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रेणु का चुनावी अनुभव : बैलट की डेमोक्रेसी भ्रमजाल है, बदलाव चुनाव से नहीं बंदूक से होगा

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रेणु का चुनावी अनुभव : बैलट की डेमोक्रेसी भ्रमजाल है, बदलाव चुनाव से नहीं होगा
विष्णु नागर

बिहार और पश्चिम बंगाल में अक्टूबर में चुनाव होने के आसार हैं. ऐसे समय में ‘मैला आंचल और ‘परती:परिकथा’ जैसी बड़ी रचनाओं के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मशताब्दी वर्ष में यह याद करना समीचीन होगा. आज से 48 वर्ष पहले इस अविस्मरणीय लेखक ने भी एक बार विधानसभा चुनाव लड़ने का साहस या कहें कि दुस्साहस किया था. उन्होंने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और वही हुआ, जो एक निर्दलीय उम्मीदवार के साथ अक्सर होना होता है.

1952 तक वह सोशलिस्ट पार्टी के माध्यम से राजनीति में सक्रिय थे. मजदूर और किसान मोर्चे पर भी वह डटे रहे थे मगर उन्हें जल्दी ही यह समझ में आ गया कि राजनीति में लेखक की स्थिति दूसरे दर्जे की होती है. हर पार्टी का अपना एक ‘तबेला’ होता है. इसके चारों तरफ दीवारें खींच कर वह अपने ‘कमअक्ल’ कामरेडों को इधर-उधर आकर्षित होने से बचाती है. उनके अपने ऐसे कड़े अनुभव रहे. एक बार एम. एन. राय की विचारधारा से जुड़े एक कलाकार के साथ उन्हें देख लिया गया तो अगले दिन पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें बुलाया और एमएन राय के विरुद्ध भाषण पिला दिया.

अपने एक अच्छे मित्र और कम्युनिस्ट छात्र नेता से वह मिला करते थे. एक बार रामवृक्ष बेनीपुरी जी ने उन्हें देख लिया तो समझाया कि क्यों उन्हें कम्युनिस्टों से बातें नहीं करनी चाहिए. यह भी उन्होंने देखा कि नेता आत्मप्रचार से ऊपर नहीं उठ पाते. यह भी समझ में आया कि दलगत राजनीति में बुद्धिजीवी से भी अपेक्षा रहती है कि वह अपनी बुद्धि गिरवी रख कर पार्टी का काम करे. वहां किसी व्यक्ति, किसी गुट का होना भी आवश्यक है. ये सब पाबंदियां, तुच्छताएं उन्हें रास नहीं आ रही थी. वह 1952 के प्रथम आम चुनाव से पहले ही दलगत राजनीति को विदा कहने का मन बना चुके थे.

इन सब कारणों से उस पार्टी से भी भरोसा उठ गया था, जिसके लिए बरसों उन्होंने लगन से काम किया था मगर उनका विश्वास समाजवादी आदर्शों और जयप्रकाश नारायण में अंंत तक बना रहा. वह सक्रिय राजनीति से दूर थे मगर निःस्पृह नहीं थे. वह अपने अनेक उपन्यासों को इसका प्रमाण मानते थे. वह राजनीति के प्रति आभारी थे कि उसने उन्हें गांव-गांव जाने का मौका दिया. लोगोंं को, उनकी संस्कृति और भाषा को जानने का अवसर दिया. बतौर एक लेखक उन्हें बनाया.

पटना मेें जब एक संवाददाता सम्मेलन मेें रेणु जी ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने के अपने निर्णय की घोषणा की और अगले दिन जब यह खबर बिहार के दैनिक समाचार पत्रों में छपी, तब वहां के बुद्धिजीवियोंं मेें हलचल सी मची. उन्हें जाननेे वालेे इस फैैसले से चकित थे कि रेणुु के सिर पर यह क्या भूत सवार हो गया है. जब राजनीति मेंं थे, तब तो चुनाव लड़ा नहीं, अब क्यों लड़ रहे हैं ? जिस पार्टी-पोलिटिक्स से घबरा कर इन्होंने उससे दूरी बनाई थी, उसमें फिर से क्यों पड़ रहे हैं ? और चुनाव लड़ना ही था तो किसी पार्टी से टिकट मांगते. इतने बड़े लेखक को कोई भी पार्टी टिकट दे देती.

