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शिक्षा : आम आदमी पार्टी और बीजेपी मॉडल

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‘क्या आप अपनी ऑफिस या कॉलेज से घर आकर मजदूरी करने जाएंगे ? मुझे स्कूल से वापस आकर मजदूरी करनी पड़ती है. खेतों में काम करना पड़ता है. मेरा नाम बंदना है, मैं 16 साल की एक दलित लड़की हूं, जो यूपी के एक छोटे से गांव से आती है. मेरे गांव में 8वीं कक्षा के बाद पढ़ाई के लिए कोई सरकारी स्कूल नहीं है. प्राइवेट स्कूल का खर्च उठाने में मेरे गरीब परिवार की जान निकल जाती है. मेरे जैसी 15-18 साल की 40 प्रतिशत लड़कियों के लिए स्कूल जाना केवल एक सपना है. यही वजह है कि हम या तो बाल-मजदूर बन जाती हैं या बाल-विवाह का शिकार. मेरी मांग है कि सरकारी शिक्षा का बजट बढ़ाया जाए ताकि देश के हर बच्चे को हायर सेकेंडरी तक की शिक्षा मुफ्त में उपलब्ध हो सके.’

change.org पर उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव की वंदना ने हस्ताक्षर के लिए दिया यह पेटिशन भारत में शिक्षा की स्थिति पर एक गंभीर टिपण्णी है. देश में एक मात्र दिल्ली की आम आदमी पार्टी की ही सरकार ऐसी है, जिसने शिक्षा पर जबर्दस्त फोकस किया है और अपने विगत पांच साल में शिक्षा के क्षेत्र में किये गये कामों के चुनाव में शिक्षा को अपना मुद्दा बनाये हुए है, वरना आज देश की किसी भी राज्यों के लिए शिक्षा एक फालतू का मुद्दा है. उन नेताओं के बच्चे तो मंहगी शिक्षा देश या दुनिया की किसी भी स्कूलों से हासिल कर लेते हैं परन्तु देश के बच्चों के शिक्षा देते वक्त उनकी नानी मरने लगती है. उनका स्पष्ट मानना है कि देश के बच्चे पढ़-लिख गए तो उसकेे झांसे में नहीं आएंगे. सवाल करेंगे और इसलिए जानबूझ कर अनपढ़ रखने की साजिश के तहत साल-दर-साल बजट में कटौती करते रहते हैं. खासकर देश की सत्ता पर जब दो अनपढ़ गुंडा काबिज हो गये हो तो शिक्षा की तो ऐसी-तैसी होनी ही थी.

दिल्ली चुनाव के मद्देनजर आज देश में शिक्षा के लिए दो माॅडल पेश किया गया. पहला आम आदमी पार्टी का दिल्ली माॅडल तो दूसरा भाजपा का गुजरात माॅडल, जहां भाजपा पिछले कई दशक से सत्ता पर काबिज है. मैग्सेसे अवार्ड विजेता रविश कुमार ने अपने लेख में एक तुलनात्मक अध्ययन किया है, पाठकों के लिए पेश है –

शिक्षा : आम आदमी पार्टी और बीजेपी मॉडल

दिल्ली के आम आदमी पार्टी का सरकारी स्कूल बनाम भाजपा गुजरात का सरकारी स्कूल

90 के दशक के आखिरी हिस्से से अचानक भारत की राजनीति को बिजली सड़क पानी के मुद्दे से पहचाना जाने लगा. इससे बिजली और सड़क का कुछ भला तो हुआ लेकिन पानी पीछे छूट गया. शिक्षा और स्वास्थ्य का तो नंबर ही नहीं आया. दिल्ली विधानसभा का चुनाव शायद पहला चुनाव है जिसमें शिक्षा का सवाल केंद्र में आते आते रह गया. बेशक दिल्ली का चुनाव स्कूल से शुरू होता है लेकिन शाहीन बाग को पाकिस्तान, गद्दार और आतंकवाद से जोड़ने की सियासी आंधी के कारण पिछड़ता जा रहा है. हिन्दी प्रदेशों के लिए जिनमें से दिल्ली शिक्षा का आखिरी पड़ाव है, यह मुद्दा नई राजनीति को जन्म दे सकता है या दे सकता था. बिहार यूपी और अन्य हिन्दी प्रदेशों से शिक्षा के कारण भी लाखों लोगों का पलायन हुआ है.

