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‘उन्होंने कहा- बासव राजु को उन्होंने मार डाला, मैं लिख रहा हूं – बासव राज हमेशा जिंदा रहेंगे !’

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सीपीआई-माओवादी के महासचिव की जो अंतिम तस्वीर छपी है, उनकी खुली आंखों में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का सौ साल का इतिहास पढ़ा जा सकता है. संभव है कि कुछ लोग ज्ञान के भार से दबे कंधों को बस अफसोस जताते हुए इतना ही कह सकें : ‘यह तो उनकी लाइन है, यह तो होना ही है.’ कुछ के लिए कोई फर्क नहीं पड़े. कुछ जो माओवादियों को आतंकवादी बताते घूम रहे हैं, उनकी शहादत का फायदा पैसा उगाहने में लगा लें.
कुछ जो पतित हो गए हैं, इसे एक राहत की सांस की तरह देखें. यही वे दृष्टिकोण हैं, जिनकी अभिव्यक्तियां राजनीतिक अवधारणाओं में आकर गहरी निराशा को बनाने में योगदान देती हैं. अपने ही इतिहास को कूड़े में डालने और अपने समय से मुकर जाने की समझदारी बासव राज की खुली आंख से मुंह चुराती रहेगी. बोलने से कतराती रहेगी और क्रांतिकारी लफ्फाजियों से शब्दों को मारने में लगी रहेगी. आज बहुत सारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने, जनवादी संगठनों ने और लोकतंत्र की चाहत रखने वालों ने कथित ‘मुठभेड़’ की न्यायिक जांच की मांग की है.
‘उन्होंने कहा- बासव राजु को उन्होंने मार डाला, मैं लिख रहा हूं - बासव राज हमेशा जिंदा रहेंगे !’
‘उन्होंने कहा- बासव राजु को उन्होंने मार डाला, मैं लिख रहा हूं – बासव राज हमेशा जिंदा रहेंगे !’

मैं जितनी बार इस खबर को पढ़ रहा हूं, हर बार इतिहास के पन्ने खुल रहे हैं. जितनी बार मैं बासवराज का अखबारों में छपा फोटो देख रहा हूं, अपने समय का दलदल देख रहा हूं. मैंने जब अखबार के पन्नों को बंद किया, खबरों के भयावह शोर के बीच एक गहरा सन्नाटा पसरता गया. समय तेजी से भविष्य की तरफ बढ़ता जा रहा था. और, लग रहा था मैं इस समय की गति से कहीं पीछे छूट रहा हूं. मैं वापस एक बार फिर उसी खबर को पढ़ता हूं, और बासव राज ‘मुठभेड़’ में मारे गए. उसी खबर के नीचे मैं लिख रहा हूं, बासव राज हमेशा जिंदा रहेंगे ! बासव राज भारत की तीसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी सीपीआई-माओवादी के महासचिव थे.

यह भी सच है कि इस पार्टी को भारत की सरकार ने प्रतिबंधित किया हुआ है. यह पार्टी 2004 में अस्तित्व में आई, लेकिन इसके घटक पार्टी संगठनों का अस्तित्व 1980 के दशक में आया और खुद को चारू मजुमदार द्वारा बनाई गई पार्टी की विरासत में रखा. चारू मजुमदार भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव थे, जिन्हें हिरासत में रखकर मार दिया गया था. चारू मजुमदार और बासव राज के बीच समय का एक लंबा फासला है. एक छोटे से गांव में उठा संघर्ष देश के इतिहास और अपने समय को बार-बार पढ़ने के लिए प्रेरित करता रहा.

मैंने इस खबर को लेकर लिखे अखबारों के संपादकीय पढ़े, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री का खुशी का इजहार पढ़ा और चंद दिनों की पत्रकारिता कर बिक जाने वाले ज्ञानियों का ज्ञान सुना. हर जगह नक्सलवाद और माओवाद के अवसान या हार जाने की घोषणा थी. एक चैनल पर अर्धसैनिक बल के सिपाहियों के नृत्य का वीडियो था. पोस्ट में बताया गया था कि बासव राज को मार डालने की खुशी में सिपाही नाच रहे हैं. एक अन्य वीडियो बता रहा था कि बासव राज को ‘मुठभेड़’ में मारने वालों को कितना पुरस्कार मिलेगा. एक अखबार ने यह भी बताया कि अब जंगल की हजारों एकड़ जमीन किसी कंपनी को दे देना आसान हो गया.

