Home गेस्ट ब्लॉग हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष

18 second read
1
0
1,506

हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष

एक कहावत है “चिराग तले अंधेरा” ऐसा लगता है कि यह कहावत आज की पत्रकारिता और उसके पत्रकारों के लिए ही बनी है. मुझे नहीं लगता कि पत्रकार की पहचान उसके (पत्रकारिता नहीं) कभी जुझारूपन/लड़ाकूपन की वजह से ही रही हो. भ्रष्टाचार का भांडा फोड़ना, खबरों के पीछे भागना, खोजी पत्रकार का तमगा हासिल करना उसकी पेशागत मजबूरी है तो समाचार पत्रों की आवश्यकता. लगभग इसी श्रेणी में सनसनीखेज खुलासा/ख़बरें होती हैं.

लड़ाकू क्यों नहीं होते पत्रकार ?

पत्रकारिता में आज भी कुलीन वर्ग हावी है. चूंकि आजादी की लड़ाई से लेकर आज तक दबे-कुचले लोगों की भूमिका भी दबी-कुचली रह गई इसलिए आज की पत्रकारिता भी दबी-कुचली है. अखबार में या यूं कहें मीडिया में वही छपेगा, वही दिखाई देगा जितना संपादक (मालिक/मैनेजर) चाहेगा. क्या एक भी समाचार या चैनल अपने मालिक के खिलाफ, उसके गोरखधंधे के खिलाफ एक भी लाइन लिख सकता है ? कोई खबरिया चैनल कुछ दिखा सकता है ? नहीं. इसका मतलब यह नहीं कि मालिकों के गोरखधंधे नहीं होते. पत्रकारों की आजादी खूंटे में बंधी गाय की तरह है. जितनी रस्सी ढीली होगी उतना ही चरने का दायरा बढ़ेगा.

बात पत्रकारों के जुझारूपन की. तो कार्ल मार्क्स ने ये क्यों कहा कि, “दुनिया के मजदूरों एक हो.” मार्क्स ने किसानों का आह्वान क्यों नहीं किया ? अन्य जाति या समुदाय का क्यों नही किया ? उनका मानना था कि, “सर्वहारा ही क्रांति कर सकता है क्योंकि उसके पास पाने को तो बहुत कुछ है पर खोने को कुछ भी नहीं.” यही बात पत्रकारों पर भी लागू होती है. निम्न वर्ग के लोग पत्रकारिता में शुरू से नहीं रहे, उच्च वर्ग के आएंगे नहीं तो मध्यम वर्ग के लोग ही रहेंगे. रही बात मध्यम वर्ग की तो यह सुविधा भोगी वर्ग आंदोलन से हमेशा दूर रहा है. आंदोलन में शामिल होता है अंत में और टूटता है सबसे पहले.

अब चूंकि यह वर्ग ही पत्रकारिता में समाया हुआ है तो नतीजा भी वही होगा. अखबार और खबरिया चैनलों के कर्मचारी हड़ताल क्यों नहीं करते ? “हर जोर-जुलुम की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है”, संबंधित खबरें तो अखबारों और चैनलों पर रोज रहती है, पर पत्रकारों के दमन, उत्पीड़न वह शोषण की खबरें क्यों नहीं रहतीं ? हर मिल, कारखाना, फैक्ट्री के मालिक अपने कर्मचारियों का शोषण करते हैं. क्या् मीडिया के मालिकाना नहीं करते ? यदि करते हैं तो उसकी खबरें क्यों नही रहतीं ? क्या यह चिराग तले अंधेरा” वाली बात नहीं है ?

आवश्यक सेवाओं में शामिल न होने के बाद भी अखबारों/खबरिया चैनलों में हड़ताल क्यों नहीं होती ? जबकि अस्पतालों, जल संस्थानों आदि में होती है. इस पर शोध होना चाहिए. सरकारी नौकरी का बाबू भी तो मध्यमवर्गीय परिवार का होता है. बहरहाल….

मीडिया के लिए मानक क्यों नहीं ?

