आने से बहुत पहले शुरू हो गई थी. पंद्रह साल पहले मैंने डेमोक्रेसीज़ फेलिंग लाइट (लोकतंत्र की बुझती रोशनी) नाम से लेख लिखा था. तब कांग्रेस पार्टी सत्ता में थी, जो पुराने, सामंती अभिजातों और मुक्त बाजार से अभी-अभी बड़े उत्साह से जुड़े टेक्नोक्रेट्स की पार्टी है. मैं उस लेख का एक छोटा-सा हिस्सा पढ़ूंगी, इसलिए नहीं कि मैं साबित करना चाहती हूं कि किस तरह मैं सही थी, बल्कि इसलिए कि आपको यह दिखा सकूं कि तब से चीजें कितनी बदल गई हैं.
अभी जब हम इसी बहस में उलझे हुए हैं कि मौत के बाद क्या जिंदगी हुआ करती है, क्या हम इस फेहरिश्त में एक और सवाल जोड़ सकते हैं ? क्या लोकतंत्र के बाद जिंदगी मुमकिन है ? किस तरह की ज़िंदगी होगी वह ?
तब असल में सवाल यह है कि हमने लोकतंत्र के साथ क्या कर दिया है ? हमने इसको किस चीज में बदल दिया है ? तब क्या होता है जब लोकतंत्र चुक जाता है ? जब इसको इस तरह खोखला कर दिया जाता है कि इसका कोई मतलब नहीं रह जाता ? तब क्या होता है जब इसके हरेक संस्थान को किसी खतरनाक चीज में बदल दिया जाता है ?
अब क्या होगा जब लोकतंत्र और मुक्त बाजार को आपस में मिला कर एक ऐसे वहशी जीव में बदल दिया गया है, जिसके पास सिर्फ यही पतली और सीमित-सी परिकल्पना है कि किस तरह मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाया जाए, और वह इसी विचार के पीछे-पीछे चलता रहता है ? क्या इस प्रक्रिया को पलटना मुमकिन है ? जो चीज अपने बुनियादी चरित्र से बदल कर कुछ और हो गई हो, क्या वह उस चीज में वापस बदल सकती है जो वह पहले हुआ करती थी ?
वह साल 2009 था. पांच साल बाद 2014 में मोदी भारत के प्रधानमंत्री चुने गए. तब से नौ बरसों में भारत इस कदर बदल गया है कि आप पहचान नहीं सकते. भारत का संविधान जिस ‘धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी गणतंत्र’ का वादा करता है, वह अब वजूद में नहीं है. सामाजिक न्याय के महान संघर्षों, और अडिग, दूरदृष्टि वाले पर्यावरणवादी आंदोलनों को कुचल दिया गया है. अब हम मरती हुई नदियों, छीजते हुए जलस्तरों, गायब होते जंगलों या पिघलती हिमनदियों की बातें बहुत कम ही करते है क्योंकि उन चिंताओं की जगह अब एक अधिक फौरी दहशत ने ले ली है. आप इसे खुशहाली का अहसास भी कह सकते हैं, जो इस बात पर निर्भर करता है कि आप वैचारिक लकीर के किस तरफ खड़े हैं.
हमारा अनुभव यही बताता है कि भारत एक कॉरपोरेट, धर्मांध हिंदू राज्य बन गया है, एक ऐसा राज्य जहां निगरानी और जोर-जबरदस्ती की हुकूमत चलती है, एक खौफनाक राज्य. पिछली हुक्मरानी में खोखले किए गए संस्थान, खास तौर से मुख्यधारा का मीडिया, अब हिंदू श्रेष्ठतावादी उन्माद से सराबोर हैं. इसी के साथ-साथ, मुक्त बाजार ने वह किया है जो मुक्त बाजार करता है. बहुत थोड़े में कहूं, तो ऑक्सफैम की 2023 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की आबादी के सबसे ऊपर के 1 फीसदी हिस्से का देश की कुल चालीस फीसदी दौलत पर कब्जा है, जबकि नीचे की 50 फीसदी आबादी (70 करोड़ लोग) के पास कुल दौलत का करीब 3 फीसदी है. हम बहुत गरीब लोगों का एक बहुत अमीर मुल्क हैं.
लेकिन इस गैरबराबरी से जो गुस्सा और नाराजगी पैदा होती है, वह उन लोगों के खिलाफ नहीं है जो कुछ हद तक इसके लिए जिम्मेदार हो सकते हैं. इसके बजाए उस गुस्से और नाराजगी का रुख भारत के अल्पसंख्यकों के खिलाफ मोड़ दिया गया है, और इसे और बढ़ाया ही जा रहा है. 17 करोड़ मुसलमान, जो आबादी का 14 फीसदी हैं, इस हमले का सीधा निशाना हैं लेकिन बहुसंख्यकपरस्त सोच, वर्ग और जाति की सरहदों के आर-पार जाती है और विदेशों में बसने वाले भारतीयों के बीच इसका भारी जनाधार है.
इस साल जनवरी में बीबीसी ने ‘इंडियाः द मोदी क्वेश्चन’ नाम से दो किस्तों में एक डॉक्यूमेंटरी प्रसारित की. इसमें मोदी का सियासी सफरनामा दिखाया गया है, सबसे पहले 2001 में उनके गुजरात राज्य के मुख्यमंत्री बनने से लेकर भारत के प्रधानमंत्री बनने तक. फिल्म ने ब्रिटिश फॉरेन ऑफिस द्वारा अप्रैल 2002 में तैयार की गई एक अंदरूनी रिपोर्ट को पहली बार सार्वजनिक किया, जो फरवरी-मार्च 2002 में मोदी की हुक्मरानी वाले गुजरात में हुए मुसलमानों के कत्लेआम के बारे में थी. ये कत्लेआम राज्य विधानसभा चुनावों के ठीक पहले हुआ था.
इन सारे बरसों तक गोपनीय रखी गई यह फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट सिर्फ उस बात की तस्दीक करती है, जिसे भारतीय एक्टिविस्ट, पत्रकार, वकील, दो वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और हत्याओं और बलात्कारों के आंखों देखे गवाह बरसों से कहते आए हैं. यह अनुमान पेश करती है कि ‘कम से कम 2000’ लोग मारे गए थे.
इस रिपोर्ट में जनसंहार को पहले से बनाई गई योजना पर आधारित एक कत्लेआम कहा गया है, जिसमें ‘नस्ली सफाए की सारी खास निशानियां’ मौजूद थी. रिपोर्ट कहती है कि भरोसेमंद सूत्रों ने उन्हें सूचित किया था कि जब हत्याएं शुरू हुईं, तो पुलिस को चुपचाप रहने के आदेश दिए गए थे. रिपोर्ट कत्लेआम के लिए बहुत सीधे-सीधे मोदी की तरफ़ उंगली उठाती है.