अंग्रेजी राज में ‘अपराध’ की श्रेणियां और भारत का राष्ट्रीय आंदोलन

यह साल 2025 चल रहा है. ठीक सौ साल पहले पीछे जाएं, जब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हो रहा था. भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारी धाराएं अपने को संगठित करने में लगी थीं, इसी समय एक और संगठन का गठन हो रहा था और वह था आरएसएस. कुछ ही समय बाद मुस्लिम लीग की स्थापना होती है. इनके 40 साल पहले कांग्रेस का गठन हो चुका था.

ये पार्टियां किन वर्गों की नुमाइंदगी कर रही थीं और किस तरह के भारत का निर्माण करना चाहती थीं ? आप उस समय में जाकर एक बार फिर से अपने समय में लौट कर आएं. यह इसलिए जरूरी है कि आज जिस तरह से इतिहास को एक ऐसे दलदल की तरह पेश किया जा रहा है, जिसमें जाकर आप फंस जाएं और वहीं भूख और प्यास से मर जाएं या आपको मार दिया जाए, उस इतिहास में उलझने के बजाय एक बार फिर से 100 साल पीछे जाकर उस समय को परख कर लौटिए.

किसी भी देश को समझना हो तो कम से कम उस देश का 100 साल का इतिहास जानना चाहिए. इससे अधिक जान सकें तो और अच्छा. आप 200 साल पीछे जाएं और फिर 2000 साल पीछे जाएं. लेकिन, इतिहास में कूद मत मारिए. भारत को आज जो ‘माओवादी समस्या’ से निजात दिलाने की बात कर रहे हैं, वे यह भूल रहे हैं कि यह वही पार्टी है, जो भारत के राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा थी और भारत में गुलामी से मुक्त एक जनवादी राज्य के लिए संघर्ष कर रही थी.

जहां तक प्रतिबंधित पार्टी की बात है, तो ब्रिटिश हुक्मरानों ने इसे प्रतिबंधित किया और फिर 1990 के दशक में नक्सलबाड़ी को आधार बनाकर बनी कुछ पार्टियों पर प्रतिबंध लगाया गया. 1990 के दशक में, जब नक्सल आंदोलन को नक्सल समस्या की तरह देखा गया, तब भी सरकार की ही रिपोर्ट में इसका आधार सामाजिक और आर्थिक बताया गया. एक राजनीतिक पहचान को खत्म करने के लिए उसके अस्तित्व को ही ‘अपराध’ की श्रेणी में डाल देना सबसे आसान तरीका होता है. सीपीआई-माओवादी को इसी ‘अपराध’ की श्रेणी में डाल दिया गया और इसकी राजनीतिक उपस्थिति को हिंसक कार्रवाइयों के साथ उलझा दिया गया.

ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने भी भारत के राष्ट्रीय आंदोलन की कई धाराओं को इन्हीं ‘अपराध’ की श्रेणी में डाला. उन्होंने भारत के समाज की कई जातियों को ‘अपराध’ की श्रेणी में डाल दिया और उनके नागरिक अधिकार छीन लिए. लोगों की सामूहिक जमीनों को छीनकर उसे जमींदारों के हवाले कर दिया और करोड़ों लोगों को भूमिहीन बना दिया और उन्हें गुलामों की जिंदगी और अकाल में मौत का शिकार हो जाने के लिए विवश किया.

उस समय की सभी बड़ी और छोटी सारी पार्टियों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद से इस या उस तरीके से लड़ते हुए उनसे अलग अपनी ‘राज्य’ की अवधारणा को पेश किया था. आदिवासी समुदाय ने अपनी सामूहिक जिंदगी के दर्शन के आधार पर लड़ते रहे और मरते रहे. इन समुदायों ने अपने ‘राज्य’ की अवधारणा को नहीं छोड़ा. उन्हें भी ‘अपराध’ की श्रेणी में डाल दिया गया.