हर चीज के लिए मानक है तो मीडिया के लिए क्यों नहीं ? हम डिग्री कॉलेज, मेडिकल कालेज, अस्पताल-नर्सिंग होम खोलना चाहें तो उसके नियम-कायदों को पूरा करना पड़ता है, उसकी समय-समय पर जांच होती है. मसलन डिग्री कॉलेज के लिए यूजीसी के और मेडिकल कालेज, अस्पताल-नर्सिंग होम के लिए मेडिकल एसोसिएशन के निर्देश पर चलना होगा. आपरेशन थियेटर के लिए नियमों का पालन करना होता है, इसकी समय-समय पर जांच भी होती है, पर मीडिया छुट्टे सांड की तरह मुंह मारने को आजाद होता है. उसके लिए कोई नियम-कानून नहीं, चाहे जितने संस्करण निकालो, चाहे जितने पेज बढ़ाओ-घटाओ, चाहे जितने कर्मचारी रखो, जब चाहे जितनी छंटनी करो. मतलब अखबार नहीं खाला जी का घर हो गया.

अपने मालिकों से कुछ क्यों नहीं मांगते ?

आये दिन पत्रकार सरकार के सामने कटोरा फैलाये रहते हैं. आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है. आज भी यानि देश की आजादी के 70 साल बाद भी पत्रकार सरकार के सामने झोली फैलाए रहते हैं. 30 मई को अपने-अपने जिलों में देखिएगा. पत्रकारिता दिवस पर आयोजित समारोह में मंत्री को बुलाएंगे और कहीं सरकारी मान्यता की बात करेंगे तो कहीं अस्पतालों में मुफ्त इलाज की, सरकारी आवास की, मुफ्त बीमा योजना की. पत्रकार और पत्रकार संगठन अपने मालिक से सुविधाएं क्यों नहीं मांगता ? सरकार सेवा प्रदाता है क्या ? अपने मालिक से सुविधाएं मांगने में फटती है क्या ?

क्या कोई पत्रकार या संघ, पत्रकारिता दिवस के अवसर पर सरकार से यह सवाल करने का साहस करेगा कि उसकी सरकार ने मजीठिया वेतन आयोग की रिपोर्ट को अब तक क्यों नहीं लागू कराया ?

सरकारी कर्मचारियों के वेजबोर्ड और पत्रकारों के वेज बोर्ड में अंतर क्यों ?

वेतन आयोगों का गठन कब से हुआ और क्यों हुआ फिलहाल इसका इतिहास नहीं मालूम, हश्र जरूर देख रहा हूं. देख ही नहीं रहा हूं भोग भी रहा हूं. जब पत्रकार बनने का भूत सवार हुआ तब पालेकर नामक शब्द अखबारी दुनिया में खलबली मचाये हुए था. इलाहाबाद से प्रकाशित हिन्दी पत्रिका “माया” के कार्यालय के बाहर प्रेसकर्मियों की हड़ताल चल रही थी. एक छात्र नेता भाषण वाले अंदाज में नरिया रहे थे कि “मालिकों को पालेकर देना होगा, और अभी देना होगा…”, गोया पालेकर कोई वस्तु हो जो मालिकों ने तिजोरी में बंद कर रखी हो. बहरहाल किसी अखबार के दफ्तर के बाहर सभा तो हुई. आज भी वेज बोर्ड का सवाल है, कहीं से कोई आवाज नहीं उठा रही है, क्यों ?

हम भारी पत्थर को तोड़ नहीं सकते हैं तो दरार तो डाल ही सकते हैं ताकि आनेवाली पीढ़ी सबक ले दरार से. अब तक पत्रकारों के लिए कई वेतन आयोगों का (पालेकर, बछावत व मणिसाणा) गठन किया गया, लेकिन नतीजा ? ढाक के तीन पात रहा. मजीठिया पहला वेजबोर्ड है जिसने अब तक की सबसे ज्यादा दूरी तय की.