भारत में तब से फिल्म पर पाबंदी है. ट्विटर और यूट्यूब को इसके सारे लिंकों को हटाने के आदेश दिए गए. उन्होंने फौरन हुक्म का पालन किया. 21 फरवरी को दिल्ली और मुंबई में बीबीसी के दफ्तरों को पुलिस ने घेरा, और आयकर अधिकारियों ने उन पर छापे मारे, जैसे कि ऑक्सफैम के दफ्तरों के साथ हो चुका है. जैसे कि एमनेस्टी इंटरनेशनल के दफ्तरों के साथ हो चुका है. जैसे कि कई बड़े विपक्षी नेताओं के घरों और कार्यालयों के साथ हो चुका है. जैसा कि करीब-करीब हर उस एनजीओ के साथ होता रहा है जो पूरी तरह से सरकार की लीक पर नहीं चलता है.
मोदी जहां 2002 के कत्लेआम के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कानूनी रूप से बरी किए जा चुके हैं, वहीं जो एक्टिविस्ट और पुलिस अधिकारी सबूतों के अंबार और आंखों देखे गवाहों के आधार पर कत्लेआमों में उनकी भूमिका का आरोप लगाने की हिम्मत करते हैं, वे या तो जेल में हैं या आपराधिक मुकदमों का सामना कर रहे हैं.
इस बीच कई सजायाफ्ता हत्यारे जमानत पर या परोल पर रिहा हुए हैं. पिछले अगस्त में भारत की आजादी की 75वीं जयंती पर, ग्यारह सजायाफ्ता लोग जेल से छोड़े गए. उन्हें 2002 कत्लेआम के दौरान उन्नीस साल की एक मुसलमान औरत बिल्कीस बानो के सामूहिक बलात्कार के लिए, और उनके परिवार के चौदह लोगों की हत्याओं के लिए आजीवन कैद की सजा दी गई थी.
उन्होंने जिन लोगों की हत्या की, उनमें बानो की एक दिन की भतीजी और तीन साल की उनकी बेटी सलेहा शामिल थे, जिनके सिर को पत्थर पर पटक कर तोड़ते हुए उनकी हत्या की गई. इन सजायाफ्ता अपराधियों को विशेष माफी दी गई. जेल की दीवारों के बाहर आने के बाद हत्यारे-बलात्कारियों का नायकों की तरह स्वागत किया गया, फूलों की मालाएं पहनाई गईं.क्षएक बार फिर, राज्य चुनाव करीब थे. यह विशेष माफी हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा थी.
आज प्रोफेसर टिमथी स्नाइडर ने पूछा, ‘मुक्त अभिव्यक्ति क्या है ?’ मैंने जो कुछ भी कहा है, उससे आप यह बिल्कुल भी नतीजा न निकालें कि भारत में मुक्त अभिव्यक्ति नहीं है. बोलने और करने की आजादी है, भरपूर आजादी है.
मुख्यधारा के टीवी एंकर आजादी से अल्पसंख्यकों के बारे में इस तरह झूठ बोल सकते हैं, उनकी एक डरावनी छवि पेश कर सकते हैं, उन्हें कमतर इंसानों के रूप में दिखा सकते हैं कि इससे मुसलमानों की जान-माल का सचमुच का नुकसान हो सकता है, यहां तक कि गिरफ्तारियां भी हो सकती हैं. हिंदू संत और तलवार भांजती भीड़ मुसलमानों के सामूहिक जनसंहार और सामूहिक बलात्कार का आह्वान कर सकती है. दलितों और मुसलमानों को दिन-दहाड़े सरेआम कोड़े लगाए जा सकते हैं, पीट-पीट कर मारा जा सकता है और इसके वीडियो को यूट्यूब पर अपलोड किया जा सकता है. पूरी आजादी से चर्चों पर हमले किए जा सकते हैं, पादरियों और ननों को पीटा और अपमानित किया जा सकता है.
भारत के अकेले मुस्लिम बहुल इलाके कश्मीर में, जहां के अवाम ने करीब तीन दशकों से आत्म-निर्णय के लिए लड़ाई लड़ी है, जहां भारत दुनिया का सबसे सघन फौजी प्रशासन चलाता है, और जहां किसी भी विदेशी पत्रकार को जाने की इजाजत नहीं है, सरकार ने खुद को यह इजाजत दे रखी है कि वह पूरी आजादी से सारी अभिव्यक्ति पर – ऑनलाइन और दूसरे सभी रूपों में – पाबंदी लगा सकती है, और आजादी के साथ स्थानीय पत्रकारों को जेल में डाल सकती है.
यह कब्रिस्तानों से ढंकी हुई एक खूबसूरत वादी है, एक ऐसी वादी जहां से कोई खबर नहीं आती है. लोग कहते हैं, ‘कश्मीर में मुर्दे जिंदा हैं, और जिंदा लोग असल में वे मुर्दा हैं जो बस जिंदा होने का नाटक कर रहे हैं.’ अक्सर वे भारत के लोकतंत्र को ‘डेमन-क्रेज़ी’ (पागल शैतान) कहते हैं.
2019 में चुनावों के बाद मोदी और उनकी पार्टी के दूसरी बार हुकूमत में चुने जाने के कुछ हफ्तों बाद जम्मू-कश्मीर से राज्य होने का उसका दर्जा और एक हद तक उसे हासिल स्वायत्तता को एकतरफा तरीके से खत्म कर दिया गया. जबकि भारतीय संविधान में जम्मू-कश्मीर राज्य की इस स्वायत्तता की गारंटी की गई थी. इसके फौरन बाद संसद ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) को मंजूरी दी. यह नया अधिनियम मुसलमानों के खिलाफ खुलेआम भेदभाव करता है. इसके तहत, लोगों में अब अपनी नागरिकता खो देने का खौफ है, और ऐसे लोगों में ज्यादातर मुसलमान हैं.
सीएए एक राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने की प्रक्रिया का हिस्सा है. एनआरसी में शामिल होने के लिए जरूरी है कि लोग राज्य द्वारा मंजूर कुछ किस्म के ‘लिगेसी डॉक्यूमेंट्स’ पेश करें – यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो नाजी जर्मनी के न्यूरेम्बर्ग कानूनों द्वारा जर्मन लोगों के लिए जरूरी बनाई शर्तों से बहुत अलग नहीं है. असम राज्य में बीस लाख लोग एनआरसी से बाहर किए भी जा चुके हैं और अपने अधिकारों को खो देने के खतरे का सामना कर रहे हैं. विशाल डिटेन्शन सेंटर बनाए जा रहे हैं, जिनको बनाने का काम करने वाले लोग आने वाले दिनों में उनके कैदी होंगे – ऐसे लोग जिनकी निशानदेही ‘घोषित विदेशी’ या ‘संदिग्ध मतदाता’ के रूप में की गई है.