ये राजनीतिक प्रयास उनकी राजनीतिक विचारधारा या समूहों की सामाजिक-राजनीतिक चेतना के आधार पर थे.  इस संदर्भ में आरएसएस के बारे में जरूर बात करनी चाहिए. धर्म-युद्धों के सहारे राष्ट्र बनाने की अवधारणा में आरएसएस जितना यूरोपीय और उस पर आश्रित था, ब्राह्मणवाद की जमीन पर वह उतना ही यहां के इतिहास का हिस्सा था और निश्चित ही नफरत और गैर-बराबरी इसकी आत्मा थी. कांग्रेस यूरोपीय, खासकर ब्रिटिश प्राच्यवाद की अभिव्यक्ति थी, जिनका आत्मगौरव उपनिवेशवाद के बिना खड़ा नहीं हो सकता था और जिनकी प्रगतिशीलता यूरोपीय साम्राज्यवादियों के सामने झुकने के लिए हमेशा के लिए अभिशप्त थी.

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मजदूर और किसान के नेतृत्व वाले राज्य की अवधारणा और मार्क्सवाद की विचारधारा पर आगे बढ़ रही थी, लेकिन वह लगातार राष्ट्रवाद और भारत के पूंजीपति वर्ग को लेकर उलझी रही. इसका नेतृत्व 1945-50 के बीच मध्यवर्गीय नेतृत्व से बाहर आता हुआ दिखा. तेलंगाना के किसानों का आंदोलन एक राज्य की शक्ल लेने की ओर बढ़ रहा था. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का मध्यवर्गीय नेतृत्व इस ओर बढ़ने से इंकार कर दिया और पार्टी को अपनी गिरफ्त में ले लिया. पीछे हजारों किसान, खेतिहर मजदूर, भूमिहीन और पार्टी के कार्यकर्ता मारे गए.

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी और नक्सलबाड़ी

कहते हैं, महात्मा गांधी की हत्या ने भारतीय राजनीति की दिशा बदल दी. यह कथन पहले एक सतही बयान की तरह लगता है लेकिन, पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि इसमें सच्चाई है. इसने अवधारणा के स्तर पर कई चले आ रहे चिंतन को बदलने का एक कारण दे दिया. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में गांधी के अवदान पर बहस चल निकली. फिर कांग्रेस को लेकर व्याख्याएं शुरू हो गईं. यहां तक कि राष्ट्र-राज्य को लेकर बहस शुरू हो गई और भाषा, जातीयता और यहां तक कि जाति-व्यवस्था को लेकर अवधारणाओं में बदलाव दिखने लगा. आरएसएस ने भी गांधी को अपना हिस्सा बनाने की कवायद शुरू की और इसे अपनी बनाई गई पार्टी में एक प्रयोग की तरह लिया और जल्द ही इसे छोड़ दिया.

हम देख सकते हैं कि आज भी गांधी की हत्या को कई सारे संगठन, व्यक्ति उचित ठहराने का प्रयास करते रहते हैं. वे इसे एक विचारधारा की बहस की तरह लाते हैं. लेकिन, भारतीय राजनीति से जो सिरे से गायब हो गया, वह गांधी का आर्थिक चिंतन और हिंसा को लेकर उनकी अवधारणा थी. गांधी की लोकप्रियता को नेहरू ने एक उत्तराधिकार की तरह हासिल किया और इसका प्रयोग अपनी हिंसक और विस्तारवादी कार्रवाइयों को अंजाम देने में किया.

यही वह जमीन थी, जिस पर एक बार फिर से भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने जन्म लिया. पहले सीपीआई-मार्क्सवादी और फिर जैसे ही इसके नेतृत्व ने मध्यवर्गीय रास्ते को अपनाना शुरू किया, चारू मजुमदार ने नक्सलबाड़ी में एक नए रास्ते का आगाज किया. 1970 के दशक में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी में जिस बात पर सबसे ज्यादा बहसें हुईं, उसमें गांधी, नेहरू, भारत की राज्य व्यवस्था, कांग्रेस पार्टी और संविधान थी. इसके बहस के केंद्र में आरएसएस नहीं था.