वेतन आयोगों का सिर्फ पत्रकारों व गैर-पत्रकारों के लिए ही नहीं किया जाता. केंद्र सरकार के कर्मचारियों के लिए भी हर 10 साल पर वेतन आयोग का गठन किया जाता है. केंद्र में लागू होते ही राज्य सरकारें उसे (अपनी माली हालत के अनुसार) लागू करतीं है. हां, देर-सबेर हो जाए यह दीगर बात है. ऐसा अक्सर देखा गया है कि राज्यकर्मियों को पहले तो निगम कर्मियों को थोड़ा बाद मेंं मिलता रहे. यहीं पर यह सवाल जरूर उठता है कि जब सरकारी कर्मचारियों को वेजबोर्ड के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ बिना कोर्ट-कचहरी के आसानी से हासिल हो जाता है तो फिर पत्रकारों को क्यों नहीं हासिल होता ? वेज बोर्ड के लिए अनुभवी सीए से धनराशि की गणना कराइए, अपने-अपने राज्यों के श्रमायुक्त (एल. सी.) के यहां क्लेम दाखिल करिए. श्रमायुक्त महीने भर बाद उपश्रमायुक्त को भेजेंगे, हफ्ते दो हफ्ते बाद प्रकरण सहायक श्रमायुक्त को भेजा जाएगा. सहायक श्रमायुक्त प्रक्रिया के अधीन कार्रवाई शुरू करेगा. वो सुनवाई के लिए दोनों पक्षों को बुलाएगा. कोई भी एक पक्ष आसानी से डेट पर डेट लेता रहेगा और सहायक श्रमायुक्त देते रहेंगे, वो भी लंबी-लंबी. अब श्रम विभाग के कार्यक्षेत्र को जाने.

श्रम विभाग का काम मालिक और मजदूरों के मामले को सुनना है. इसका मतलब यह नहीं कि श्रम विभाग से ही मामला निपट जाएगा. श्रम विभाग में सुनवाई के दौरान मामला निपट गया (जो कि निपटता नहीं) तो ठीक, नहीं तो वह (नियम 17 एक या दो या औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत ) श्रम न्यायालय भेज दिया जाएगा. अब कोर्ट में मामला कितना खींचता है या खींचा जा सकता है, शायद ही यह किसी से छिपा हो. और हां यदि कोर्ट में कोई वादा भेज दिया गया हो तो इसका मतलब यह नहीं कि मामला निपट ही जाएगा.

जब तारीख मिलने से छुटकारा मिलेगा और यह पता चलेगा कि संदर्भादेश ही गलत है तो…? तो फिर आइए नये सिरे से. मेरे मामले में ऐसा ही हुआ. महान सीए ने पदनाम उप संपादक की जगह सीनियर न्यूज एडिटर कर दिया. मैं भी “फूलकर कुप्पा हो गया”. सोचा कि संस्था ने दस साल से प्रमोशन नहीं किया है, वेज बोर्ड लागू होने पर पर यही होगा. मेरे संस्थान सहारा इंडिया मांस कम्यूनिकेशन ने आपत्ति जताई. मैं नौ महीने तक श्रम विभाग के चक्कर लगाता रहा हूं संदर्भादेश में संशोधन के लिए। पिछले माह विभाग ने लिखित में बताया कि उसे संदर्भादेश में संशोधन का अधिकार है या नहीं, इससे संबंधित शासनादेश उसके कार्यालय में धारित नहीं है. संदर्भादेश में संशोधन का अधिकार किसे है इसकी जानकारी श्रम सचिव को भी नहीं है.

श्रम सचिव ने मेरे आवेदन-पत्र पर एक माह तक विचार करने के बाद श्रम विभाग को भेज दिया. मतलब मैंने श्रम सचिव से शिकायत की कि उनके अधीन आने वाला श्रम विभाग मेरे क्लेम में संशोधन नहीं कर रहा है, इस पर उचित कार्रवाई करें. श्रम सचिव ने गेंद श्रम विभाग के पाले में ढकेल दी. विभागीय अधिकारी सहायक श्रमायुक्त ने श्रमायुक्त को चिट्ठी लिख इत्तिला कर दिया है कि ‘उसके पास शासनादेश ही नहीं है’.

बताते चलें कि आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार फरवरी 18 तक सहायक श्रमायुक्त गढ़वाल क्षेत्र स्थित देहरादून कार्यालय में मात्र 14 लोगों ने मजीठिया वेज बोर्ड के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ के लिए दावा पेश किया. मेरा दावा 01/2016 पहला था. यही एक श्रम न्यायालय को भेजा गया. दो वाद निस्तारित कर पत्रावली दाखिल दफ्तर की गई है, छह मामलों में कार्यवाही गतिमान है तो पांच वादों में कार्यवाही समाप्त की गई है. लेख जो कि सामूहिक होता है, इसमें मैं अपनी व्यक्तिगत बातें इसलिए लिख रहा हूं ताकि आप भी जानें चीजों की बारीकियों को. अखबारकर्मी ने यदि अपना वो हक मांगा है जो कानूनन लागू है तो भी वह उसे मिल ही जाएगा इसकी गारंटी नहीं, ऐसा क्यों ?