लोगों ने खराब स्कूलों और कॉलेज की कीमत इतनी चुकाई है कि वे बच्चों को पढ़ाने के लिए शहर बदलने लगे और ट्यूशन और कोचिंग का खर्चा उनकी ज़िंदगी की जमा पूंजी निगल गया. स्कूल अगर राजनीति के केंद्र में आता है तो यह मसला दिल्ली सहित हिन्दी प्रदेशों की राजनीति बदल देगा. 2018 में प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में कहा था कि देश में 9 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं और यूपी में 2 लाख से भी ज्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं तो सोचिए आपके बच्चों का भविष्य किस रफ्तार से खराब हो रहा होगा. प्राइम टाइम में हम दिल्ली चुनावों में स्कूलों को लेकर दिए गए बयानों को रखना चाहते हैं. देखते हैं कि अगर शिक्षा की बात हो, स्कूल की बात हो तो दिल्ली और भारत की राजनीति कैसी लगेगी. इस मसले पर कोई भी किसी को भी घेरे, फायदा गरीब और साधारण जनता को है.

2013 में शीला दीक्षित ने शिक्षा का बजट 1981 करोड़ करते हुए कहा था कि 1998-99 में दिल्ली में शिक्षा का बजट 243 करोड़ हुआ करता था. उसके बाद आम आदमी पार्टी की सरकार अपना पहले संपूर्ण बजट पेश करती है और शिक्षा का बजट 1981 करोड़ से बढ़ाकर 9836 करोड़ कर देती है. कुल बजट का 24 प्रतिशत हो गया. 2016-17 में दिल्ली में शिक्षा का बजट 10,690 करोड़ का हो गया. टोटल बजट का 23 प्रतिशत. 2017-18 में शिक्षा का बजट बढ़कर 11,300 करोड़ हो जाता है. कुल बजट का 23.5 प्रतिशत शिक्षा का बजट होता है. 2018-19 में 13,997 करोड़ 26 प्रतिशत हो गया है. धीरे-धीरे दिल्ली सरकार के स्कूलों में इंफ्रास्ट्रक्चर की तस्वीरें बाहर आने लगीं. किसी स्कूल को हॉकी का टर्फ मिला तो किसी को स्वीमिंग पूल. पब्लिक स्कूल वाले क्लास रूम की तस्वीरों के साथ आम आदमी पार्टी इसे अपने काम का प्रमुख चेहरा बनाने लगी. इससे उत्साहित होकर मनीष सिसोदिया ने एक किताब भी लिखी है, ‘शिक्षा : दिल्ली के स्कूलों में कुछ अभिनव प्रयोग.’ इसी काम के आधार पर पूर्वी दिल्ली के लिए आम आदमी पार्टी आतिशी को उम्मीदवार बनाती है तो चुनाव हार जाती है. आम आदमी पार्टी फिर से विधानसभा चुनावों में स्कूल को अपना मुद्दा बनाती है.

एक मॉडल बीजेपी का है. विपक्ष का है. दूसरा मॉडल केजरीवाल सरकार का है. पहले मॉडल में और दूसरे मॉडल में क्या अंतर है. आपके सामने डेटा रख रहा हूं. दिल्ली में 2013-14 में शिक्षा का बजट 16 प्रतिशत था. और अब बढ़ कर 26 प्रतिशत था. हरियाणा में 15 से घट कर 13 हो गया. यूपी में 16 प्रतिशत था और घट कर 13 प्रतिशत हो गया, पंजाब में 14 प्रतिशत से घट कर 10 प्रतिशत हो गया है. तो पांच साल में दिल्ली का बजट 10 प्रतिशत बढ़ गया है. देश के बच्चे पढ़ लिख गए तो आपके झांसे में नहीं आएंगे. सवाल करेंगे और इसलिए जानबूझ कर अनपढ़ रखने की साज़िश के तहत बजट काटते हैं.