और, मुस्लिम लीग के होने का सवाल नहीं था. लेकिन, 1971 में बांग्लादेश के निर्माण ने एक बार फिर से कांग्रेस और मुस्लिम लीग को लेकर बातें शुरू हुईं और जल्द ही खत्म हो गईं. नक्सलबाड़ी की आग बिखरकर चिंगारियों में बदल गई. कई सारी इसकी धाराएं खत्म हो गईं. 1980 के दशक में एक बार फिर से नक्सल मानी जाने वाली धाराओं ने खुद को संगठित किया और खुद को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के गठन से लेकर अपने समय तक के इतिहास को एक निरंतरता दी और अपने को उसका वारिस घोषित किया.

इसमें सबसे ऊपर जो नाम आता है, वह उस दौर के सीपीआई-पीपुल्स वार था. इस समय तक पुरानी बहसों के साथ एक और बहस आकर जुड़ गई और वह थी आपातकाल का राजनीतिक-अर्थशास्त्र. आने वाले समय में कश्मीर, पंजाब और उत्तर-पूर्व के राज्यों की राष्ट्रीयता, स्वायत्तता और आजादी का सवाल भी इसमें शामिल हो गया. क्षेत्रीय पार्टियों का उभार भी एक सवाल बना. 1990 के दशक में पहली बार आरएसएस की विचारधारा एक सवाल बनकर कम्युनिस्ट पार्टी से टकराई, खासकर आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र में इस विचारधारा के उभार ने एक चुनौती पेश की.

देश की सुरक्षा के लिए खतरा, ‘दुश्मन’ की शिनाख्त

नक्सलबाड़ी से पैदा हुई कम्युनिस्ट पार्टियां अब भारतीय राज्य के बरक्स देखी और दिखाई जा रही थीं. जल्द ही इन्हें भारत की राज-व्यवस्था के लिए एक संकट, समस्या, चुनौती और फिर एक दुश्मन की तरह पेश कर दिया गया. 2004 में इसे राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा घोषित कर दिया गया. इसके बाद इन्हें खत्म करने के लिए दुनिया के सबसे बड़े और लंबे समय तक चलाए जाने वाले सैन्य अभियान में बदल दिया गया.

मध्य-भारत नक्सलियों, माओवादियों के खून से लथपथ हो गया. यह अभियान कांग्रेस के समय से शुरू हुआ और भाजपा के नेतृत्व की सरकार में कथित तौर पर निर्णायक दौर में पहुंचा, जब उन्होंने कहा, ‘बासव राज, सीपीआई-माओवादी महासचिव मारा गया.’ मैंने ऐसी ही खबर चारू मजुमदार को पकड़कर मार डालने के बारे में भी छपी हुई देखी. आप इसे गूगल सर्च इंजन से देख सकते हैं.

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सौवें साल में उसके एक महासचिव को बस्तर के जंगल में मार डालने की घटना क्या उन सवालों को भी खत्म कर देगी, जो उन्होंने उठाया और जिसे हल करने के लिए उन्होंने गुरिल्ला-युद्ध की रणनीति अख्तियार की ? जिन्हें इतिहास की पहली इबारत भी याद हो, वे इस बात से सहमत नहीं होंगे.

गुरिल्ला-युद्ध का नाम सुनकर बिदकने वाले और इस आधार पर उन्हें भारतीय राज्य का दुश्मन मानने वालों में सिर्फ भारत माता की कसम खाने वाले लोग ही नहीं हैं. इसी आधार पर उन्हें आतंकवादी मानने वाली कई कम्युनिस्ट पार्टियां हैं, इसमें नक्सलबाड़ी से उपजी पार्टियां और संगठन भी हैं. गुरिल्ला-युद्ध निश्चित ही एक हिंसक कार्रवाई है और माओवादी इस रणनीति की खुली घोषणा करते रहे हैं.

