जीएसटी के विरोध में जिस सूरत के सर्राफा कारोबारियों की अगुवाई में पूरे देश में डेढ़ माह तक काम काज ठप्प रहा हो, उसी सूरत की 16 विधान सभा की सीटों में से 15 बीजेपी झटक ले ? लोग इस बात को पचा नही पा रहे हैं. पचाने की राह जितनी ऐंठन भरी है, उतने ही पेंच-ओ-खम भरा गुजरात में इस बार बीजेपी का चुनाव प्रचार रहा है. वैसे तो देश में चुनाव किसी भी राज्य में हो प्रचार की कमान देश के प्रधानमन्त्री और संचालन पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ही सम्भालते हैं. गुजरात में भी इसी जोड़ी ने संभाला. पर इसबार शमशान-कब्रिस्तान जैसे टेढ़ी उंगली वाले आमतौर पर कामयाब हथकंडों के बेअसर होने ने इस जोड़ी के पाओं तले की जमीन ही खिसका दी. साख बचाने के लिए गुजरात चुनाव में पड़ौसी पाकिस्तान का हाँथ कोंग्रेस के साथ होने, कोंग्रेस नेता द्वारा मोदी ने अपने खुद को “ नीच “ बताने , पूर्व उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी , पूर्व प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह सहित देश पूर्व राजनयिक ,पूर्व सेना अध्यक्ष आदि के षड्यंत्र में शामिल होने आदि-आदि से भी जब बात बनती नही दिखी तो बतौर ब्रह्मास्त्र, गिड़गिड़ाने के निम्न स्तर तक के हथकंडे को आजमाया गया (सम्बंधित खबरें देश के मीडिया में ही नही समुद्र लांघ विदेशी मीडिया में भी चर्चित हो चुकी है इसलिए यह उनका सार संक्षेप ही यहां दिया है). माना हम आप जैसे किसी बाहरी को यह अधिकार नही कि वह ये तय करे कि किसी को अपनी इज्जत बचाने के लिए कितना नीचे तक गिरना चाहिए और कितना नही. महत्वपूर्ण ये है कि इतना नीचे तक गिरना क्यों पड़ा ? गिरना इसलिए पड़ा क्योंकि इस बार तमाम अनुमानों के विपरीत राहुल के तेवर न सिर्फ पैने और नुकीले थे अपितु हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर की बारूद भी उन पर लिपटी हुई थी. ये सारा नजारा कलेंडर में बदलती तारीखों की बढ़ती गिनती की तरह गर्मी पकड़ता हुआ गिड़गिड़ाने के चरम तक पहुंचा है और वोट डालने से ठीक एक या दो दिन पूर्व पूरे माहौल ने करवट ले ली. शहरी मतदाता, ग्रामीणों की तुलना में ज्यादा जागरूक, समझदार और सतर्क होता है. उसमें जातिगत ऊंच-नींच का असर अपेक्षाकृत हल्का होता हैं इसलिए बड़े शहरों के मतदाताओं के दिलोदिमाग पर गुजरात की साख बने मोदी के गिड़गिड़ाने का गहरा असर हुआ और गुजराती अस्मिता के सामने आसन्न खतरे के चलते अंतिम समय मतदाताओं ने इकतरफा मतदान किया. मेरा निजी मत है कि गुजरात के शहरी कारोबारोयों में केंद्र सरकार की जीएसटी और नोटबन्दी जैसी अधपकी-अधकचरी नीतियों के प्रति नाराजगी कम नही हुई है. अपितु उन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के सामने चुनौती पेश कर सकने वाले सामर्थवान नेता की अगुआई में सशक्त विपक्ष के तैयार हो जाने तक अपनी नाराजगी को लंबित करदिया है और मोदी के पक्ष में मतदान कर दिया है. मैं फिर दोहराना चाहूंगा कि ये मेरा निजी मत है जिसका आधार गुजरात के कुछ जिम्मेदार व्यापारी नेताओं के साथ हुई बातचीत है. गुजरात में हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर , जिग्नेश मेवाणी को कोंग्रेस का साथ मिला या कोंग्रेस को इन तीनों का ? इसका आंकलन तो 2018 में होने वाले विधान सभाओं के चूनावों में कोंग्रेस के युवा अध्यक्ष के जमीनी प्रदर्शन और चुनाव व संगठन संचालन कौशल के परिणाम ही बताएंगे. राहुल अपनी सभाओं में जुटने वाली “भीड़” को कितनी कुशलता से अपनी भाषण शैली के सम्मोहन से बांध पाते हैं और उनमें से कितने उनकी पार्टी का बटन दबाते हैं ? जानने के लिए इन प्रदेशों के परिणाम आने तक तो इंतजार करना ही पड़ेगा. अभी राहुल को जरूरत से ज्यादा वजन देना या उछालना ठीक नही है. देश उन्हें पिछले एक दशक से ज्यादा से आँक रहा है. सिर्फ गुजरात चूनावों मे कोंग्रेस की सीटों में दर्ज बढ़ोतरी का सेहरा अकेले उनके सिर नही बांधा जा सकता. हाँ, इतना जरूर मानना पड़ेगा कि मोदी जिसको “ पप्पू “ कह कर बड़ी आसानी से खारिज करते रहे हैं, उसी ने उनके ही घर में घुस कर ललकारने का अदम्य साहस दिखाया हैं, जिसे पूरे देश ने सराहा है. एक आशा बनी है 2014 के बाद राजनीति में पैदा हुए शून्य को भरा जा सकता है. अलबत्ता बाकी की पार्टियां बीजेपी के छद्म विरोध की रीति-नीति को ईमानदारी से अलबिदा कह सकें. विपक्षी दल अलबिदा न भी कहें, तो भी 2018 में होने वाले चूनावों में हर सफल प्रदर्शन के साथ आमजन की भीड़ कोंग्रेस की छतरी के नीचे बढ़ती जाएगी. गुजरात में मोदी मैजिक को हवा में उड़ाने और विकास की पोल खोलने के साथ सक्रिय राजनीति में प्रवेश का उनका यह पहला सत्र था, जिसमें उन्होंने अपने को जनपेक्षाओं से अधिक सफल साबित किया है.
– विनय ओसवाल देश के जाने-माने पत्रकार और विश्लेषक है. |
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