दिल्ली की आबादी करीब 2 करोड़ है. इस शहर में कई प्रकार के स्कूल हैं. केंद्र के तहत आने वाले न्यू दिल्ली म्यूनिसिपल कारपोरेशन के तहत 66 स्कूल आते हैं. दिल्ली नगर निगम के पास 1700 स्कूल हैं. दिल्ली सरकार के पास 1030 स्कूल हैं. दिल्ली नगर निगम में बीजेपी का बहुमत है. अगर बीजेपी अपने तहत आने वाले करीब 1700 स्कूलों के प्रदर्शन को आगे रखती तो केजरीवाल सरकार को ठीक से चुनौती मिलती. जिस तरह से केजरीवाल सरकार स्कूलों की इमारत, नए नए क्लास रूम की तस्वीरें ट्वीट करती रहती है, बीजेपी भी एमसीडी के ऐसे स्कूलों की तस्वीर ट्वीट कर सकती थी. आम आदमी पार्टी ने 2015 के चुनावों में वादा किया था कि 500 नए स्कूल बनाएंगे. इसी को लेकर अमित शाह बार-बार सवाल पूछते हैं कि नए स्कूल बनाने का वादा पूरा नहीं किया. वादा 500 नए स्कूल बनाने का था मगर अमित शाह जब हमला करते हैं तो संख्या डबल कर देते हैं, पूछते हैं 1000 नए स्कूल कहां हैं.

अमित शाह ने प्राइम टाइम की यूनिवर्सिटी सीरीज़ तो नहीं देखी होगी लेकिन मुझे बहुत अच्छा लग रहा है जब वे यह मुद्दा उठा रहे हैं कि दिल्ली के 700 स्कूलों में प्रिंसिपल नहीं हैं. आप रिसर्च करें तो पता चलेगा कि केंद्रीय विद्यालयों में शिक्षकों के 6000 पद खाली हैं. जवाहर नवोदय विद्यालय में 3000 से अधिक पद खाली हैं. यह बयान मानवसंसाधन मंत्री निशंक ने 15 नवंबर 2019 को राज्यसभा में दिया था. राजनीति में अगर शिक्षकों प्रिंसिपलों के खाली पदों को मुद्दा आ जाए तो समझिए कि जनता का भला होने जा रहा है. प्रिंसिपल के पद खाली होने पर आम आदमी पार्टी का कहना है कि शिक्षकों और प्रिंसिपल की नियुक्ति सर्विस डिपार्टमेंट से होती है जो केंद्र सरकार के पास है. सुप्रीम कोर्ट में इसे लेकर बहस चल रही है और आज तक अंतिम फैसला नहीं हुआ है. आम आदमी पार्टी सरकार का कहना है कि 25 नए स्कूल बन कर तैयार हैं. 30 नए स्कूल बन रहे हैं. दिल्ली में ज़मीन केंद्र के पास है, इसलिए नए स्कूलों के लिए ज़मीन नहीं मिल सकी है. यह दिक्कत केंद्र को नहीं आनी चाहिए थी. बीजेपी बता सकती है कि उसके बहुमत वाली एमसीडी के लिए कितने नए स्कूल बनाए गए और कितने नए क्लास रूम बनाए गए.

दिल्ली के सीनियर सेकेंडरी स्कूलों में छात्रों की संख्या 6000 बढ़ी है. ये मनीष सिसोदिया ने अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कहा है. यह बहुत बड़ी संख्या तो नहीं है. जब पुराने क्लास रूम की जगह नए क्लास रूम बनेंगे तो सीटों की संख्या नहीं बढ़ेगी. उतनी ही रहेगी. एजुकेशन वर्ल्ड ने हाल ही में भारत के 10 श्रेष्ठ सरकारी स्कूलों की एक सूची बनाई थी. जिसमें से तीन स्कूल दिल्ली सरकार के थे. पहला स्थान राजकीय प्रतिभा विकास विद्यालय सेक्टर 10 द्वारका को मिला था. 10 श्रेष्ठ सरकारी स्कूलों में दिल्ली के तीन स्कूलों को छोड़ हिन्दी प्रदेशों से एक और स्कूल उत्तराखंड का है. बाकी सारे स्कूल कर्नाटक, तमिलनाडु और महाराष्ट्र के हैं. अक्तूबर 2019 में नीति आयोग ने हाल ही में स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर एक सूचकांक बनाया है, इंडेक्स. स्कूल एजुकेशन क्वालिटी इंडेक्स. इसके तहत देश भर के स्कूलों का मूल्याकंन किया गया है. यह इंडेक्स सिर्फ सरकारी स्कूलों को लेकर नहीं बना है बल्कि इसके कुछ पैमानों में पब्लिक स्कूलों को भी रखा गया है. फिर भी इससे अंदाज़ा होता है कि राज्यों में स्कूली शिक्षा का स्तर क्या है. इसके लिए 30 अलग-अलग पैमानों की चार श्रेणियां बनाई गईं थीं. लर्निंग आउटकम मतलब कैसे और क्या सीखा, एक्सेस आउटकम मतलब स्कूल तक कौन कौन पहुंच सकता है, इंफ्रास्ट्रक्चर आउटकम मतलब क्लास रूम से लेकर खेल के मैदान तक और इक्विटी आउट कम मतलब शिक्षा देने में बराबरी कितनी है. देश के बीस सबसे बड़े राज्यों में सबसे खराब प्रदर्शन उत्तर प्रदेश का था. उत्तर प्रदेश का स्थान बीसवां हैं. पंजाब का स्थान है 18वां. बिहार का स्थान है 17वां. मध्य प्रदेश का नंबर था 15वां, हरियाणा का स्थान है 11वां.