हमारा नया भारत आडंबरों और लीलाओं का भारत है. मसलन गुजरात के अहमदाबाद में एक क्रिकेट स्टेडियम है. इसे नरेंद्र मोदी स्टेडियम कहा जाता है, और इसकी क्षमता 132000 लोगों की है. जनवरी 2020 में इसे नमस्ते ट्रंप रैली के लिए पूरा भर दिया गया था, जब मोदी ने तब के अमेरिकी राष्ट्रपति डोनॉल्ड ट्रंप की अगवानी की थी. उस शहर में जहां 2002 के कत्लेआम के दौरान दिनदहाड़े मुसलमानों को बेरहमी से मारा गया था और दसियों हजार लोगों को उनके घरों से उजाड़ दिया गया, और जहां अभी भी मुसलमान घेटो बस्तियों में रहते हैं, उस शहर में भीड़ के सामने खड़े होकर और हाथ लहराते हुए ट्रंप ने सहनशीलता और विविधता के लिए भारत की तारीफ की. मोदी ने लोगों से तालियां बजाने को कहा.
एक दिन बाद ट्रंप दिल्ली पहुंचे. राजधानी में जब उनके कदम पड़े, तब वहां एक और जनसंहार चल रहा था. गुजरात की तुलना में एक छोटा-सा जनसंहार. यह सब ट्रंप के आलीशान होटल से महज कुछ ही किलोमीटर दूर राजधानी के एक मजदूर मुहल्ले में हो रहा था, जो उस जगह से भी बहुत दूर नहीं है जहां मैं रहती हूं. हमलावर हिंदू भीड़ एक बार फिर मुसलमानों के खिलाफ निकली. एक बार फिर पुलिस ने इसे रोकने के लिए कुछ नहीं किया. इसकी वजह ये थी कि इस इलाके में मुसलमान विरोधी सीएए (नागरिकता संशोधन अधिनियम) के खिलाफ आंदोलन हुए थे. तिरेपन लोग मारे गए, जिनमें ज्यादातर मुसलमान थे. सैकड़ों दुकान, घर और मसजिदें जला दी गईं. ट्रंप ने एक शब्द नहीं कहा.
उन खौफनाक दिनों की एक अलग किस्म की लीला हमारे जेहनों में दर्ज हैः भारत की राजधानी की एक सड़क पर एक नौजवान मुसलमान अधमरी हालत में बुरी तरह जख्मी पड़ा हुआ है. पुलिस के जवान उसे कोंचते हुए, पीटते हुए भारत का राष्ट्रगान गाने पर मजबूर कर रहे हैं. कुछ दिनों में उसकी मौत हो गई. उसका नाम फैजान था. उसकी उम्र 23 साल थी. उन पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
लोकतांत्रिक दुनिया के जागीरदारों के लिए इनमें से किसी भी बात की खास अहमियत नहीं होनी चाहिए और असल में है भी नहीं क्योंकि जो भी हो, कई जरूरी काम अंजाम देने हैं।. क्योंकि भारत एक उभरते हुए चीन के खिलाफ पश्चिम की दीवार है (या उन्हें ऐसी उम्मीद है), और क्योंकि मुक्त बाजार में आप सामूहिक बलात्कार या भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मारे जाने की छोटी-मोटी घटनाओं को या ज़रा से नस्ली सफाए को या किसी गंभीर वित्तीय भ्रष्टाचार को बेच कर बदले में भारी तादाद में लड़ाकू विमान या व्यावसायिक हवाई जहाज खरीद सकते हैं. या रूस से खरीदे हुए कच्चे तेल को रिफाइन करके, और अमेरिकी प्रतिबंधों के दाग से मुक्त करके उसे यूरोप को, और जी हां, अमेरिका तक को बेच सकते हैं, जैसा कि हमारे अखबारों ने खबर दी है. हर कोई खुश है. और हो भी क्यों न ?
यूक्रेनी लोगों के लिए, यूक्रेन उनका देश है. रूस के लिए, यह एक उपनिवेश है, और पश्चिमी यूरोप और अमेरिका के लिए यह एक मोर्चा है. (जैसे कि वियतनाम था. जैसे कि अफगानिस्तान था). लेकिन मोदी के लिए, यह एक और रंगमंच है जहां वे अपना अभिनय दिखा सकते हैं. इस बार उनकी भूमिका शांति लाने वाले एक सुलझे हुए राजनेता की है जो उपदेश देता है कि ‘यह युद्ध लड़ने का समय नहीं है.’
रोज-ब-रोज बढ़ती जा रही एक सनक की तरह दिखने वाले देश में एक बेहद नफीस न्याय व्यवस्था कायम है. लेकिन कानून के आगे कोई बराबरी नहीं है. कानून जाति, धर्म, लिंग और वर्ग देख कर चुनिंदा तरीके से लागू किए जाते हैं. मिसाल के लिए, एक हिंदू जो बात कह सकता है वह एक मुसलमान नहीं कह सकता. एक कश्मीरी वो बातें नहीं कर सकता जिसे बाकी दूसरे लोग कह सकते हैं. इससे एकजुटता, एक दूसरे के लिए बोलना, किसी भी दूसरे वक्त से कहीं ज्यादा अहम बन गई है. लेकिन यह भी एक जोखिमभरी कार्रवाई हो गई है और यही वह बात है, जो मेरे लेक्चर का शीर्षक कहने की कोशिश करता है – हम एक गतिरोध की कगार पर पहुंच रहे हैं, एक बंद गली में दाखिल हो रहे हैं.
बदकिस्मती से ऐसे एक वक्त में, वे बातें जो आप नहीं कह सकते और वे शब्द जिन्हें आप जुबान पर नहीं ला सकते, उन बातों और शब्दों की फेहरिस्त पल-पल लंबी होती जा रही है. एक वक्त ऐसा था जब सरकारें और मुख्यधारा का मीडिया उन मंचों पर नियंत्रण करते थे, जो विमर्श और बहस की दिशा को नियंत्रित करते थे. पश्चिम में इसकी लगाम ज्यादातर गोरे लोगों के हाथों में थी. भारत में, ब्राह्मणों के हाथों में. और फिर बेशक फतवा देने वाले लोग भी हैं जिनके लिए सेंसरशिप लगाना और हत्या कर देना एक ही बात होती है.
लेकिन आज सेंसरशिप बदल कर सबके खिलाफ सबकी लड़ाई बन गई है. बुरा मानने की ललित कला एक वैश्विक उद्योग हो गई है. सवाल यह है कि हजार सिरों वाली, हजार हाथ-पैरों वाली, ताक में लगी हुई, हमेशा चौकन्नी, हमेशा शिकार की तलाश में रहने वाली, गुमराही का सुराग लगा कर हमला करने वाली इस मशीन से किस तरह बात की जा सकती है ? क्या यह मुमकिन भी है, या यह एक ऐसी लहर है जिस पर बात करने से पहले इस लहर का उतर जाना जरूरी है ?
