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नस्लीयराष्ट्रवाद : बहुदलीय संविधानवाद से एकदलीय सर्व-सत्तावाद की ओर

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[भाजपा की काली शक्तियां देश की अर्थव्यवस्था को पताल में लिए जा रही है और देश की एकता-अखंडता, भाई-चारे का दुश्मन बन कर उभरी है. ऐसे वक्त में भाजपा और उसकी मातृ संस्था आर.एस.एस. के वैचारिक पहलू को समझना बेहद जरूरी हो गया है. आरएसएस की वैचारिक पतन की पराकाष्ठा को उजागर करती वरिष्ठ पत्रकार और राजनीति विश्लेषक विनय ओसवाल का प्रखरआलेख ]

नस्लीयराष्ट्रवाद की धमक इतनी तेज है कि देश के संविधान की मेज और न्यायालय की कुर्सियां भी कंपकंपाने लगी है. चाय बेचने वाले को प्रधानमन्त्री की कुर्सी तक और एक साधारण पुलिसकर्मी को मुख्यमन्त्री की कुर्सी तक पहुंंचाने की ताकत रखने वाले लोकतंत्र ने भी झूठ, छल-फरेब, मक्कारी, बे-हयाई, बे-शर्मी, बे-गैरत, छल-कपट की जलेबियांं बे-खौफ कढ़ाई में सेंकते शायद ही इससे पहले कभी देखा हो. कांंग्रेस, जनता पार्टी, एनडीए (एक), यूपीए, इन 62 (2014) सालों में, यूंं तो संविधान, सवा-सौ संसोधन के दौर से गुजर चुका है पर उसका मूल ढांचा नही बदला. अब उस मूल ढांंचे को बदलने का मसौदा नस्लीयराष्ट्रवाद की पाठशाला में तैयार किये जाने की खबरों की आंधियां चल रही हैं.

विगत 92 सालों से “बहु-सांस्कृतिक भारतीय नागरिक समाज” को तोड़ कर “नस्लवादी हिन्दू समाज” को अलग-थलग पहचान के साथ खड़ा करने की युक्तियों का गहरा अध्ययन, मनन और विश्लेषण करने के लिए जर्मनी के हिटलर और इटली के मुसोलिनी सरीखे नस्लवादियों से हमप्याला होने की दास्तान तो खुद इन्हींं नस्लवादियों की किताबों में मौजूद है. मशहूर वामपंथी विचारक और लेखक अरुण महेश्वरी ने भी अपनी पुस्तक “आर. एस. एस. और उसकी विचारधारा” में विस्तार से इनकी दास्तान का वर्णन किया है. हिटलर और मुसोलिनी के साथ मुलाकातों का जिक्र खुद तत्कालीन सरसंघ चालक सदाशिव राव माधव राव गोलवरकर जी ने अपनी पुस्तक  “WE  OR  OUR  NATIONHOOD  DEFINED”  में किया है (यहांं विदित रहे कि इस पुस्तक को एम.एस. गोलवलकर जी ने लिखा या किसी और ने, को लेकर तमाम तरह के संदेह यूंं तो हवा में तैर रहे हैं, पर फिर भी लोगों को यकीन इस पर कायम है कि यह उन्हींं के द्वारा लिखी गयी है). समय बे-समय, संघ के ही पदाधिकारियों के मुंंह से, भारतीय संविधान को रद्दी की टोकरी के हवाले करने जैसी बातें बाहर आती रही हैं, जिससे आज ये शंका बलवान होती जा रही हैं कि ये भारतीय संविधान के मूल ढांचे से छेड-छाड़ करने से बाज नही रहेंगे.

