'यदि आप गरीबी, भुखमरी के विरुद्ध आवाज उठाएंगे तो आप अर्बन नक्सल कहे जायेंगे. यदि आप अल्पसंख्यकों के दमन के विरुद्ध बोलेंगे तो आतंकवादी कहे जायेंगे. यदि आप दलित उत्पीड़न, जाति, छुआछूत पर बोलेंगे तो भीमटे कहे जायेंगे. यदि जल, जंगल, जमीन की बात करेंगे तो माओवादी कहे जायेंगे. और यदि आप इनमें से कुछ नहीं कहे जाते हैं तो यकीं मानिये आप एक मुर्दा इंसान हैं.' - आभा शुक्ला
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कविताएं

दंगाई

एक नंबर के दंगाई ने दो नंबर के दंगाई को बचाया फिर दो नंबर के दंगाई ने एक नंबर के दंगाई को सम्मानित किया फिर दोनों ने एक-दूसरे को देख कर मुस्कुराया और इस तरह हिन्दू राष्ट्र बनाने का जश्न मनाया फिर तीन नंबर के दंगाई ने दोनों के लिए ताली बजाया दोनों का गुड़गान किया और बदले में ढेर …

सैनिक

लाल तंबू के नीचे जब होश आया तो मैंने अपने आजू बाज़ू दोनों बिस्तर में पड़ी दो लाशों को देखा दोनों मेरे सहोदर भाई थे हम तीनों सहोदर भाई अपने अपने राजा के लिए लड़ते थे राजा ने हमें समझाया था कि उनके हरम को गर्म रखने के लिए बीच बीच में सैनिकों के गर्म खून की ज़रूरत पड़ती है …

आख़िरी प्रेम गीत

मेरी पुरानी डायरी के आख़िरी पन्ने पर दर्ज़ आख़िरी गीत तुम्हें ऑनलाइन नहीं भेजना चाहता था इसलिए उसे फाड़ कर अपनी पुरानी कोट की जेब में डाल दिया और निकल पड़ा उस तरफ़ जहाँ कभी तुम्हारा घर हुआ करता था वैसे तो मेरे पास कभी भी तुम्हारे घर का पता नहीं था लेकिन मैं उन रास्तों पर निकल पड़ा जिन …

उससे किसी ने प्यार नहीं किया…

उससे किसी लड़की ने प्यार नहीं किया ये और बात है कि उसने कई लड़कियों से प्यार किया उन्हें प्रपोज किया फिर भी अकेला ही रह गया जबकि उसके दोस्त प्रेम की दुनिया में व्यस्त रहे कभी मैना तो कभी तोता के साथ आकाश में उडते रहे जब भी वो उन्हें देखता तो अपनी किस्मत पर रोता और इस भरी …

आज़ाद

जो इंसान इंसान के लिए खड़ा नही होगा वो कभी देश के लिए खड़ा नही होगा क्योंकि देश के लिए खड़ा होने का मतलब है करोड़ो इंसानों के लिए खड़ा होना और इसकी शुरूआत एक इंसान के साथ खड़ा होने के साथ ही शुरू होती है जो व्यक्ति अपने घर में अन्याय के खिलाफ़ खड़ा नहीं होगा अपने गांव में …

चमत्कारों से घिरा पुरूष

चमत्कारों से घिरा पुरूष उन दिनों पुरूष नहीं था महज एक इंसान था बाढ़, तूफान उसे डराते थे, तो गुनगुनी धूप और जंगलों में उलझी हवा उसे सहलाती थी आसमान के बदलते रंग उसे आश्चर्य से भर देते कभी खौफ से तो कभी खुशी से उन दिनों भी पुरूष रंगों से परिचित था लाल रंग से भी उसे पता था …

गढ़ेंगे हम एक दुनिया

तुम्हारे कोमल हथेलियों की छुअन अब तक स्मृति में है मेरे तेरे होंठों की तपन का अहसास है मुझे गुलाबी होंठों से झांकती तुम्हारे झक सफेद टेढ़े दांत तेरी बड़ी-बड़ी गहरी काली आंखें ध्यानमग्न विश्वामित्र को भी झकझोर जाती है लम्बी-सी दुपट्टे के नीचे से आमंत्रण देता तुम्हारा धड़कता दिल प्रिय ! इंतजार करूंगा तेरा इस आठवें जनम में तेरा …

अंधी सड़कें

अंधी सड़कें नहीं देख पाती शार्क के खुले जबड़े आदमी मच्छी के कांटे सा फंसा हुआ है उसके नुकीले दांतों के बीच गांव दर गांव शहर दर शहर कंकाल के हाथ लाल सलाम कहते हुए लाल कार्ड सरकारी बनिये की चौखट पर कीड़े में चावल बीनते कीड़े एक संप्रभु राष्ट्र की धर्म ध्वजा है जिसे बनाए रखने के लिए करोड़ों …

अन्वेषण

पड़ी हुई जमी हुई राख को धीरे-धीरे कुरेदना अच्छा लगता है मन को लगता है मिल रही है जीवन दृष्टि धीरे-धीरे राग द्वेष से परे जिसमे न अहम की तुष्टि है न ही वर्तमान की अवसरवादिता जो गिराएगी पाताल तक उठायेगी आसमान तक अन्वेषण आदमी का आदमी से जोड़ने की तथ्यपरक स्वीकारोक्ति निश्चित करती है अन्वेषण की सार्थकता को प्रजनन, …

शब्द

क्या मेरे शब्द बस तुम्हारी यादों की आग के जलावन हैं क्या तुम्हारा मन विस्मृति से भरा मात्र एक आकाश है काले सफेद बादलों के फूल जहां खिलते हैं कभी कभार मौसम के तकाज़े पर इतना निस्पृह इतना निरासक्त जैसे वैरागी का आंगन कहीं ऐसा तो नहीं कि शब्द के बिना मेरी कोई पहचान ही नहीं और विस्मृति के बिना …

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