दूसरे देशों की तरह, भारत में पहचान का उपयोग प्रतिरोध के एक हथियार के रूप में किया जाने लगा है, और पहचान के आधार पर होने वाले उत्पीड़न का यह मुख्य जवाब बन गया है. हम लोग जो ठीक अपनी पहचानों की वजह से, अपनी नस्ल, जाति, एथनिसिटी, जेंडर या लैंगिक पसंद की वजह से, ऐतिहासिक रूप से उत्पीड़ित, गुलाम, उपनिवेश रहे हैं, जिनकी एक रूढ़ छवि बना दी गई है, जिनके वजूद को नकार दिया गया, जो अनसुने और अनदेखे रखे गए हैं, अब चुनौती देते हुए इन्हीं पहचानों की मदद ले रहे हैं ताकि इस उत्पीड़न का सामना किया जा सके.
यह इतिहास में एक ताकतवर, विस्फोटक पल है, जिसमें सोशल मीडिया की मदद से, एक बेकाबू, भड़कता हुआ गुस्सा पुराने विचारों, पुराने तौर-तरीकों, बिना सवाल उठाए मान ली गई काबिज मान्यताओं, गहरे भावनात्मक अर्थ रखने वाले शब्दों, और उस भाषा पर चोट कर रहा है जिसमें पूर्वाग्रह और कट्टरपंथ भरा हुआ है. इसकी तेज़ी और हड़बड़ी ने इस असावधान दुनिया को झकझोर कर रख दिया है, जो फिर से सोचने, फिर से कल्पना करने पर मजबूर हो रही है, और चीजों को करने और कहने के बेहतर तरीके खोजने की कोशिश कर रही है. विडंबना यह है कि करीब-करीब रहस्यमय ढंग से, यह परिघटना, चीजों को इस तरह संवारना-सुधारना, ऐसा लग रहा है कि फासीवाद की तरफ हमारे झटके खाते हुए बढ़ते जाने के साथ-साथ चल रही है.
इस विस्फोट के गहरे, क्रांतिकारी पहलू हैं, साथ ही साथ बेतुके और नुकसानदेह पहलू भी हैं।. इसके चरम पहलुओं को उठा कर बातें करना, और उसका इस्तेमाल करते हुए पूरी बहस को बदनाम करना आसान है. (मिसाल के लिएः क्या औरतों को अब ‘माहवारी वाले लोग’ कहा जाना चाहिए ? क्या इस्लाम की समृद्ध विविधता को पढ़ाने वाली एक अमेरिकी कला प्रोफेसर को फौरन बर्खास्त कर दिया जाना चाहिए क्योंकि उसने पैगंबर मुहम्मद की 14वीं सदी की एक पेंटिंग अपने छात्रों को दिखाई, जिसके पहले, उसने अपने छात्रों को बताया था कि वह यह पेंटिंग दिखाने जा रही है, और यह भी कहा था कि जो छात्र इससे आहत या परेशान हो सकते हैं वे क्लास से जा सकते हैं ? क्या ऐतिहासिक तकलीफों को ऊंच-नीच के स्थायी दर्जों में बांटा जा सकता है, जिसे हरेक को कबूल करना ही होगा ?)
यह एक ऐसा ईंधन है, जिसका उपयोग चरम-दक्षिणपंथ खुद को मजबूत बनाने के लिए करता है. लेकिन डर के मारे और बिना सोचे-समझे, सवाल उठाए, इसके आगे झुक जाना भी इस बदलाव की तौहीन करना है, जैसा कि खुद को उदारवादी या वामपंथी समझने वाले लोग करते हैं. क्योंकि पहचान की राजनीति में अक्सर ही एक ऐसी अहम धुरी होती है, जो अपनी जगह घूमते हुए ठीक उसी चीज़ को मजबूत करने लगती है और उसी चीज़ की शक्ल हासिल करने लगती है, जिसका वह विरोध करना चाहती है. यह तब होता है जब पहचान को अलग-थलग करके, उसे नन्हें-नन्हें दर्जों में बांट दिया जाता है.
फिर ये नन्हें दर्जे भी सत्ता का एक ऊंच-नीच भरा ढांचा बना लेते हैं, उनमें एक नन्ही कुलीनता विकसित होती है, जो बड़े शहरों, बड़े विश्वविद्यालयों में स्थित होती है, उसके पास सोशल मीडिया की पूंजी होती है, जो अपरिहार्य रूप से उसी तरह के बहिष्कारों, नकारों और ऊंच-नीच की नकल करती है, जिसको चुनौती देने से शुरुआत हुई थी.
अगर हम उन्हीं लेबलों और पहचानों की कालकोठरियों में खुद को कैद कर लें जो हम पर हमेशा से हुकूमत करते आए लोगों ने हमें दी है, तब हम अधिक से अधिक जेल की बगावत को अंजाम दे सकते हैं. हम क्रांति नहीं कर सकते. और फिर जल्दी ही जेल के रखवाले भी पहुंच जाएंगे ताकि कानून-व्यवस्था को कायम रखा जाए. असल में वे चल भी चुके हैं. जब हम फरमानों और सेंसरशिप की संस्कृति को कबूल कर लेते हैं, तब आखिरकार इससे हद से ज्यादा फायदा हमेशा ही दक्षिणपंथ को, और आम तौर पर यथास्थिति को होता है.
खुद को समुदायों, धर्मों और जातीय समूहों, एथनिसिटी और जेंडरों में मुहरबंद करके, अपनी पहचानों को सीमित करते हुए और उन्हें सपाट बनाते हुए, और उन्हें ठोक-पीट कर खांचों में ढाल देने से एकजुटता की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है. विडंबना देखिए कि भारत में हिंदू जाति व्यवस्था का सर्वोच्च लक्ष्य यही था और अभी भी है. लोगों को अटूट और बंद कोठरियों की एक ऊंच-नीच भरी व्यवस्था में बांट दीजिए, और फिर कोई भी समुदाय दूसरे का दुःख-दर्द महसूस कर पाने के काबिल नहीं रह जाएगा, क्योंकि वे हमेशा और लगातार एक दूसरे से टकराव में रहते हैं.
यह खुद ब खुद चलने वाली, एक जटिल प्रशासनिक और निगरानी मशीन की तरह चलती है जिसमें समाज खुद अपना संचालन और निगरानी खुद करता है, और इस प्रक्रिया में यह सुनिश्चित करता है कि उत्पीड़न का ढांचा अपनी जगह कायम रहे. इस व्यवस्था में हर कोई किसी न किसी का उत्पीड़न करता है और किसी न किसी से उत्पीड़ित होता है, इसका अपवाद सिर्फ सबसे ऊपर और सबसे नीचे की जातियां हैं. और ये श्रेणियां भी आपस में बहुत बारीकी से ऊंच-नीच में बंटी हुई हैं.
एक बार फंदों का जाल बिछ चुकने के बाद, करीब-करीब कोई नहीं बचता है जो शुद्ध और सही होने की कसौटी पर खरा उतर पाए. निश्चित रूप से, करीब-करीब ऐसी कोई चीज नहीं बचती, जिसे कभी अच्छा या महान साहित्य माना गया था. यकीनन शेक्सपियर नहीं. टॉल्सटॉय भी नहीं – उनके रूसी साम्राज्यवाद को तो छोड़ ही दीजिए, जरा सोचिए कि टॉल्सटॉय ने कैसे यह मान लिया था कि वे अन्ना कारेनिना नाम की एक औरत का मन समझ सकते थे. दॉस्तोएव्स्की भी नहीं, जो बूढ़ी औरतों को सिर्फ ‘चुड़ैल’ के नाम से ही बुलाते थे. इस तरह तो मैं यकीनन एक चुड़ैल होने की कसौटी पर खरी उतरती हूं लेकिन इसके बावजूद मैं चाहूंगी कि लोग उन्हें पढ़ें.