बहु-सांस्कृतिक भारतीय नागरिक समाज, लोकतंत्र जिसकी आत्मा है और यह समाज बहुत से धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों और धार्मिक सामाजिक संस्कृतियों में आस्था रखने वालों का समूह है. संख्याबल के बाहुल्य के आधार पर हासिल ताकत के बल-बूते, यदि एक धर्म विशेष के अनुयायी सदियों से इस भूमि को अपने पूर्वजों की भूमि/पितृ भूमि मानते हो, तो भी उन्हें आज इसी भूमि पर रह रहे अन्य धर्म के अनुयायियों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने का या उनसे अपने धर्म और संस्कृति को छोड़ कर, भुला कर, बहु संख्यकों के धर्म और संस्कृति को स्वीकार करने या उन्हें किसी अन्य प्रकार से उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करने को मजबूर करने अथवा उनकी विरासत के प्रतीकों को नष्ट करने, उनके कर्मकांड को बाधित करने का अधिकार न तो संवैधानिक रूप से प्राप्त है और न नैतिक रूप से. भारतीय संविधान ने राज्यसत्ता को वो सब अधिकार दिए हैं कि वह उन्हें वैसा करने से रोक सके और जिद्द पर आमादाओं को दंडित कर सके.

भरतीय संविधान के निर्माताओं ने इस बात का पूरा ध्यान रखते हुए राज्य को धर्मिक संलिप्ता से दूर रखा था. यानि संविधान के स्वरूप को धर्म-तटस्थ (सेकुलर) बनाया था. दुर्योग, राज्य की सत्ता आज उन्हीं के हाथों में है.

शेर बूढ़े हो गये, भेंड़ियों को कौन ललकारे ?

हाथ बांधे पालथी में, अब तू गिन पहाड़े.

हमारे लोकतंत्र की कुछ कमजोरियां है, जैसे राज्यसत्ता का चुनाव ऐसे लोगों का समूह करता है, जो बहुदा अपने दुख-दर्दों को दूर करने की कुंजी अपने ईष्ट के हाथों में होना मानता है. ईष्ट को प्रसन्न करने के लिए वह वो सब करने को तत्पर रहता है, जो उसके धर्म के पंडे, पुजारी, संत, महंत, आचार्य, मुल्ला, मौलवी, पादरी, आदि-आदि कहें. इस मामले में वह बहुत धर्मभीरु है, अंध-विश्वासी है. अभी हाल ही में हम सब ने देखा कि ऐसे बाबाओं के गंदे आचरण का भांडा फूटने से पहले तक बड़े-बड़े राजनेता, जिनमें से कुछ तो आज सत्ता की शीर्ष कुर्सियों पर विराजमान हैं, दुश्चरित्र बाबाओं  के आश्रमों में हाजिरी लगाते रहे हैं. उनके कार्यक्रमों में मंच साझा करते रहे हैं. मंच पर बाबाओं के समक्ष बड़े ही विनीत भाव से उपस्थित होते रहे हैं, मानो कार्यक्रम में उन्हें बुलाकर बाबाओं ने उन्हें उपकृत कर दिया हो. इन में सभी पार्टियों के नेता शामिल रहे हैं. बाबाओं ने अपने अनुयायियों के वोटों के ठेकेदार माने जाते रहे है. जितने ज्यादा अनुयायी उतना ही बड़ा बाबा. वोटों की सौदागरी के बदले इनके काले कारनामों को राजनैतिक संरक्षण मिलता रहा.

दूसरे यही नागरिक समाज, राज्यसत्ता के प्रति जो धारणा अपने मन में बनाता है, बनाने से पहले उसे तर्क और विवेक की कसौटी पर सामान्यतः कसता नहीं है. कोई समझाना भी चाहे तो उसे सत्ताविरोधी मान उसके परामर्श को दायें-बाएं कर देता है. नेताओं की चिकनी-चुपड़ी बातों, बहकावों में आ जाता है. युद्धस्तर पर किये जाने वाले प्रचार और खोखले वादों के झांसे में बहुत जल्द फंस जाता है. वह अपने से ज्यादा भीड़ को समझदार समझता है. भीड़ के साथ हो लेता है.