केंद्र शासित प्रदेशों के स्कूलों में चंडीगढ़ का पहला स्थान था. दादर नगर हवेली का दूसरा और दिल्ली का तीसरा. चंडीगढ़ और दिल्ली के अंक में काफी अंतर है. अगर आप बीजेपी बनाम आप की नज़र से भी न देखें तो देश की सबसे अधिक आबादी वाले हिन्दी प्रदेशों में शिक्षा की हालत बहुत खराब है. अब हम चलते हैं गुजरात. गुजरात और दिल्ली की आबादी की तुलना नहीं हो सकती. दिल्ली की आबादी करीब 2 करोड़ है और गुजरात की 6 करोड़ से अधिक. हमने इंटरनेट में सर्च किया कि गुजरात के स्कूलों को लेकर किस किस तरह की खबरें छप रही हैं. जिस तरह से अमित शाह दिल्ली में नए स्कूलों का वादा पूछ रहे हैं, गुजरात को लेकर बता सकते हैं कि वहां कितने नए स्कूल बनाए गए हैं. हमने पिछले एक साल में गुजरात के स्कूलों को लेकर छपी कुछ रिपोर्ट देखी है.

टाइम्स ऑफ इंडिया के हिमांशु कौशिक की रिपोर्ट है. 19 दिसंबर 2019 की. इस रिपोर्ट के अनुसार गुजरात गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी के शिक्षकों की कमी से जूझ रहा है. गुजरात सरकार ने विधानसभा में बताया है कि सेकेंडरी स्कूलों में शिक्षकों के 2371 पद खाली हैं. इनमें 884 पद गणित और विज्ञान के शिक्षक हैं. सेकेंडरी सेक्शन में 4020 पद खाली हैं. 19 प्रतिशत अंग्रेज़ी के पद खाली हैं.

22 मई 2019 की टाइम्स ऑफ इंडिया की रिपोर्ट बताती है कि गुजरात में दसवीं की बोर्ड परीक्षा में 8 लाख बच्चे शामिल हुए थे. इनमें से 2 लाख 61 हज़ार बच्चे यानी 32 प्रतिशत छात्र विज्ञान और टेक्नालजी के पेपर में फेल हो गए. गणित में 2 लाख 49 हज़ार छात्र फेल हो गए जो 31 प्रतिशत है. कई साल से यही आंकड़ा है.

टाइम ऑफ इंडिया की हेडलाइन है. 4 मार्च 2019 की. इस खबर के अनुसार गुजरात के शिक्षा मंत्री ने बताया है कि 4000 सरकारी स्कूलों की इमारत जर्जर हो चुकी है. 13000 स्कूलों टिन की छत के नीचे चलते हैं. यानी इन स्कूलों के पास पक्की इमारत नहीं है. तब कांग्रेस के नेता परेश धनानी ने सरकार से पूछा था कि राज्य सराकर हर साल शिक्षा पर 30,000 करोड़ खर्च करती है, सरकारी स्कूलों की इमारतों में सुविधाओं की कमी क्यों है. गणित विज्ञान और अंग्रेज़ी के शिक्षकों की संख्या बहुत कम है.