उन्हें करीब से जानने वाले लोग नामांकन पत्र भरने के बाद से इसे वापिस लेने की आखिरी तारीख तक इंतजार करते रहे कि शायद उनका मन बदल जाए, अपना नामांकन वे वापस ले लें. इस बीच कुछ दलों ने उन्हें अपना समर्थन देने की पेशकश भी की. रेणु ने ऐसे सभी प्रस्ताव ठुकरा दिए. इस बीच वह पटना से अपने चुनाव क्षेत्र फारबिसगंज में पर्चा दाखिल करने और अपनी उम्मीदवारी का प्रचार करने चले गए.

रेणु ने चुनाव लड़ने के चार बड़े कारण बताए थे. एक तो उनके क्षेत्र में पहली बार राजनीति हिंदू-मुसलमानों को बांटने मेंं सफल हुई थी. इस संघर्ष में बहुत से लोग जख्मी हुए थे. कुछ गिरफ्तारियां हुई थीं, मुकदमे चले थे. गांव के सैकड़ों लोग महीनों कचहरी में परेशान किए गए थे. एक और घटना ने उन्हें विचलित किया था. उनके गांव में भूख से दो गरीबों की मौत हो गई थी. क्षेत्र के विधायक ने इसे भूख से हुई मौत बताया मगर सरकार ने हमेशा की तरह इससे इनकार किया. इसके बाद उस विधायक ने दूसरी बार इस बारे मेंं अपना मुंह नहीं खोला.

दूसरा कारण एमए तक जिस नौजवान ने सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था, उसे कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी. चुने हुए प्रत्याशियों में उसका नाम पहले स्थान पर होते हुए भी उसे नौकरी नहीं दी जाती थी. रेणु के यह सलाह देने पर कि उसे क्षेत्र के विधायक और सांसद से इस बारे में मिलने चाहिए. उसका जवाब था कि इनकी वजह से ही यह सब हो रहा है. गुस्से में आकर उसने रेणु को भी नहीं बख्शा. उसने कहा कि आप जैसे लोग राजनीति से निर्विकार हो गए, उसी कारण यह सब हो रहा है. उनके क्षेत्र में 14 निरपराध आदिवासी संथाल मार मार दिए गए थे. इसके बाद उन्हें लगा कि अब भी वह कुछ नहीं करते तो वे अपनी ही निगाह में गिर जाएंगे.

नामांकन भरने के बाद रेणु ने फैसला किया कि वह अपने इलाके के कई प्रमुख स्थानों के लोगों को बुलाकर उनसे अपनी उम्मीदवारी के बारे में उनकी राय जानने की कोशिश करेंगे. अगर वे उन्हें अपने प्रतिनिधि के योग्य न समझेंं तो वह अपना नामांकन वापस ले लेंगे. इस सिलसिले में चार गोष्ठियों के बाद उन्हें विश्वास हुआ कि उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए. जो लोग बोलने आए थे, उनमें कुछ उनके उपन्यासों के वास्तविक पात्र थे, जो उस समय जीवित थे. लाठी, पैसे और जाति की ताकत के बल पर चुनाव जीते जाते थेे और रेणु का यह प्रयास था कि इनके बगैर चुनाव लड़कर दुनिया को दिखाया जाए. समाज और तंत्र में प्रवेश करती हुई इन विकृतियों से लड़कर देखा जाए.