भारतीय नागरिक समाज की इस कमजोरी को यूंं कहने को तो सभी राजनेता जानते-समझते हैं और वक्त-बे-वक्त फायदा उठाने की अपनी-अपनी सामर्थ के अनुसार, फायदा भी उठाते रहे हैं. पर जितनी गहराई से इसे आर. एस. एस. के द्वितीय सरसंघ चालक, माधव राव सदाशिव राव गोलवलकर ने समझा शायद ही किसी अन्य ने समझा या समझने का प्रयास किया हो.

एम.एस. गोलवलकर जिन्हें सामन्यतः लोग “गुरूजी” कहते और पहचानते हैं, का अल्प परिचय करा देना उचित होगा. बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से जीव-विज्ञान की शिक्षा के बाद वहीं शिक्षण कार्य भी किया. इसी दौरान महामना मदन मोहन मालवीय के विचारों और चरित्र का उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा और वर्ष 1933 में शिक्षण कार्य से अपने को अलग कर “हिन्दू” के काज को करना उन्होंने अपना ध्येय बना लिया. स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी अखंडानंद से “मन्त्र दीक्षा” भी ली परन्तु थोड़े समय बाद ही सन्यास त्याग दिया.

1940 में आर.एस.एस. के संस्थापक और प्रथम सरसंघ चालक हेगडेवार जी के निधन के बाद आर.एस.एस. की बागडोर सम्भाल ली. “हिन्दू” की परिभाषा और परभाषा का ढांचा जिस मजबूत बुनियाद पर “सावरकर” ने वर्ष 1929 में अपनी पुस्तिका “हिदुत्व “ में खड़ा किया था, उसी को गुरूजी ने आत्मसात करते हुए अंगीकार कर, हिन्दू के काज “हिन्दू राष्ट्र निर्माण” के लिए खुद को समर्पित कर दिया.

अब आगे बढ़ने से पहले समझते हैं, ये हिन्दू राष्ट्र क्या है?

गोलवलकर के अनुसार, “राष्ट्र पांच अखण्डनीय तत्व, देश (भूमि), वंशानुगत कुल/प्रजाति/नस्ल/वंश, धर्म, संस्कृति और भाषा से मिलकर बना होता है. फिर भी सावरकर की तरह उन्होंनेे धर्म और संस्कृति को मिला दिया और इसे हिन्दू-दर्शन (हिदुइज्म) नाम दे दिया. इस प्रकार राष्ट्र की परिभाषा के लिए पांच की बजाय चार ही तत्व रह गये. उनके अनुसार हिन्दु, महान और विशिष्ट पहचान वाला राष्ट्र है क्योंकि, प्रथम तो यहांं सिर्फ मूल आर्य नस्ल/प्रजाति के हिन्दू ही बसते थे जिन्होंने हिन्दुस्तान, यानी हिन्दुओं की भूमि को बचाए रख, दूसरा हिन्दुओं का सम्बन्ध उस कुल/नस्ल/प्रजाति/वंश से है – जो ऐसे वंशानुगत समाज से आते हैं जिनकी साझा रीति-रिवाजे हैं, साझा भाषा है, प्रभुता या आपदाओं की साझा स्मृृतियां हैं. संक्षेप में, इस भूमि के निवासी हैं जिनकी साझा परम्पराओं का साझा उद्गम है. ऐसी कुल/वंश/नस्ल/प्रजाति एक राष्ट्र का अति महत्वपूर्ण घटक है. फिर भी कालान्तर में, यहांं बसने वाले विदेशी मूल के कुछ लोग रहे होंगे जिन्होंने समय के साथ खुद को इस देश के मूल मातृ शरीर के साथ इस तरह आत्मसात कर दिया होगा कि फिर दुबारा किसी तरह अलग न हो सकें. उन्हें मूल राष्ट्रीय कुल/नस्ल/प्रजाति/वंश के साथ न केवल आर्थिक और राजनैतिक रूप घुले-मिले रहना चाहिए बल्कि उन्हें इसके धर्म, संस्कृति और भाषा को भी आत्मसात कर लेना चाहिए अन्यथा उन विदेशी कुल/नस्ल/प्रजाति/वंश वालों को कुछ विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत, भले ही राजनैतिक रूप से साझा राज्य का सदस्य मान लिया जाय लेकिन वे कभी भी राष्ट्रीय अंग नहीं बन पायेंगे. किन्हींं परिस्थितिवश इसी भूमि पर बसने वालों के विनाश के चलते यदि मूल कुल/नस्ल/प्रजाति/वंश का विनाश हो जाए अथवा अस्तित्व के सिद्धांतों के नष्ट होने के कारण विनाश हो जाए तो इसकी संस्कृति और धर्म के विनाश के साथ-साथ राष्ट्र स्वयं ही समाप्त हो जाएगा. यह सत्य है कि कुल/नस्ल/प्रजाति/वंश ही राष्ट्र का शरीर है, इसके नष्ट होने के साथ ही राष्ट्र का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा.