वे युद्ध को राजनीति की एक संघनित कार्रवाई मानते हैं. वे अपनी हिंसा के दो पक्ष बताते रहे हैं, पहला यह कि उनकी हिंसा राज्य की हिंसा के बरक्स है, और दूसरा, जब वे जनवादी राज्य का निर्माण करेंगे, उसकी क्रांतिकारी प्रक्रिया में हिंसा अनिवार्य हिस्सा होगा. वे हिंसा को अपना विकल्प नहीं, इसे कार्य-कारण संबंधों की तरह व्याख्यायित करते हैं.

इन संदर्भों को उनके साथ हुए शांति-वार्ता और शांति की अपील के संदर्भ में जारी किए गए उनके बयानों में आसानी से देखा जा सकता है. लेकिन, यहां थोड़ी-सी जटिलता है. उन्होंने वर्तमान भारतीय राज्य को एक क्रांति कर उसे बदल देने, राजनीतिक शब्दावली की भाषा में कहें तो तख्तापलट देने या उसे पूरी तरह भंग करने का रास्ता नहीं लिया और ऐसा उनके द्वारा हाल-फिलहाल में कर दिए जाने की कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी. ऐसी उम्मीद कोई अदना-सा सैन्य रणनीति का क्लर्क भी नहीं कर सकता.

वर्तमान समय में उनके खिलाफ जो सैन्य अभियान चलाया जा रहा है, वह किसी राज्य या देश की राजधानी से सैकड़ों किमी दूर जंगल के ऐसे गांवों में चलाया जा रहा है, जिन तक सड़कों का निर्माण ही नहीं हुआ और जिनकी एक बड़ी आबादी एक नागरिक की तरह फाइलों में दर्ज ही नहीं की जा सकी थी. माओवादी इन सबसे दूर बस्तर के गांवों में जनताना सरकार का निर्माण कर रहे थे.

यह उनकी मॉडल सरकार थी और इसी के लिए, इसी तरह के राज्य के लिए उन्होंने गुरिल्ला-युद्ध की रणनीति को अख्तियार किया. वे कम्युनिस्ट हैं और वे इन्हीं संदर्भों में मार्क्सवादी हैं, जहां साम्यवाद की अवधारणा और इसकी विचारधारा है. इन्हीं अवधारणाओं में वे जरूर भारत का एक भविष्य और उसकी राजनीति को समझते हैं और यह उनका मुख्य उद्देश्य भी है.

यहां सवाल यही है कि कांग्रेस और भाजपा नेतृत्व की जो केंद्र सरकारें रही हैं, उनके लिए नक्सलवाद, माओवाद का कौन-सा हिस्सा नागवार लगता है, जिसकी वजह से उन्हें ‘दुश्मन’ घोषित किया गया और उनकी हत्याओं और गिरफ्तारियों को एक अनिवार्य रणनीति की तरह अख्तियार किया, उन्हें ‘नेस्तनाबूद’ करने तक सैन्य अभियान चलाते रहने का निर्णय लिया ? क्या नक्सलियों की हिंसक कार्रवाइयां और गुरिल्ला-युद्ध इसका मुख्य कारण है ? तब यह सवाल उठता है कि यह ‘अर्बन नक्सल’ की अवधारणा क्या है ? जिसका प्रयोग सत्तारूढ़ पार्टियों से लेकर नक्सलवाद के घोर-विरोधी बुद्धिजीवियों के खिलाफ किया गया और किया जा रहा है.

यदि गुरिल्ला-युद्ध इसका आधार है, तब भारत की कांग्रेस और भाजपा नेतृत्व की सरकारें इस रणनीति पर चलने वाली कई सारे संगठनों, पार्टियों के साथ वार्ता करती रही हैं और उनके साथ राजनीतिक समझौते भी तय हुए. यहां तक कि नक्सली और माओवादियों के साथ भी वार्ता के दौर चले हैं. लेकिन यह कांग्रेस की सरकार के समय तक हुआ.