या अगर चाहें तो आप गांधी वांग्मय पढ़ने की कोशिश करें. मैं गारंटी दे सकती हूं कि आप हर हिसाब से सन्न रह जाएंगे – चाहे नस्ल की बात हो, या सेक्स, जाति, या वर्ग की. क्या इसका मतलब है कि उन पर पाबंदी लगा दी जानी चाहिए ? या अब फिर से उन्हें लिखा जाना चाहिए ? यहां तक कि जेन ऑस्टिन भी नहीं बच पाएंगी. यह कहने की जरूरत नहीं है कि इन मापदंडों पर किसी भी धर्म की कोई भी पवित्र किताब खरी नहीं उतरेगी.
सार्वजनिक विमर्श में जाहिर शोर-शराबे के बीच, हम लोग एक किस्म के बौद्धिक गतिरोध में, एक बंद गली में दाखिल हो रहे हैं. एकजुटता कभी भी पूरी तरह बेगुनाह नहीं हो सकती है. इसको चुनौती दी जानी चाहिए, इसके बारे में बहसें होनी चाहिए, इसे सुधारा जाना चाहिए. लेकिन इसकी गुंजाइश को खत्म करते हुए, हम ठीक उस चीज़ को मजबूत करते हैं, जिससे लड़ने का हम दावा करते हैं.
इन सबका साहित्य पर क्या असर पड़ता है ? एक कथा लेखक के रूप में कुछ ही चीज़ें हैं जो मुझे इस ‘अप्रोप्रिएशन’ (बिना इजाजत मांगे ले लेना या अपना लेना) शब्द से अधिक परेशान करती हैं, जो नई सेंसरशिप के नारों में से एक है. इस संदर्भ में, सीधे-सीधे कहें तो इस अप्रोप्रिएशन का रिश्ता लुटेरों से जोड़ा जा रहा है, पछतावे में डूबे उन लुटेरों से भी जो लिखने की, प्रतिनिधित्व की, दूसरों से ऊंची आवाज में बोलने की, या असल में अपने शिकार लोगों की कहानियां उनके नाम पर सुनाने की कोशिश कर रहे हैं. यह खासी घिनौनी बात है, और किसी बात की आलोचना करते हुए यह ध्यान में रखने लायक एक उपयोगी सिद्धांत है.
लेकिन चीजों पर पाबंदी लगाने या उनको सेंसर करने की यह उचित वजह नहीं है. हां, माइक हमसे छीन लिया गया है. हां, हमने एक किस्म के लोगों को बहुत सुन लिया है और बाकी किस्म के लोगों से बहुत कम सुना है. लेकिन जीवन का जाल घना और उलझा हुआ है, इसमें रहने वाले जीवों और उनके कामों को घटा कर रूढ़ विशेषताओं में सीमित नहीं किया जा सकता और न ही उन्हें इतनी आसानी से और नासमझी भरे तरीके से दर्जों में बांटा जा सकता है.
अगर खास तौर से कथा-साहित्य की बात करें, तो बिना अप्रोप्रिएशन के कोई कहानी नहीं लिखी जा सकती है. क्योंकि हम कथा लेखक लुटेरे भी होते हैं. अगर सिलसिलेवार हत्याएं करने वाले सीरियल किलर्स बेरहम हत्यारे होते हैं, तो उपन्यासकार बेरहम लुटेरे होते हैं. अपनी काल्पनिक दुनिया रचने के लिए हम हर उस चीज को हथिया लेते हैं जिससे हमारी मुलाकात होती है और उस सबसे हम काम लेते हैं. यही वह चीज है जो महान उपन्यासों को खतरनाक बनाती है, उन्हें ऐसी चीज बनाती है जो छुपी हुई चीजें उजागर करते हैं.
मैं अपने बारे में कहूं तो मैंने अपने शिल्प को न सिर्फ टोनी मॉरिसन और जेम्स बाल्डविन जैसे राजनीतिक रूप से असाधारण लेखकों से सीखने की कोशिश की है, बल्कि मैंने किपलिंग जैसे साम्राज्यवादियों से भी, और धर्मांध, नस्लवादी, उपद्रवी और दुष्ट लेखकों से भी सीखने की कोशिश की है, जिन्हें खूबसूरती से लिखना आता है. क्या उन सबको फिर से लिखा जाना चाहिए ताकि वे किसी संकीर्ण घोषणापत्र की ताल पर कदमचाल कर सकें ?
हाल में रोल्ड डॉल के लेखन को फिर से संपादित करने का फैसला लिया गया – माई गॉड, अब किसकी बारी है ? नाबोकोव ? क्या लोलिता हमारी किताबों की अलमारी से गायब हो जाएगी ? या क्या उसे एक खुफिया भेस धरे, कम-उम्र किशोर एक्टिविस्ट में बदल दिया जाएगा ? क्या पुरानी महान कलाकृतियों को फिर से रंगा जाएगा ? उनको मर्दाना निगाह से पाक करते हुए ? यह सब कुछ कहना तक अपने आप में अफसोसनाक है. यह हमें कहां ले जाकर छोड़ेगा ? एक ऐसे तट पर जहां कदमों का कोई निशान नहीं है ? एक दुनिया जिसका कोई इतिहास नहीं है ?
अगर साहित्य हजार गांठों वाले धागों के एक जाल में उलझ कर जड़ हो जाए, तब यह एक किस्म के ठहरे हुए, बोझिल घोषणापत्र में बदल जाएगा. और अफसोस की बात यह है कि जो आज इसकी लठैती करने में बड़े जोशो-खरोश से लगे हुए हैं, वे न सिर्फ दूसरों को जड़ बना रहे हैं, बल्कि वे खुद को भी जड़ बना रहे हैं. वे ऐसी बारूदी सुरंगें बिछा रहे हैं जिन पर उनके भी पांव यकीनन पड़ेंगे, यह वे जानते हैं. दिमाग पर जब सतर्कता और चौकन्नेपन का पहरा हो, तब उसके लिए थिरकना, नाच पाना मुमकिन नहीं होता. इस नई भाषा में, छलावे भरी ज़बान में, सिर्फ भारी-भरकम, सावधान कदम ही उठाए जा सकते हैं.
