वह रोज़ आती है. आती क्या, साथ रहती है. उसे अपनी आंखों से देखा है – निराकार निर्गुण ईश्वर के अहसास की तरह. तड़के अंधियारा वक्त. अम्मा को चाय की आखिरी तलब लगी है. चाय उनकी ज़रूरत और आदत बनते-बनते सुबह का अलार्म बन गई थी – ‘बेटा, चाय पिला दो. तबीयत बहुत घबड़ा रही है.’ मैं और दीदी भागते …
मौत से रोमांस