[For Golwalkar, a nation was made of five incontrovertible components (अखण्डनीय तत्वों) namely, “ Country, Race,(नस्ल/कुल/प्रजाति/वंश) Religion, Culture (तहजीब), and language.” However, like Savarkar, he combined Culture with Language and called Hinduism (हिन्दू दर्शन). Thus these were basically four components required to make a Nation. According to him, Hindus were a great distinct Nation (हिन्दू विशिष्ट पहचान रखने वाला महान राष्ट्र है) because, first, there were only Hindus, i.e., Aryan Race which inhibited (बचाए रखा) Hindustan, the land of Hindus. Second, Hindus belongs to a race which had —————-a hereditary Society (वंशानुगत समाज) having common custom (प्रथा), common language, common memories of glory or disaster (प्रभुता या आपदाओं); in short, it is a population with a common origin (उद्गम) under one culture. Such a race is by far (कहीं अधिक) the important  ingredient (महत्वपूर्ण घटक) of a nation. Even if (भले ही) there be people of foreign origin, they must have become assimilated (आत्मसात हो गए/रच-पच गए) into the body of the mother race (मातृ कुल/नस्ल/प्रजाति/वंश) and inextricably (अलंघनीय/जिससे छुटकारा न पाया जा सके) fused (संगलित/पिघल कर) into it. They should have become one with the original (मूल) national race, not only in its economic and political life, also in its religion, culture, and language, for otherwise (यदि ऐसा न हुआ होता तो) such foreign races may be considered, under certain circumstances, at best members of state for political purpose; but they can never form part and parcel (अंग) of the national body. If the mother race is destroyed either by destruction of the person composing it or by the loss of the principle of its existence, its religion and culture, the nation itself comes to an end. We will seek to prove this axiomatic truth (स्वयंसिद्ध सत्य), that the Race is the body of the Nation, and that with its fall, the nation ceases to exist. ]

यानी, आर.एस.एस ने संक्षेप में यह प्रतिपादित किया कि नस्ल और उस नस्लवालों के धर्म के संरक्षण के बिना राष्ट्र का संरक्षण सम्भव नहीं है. इसलिए नस्ल की शुद्धता पर उसका बहुत जोर है. आर.एस.एस. मानती है कि बोहरा और खोजा मुसलमान इस देश को अपनी पितृभूमि मानते हैं और हिन्दुओं के समान ही देश से प्यार भी करते हैं, उन्होंने भारतीय संस्कृति, भाषा को आत्मसात भी कर लिया है, पर उन्हें भी वह हिन्दुओं के समान नागरिक अधिकार देने को तैयार नहींं है क्योंकि जिस इस्लाम धर्म के वे अनुयायी हैं, उसके तीर्थ इस भूमि पर नहीं हैं. उनके लिए उस देश की भूमि पवित्र है जहाँ उनके तीर्थ हैं. जबकि हिन्दुओं के तीर्थ इसी भूमि पर हैं, और उनके लिए यही भूमि पवित्र है. आर.एस.एस. की हिन्दू राष्ट्र की परिभाषा से ऐसा आभास होता है कि वह भारत की भूमि पर मुसलमानों की मौजूदगी को हिन्दू नस्ल के नष्ट होने में एक बड़ा कारक मानती हैं. शायद इसीलिए अधिसंख्य नस्लीयराष्ट्रवादी हिन्दू नेता गाहे-बगाहे मुसलमानों को पाकिस्तान चले जाने की नसीहत देते रहते हैंं.