जो भी हो, इन चीज़ों को ठंडे बस्ते में डालने से वे खत्म नहीं हो जाती. ये बहसें जिस धौंस और बदले की भावना के साथ हो रही हैं, अगर ये उनके बिना होतीं, तो निश्चित रूप से इसके नतीजे में अमूमन जो कट्टरता, नस्लवाद और सेक्सिज्म की गड़बड़ दिखाई पड़ती है, वह नहीं होती बल्कि ऐसी नई बेमिसाल आवाजें उभरतीं, जिनमें ऐसी कहानियां सुनाई पड़ती जो पहले कभी नहीं सुनी गई हैं, और जो ज्यादातर अतीत को शर्मिंदगी में डाल देती.
यह सब सही है, इसके बावजूद, यह कभी भी एक बुरा खयाल नहीं है कि शब्दों पर बारीकी से ध्यान दिया जाए क्योंकि कभी कभी एक शब्द एक पूरी कायनात बन जाते हैं.
मिसाल के लिए, जब पहली बार मेरा उपन्यास छपा और मैं एक प्रकाशित उपन्यासकार बनी, तो भारत के बाहर मंच पर अक्सर ही एक ‘भारतीय महिला लेखक’ के रूप में मेरा परिचय दिया जाता. (भारत में कहा जाता ‘बुकर पुरस्कार जीतने वाली पहली भारतीय महिला’) हर बार जब यह होता मैं भीतर ही भीतर सिहर उठती और इस तरह किसी पर लेबल लगाने के तरीकों पर सोचती.
क्या ऐसा करना जरूरी था या यह किसी व्यक्ति को सीमित करने और संकुचित करने का एक तरीका था ? आखिरकार हम साहित्य के बारे में बातें कर रहे थे, वीज़ा आवेदन के बारे में नहीं. मैं सिहर उठती क्योंकि लगातार मुझे रसूखदार और खुद को लायक समझने वाले मर्दों द्वारा ज्ञान दिया जाता, कि कैसे लिखें, क्या लिखें, किस सुर में लिखें, मेरे जैसी एक (महिला) लेखक के लिए लिखने के मुनासिब विषय कौन-से होंगे.
और ऐसा वे सिर्फ निजी तौर नहीं कहते, अखबारों के पहले पन्नों तक में ऐसी बातें लिखी जाती. अक्सर दी जाने वाली एक सलाह यह होती कि मैं बच्चों के लिए कहानियां लिखूं. कथा-साहित्य से उन्हें उतनी परेशानी नहीं दिखती, जितनी लेखों से होती, भले ही मैं जो कह रही थी, उन बातों से वे सैद्धांतिक रूप से सहमत थे.
बड़े बांधों पर मेरे लेखन के लिए अदालत की अवमानना के लिए एक मौके पर मुझे भारत के सर्वोच्च न्यायालय में हाजिर होने को कहा गया. सुनवाई के दौरान, जज साहिबान हताशा में मेरे लेख का जिक्र अपनी ज़ुबान पर लाते हुए मुझे ‘वह महिला’ कहा करते थे. मानो मैं ठीक वहीं, उनके सामने खड़ी नहीं थी. मैं निजी तौर पर खुद को ‘बुकर जीतने वाली एक हुकर (बाजारू)’ कहा करती. जब मैंने अदालत से माफी मांगने से इन्कार कर दिया, तो मुझसे कहा गया कि मैं ‘एक तर्कसंगत आदमी’ की तरह व्यवहार नहीं कर रही थी, और मुझे एक दिन के लिए जेल भेज दिया गया.
तब से चीजें बदल गई हैं. मेरा परिचय देने के लिए तैयार की गई फेहरिश्त का एक एक शब्द – भारतीय, महिला और लेखक – इन दिनों ऐसे विषय बन गए हैं जिन पर बड़ी बेकरारी से और बड़ी मुश्किल के साथ छान-बीन और बहसें चल रही हैं. ये शब्द ऐसे टकरावों का विषय हैं, जिन पर करीब-करीब कोई सुलह नहीं हो सकती है. एक महिला कौन होती है ? या असल में एक इंसान कौन होता है ? एक देश क्या होता है ? एक नागरिक क्या होता है ? और ओपन एआई और चैटजीपीटी के जमाने में, एक लेख कौन है या क्या है ?
चाहे इस बात को कई लोग कबूल न भी करें, हम अब जानते हैं कि आदमी और औरत के बीच की सरहद एक तरल, बदलती रहने वाली चीज़ है. यह वो चीज नहीं है जो परंपरागत मान्यताओं में बताई जाती है. लेकिन इंसान और मशीन के बीच, कला और कोडिंग के बीच, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और इंसानी चेतना के बीच सरहद के बारे में क्या खयाल है ? क्या ये उतनी पक्की और बनी-बनाई सरहदें हैं, जैसा हमने सोचा था ?
चैटबॉट्स का जमाना आ गया है, और कुछ लोग कह रहे हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चौथी औद्योगिक क्रांति है. क्या लेखक, पत्रकार, कलाकार और संगीतकार उसी तरह धीरे-धीरे खत्म हो जाएंगे, जैसे बुनकर, शिल्पकार, कारखाने के मजदूर और पुरानी दुनिया के किसान खत्म हो गए हैं ? (शायद ‘हाथ से रचे हुए’ और ‘हाथ से बुने हुए’ पोशाकों और शिल्पकृतियों की तरह उपन्यास भी ‘हाथ से लिखे हुए’ बन जाएंगे और साहित्य के रूप में नहीं बल्कि कलाकृतियों की तरह सीमित संस्करणों में बिकेंगे). क्या चैटजीपीटी बेहतर साहित्य रचेगा या सिडनी या बिंज ?
महान भाषाविज्ञानी नोम चोम्स्की सोचते हैं कि यह मुमकिन नहीं है. अगर मैं उन्हें सही समझ पाई हूं, तो वे मानते हैं कि एक मशीन लर्निंग प्रोग्राम अपरिमित मात्रा में डेटा को बेहद तेजी से प्रोसेस करते हुए एक फर्जी-विज्ञान या फर्जी-कला तैयार कर सकती है, लेकिन यह कभी भी मानवीय सहजबोध की जटिल क्षमताओं की जगह नहीं ले सकती है.
इस बात को लेकर भारी बेचैनी है कि अगर ओपन एआई बिना नियमों और कायदों के इस दुनिया में जगह बना लेगा तो क्या होगा. और ऐसी बेचैनी होनी चाहिए.
जब साहित्य की बात आती है, मेरी चिंता इस बात को लेकर कम है कि क्या चैटबॉट्स लेखकों की जगह ले पाएंगे. (शायद मैं इस लिहाज से थोड़ी ज्यादा उम्रदराज हूं, और थोड़ी ज्यादा बेकार हूं. या शायद इसलिए कि मैं साहित्य को एक ‘उत्पाद’ के रूप में नहीं देखती हूं।. इस प्रक्रिया में जो दर्द, खुशी और भारी पागलपन शामिल है वही मेरे लिखने की असली वजह है.)
