जगदीश्वर चतुर्वेदी
मैं अगस्त 2016 में जब कश्मीर में घूम रहा था, लोगों से मिल रहा था, बातें कर रहा था, तो एक बात साफ नजर आ रही थी कि कश्मीर तेजी से बदल रहा है. इस बदले हुए कश्मीर से कश्मीरी पृथकतावादी और हिन्दू फंडामेंटलिस्ट बेहद परेशान थे. मैं पुराने श्रीनगर इलाके में कई बार गया. वहां विभिन्न किस्म के लोगों से मिला, उनसे लंबी बातचीत की, खासकर युवाओं का बदलता हुआ रूप करीब से देखने के लिए कश्मीर विश्वविद्यालय में भी गया.
वहां युवाओं की आपसी बातचीत के मसले देखे, उनके चेहरे पर एक खास किस्म का चैन देखा. युवाओं में पैदा हुए लिबरल भावों और उनकी आपसी संगतों में उठने वाले सवालों और विचार-विमर्श के विषयों को सुनकर लगा कि कश्मीर के युवाओं में पृथकतावाद-आतंकवाद या धार्मिक फंडामेंटलिज्म को लेकर एक सिरे से घृणा का भाव है.
कश्मीर विश्वविद्यालय में एक जगह दीवार पर पृथकतावादी नारा भी लिखा देखा, जिसमें लिखा था – ‘भारत कश्मीर छोड़ो.’ मेरी आंखों के सामने एक घटना घटी जिसने मुझे यह समझने में मदद की कि आखिर युवाओं में क्या चल रहा है. हुआ यह कि मैं जब साढ़े तीन बजे के करीब हजरतबल मस्जिद से घूमते हुए कश्मीर विश्वविद्यालय पहुंचा तो देखा दो लड़कियां एक बैनर लिए कैंपस में प्रचार कर रही हैं. वे विभिन्न छात्र-छात्राओं के बीच में जाकर बता रही थीं कि एक जगह बलात्कार की घटना घटी है और उसमें कौन लोग शामिल हैं.
मैं उनका बैनर नहीं पढ़ पाया क्योंकि वह कश्मीरी में लिखा था लेकिन बैनर लेकर प्रचार कर रही दोनों लड़कियों की बात को कैंपस में विभिन्न स्थानों पर बैठे नौजवान सुनने को राजी नहीं थे. वे बिना सुने ही मुंह फेर ले रहे थे. इस घटना से मुझे आश्चर्य लगा. मैंने एक छात्र से पूछा कि बैनर लेकर चल रही लड़कियां किस संगठन की हैं तो वो बोला – मैं सही-सही नहीं कह सकता लेकिन ये पृथकतावादी संगठनों के लोग हैं और आए दिन इसी तरह बैनर ले कैम्पस में घूमते रहते हैं. कोई इन संगठनों की बातें नहीं सुनता क्योंकि कश्मीरी छात्र अमन-चैन से रहना चाहते हैं.
दिलचस्प बात यह थी मेरी आंखों के सामने तकरीबन 30 मिनट तक वे बैनर लेकर घूम-घूमकर छात्रों को बताने की कोशिश करते रहे लेकिन हर बार उनको छात्रों के छोटे-छोटे समूहों में निराशा हाथ लग रही थी. कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं था. अंत में बैनर लिए युवाओं ने निराशा भरे शब्दों में अंग्रेजी में धिक्कारभरी भाषा में अपने गुस्से का इजहार किया, इस पर कुछ लड़कियों ने मुंह बनाकर उनको चिढ़ाने की कोशिश की.
थोड़ी दूर चला तो देखा लड़के-लड़कियां बड़े आनंद से एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए टहल रहे हैं. बाहर निकलकर मुख्य सड़क से जब कार से घूमते हुए मैं पुराने शहर की ओर आया तो देखा कई युवा युगल मोटर साइकिल पर एक-दूसरे से चिपके हुए दौड़े चले जा रहे हैं. यह भी देखा कि बड़ी संख्या में मुसलिम लड़कियां और लड़के आधुनिक सामान्य सुंदर ड्रेस पहने हुए घूम रहे हैं, बाजार में खरीददारी कर रहे हैं.
मुख्य बाजार में अधिकतर मुसलिम औरतें बिना बुर्के के जमकर खरीददारी कर रही हैं. रात को 11 बजे एक रेस्तरां में डिनर करने गया तो वहां पर पाया कि कश्मीरी प्रेमी युगल और युवाजन आराम से प्रेमभरी बातें कर रहे हैं, कहीं पर कोई आतंक का माहौल नहीं, किसी की भाषा में घृणा के शब्द नहीं. मैंने अपने टैक्सी ड्राइवर और होटल के मालिक से पूछा इस समय कश्मीर में लड़कियां किस तरह शादी कर रही हैं ॽ सभी ने एकस्वर में कहा इस समय कश्मीरी लड़कियां गैर-परंपरागत ढ़ंग से प्रेम विवाह कर रही हैं. वे स्वयं तय कर रही हैं. यह 1990-91 के बाद पैदा हुआ एकदम नया फिनोमिना है.
कश्मीरी युवाओं में उदातावादी रूझानों को देखकर मन को भय भी लग रहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि कश्मीर में फिर से अशांति लौट आए ॽ क्योंकि फंडामेंटलिस्ट ताकतें नहीं चाहतीं कि कश्मीर में उदारतावादी भावनाएं लौटें. मुझे यह भी लग रहा था कि जल्द ही टकराव हो सकता है. मैंने इस तनाव को बार-बार वहां महसूस किया. मुझे लगा वहां आम जनता में उदारतावादी राजनीति और जीवन मूल्यों के प्रति जबर्दस्त आग्रह है और आतंकी-पृथकतावादी और हिन्दू फंडामेंटलिस्ट नहीं चाहते कि कश्मीर में उदारतावाद की बयार बहे. वे हर हालत में आम जनता के मन में से उदारतावाद के मनोभावों को मिटाने की कोशिश करेंगे.
मैंने कश्मीर से लौटकर वहां के उदार माहौल पर सोशल मीडिया पर लिखा भी था. दुर्भाग्यजनक है कि मेरे लिखे जाने के कुछ दिन बाद ही बुरहान वानी की हत्या होती है और अचानक कश्मीर में उदारतावादी माहौल एक ही झटके में आतंकी-पृथकतावादी माहौल में तब्दील कर दिया गया.
जिसने भी बुरहान वानी की हत्या का फैसला लिया, वह एकदम बहुत ही सुलझा दिमाग था. उसके मन में बुरहान वानी नहीं बल्कि कश्मीर का यह उदार माहौल था जिसकी उसने हत्या की है. ये वे लाखों कश्मीरी युवा हैं जिनके उदार मूल्यों में जीने की आकांक्षाओं को एक ही झटके में रौंद दिया गया.मैं इस तरह की आशंकाओं को लेकर लगातार सोच रहा था कि मोदी-महबूबा के सरकार में रहते कश्मीर में शांति का बने रहना संभव नहीं है.
मैं जब सोच रहा था तो उस समय सतह पर शांति थी लेकिन मैं आने वाले संकट को महसूस कर रहा था. अफसोस की बात है कि मोदी-महबूबा की मिलीभगत ने कश्मीर की जनता के अमन-चैन में खलल डाला, शांति से जी रहे कश्मीर को फिर से अशांत कर दिया, नए सिरे से आतंकियों और सेना की गिरफ्त में कश्मीर के युवाओं को कैद कर दिया.
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