संसद में अमित शाह एक बयान देते हुए दिखते हैं, जिसमें वे मणिपुर में जातीयता के संघर्ष और माओवादियों के बीच का फर्क बता रहे हैं और कह रहे हैं कि इनसे अलग-अलग तरीके से निपटना है. इस बयान में सवाल पूछने वाले को बता रहे हैं कि आप कम्युनिस्ट हो, तो ऐसा सोचते हो, मैं अलग तरह से समझता हूं. इस वार्ता में सवाल पूछने वाला कौन है, यह स्पष्ट नहीं होता. लेकिन, इतना जरूर स्पष्ट होता है कि किसी कार्रवाई के पीछे निश्चित ही एक समझदारी होती है.

भाजपा नेतृत्व की आज की सरकार माओवाद के खिलाफ जो सैन्य अभियान चला रही है, उसके पीछे निश्चित ही एक समझदारी है. एक पार्टी जब एक समझदारी के साथ सरकार बनाती है, तब वह इसे राज्य की व्यवस्था पर भी लागू करती है. इसमें निश्चित ही इसका नेतृत्व एक निर्णायक भूमिका में आ जाता है. सवाल यही है कि किसी पार्टी की समझदारी नागालैंड में समानांतर सरकार चलाने वाली पार्टी/संगठन के साथ वार्ता कर सकती है और उसके साथ एक समझदारी तक पहुंच सकती है, तो वह माओवादियों के साथ वार्ता तक क्यों नहीं जा सकती है ? सिर्फ इसलिए कि वे कम्युनिस्ट हैं ?

यदि किसी राज्य का राजनीतिक-दर्शन का आधार किसी पार्टी की समझदारी के आधार पर चलने लगे, तब एक राज्य और पार्टी के बीच का फर्क खत्म हो जाएगा. इसे कांग्रेस और भाजपा के शासन की तरह देखा जाए या राज्य के एक निर्णय की तरह देखा जाए ?

मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में चल रही केंद्र की सरकार अंतरराष्ट्रीय मोर्चे पर चाहे जितनी भी असफल होती हुई दिख रही हो, भारत के समाज और राजनीति व्यवस्था में उनका दबदबा कम होता हुआ नहीं दिख रहा है. खुद भाजपा और आरएसएस में उनके प्रभुत्व को लेकर कोई सवाल नहीं है. भारत की राजनीतिक व्यवस्था में यह परिघटना पहली और अंतिम नहीं है. ‘लोकप्रियता और नफरत’ की सम्मिलित राजनीतिक परिघटना भारत के लिए नई नहीं है. कल्ट बनने की सापेक्षिक तुलना हो सकती है, और यह अलग मसला है. यह मसला एक राजनीतिक परिघटना को समझने का है.

एक मर्ज जो जानलेवा हो गया

1990 के दशक में आंध्र प्रदेश में नक्सलियों और आरएसएस के बीच शहरों में हिंसक झड़पें शुरू हुई थीं, वह आज की भाजपा नेतृत्व वाली परिघटना की शुरूआती अभिव्यक्तियां थीं. यह झड़पें आरएसएस और इसके सहयोगी संगठनों की अन्य संगठनों, समूहों और समुदायों के साथ बढ़ती ही गईं. यह सब अपने ही समाज के भीतर घट रही थीं और ये तेजी से फैल रहा था.

उस समय भाजपा को कम और कांग्रेस को ज्यादा फायदा हो रहा था. कांग्रेस ने इन झड़पों को वोट की राजनीति में बदलना जारी रखा. ये झड़पें दंगों में बदलती गईं. राम मंदिर और राम-राज्य बनाने का अभियान भारत के राजनीतिक-अर्थशास्त्र का नया अध्याय था. इसके खुलते ही भाजपा ने अपना राजनीतिक दावा किया.

इस उभार ने हिंदुत्व की राजनीति को केरल और बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी से, जंगल के क्षेत्रों में नक्सलियों से, राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों से और केंद्र में कांग्रेस से टकराहट पैदा कर दी. एक साथ इतने सारे मोर्चों पर यह सिर्फ एक राजनीतिक पार्टी का उभार नहीं था. यह एक परिघटना थी, जिस पर जितनी बात होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. यह उभार प्रभुत्व की मांग करते हुए सामने आया और जो इसमें पीछे रहा, किनारे होता गया. खुद भाजपा के अंदर ही बड़े-बड़े नेता गुमनाम हो गए और राम-राज्य का रथ हांकने वाले बाद के समय में हताश जिंदगी जीने के लिए अभिशप्त हो गए.