मेरी चिंता यह है कि इंसानी लेखकों को – देखिए, मैंने कह ही दिया, मैंने ‘इंसानी लेखक’ कहा – जितनी मात्रा में डेटा और सूचना को इन दिनों प्रोसेस करना पड़ता है, और गलतियों से बेदाग होने और राजनीतिक रूप से पूरी तरह सही होने के लिए बिछे हुए फंदों के जाल से गुजरना पड़ता है, खतरा यह है कि लेखक अपना सहजबोध खो सकते हैं और एक चैटबॉट में तब्दील हो सकते हैं. मुमकिन है कि तब रूहों की अदला-बदली हो जाए. तब चैटबॉट्स असली रूहों के रूप में दिखाई देंगे, और असली रूहें चैटबॉट का भेस धरें होंगी.
इस सारी तरलता और आवाजाही की गुंजाइशों के बीच, जो अकेली सरहदें मजबूत होती दिखाई दे रही हैं, वे राष्ट्र-राज्यों के बीच की सरहदें हैं. वे गहराई तक जड़ें जमाए हुए हैं, और उन पर गश्त जारी है. जब फौजें उन्हें पार करती हैं, हम इसे जंग कहते हैं. जब लोग उन्हें पार करते हैं, तब इसे शरणार्थी संकट कहा जाता है. जब बेलगाम पूंजी उन्हें पार करती है, इसे मुक्त बाजार कहा जाता है.
आधुनिक राष्ट्र-राज्य ने विचार के रूप में अब एक ईश्वर की हैसियत हासिल कर ली है, जिसके लिए जान ली और दी जा सकती है. लेकिन अब, डिजिटल दौर में, क्या हम एक नए किस्म के राज्य की तरफ बढ़ रहे हैं ? एक इलेक्ट्रॉनिक राज्य, या जिसे स्टेट इन अ स्मार्टफोन (स्मार्टफोन में सरकार) कहा जा रहा है ? अगर आप चाहें तो इसे एक अवतार राज्य कह सकते हैं.
यूएसएड के धन पर और बड़ी टेक कंपनियों – अमेजन, एपल, गूगल, ऑरेकल के समर्थन से अवतार राज्य करीब करीब हमारे सामने एक हकीकत बन चुका है. 2019 में यूक्रेन सरकार ने डीआईआईए की शुरुआत की, जो एक ऐसा स्मार्टफोन ऐप है जो डिजिटल पहचान के काम आता है. एक सौ से ज्यादा सरकारी सेवाओं को मुहैया कराने के अलावा डीआईआईए में पासपोर्ट, वैक्सीन सर्टिफिकेट और दूसरे पहचान पत्र या दस्तावेज़ रखे जा सकते हैं. डीआईआईए सिटी उसकी सरहदों के बाहर इसकी वित्तीय राजधानी है – एक किस्म का पूंजी निवेश का केंद्र जहां नागरिक अपने काम-काज को रजिस्टर करा सकते हैं, और कारोबार कर सकते हैं.
शुरुआत में जिस डिया या डीआईआईए (यूक्रेनी भाषा में डिया का अर्थ है ‘कार्रवाई’, और डीआईआईए ‘राजसत्ता और मैं’ का संक्षिप्त रूप भी है) की परिकल्पना ‘पारदर्शिता और सक्षमता’ को सुनिश्चित करने के लिए की गई थी, वह रूसी हमला शुरू होने के बाद, यूएसएड की प्रशासक समांथा पावर के शब्दों में ‘युद्ध के लिए अपना लिया गया.’ सभी खबरों के मुताबिक डीआईआईए ने यूक्रेन की बहादुर अवाम की भारी सेवा की है.
अब इसका नागरिकों के लिए एक 24/7 सरकारी समाचार चैनल है जिससे नागरिक युद्ध संबंधी ताजा जानकारी हासिल कर सकते हैं. शरणार्थी इस पर खुद को रजिस्टर कर सकते हैं, मुआवजे के दावे दाखिल कर सकते हैं. खबरों के मुताबिक नागरिक इस पर दुश्मन के साथ सहयोग करने वालों की सूचना और रूसी सेना की गतिविधि की तस्वीरें अपलोड कर सकते हैं. यह एक किस्म का रियल टाइम सार्वजनिक खुफिया और निगरानी का नेटवर्क बन गया है जिसका संचालन आम नागरिक कर रहे हैं.
जब युद्ध शुरू हुआ, तब डीआईआईए में जमा यूक्रेनी नागरिकों के निजी डेटा को सुरक्षित बनाने के लिए अमेजन के एडब्ल्यूएस स्नोबॉल्स कहे जाने वाले मिलिटरी ग्रेड हार्ड ड्राइवों में ट्रांसफर किया गया, जो क्लाउड में डेटा अपलोड-डाउनलोड करने के काम आते हैं. फिर उन्हें यूक्रेन से बाहर ले जाया गया और सारे डेटा को क्लाउड में अपलोड कर दिया गया.
यूक्रेनी लोग जैसी तबाहकारी जंग का सामना कर रहे हैं और उसकी तकलीफें उठा रहे हैं, ऐसी एक तबाहकारी जंग में अगर अवाम पूरी तरह अपनी सरकार के साथ है, तब अपने समार्टफोन में अपनी सरकार होने के अतुलनीय फायदे हैं. लेकिन क्या शांति के काल में भी इन फायदों में इजाफा होता है ? क्योंकि हम एडवर्ड स्नोडेन की बदौलत जानते हैं कि निगरानी एक दोधारी तलवार है. हमारे फोन हमारे अंतरंग दुश्मन होते हैं, जो हमारी जासूसी भी करते हैं.
‘लोकतांत्रिक दुनिया की रक्षा’ के लिए यूएसएड की योजना है कि डीआईआईए या ऐसे ही ऐप्स को दूसरे देशों में लागू किया जाए. इक्वाडोर, जांबिया, डोमिनिकन रिपब्लिक जैसे देश कतार में सबसे आगे हैं. चिंता इस बात की है कि एक बार डीआईआईए जैसे किसी ऐप को जब ‘युद्ध के लिए अपना’ लिया जाता है, तब क्या शांति के लिए इसको ‘छोड़ा’ या ‘बदला’ जा सकता है ? क्या हथियारों के रूप में ढाल दी गई नागरिक आबादी से उसका यह रूप वापस लिया जा सकता है ? क्या निजी हाथों में सौंप दिए गए डेटा का अनिजीकरण संभव है ?
भारत भी इसी रास्ते पर जा रहा है. प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान भारत की तब की सबसे बड़े कॉरपोरेट कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज़ ने ‘जियो’ नाम से एक मुफ्त वायरलेस डेटा नेटवर्क शुरू किया था, जिसमें एक बहुत सस्ता स्मार्टफोन साथ में मिलता था. एक बार अपने प्रतिद्वंद्वियों को होड़ से बाहर कर देने के बाद जियो ने पैसे वसूलने शुरू किए. जियो ने भारत को दुनिया भर में सबसे बड़े वायरलेस डेटा उपभोक्ता में बदल दिया है – यहां कुल मिला कर चीन और अमेरिका से अभी अधिक इंटरनेट उपभोक्ता हैं.