आर.एस.एस. ने स्वतंत्रता पूर्व के 22 (1925 से 1947) वर्षों के काल में स्वतंत्रता की लड़ाई में कोई हिस्सा नहींं लिया. उन्हें ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन बनना कतई स्वीकार नहीं था. मुस्लिम लीग  की तरह उनकी कोशिश सदा अंग्रेजों के चहेते बने रहने की रही. उन्हें लग रहा था कि दो धर्म के सिद्धांत पर जब भी अंग्रेज हिदुस्तान का बंटवारा करेंगे तो मुस्लिम लीग को पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की बागडोर हमें हीं सौंपेंगे. कांंग्रेस जो हिन्दुस्तान से अंग्रेजों को अपना बोरिया-बिस्तर बांंधने और वापस इंग्लैण्ड भेजने के लिए आज़ादी की लड़ाई लड रही थी, को क्योंकर हिन्दुस्तान की बागडोर सोपेंगे ? यानी आज़ादी की खीर को तैयार करने के जिस चूल्हे में कांग्रेस अपने युवा कार्यकर्ताओं को ईंधन बना झोंक रही थी, उस खीर के कटोरे को अंग्रेज हमारे हाथों में दे देंगे. ऐसी आस लगाये बैठी आर.एस.एस. को उस वक्त भारी निराशा हाथ लगी जब पाकिस्तान की बागडोर मुस्लिम लीग के हाथों तो आ गई पर हिन्दुस्तान की उनके हाथों नहीं आई.

जब पूरा देश आज़ादी का जश्न मना रहा था उस समय वे (आर.एस.एस.) भारी शोक मना रहे थे. संघ के तत्कालीन सरसंघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर कह रहे थे कि “15 अगस्त, 1947 हिन्दू राष्ट्र के प्रति ऐसा विश्वासघात है जिसका कोई दूसरा उदहारण नहीं मिलता. इसी विश्वासघात का परिणाम यह हुआ कि 1947 में मुसलमानों के हाथ हिन्दू मात खा गये.” (बंच ऑफ़ थॉट्स, विक्रम प्रकाशन, पृष्ठ 152). इस मात खाने के दर्द, हताशा और निराशा ने महात्मा गांधी की जान तो ले ली पर विघटनकारियों के कलेजे में आग निरंतर धधकती ही रही है.

वर्तमान सत्ता के मई, 2014 में सत्ता सम्भालने के बाद इन चार वर्षों में संघ परिवार की सत्ता में बढ़ती दखलंदाजी पर अनिलेश एस. महाजन की एक ख़ास रपट इण्डिया टुडे, अंक 9 मई, 2018 में प्रकाशित हुई है. रपट में संघ के संगठन किस तरह आर.एस.एस. के एजेंडे को आगे बढ़ा रहे हैं, का विस्तार से उल्लेख किया गया है. महाजन ने मोदी सरकार और संघ के बीच की दूरी पाटने और आपसी सामंजस्य, ताल-मेल बनाने को एक समन्वय समिति के गठन की चर्चा भी अपनी रपट में की है. समिति में आर.एस.एस. के संबद्ध संगठनों के शीर्ष पदाधिकारियों, भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और मुद्दों से जुड़े केन्द्रीय मन्त्री होते हैं. समिति की बैठक हर महीने दो बार होने की जानकारी के अलावा भी रपट में बहुत कुछ है.

आर.एस.एस. का हर सम्भव प्रयास होगा कि भाजपा सरकार 2019 में 2014 की पुनरावृत्ति करे और वह भारत को संवैधानिक रूप से एम.एस. गोलवलकर के सपनों का नस्लीयराष्ट्रवादी “हिन्दू-राष्ट्र” घोषित करे.

सम्पर्क नं. 7017339966

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ROHIT SHARMA

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