बोतल का ढक्कन बहुत मामूली चीज है
खोने पर हम इसे खोजते जरूर हैं
लेकिन इसके लिए अपना कोई काम नहीं रोकते
मामूली से मामूली काम भी नहीं
जैसे बिस्तर पर उल्टी पड़ी तकिया को सीधा करना
जल्दी ही हम इसे भूल भी जाते हैं
और किसी कोने में पड़ी बोतल,
ढक्कन के इंतजार में मुंह खोले पड़ी रहती है
लेकिन कभी कभी ढक्कन का खोना
इतना मामूली नहीं होता
पति के चिल्लाने पर
पूरा घर थर्रा जाता है
बच्चे और पत्नी ढक्कन ढूंढने में इस तरह लग जाते हैं
मानो वह ढक्कन ही उन्हें जीवनदान दे सकता है
ढक्कन का खोना
पति के लिए भी मामूली बात है
लेकिन उसे लगता है
कल को कुछ और खो गया तो ?
इसकी कल्पना उसके गुस्से को और बढ़ा देती
वह चिल्लाता –
‘सब मिलकर एक ढक्कन भी नहीं ढूंढ पा रहे’
बच्चों के सहमे चेहरों को देख कर
पत्नी थोड़ा साहस करती है-
‘ढक्कन ही तो हैं
बाद में खोज दूंगी
अभी आप खाना खा लीजिए’
घर के तनाव को इस तरह कम करने की
पत्नी की कोशिश
पति को अपनी अवहेलना लगती
पति ने खाना उठाकर फेक दिया
तनाव फिर उसी स्तर पर
बच्चों का कलेजा उनके मुंह में आ गया
पत्नी से नहीं रहा गया
‘खाने से क्या दुश्मनी
ढक्कन ही तो खोया है’
‘ढक्कन ही तो खोया है ?’
पति के उन्मादी गुस्से ने ढक्कन को
जो अहमियत बख्शी थी
उसे पंचर करने और
भारी तनाव की चादर में सुराख करने की
पत्नी की यह कोशिश
उसे अपनी तौहीन लगी
और उसका हाथ उठ गया
पत्नी चीख पड़ी
बच्चे एक दूसरे को पकड़ कर कांपते हुए रोने लगे
आज भी जब मैं किसी लावारिस ढक्कन को देखता हूं
तो सिहर जाता हूं.
न जाने कौन से बच्चे कांपे होंगे,
न जाने कौन सी स्त्री चीखी होगी.
(एक सत्य घटना पर आधारित कविता)
- मनीष आज़ाद
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