यह भारत की अर्थव्यवस्था में बड़े पूंजीपतियों और नए भू-माफियाओं का नया पुनर्गठन था, जो अब अर्थनीति को सीधे अपने हाथ में लेना चाहते थे और राजनीतिक पार्टी को अपने प्रबंधन तक सीमित रख देना चाहते थे. जब इसका आगमन हो रहा था, तब कांग्रेस ने दिल्ली में पोस्टर चस्पा किया था: ‘फेंकू आया.’ शायद यह बात वे भूल गए कि जब राजनीति खत्म होती है, तो सिर्फ छल-छंद की धूल ही उड़ती है. कांग्रेस की चुप्पियों पर जुमलों का घना गुबार था, झूठ का ऐसा तानाबाना था, जिसमें सच की आवाज पुराने कुएं की पानी की तरह हो गई, जिसे अब पीने की जरूरत नहीं रह गई थी.

आज भी मोदी पर यही आरोप लगता है और खूब मीम बनते हैं कि वह बहुत फेंकते हैं. तब इस बात को भूला दिया जाता है कि इस देश की अर्थव्यवस्था किसके हाथ में है और इसका प्रबंधन कौन कर रहा है और अपने देश की राजनीतिक व्यवस्था का काम ही क्या रह गया है ? बड़े-बड़े आर्थिक चिंतकों की हैसियत क्लर्क से भी बदतर हो गई. आज हर कोई जानता है और दावे के साथ लिख भी रहा है कि देश को कौन चला रहा है, देश कैसे चल रहा है और देश किस तरफ जा रहा है.

आज जब देश और राज्य एक-दूसरे के पर्यायवाची बना दिए गए हैं, तब निश्चित ही अभिव्यक्ति को एक गुनाह में बदल जाना है. ऐसे राजनीतिक दर्शन की शब्दावली में देश एक स्थिर-नॉनवेरिएबल शब्द है, जबकि राज्य की अवधारणा में गतिशीलता है. इसके सिर्फ संस्थान ही नहीं, इसके राजनीतिक निर्णय भी बदलते रहते हैं. यहां जो नहीं बदलता है, वह है राज्य की मूल अवधारणा, जो सामाजिक वर्गों के प्रभुत्व को अभिव्यक्त करता है. यह प्रभुत्व जितना ही संकुचित होता जाता है, वह राज्य की मूल अवधारणा को उतना ही नुकसान भी पहुंचाता है और कई बार राज्य होते हुए भी अपनी वैधता खो देता है.

इसे हम हिटलर के समय के जर्मनी में देख सकते हैं, जहां संसद को जला तो दिया गया, लेकिन संसदीय कार्रवाइयां एकतरफा चलती रहीं. कुछ पुरानी वैधानिक व्यवस्थाएं भी बनी रहीं. लेकिन, इनका कोई अर्थ नहीं रह गया था. इस तरह के राज्यों ने अपनी वैधता को अधिक मान्य बनाने के लिए अमूमन धर्म का सहारा लिया है. हिटलर ने यही किया और जल्द ही इसे धर्मयुद्ध को कम्युनिस्टों के खिलाफ युद्ध में बदल दिया.

यह उदाहरण हम भारत के संदर्भ में नहीं रख रहे हैं. राजनीति गणित के सूत्र नहीं होते, और समानताएं इतिहास के पन्नों में अधिक अर्थ खोलती हैं. सबसे अधिक जरूरी है अपने समय को समझना. यदि हम अपने समाज और देश को समझते हैं, तब इसे गणित के सूत्र की तरह जरूर समझ सकते हैं. आज जिस तेजी से राजनीतिक अवधारणाओं को बदला जा रहा है, उससे भी तेज गति से उन अवधारणाओं की समझदारी को छोड़ा भी जा रहा है. यह सबसे बड़ी चुनौती है.