उदाहरणस्वरुप मैं 11-12-2011 से लागू वेज बोर्ड के अनुसार वेतन और अन्य परिलाभ चाहता हूं तो सीए से धनराशि की गणना करवाने के लिए पैसे खर्च करूं, श्रम विभाग में पैरवी के लिए ऐसा वकील रखूं जिसकी विभाग में अच्छी “पकड़” हो. मामला श्रम न्यायालय में जाए तो भी अच्छा वकील या श्रम कानून का ज्ञाता रखूं. अब अखबार की नौकरी करते हुए तो शायद “विरला” ही अपने अखबारी संस्थान के खिलाफ कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की हिदायत करेगा. नौकरी जाने पर वह कोर्ट-कचहरी करें या परिवार के लिए रोजी-रोटी की व्यवस्था ?

पत्रकारों व गैर-पत्रकारों के लिए गठित वेजबोर्डों में से कौन किस मुकाम तक पहुंचा, यह तो मालूम नहीं लेकिन अगर मजीठिया वेज बोर्ड का भी अन्यों की तरह हश्र हुआ तो यह अब तक की सबसे बड़ी हार होगी.

शायद कुछ दिन, माह या साल के बाद सरकार ने वेज बोर्ड का गठन कर दे. सरकार यह कह दे कि “मेरिट काम होता है आयोगों का गठन करना उसे लागू कराना नहीं”.

मित्रों, यह पहला वेतन आयोग है जिसने इतनी लंबी दूरी तय की. अब हम पत्रकारों का दायित्व है इसे हासिल करना, अपने लिए और आने वाले पत्रकार साथियों के लिए. अगर हमने इसे हासिल नहीं किया तो मालिकों के हौसले और बुलंद होंगे. सरकार एक और वेतन आयोग का गठन कर देगी, आयोग अपनी रिपोर्ट पेश करेगी, दोनों सदनों (लोकसभा-राज्यसभा) में पारित होगा, राष्ट्रपति अपनी मुहर लगा देंगे, यह कानून का रूप ले लेगा.

कोई अखबार मालिक सीधे (कर्मचारी सीधे नहीं जा सकता) कोर्ट चला जाएगा. सालों मुकदमा चलेगा, फैसला आएगा. हारने पर मालिक चैलेंज करेगा, पुनर्विचार याचिका दायर करेगा. यहां भी हारा और कोर्ट के आदेश को लागू नहीं किया तो जिसमें साहस होगा वह मानहानि का मुकदमा दायर करेगा. उस पर फैसला आएगा और मालिकान हारेंगे तो कोर्ट अपनी अवमानना के दंडस्वरूप उन्हें गिरफ्तार कर जेल नहीं भेजेगा बल्कि पीड़ित को आदेश देगा कि अब वह अपने-अपने राज्यों के श्रम सचिव/ विभाग के पास जांए, श्रम न्यायालय में मुकदमा दायर करें और कूबत है तो हासिल कर लें. अब यह हम पर है कि हम हासिल कर पाते हैं या नहीं. हम समझते हैं कि कोर्ट गलत है, कोर्ट गलत नहीं है. कोर्ट का काम कानून बनाना नहीं उसका अनुपालन कराना है. कानून बनाना विधायिका काम है. अब जब हमारे द्वारा चुनी गई सरकार ही श्रम कानूनों को कमजोर करेगी तो ….?

– अरुण श्रीवास्तव के वाल से

Read Also –

मार्क्स की 200वीं जयंती के अवसर पर
कोबरा पोस्ट की खोजी रिपोर्ट: पैसे के लिए कुछ भी छापने को राजी बिकाऊ भारतीय मीडिया

[प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

One Comment

  1. AP Bharati

    May 30, 2018 at 4:03 am

    Jay Hind ! Loktantra Jindabad ! Jansarokari logon ko Inklabi salam !

    plz visit my news portal

    and

    plz write to me or sport to me

    http://peoplesfriend.in

    email : ap.bharati@yahoo.com

    whatsapp : 9897791822

    Reply

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

हम भारत हैं, हम बिहार हैं, हम सीधे विश्वगुरु बनेगें, बस, अगली बार 400 पार हो जाए !

अमेरिका के विश्वविद्यालयों में गाजा में हो रहे नरसंहार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं.…