वह अपनी चुनाव सभाओं में दिनकर, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, सुमित्रा नंदन पंत और रघुवीर सहाय की कविताएं उदृत करते थे. उनका कहना था कि अपने क्षेत्र के साधारण जन के सुख-दुःख में सक्रिय रूप से हाथ बंटाने के लिए, अपने लोगों की समस्याओं को मुक्त कंठ से प्रस्तुत करने के लिए वह चुनाव लड़ रहे हैंं. समाधान तो सरकार ही कर सकती है लेकिन वह इन समस्याओं को सरकार के सामने रखेंगे और कभी चैन से नहीं बैठेंगे. अकेला और निर्दलीय होने के कारण उनकी आवाज कोई बंद नहीं कर पाएगा.

वैसे तो चुनाव लड़ते समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि वह जीतेंगे नहीं लेकिन उस समय लिए गए साक्षात्कारों में जाहिर है कि उन्होंने यह नहींं कहा. जिस समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधि उनके घर आकर अपनी पार्टी के समर्थन उन्हें देने की पर्ची लिखकर छोड़ गया था, वही उनके खिलाफ खड़ा हुआ था.

चुनाव की डुगडुगी बजते ही आदमी किस तरह बदल जाता है, इसका अनुभव उन्हें चुनाव के दौरान हुआ. वह कहते हैं, आप चिनियाबादाम (मूंगफली) वाले से बात कीजिए, आप उससे चिनियाबादाम ले लीजिए लेकिन वो वोट आपको देगा या नहीं देगा, इसके बारे में वह एकदम चुप रहेगा. उनके बारे में यह भी कहा जाने लगा था कि इनकी तो कोई पार्टी नहीं है और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता.

उनके विरोधियों ने नारा लगाया कि ‘बड़े हैं, पद्मश्री टाइटल वाले लेखक हैं लेकिन विधानसभा में जाकर क्या करेंगे ?’ रेणु कहते थे कि भाई एक गरीब आदमी-जिसका नाम वोटर लिस्ट में लिखा हुआ है-वह चुनाव लड़ सकता है या नहीं, यह देखने के लिए मैं खड़ा हुआ हूं. लोगों ने कहा, वैसे खयाल तो बहुत अच्छा है आपका, देखते हैं. उनमें कुछ दूर की कौड़ी जाने वाले भी थे. उन्होंने कहा कि यह किताब लिखने के लिए आया है तो इसे वोट देकर क्या होगा ?

और जिस दिन वोट पड़े, उस दिन देखा कि मधुबनी में जो प्रयोग छोटे पैमाने पर हुआ था, वह वहां व्यापक रूप से हो रहा है. गांव-गांव लोग वोट देने जा रहे हैं और खाली वापस आ रहे हैं क्योंकि लाठी लेकर वहां गुंडे खड़े हैं. रेणु को कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार से भी कम वोट मिले.

तब उन्हें लगा था कि नहीं ये लड़के ठीक कहते हैं कि चेंज बैलट के जरिए नहीं होगा. बैलट की डेमोक्रेसी भ्रमजाल है. तब जो निराशा बढ़ी, उसकी तुलना वह प्रेम में असफल हुए उस व्यक्ति से करते हैं, जो कविता करने लगता है.’ राजनीति में असफल होकर मैं उपन्यास लिखने लगा लेकिन चुनाव हारने के बाद मैं क्या करूंगा ? चुनाव हारने वाला व्यक्ति घर में बीवी तक की निगाह में गिर जाता है. थोड़ा कर्ज उन पर चढ़ गया था.

लोगों ने कहा कि चुनाव में अनुभव पर लिखो तो उन्होंने कहा कि मेरा चुनाव चिन्ह नाव था, इसलिए कागज की नाव शीर्षक से एक रिपोर्ताज लिखूंगा लेकिन लगा कि अब कलम छूने का अधिकार उन्हें नहीं है. अगर कुछ थामना है तो दो ही चीजें थाम सकते हैं या तो बंदूक या कलेजा. अब कलेजा थाम कर बैठो. अब कहीं से कुछ नहीं होने वाला, हालांकि बिहार आंदोलन में फिर उन्हें रोशनी दिखी और वह इसके अटूट हिस्से बन गए.

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ROHIT SHARMA

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