2019 तक 30 करोड़ स्मार्टफोन उपभोक्ता थे. इंटरनेट से जुड़े होने के अनेक फायदे हैं जिनसे इन्कार नहीं किया जा सकता, लेकिन इसी के साथ साथ ये करोड़ों लोग नफरत के, सामाजिक रूप से रेडियोएक्टिव मैसेजिंग के, और अंतहीन फेक न्यूज के दर्शक भी हैं, जो सोशल मीडिया से होकर उनके फोनों तक लगातार पहुंचता रहता है. यहीं पर आप भारत को उसके असली नंगे रूप में देख सकते हैं.
यही वह जगह है जहां मुसलमानों के सामूहिक जनसंहार और सामूहिक बलात्कार का आह्वान करने वालों की आवाज दूर-दूर तक पहुंचती है. जहां मुसलमानों का कत्लेआम करने वाले हिंदू योद्धाओं के वीडियो, हिंदुओं की हत्या करने वाले मुसलमानों के फर्जी वीडियो, और कोविड फैलाने के लिए चोरी-छिपे फलों पर थूकने वाले मुसलमान फल विक्रेताओं के झूठे वीडियो लोगों के बीच फैला कर उन्हें गुस्से और नफरत की आग भड़काई जाती है (जैसे नाजी जर्मनी में यहूदियों पर टाइफस फैलाने के आरोप लगाए गए थे). मुख्यधारा के मीडिया का हिंदू श्रेष्ठतावादियों के सोशल मीडिया चैनलों के साथ वही संबंध है, जो परंपरागत सेना का एक हत्यारे दस्ते के साथ होता है. ऐसे दस्ते वह काम कर सकते हैं जो परंपरागत सेना के लिए गैरकानूनी होते हैं.
भारत में डिजिटल क्रांति इस बात की एक सटीक मिसाल है कि कैसे बड़े बिजनेस और हिंदू श्रेष्ठतावाद एक साथ तालमेल बिठा सकते हैं.
लाखों की संख्या में भारतीय नागरिक डिजिटल रंगमंच पर ले जाए जा रहे हैं, पूरी की पूरी जिंदगियां ऑनलाइन चल रही हैं, शिक्षा, मेडिकल सेवाएं, कारोबार, बैंकिंग और गरीबों के लिए भोजन का वितरण सबकुछ ऑनलाइन हो रहा है. सोशल मीडिया चलाने वाली कॉरपोरेट कंपनियों को अब सरकारों की बात अधिक माननी पड़ती है, क्योंकि वे बाजार के इतने बड़े हिस्से को नियंत्रित करती हैं.
क्योंकि जब सरकार नाराज़ होती है, जैसा कि अक्सर होता है, यह हर चीज़ को बंद कर सकती है. जल्दी ही 2023 डिजिटल इंडिया एक्ट जैसा नया कठोर कानून लागू होने वाला है जो सरकार को इंटरनेट के ऊपर ऐसी ताकत मुहैया कराएगा जो सोच से भी परे है. इसके बिना भी भारत दुनिया में किसी भी देश से ज्यादा इंटरनेट बंद करने वाला देश है.
2019 में कश्मीर वादी के सत्तर लाख निवासियों पर एक दूरसंचार और इंटरनेट घेरेबंदी थोप दी गई जो महीनों तक चली. कोई फोन कॉल नहीं, टेक्स्ट नहीं, मैसेज नहीं, ओटीपी नहीं, इंटरनेट नहीं. कुछ भी नहीं. और उनके लिए स्टारलिंक सैटेलाइट पहुंचाने वाला कोई नहीं था.
आज जब मैं यहां बोल रही हूं, 2.7 करोड़ की आबादी वाले पंजाब राज्य में आज इंटरनेट को बंद किए हुए चौथा दिन है, क्योंकि पुलिस राजनीतिक वजहों से फरार कहे गए एक शख्स की तलाश कर रही है और उसे चिंता है कि वे समर्थन न जुटा लें.
2026 तक भारत में एक अरब स्मार्टफोन उपभोक्ताओं के होने का अंदाजा है. कल्पना कीजिए कि डीआईआईए ऐप के भारतीय संस्करण में इतना बड़ा डेटा हो. कल्पना कीजिए कि यह सारा डेटा निजी कॉरपोरेशनों के हाथों में हो. या, फिर कल्पना कीजिए कि यह एक फासीवादी राज्य के हाथों में, और इसके प्रचार में मदहोश, उग्र समर्थकों के हाथों में हो.
मिसाल के लिए, मान लीजिए कि एक अनाम मुल्क एक नया नागरिकता कानून पारित करने के बाद अपने ही नागरिकों के बीच से दसियों लाख ‘शरणार्थी’ तैयार करता है. यह उन्हें देश बदर नहीं कर सकता, इसके पास उन सभी को कैद करने के लिए जेल बनाने के पैसे नहीं हैं लेकिन इस अनाम मुल्क को किसी गुलाग या यातना शिविर बनाने की जरूरत भी नहीं होगी. यह उन शरणार्थियों को बस स्विच ऑफ कर सकता है.
यह उनके स्मार्टफोनों में सरकार को स्विच ऑफ कर सकता है. इसके बाद इसके पास काम करने के लिए तैयार एक बहुत बड़ी आबादी होगी, मजदूरों का एक ऐसा उपवर्ग होगा, जिसके पास कोई अधिकार नहीं होगा, जिनके लिए कोई न्यूनतम मजदूरी नहीं होगी, जिनके पास वोट डालने के, स्वास्थ्य सेवाओं के, राशन पाने के अधिकार नहीं होंगे.
उन्हें आधिकारिक आंकड़ों और रिपोर्टों में शामिल करने की जरूरत भी नहीं होगी. इससे आंकड़ों में अनाम मुल्क की एक बेहतर तस्वीर उभरेगी. यह एक पूरी तरह सक्षम और परदर्शी कार्रवाई हो सकती है. यह एक महान लोकतंत्र की तरह भी दिख सकती है.
ऐसा एक राज्य कैसा महसूस होगा ? या उसका स्वाद कैसा होगा ? क्या वह एक अजनबी सी चीज़ होगी ? या वह बहुत जानी-पहचानी हुई कोई चीज़ होगी ?
आपके सब्र के लिए शुक्रिया. फिलहाल मैं आपसे विदा लेती हूं और आपको इन विचारों के साथ छोड़ना चाहती हूं. एक मुल्क क्या होता है ? एक हुकूमत क्या होती है ? एक इंसान क्या होता है ? और एक लेखक कौन, या क्या चीज़, होता है ?
- स्टॉकहोम स्थित स्वीडिश अकादमी में ‘थॉट एंड ट्रुथ अंडर प्रेशर’ विषय पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। 22 मार्च, 2023 को हुए इस कार्यक्रम में पांच अन्य वक्ताओं के साथ मशहूर लेखिका अरुंधति रॉय ने भी अपने विचार रखे थे। अंग्रेजी में दिए गए उनके इस वक्तव्य का हिंदी अनुवाद रेयाज़ुल हक़ ने किया है.
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