यह रिपोर्ट भी टाइम्स ऑफ इंडिया की है. कपिल दवे की. 7 जनवरी 2019 की. इस रिपोर्ट के अनुसार गुजरात में 32,772 सरकारी स्कूल हैं. इनमें से 12000 स्कूलों में एक या दो ही शिक्षक हैं. सोचिए एक तिहाई से ज़्यादा 37 प्रतिशत स्कूल 1 या दो शिक्षक से चल रहे हैं. इस रिपोर्ट के अनुसार 20 प्रतिशत स्कूलों में मात्र 51 छात्र हैं. क्या यह समझा जाए कि इन स्कूलों की गुणवत्ता इतनी खराब है कि गुजरात के माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में भेजना ही नहीं चाहते हैं. गुजरात के सरकारी स्कूलों में 90 लाख छात्र पढ़ते हैं. शिक्षक नहीं होने की कमी शिक्षक की भरती से पूरी होनी थी तो सरकार ने तरीका निकाला कि स्कूलों का विलय कर दिया जाए. इंडियन एक्सप्रेस की रितु शर्मा की 17 अगस्त 2019 की रिपोर्ट. राज्य के 33000 प्राइमरी स्कूलों में से करीब 20,000 स्कूलों में 50 से 100 छात्र हैं. फैसला किया गया है कि अलग-अलग चरणों में ढाई से तीन हज़ार स्कूलों का विलय कर दिया जाएगा.

जिस तरह से अमित शाह दिल्ली के सोनिया विहार में कह रहे थे कि 700 स्कूलों में प्रिंसिपल नहीं है तो वे बता सकते हैं कि गुजरात के 12000 स्कूलों में एक या दो ही शिक्षक क्यों हैं. वैसे बड़े राज्यों में नीति आयोग के इंडेक्स में गुजरात को पांचवा स्थान मिला है. सोचिए जिस राज्य के सरकारी स्कूलों में 30 प्रतिशत छात्र दसवीं और 12वीं की परीक्षा में फेल हो जाते हैं उसे भारत में पांचवा स्थान मिला है. शिक्षा का स्तर कितना गिर गया है. कुछ दिन में फेल होने वाले को ही टॉपर घोषित कर दिया जाएगा कि कम से कम फेल तो हुआ. दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दसवीं क्लास में 2019 में पास प्रतिशत 71.58 ही था. 2018 की तुलना में 2.68 प्रतिशत अधिक था. लेकिन 12वीं में दिल्ली के सरकारी स्कूलों का प्रदर्शन कई गुना बेहतर हो जाता है.

2019 में गुजरात की 12वीं की बोर्ड परीक्षा में 27 प्रतिशत रेगुलर छात्र फेल हो गए. यानी गुजरात में 12वीं में मात्र 73.27 छात्र ही पास हुए. 12वीं दिल्ली के सरकारी स्कूलों में करीब साढ़े पांच प्रतिशत छात्र ही फेल हुए. दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 12वीं में पास प्रतिशत 94.24 है.

गुजरात में दिल्ली से कई गुना छात्र दसवीं और 12 वीं की परीक्षा देते हैं. दिल्ली में दसवीं और 12 वीं में पौने दो लाख से काफी कम छात्र शामिल होते हैं. यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दिल्ली की चुनावी सभा में बता सकते हैं कि हिन्दी भाषी उत्तर प्रदेश में पिछले साल राज्य की 10वीं और 12वीं की बोर्ड परीक्षा में दस लाख बच्चे हिन्दी में ही फेल हो गए थे. पिछले साल 165 स्कूल ऐसे थे जिसमें एक भी बच्चा पास नहीं हुआ था. सरकार इसे नकल रोकने की कामयाबी के रूप में पेश कर रही थी लेकिन सोचिए बिना नकल के यूपी में दस लाख छात्र हिन्दी में फेल हो गए. इसलिए नीति आयोग की रिपोर्ट में यूपी को अंतिम स्थान मिला है. प्राइम टाइम के इस अंक को आप यू-ट्यूब पर भी देखिएगा, आपको लगेगा कि राजनीति भावुक मुद्दों के नाम पर कैसे आपका गला काटती है. उन्हीं नेताओं के बयान से शिक्षा वाले बयान को लेकर दिल्ली के चुनाव को देखने पर लगता है कि राजनीति को सही मुद्दे पर लाने में जनता ने कितनी देर कर दी. इसलिए कहा कि दिल्ली चुनाव में पहली बार स्कूल चुनावी मुद्दा बनते बनते रह गया. अगर यह मुद्दा बनता तो यूपी बिहार की राजनीति बदल जाती. जहां के लाखों परिवार खराब स्कूलों के कारण हर साल पलयान कर जाते हैं.

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ROHIT SHARMA

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