सरकार के मन की बात बैंककर्मियों ने खूब सुनी और रगड़ कर काम भी किया. सरकार किसे अपना मानती है ? 14 लाख बैंककर्मी और उनके 1 करोड़ आश्रित मध्यमवर्गीय परिवार के लोगो को या 100-500 लुटेरे पूंजीपतियों को ?
बैंककर्मियों द्वारा बैंकों में हड़ताल किया गया है. उन बैंककर्मियों की पीड़ा को न तो यह सरकार सुनना चाहती है और न ही सत्ता के चापलूस मीडिया घराना इसे दिखाना ही पसंद करता है. ऐसे में सोशल मीडिया उन तमाम बंचितों को अपनी बात रखने के लिए सार्थक आधार प्रदान करता है, सोशल मीडिया. यही कारण है कि केन्द्र की मोदी सरकार देश के तमाम मीडिया घरानों को खरीदने और धमकाने के बाद अब उसकी गिद्ध-दृष्टि अब सोशल मीडिया पर जा टिकी है, ताकि इसके जनवादी स्वरूप को खत्म कर सके.
यह तो भविष्य तय करेगा कि सोशल मीडिया पर बंचितों के आवाज को उठाने की आजादी केन्द्र की मोदी सरकार कितना दबा पायेगी, परन्तु यह तो साफ हो चुका है कि सोशल मीडिया पर भाजपा के बैठाये गुंडों में अब इतनी हैसियत नहीं बची है कि वह जनता की आवाज को दबाने के लिए शोर-शराबा कर सके.
बहरहाल बैंककर्मियों ने भी अपनी को उठाने के लिए सोशल मीडिया को ही अपना सहारा माना है, और सरकार और दलाल मीडिया के द्वारा खलनायक के बतौर पेश की जा रही अपनी छवि के खिलाफ अपनी मांगों को सीधे और सपाट लहजों में आम लोगों के बीच रखा है. हम पाठकों के सामने उन बैंककर्मियों के शब्दों में ही उनकी पीड़ा को यहां बयां कर रहे हैं, जो उन्होंने सोशल मीडिया के माध्यम से आम जनों के बीच रखा है क्योंकि लोकतंत्र ही नहीं बल्कि तमाम समाजव्यवस्थाओं में भी जनता ही सर्वोपरी होती है और वही सबसे ज्यादा ताकतवर होती है :
नवम्बर 2017 से 10 लाख बैंक कर्मियों की वेज रिविजन पेंडिंग है, हर बार की तरह इस बार भी सरकार ने बैंककर्मियों के वेतन को लेकर लम्बा मौन व्रत साध रखा है. हड़ताल कभी भी बैंकर की पहली चॉइस नहीं होती.
बैंककर्मी अपनी जायज मांगों को लेकर जब असहाय और मजबूर से हो जाते हैं, तभी निर्विकल्प होकर अपने 14 लाख बैंककर्मियों और उसके परिवार के आर्थिक सुरक्षा के लिए हड़ताल करते हैं, उसके बदले सैलरी कटवाते हैं और सड़कों पे उतरते हैं.
समान कार्य हेतु समान वेतन सभी के लिए संविधान प्रदत मानवाधिकार है, पर स्थिति बिलकूल पलट दी गयी है. यहां अधिक कार्य और कम सैलरी का फार्मूला लगा दिया गया है. जोखिमपूर्ण कार्य का अंतरराष्ट्रीय औघोगिक सिद्धांत कहता है कि हाई रिस्क हो तो हाई सैलरी देनी चाहिए. बैंक का कार्य पूरी तरह जोखिमपूर्ण है.
पूछिये किसी कैशियर से कि पूरी जिन्दगी में वो कितने रूपये कैश काउंटर पर गंवाता है ? पूछिये किसी ऑफिसर से कि कैसे किसी काम में छोटी-छोटी गलतियों के लिए अक्सर स्टॉफ एकाउंटेबिलिटी रिपोर्ट का शिकार होता है ? नोटबंदी में ऐसे कितने ही कैशियरों ने लाखों का लोन लेकर मोदी जी की योजना को सफल बनाने का विशाल बलिदान दिया. अब जब सैलरी की बात होती है तो हर बार बैंक में घाटे में है, का राग अलापने लगते हैं. जबकि सच्चाई है 99 बैंककर्मियों का इस पाप में कोई योगदान नहीं.
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नीरव मोदी और विजय माल्या जैसे लोग कुछ उच्च प्रबंधन और सरकार के साथ मिलकर लूट का खेल खेलते हैं और बदनाम आम बैंककर्मियों को किया जाता है. ये समझने के बात है कि क्या एक बैंक क्लर्क, ऑफिसर या मैनेजर 1000 करोड़ और 10,000 करोड़ का ऋण देता है ? नहीं न ? मगर सत्ता में बैठे कुछ लोग आम बैंकरों को अगुंठा छाप और अनपढ़ समझने लगते हैं.
सरकार की लगभग हर योजना कहीं न कहीं बैंकर के गर्दन और पीठ पे ही लादी जाती है. काम इतने कि मानो 24 घंटे भी कम पड़ जाए. समय पे काम न हुआ तो … सुसाइड को उकसाने वाले तालिबानी इंग्लिश मीडियम में जानलेवा पत्र भेज दिया जाता है.
कुल मिलाकर के ये माने, इधर कुआं उधर खाई है. एक पतली सी गली है और टॉप स्पीड में गाडी भी चलाना और ख़बरदार जो किसी को खरोंच भी आई तो नौकरी पे जीवन-मरण का प्रश्न.
2016-17 में एक लाख अठावन हज़ार करोड़ का ऑपरेटिंग प्रॉफिट हुआ, जिसमें एक लाख बीस हज़ार करोड़ अमीरों के लोन को एडजस्ट करने में चला गया. क्या इसलिए की पार्टी चंदा का 90 कॉरपोरेट लोग देते है ? सरकार को लगता है कि गरीब वोट बैंक है और आमिर पार्टी चंदा का खजाना. 14 लाख बैंकर न तो वोट में निर्णायक है, न चंदा देने की औकात है इसलिए हमारी फ़िक्र नहीं.
हमारे सर्विस कंडीशन में कहीं नहीं लिखा है कि प्रॉफिट होगा तभी सैलरी मिलेगी या बढ़ेगी. सरकार के मन की बात बैंककर्मियों ने खूब सुनी और रगड़ कर काम भी किया. सरकार किसे अपना मानती है ? 14 लाख बैंककर्मी और उनके 1 करोड़ आश्रित मध्यमवर्गीय परिवार के लोगो को या 100-500 लुटेरे पूंजीपतियों को ?
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