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मई दिवस पर विशेष : आधुनिक सभ्यता का कोहिनूर हैं मजदूर

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मई दिवस पर विशेष : आधुनिक सभ्यता का कोहिनूर हैं मजदूर
मई दिवस पर विशेष : आधुनिक सभ्यता का कोहिनूर हैं मजदूर
जगदीश्वर चतुर्वेदी

आश्चर्य की बात है कि देश के निर्माण में मजदूरों की केन्द्रीय भूमिका है लेकिन आज किसी अखबार ने मजदूरों की खबरें अपने पहले पन्ने पर नहीं दीं. टीवी चैनलों में मजदूर गायब है, इंटरनेट पर मीडिया वेबसाइट पर मजदूर गायब है. अरे कुछ तो शर्म करो कृतघ्नों ! मजदूरों के बिना यह देश नहीं चलता. यह देश मजदूरों का है, सेठों-साहूकारों-मोदी-फोदी का नहीं है. आज के दिन तो मजदूरों को कृतज्ञता के साथ याद करो, सम्मानित करो, प्यार करो, उनके अधिकारों की बात करो.

मजदूर भारत के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं. वे यदि बाजार में निवेश न करें बाजार ठप्प हो जाय. आज मजदूरों के आराम का दिन है. कम से कम अपने कंज्यूमर का तो सम्मान करे बाजार, इतना वर्गीय द्वेष ठीक नहीं है. पूंजीपति की सारी रणनीति यह है कि मजदूर को कोई स्पेस न मिले. वह गुमनाम रहे. मजदूरों और उनके संगठनों के प्रति अहर्निश विद्वेष का प्रचार करना और मजदूरों के यथार्थ को मीडिया से दूर रखना कारपोरेट नीति का केन्द्रीय हिस्सा है. मजदूरों के प्रति इस विद्वेष नीति को तत्काल खत्म किया जाय.

मजदूर आंदोलन के प्रभाव के कारण बेहतरीन साहित्य, फिल्मी संगीत, कलारुप आदि पैदा हुए. जो लोग सोचते हैं मजदूर कलाविहीन होते हैं, वे देखें कि आधुनिककाल के बेहतरीन साहित्य, सिनेमा, कला आदि में उन सर्जकों का बड़ा योगदान है जिनके पास मजदूर चेतना थी और जो घोषित तौर पर मजदूरों से प्रतिबद्ध थे.
भारत में मजदूरों की नव्य आर्थिक उदारीकरण की नीतियों का विरोध करने में महत्वपूर्ण और अग्रणी भूमिका रही है. इन नीतियों का जितने बड़े पैमाने पर मजदूरों ने विरोध किया है, उतने बड़े पैमाने पर किसी ने विरोध नहीं किया है.

स्थानीय स्तर पर जुलूसों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक बंद आयोजित करने में मजदूरों की भूमिका को कम करके नहीं देखा जाना चाहिए. मजदूरों का दबाव था इसके कारण अधिकांश मजदूर संगठनों ने नव्य उदार नीतियों का एकजुट विरोध किया. संसद में सभी गैर वामदल इन नीतियों के सामने समर्पण कर गए लेकिन मजदूरों ने समर्पण नहीं किया. इन नीतियों के बारे में मजदूरों की राय सही साबित हुई और इन नीतियों के समर्थकों की राय गलत साबित हुई.

दूसरी ओर मीडिया में पत्रकारों का ऐसा वर्ग पैदा हुआ है जो आए दिन मजदूरों और उनके नेताओं के खिलाफ घृणा का प्रचार करता रहता है. वे इन दिनों गुजरात मॉडल पर फिदा हैं और मोदी को देश का रक्षक बनाकर पेश कर रहे हैं. मित्रो, मोदी सरकार ने कभी भारत के मजदूरों की सुध ली विगत दस सालों में ? कभी पता किया कि मजदूरों की अवस्था क्या है और वे सुखी हैं या दुखी हैं ?

कभी देश की मजदूर बस्तियों में जाकर देखा कि वहां लोग किस तरह की बदहाल अवस्था में कीड़े-मकौड़े की तरह जी रहे हैं. क्या मजदूर बस्तियों में फैला नरक नजर नहीं आता ? मीडिया में मजदूरों की खबर हिंसा और हड़ताल से शुरु होती है और एक बाइटस के बाद खत्म हो जाती है. मजदूरों की जिंदगी में हड़ताल से ज्यादा उत्पादन के दिन होते हैं. यह उत्पादन वे मजदूर करते हैं जिनके पास न्यूनतम मानवाधिकार नहीं हैं.