सीपीआई-माओवादी के महासचिव की जो अंतिम तस्वीर छपी है, उनकी खुली आंखों में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का सौ साल का इतिहास पढ़ा जा सकता है. संभव है कि कुछ लोग ज्ञान के भार से दबे कंधों को बस अफसोस जताते हुए इतना ही कह सकें: ‘यह तो उनकी लाइन है, यह तो होना ही है.’ कुछ के लिए कोई फर्क नहीं पड़े. कुछ जो माओवादियों को आतंकवादी बताते घूम रहे हैं, उनकी शहादत का फायदा पैसा उगाहने में लगा लें.

कुछ जो पतित हो गए हैं, इसे एक राहत की सांस की तरह देखें. यही वे दृष्टिकोण हैं, जिनकी अभिव्यक्तियां राजनीतिक अवधारणाओं में आकर गहरी निराशा को बनाने में योगदान देती हैं. अपने ही इतिहास को कूड़े में डालने और अपने समय से मुकर जाने की समझदारी बासव राज की खुली आंख से मुंह चुराती रहेगी. बोलने से कतराती रहेगी और क्रांतिकारी लफ्फाजियों से शब्दों को मारने में लगी रहेगी. आज बहुत सारी कम्युनिस्ट पार्टियों ने, जनवादी संगठनों ने और लोकतंत्र की चाहत रखने वालों ने कथित ‘मुठभेड़’ की न्यायिक जांच की मांग की है.

इतिहास से सीखना और इतिहास में दर्ज होना: मील का पत्थर

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल पर खुद को मील का पत्थर बना देना इतना आसान नहीं होता. इस मील के पत्थर पर वर्ग-संघर्ष, मजदूर, किसान, आदिवासी, दलित, छात्र, महिला, बराबरी, न्याय, साम्यवाद और मार्क्सवाद जैसी शब्दावलियां लिखी हुई हैं. जब तक दुनिया में पूंजीवाद है, धर्म और इसकी संस्थाओं का उत्पीड़न है, भूस्वामियों, सामंतों का बर्चस्व है, धनसेठों का राज है, वित्तीय संस्थानों का कब्जा है, जातिवादी हुकूमतें हैं, …ये शब्द कभी भी अप्रासंगिक नहीं रहेंगे और वे हर राहगीर की आंखों में घूरकर देखते रहेंगे.

जब भी कोई भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल का इतिहास लिखने बैठेगा, उसे बासव राज से बात करनी होगी. जब भी भारत के आदिवासी समुदाय का इतिहास लिखा जाएगा, बिरसा मुंडा की विरासत में बासव राज जरूर मिलेंगे. आप उनसे कितना भी असहमत हों, उनसे मिले बिना आगे का रास्ता तय करना संभव नहीं है.

मैं एक बार फिर महात्मा गांधी की ओर लौटता हूं. मैं गांधीवादी नहीं हूं. मैं कभी भी गांधी को राजघाट पर श्रद्धांजलि देने नहीं गया. उन पर लिखी बहुत-सी पुस्तकों को पढ़ा, उनकी लिखी पुस्तकों को भी पढ़ा. धार्मिक अनुभूतियों से लबरेज, जाति व्यवस्था का समर्थक, किसानों और मजदूरों को दोयम दर्जे की हमदर्दी देने वाले इस शख्स में क्या था, जिसे मार डालने के लिए इतना बड़ा षड्यंत्र रचा गया और जिसे आज भी बार-बार मारा जाता है ?

आज भी उस बूढ़े, हड्डियां उभरे शरीर का पुतला बनाकर उसे गोली मारने का नाटक करते हुए बकायदा एक गुब्बारे में भरे लाल रंग को तोड़कर खून बहाने का दृश्य बनाया जाता है. इसी तरह उसके चश्मे के पीछे जो गांधी थे और उनकी भेदती हुई आंख थी, उसे क्यों गायब कर दिया गया ? मुझे लगता है कि हमने जितना गांधी को समझा, उससे बहुत, बहुत कम उसकी ओर नफरत और मौत से भरी हुई उस पिस्तौल को समझा, जिसने गांधी को मार दिया. इन्हीं अर्थों में हमने भारत के समाज को जितना समझना था, कम समझा.

  • अंजनी कुमार 

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