हमने ऐसा लोकतंत्र बनाया है जिसमें भाग लेने वाले दलों के चुनावी घोषणापत्र में मजदूरों की समस्याएं कभी न तो दिखती हैं और न नेता के मुंह से कभी भाषण में ही मजदूरों का जिक्र आता है. क्या मजदूरों के बिना लोकतंत्र बनाया जा सकता है ? मजदूरों के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है. मजदूरों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं को सुरक्षित किए वगैर लोकतंत्र को बचाना संभव नहीं है. लोकतंत्र को लंपटतंत्र में तब्दील होने से बचाने में एकमात्र सक्षम वर्ग है-मजदूरवर्ग. मजदूरवर्ग आधुनिक सभ्यता का कोहिनूर है.

देश को किसने बनाया मजदूरों ने या हरामखोरों ने ?

मीडिया में आए दिन हर तरह के पर्व और उत्सव पर कवरेज मिलेगा लेकिन मजदूर दिवस पर मजदूरों के ऊपर, मजदूरों की बस्ती या मजदूरों की समस्याओं पर कवरेज नहीं मिलेगा. सवाल यह है मजदूरों से मीडिया को इतना परहेज और घृणा क्यों है ? क्या मजदूरों का इस समाज में कोई योगदान नहीं है ? क्या मजदूर टीवी दर्शक नहीं होते या अखबार के पाठक नहीं होते ? जो लोग आए दिन हरामखोर नेताओं और देशद्रोही विचारधारा के पक्ष में लिखते रहते हैं और वामनेताओं के खिलाफ घृणा परोसते रहते हैं, वे कभी अपने दिल में झांक कर देखें देश को किसने बनाया है मजदूरों ने या हरामखोरों ने ?

फेसबुक मित्र पता करें उनके इलाके के अखबार में मई दिवस का कवरेज है या नहीं, उनके इलाके में दिख रहे टीवी चैनल में मई दिवस का कवरेज है या नहीं ?.मजदूरों को मीडिया में अदृश्य रखने का अर्थ है मजदूर की उपस्थिति और भूमिका को अस्वीकार करना. मित्रो, मजदूर है और वह करोड़ों की संख्या में है, हर क्षेत्र में उसकी सकारात्मक भूमिका है. मजदूरों के बिना, उनके सकारात्मक सोच के बिना आप आधुनिक समाज का निर्माण ही नहीं कर सकते. भारत के मजदूरवर्ग और उससे जुड़े संगठन देशभक्ति और सामाजिक एकता बनाए रखने में अग्रणी भूमिका निभाते रहे हैं.

मजदूर मुझे इसलिए पसंद हैं कि वे पक्के देशभक्त होते हैं. यहां तक कि संकट की घड़ी में भी वे सबसे ज्यादा उत्पादन करते हैं. देश के लिए उत्पादन करना और देश में ही खर्च करना, देश के हितों को सर्वोच्च प्राथमिकता देना उनकी विशेषता है. मजदूर किसी के खिलाफ घृणा का प्रचार नहीं करते. वे समाज के वंशानुगत नायक नहीं हैं. वे दलीय शक्ति के आधार पर भी नायक नहीं हैं बल्कि कर्मशीलता के आधार पर समाज के नायक बने हैं. उनको जनता वोट देकर नहीं चुनती, वे अपने कौशल, परिश्रम और कुर्बानी के आधार पर समाज के नायक बने हैं. उन्हें कभी भारत रत्न नहीं मिला लेकिन आधुनिक भारत की कल्पना मजदूरों के बिना संभव नहीं है.

मजदूर मुझे इसलिए पसंद हैं क्योंकि वे अपनी और पराए की संपत्ति, संपदा और शक्ति का सम्मान करते हैं. वे छोटे-बड़े के भेदभाव से मुक्त होते हैं. आज मजदूरों का ऐतिहासिक पर्व मई दिवस है. मजदूरों की संघबद्ध एकता सामाजिक परिवर्तन की धुरी है. मजदूरों को मई दिवस का बेहतरीन तोहफा यही होगा कि हम सब संगठनबद्ध हों, संयुक्त रुप से काम करें.

मजदूर के बिना आप आधुनिक समाज नहीं बना सकते. मजदूर के बिना आप कला-साहित्य-संस्कृति के आदर्श मानकों को जन्म नहीं दे सकते. मजदूर न हों तो श्रेष्ठ कलाएं भी न हों. मजदूर हमारे समाज का सर्जक है. यह ऐसा सर्जक है जो अपने लिए नहीं अन्य के लिए सृजन करता है. अन्य के लिए जीना, अन्य के लिए सोचना, अन्य के लिए प्रतिबद्धता और अन्य के लिए कुर्बानी का जज़्बा इसकी विशेषता है. जिसके अंदर अन्य के प्रति प्रेम है वही मजदूरों की पांत में है.

मई दिवस पर मुझे रामेश्वर करुण की ये पंक्तियां याद आ रही हैं –

  1. श्रमकारी भंगी भलो, श्रमबिनु विप्र अछूत।
    कब धौं जग मंह फैलिहै, यह मत पावन पूत।।
  2. करहिं कठिन श्रम नित्य इक बांधि पेट श्रमकार।
    उपभोगहिं इक चैन सो पूंजीपति बेकार।।

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ROHIT SHARMA

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