चारु मजूमदार ने भारत में जब क्रांतिकारी मार्क्सवाद को संशोधनवाद से अलग कर प्रयोग में लाया, तब उन्होंने ज़ोर देकर चुनाव बहिष्कार का अपना रणनीतिक नारा दिया. उन्होंने पार्टी बनाई और माओ के तीन जादुई हथियार – पार्टी, जनसेना और संयुक्त मोर्चा – का इस्तेमाल कर जनयुद्ध छेड़ दिया. उनके द्वारा दिया गया चुनाव बहिष्कार का नारा इतना महत्वपूर्ण है कि आज़ यह नारा अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप को हासिल कर लिया है. यहां हम चारु मजूमदार के इस लेख को यहां प्रकाशित कर रहे हैं, जिसे हमने लिबरेशन, दिसंबर 1968 स्रोत: चारु मजूमदार की चुनिंदा रचनाएं से लिया है. – सम्पादक

चारु मजूमदार
वर्ष 1937 था. विश्व साम्राज्यवाद की तीन अग्रिम टुकड़ियां जर्मन, इतालवी और जापानी फासीवाद आपस में दुनिया को फिर से बांटने की साजिश कर रहे थे. जर्मन और इतालवी फासीवाद जनरल फ्रैंको के सक्रिय समर्थकों के रूप में स्पेन के मंच पर घुस आए. दुनिया भर का मजदूर वर्ग स्पेन की संयुक्त मोर्चा सरकार के समर्थन में सामने आया और विभिन्न देशों से आए लोगों को लेकर एक अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड का गठन किया गया. लेकिन दुर्भाग्य से फ्रैंको अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड द्वारा किए गए प्रतिरोध को कुचलने और स्पेन पर अपने ब्रांड का फासीवाद थोपने में सफल रहा.
ठीक उसी समय, चेयरमैन माओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने एक छोटे से क्षेत्र, येनान को आज़ाद कराया और जापानी सैन्यवाद का विरोध करने के लिए खड़ी हुई. इतना ही नहीं, इसने जापानी सैन्यवाद के सभी दावों को तोड़ दिया और जापानी कब्जे वाले क्षेत्रों में गरीब किसानों को जगाकर एक के बाद एक मुक्त क्षेत्र बनाने शुरू कर दिए. ये मुक्त क्षेत्र न केवल भयंकर जापानी हमलों से बचे रहे बल्कि जापानी साम्राज्यवाद पर भी कड़ा प्रहार किया. उस समय चेयरमैन माओ त्से-तुंग के नेतृत्व वाली चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को न केवल जापानी साम्राज्यवाद से लड़ना था, बल्कि चियांग के नेतृत्व वाली प्रतिक्रियावादी कुओमिन्तांग सरकार का भी विरोध करना था.
फिर दूसरा विश्व युद्ध छिड़ गया. पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियों के उपनिवेश ताश के पत्तों की तरह ढह गए. उपनिवेशी लोगों ने अपनी आंखों के सामने देखा कि कैसे तथाकथित शक्तिशाली साम्राज्यवादी शक्तियां जापानी आक्रमण के सामने कुत्ते की तरह भाग गईं, जैसे कि वे दुम दबाकर भाग रहे हों. जर्मन फासीवाद ने अपनी श्रेष्ठ सैन्य तकनीक और ताकत के बल पर पूरे यूरोप की सभी साम्राज्यवादी शक्तियों (ब्रिटिशों को छोड़कर) को अपने अधीन कर लिया.
पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियां फासीवाद के हमले का सामना करने में असमर्थ साबित हुईं. यूरोप की पूरी औद्योगिक संपदा और संसाधनों को अपने पास रखते हुए, सत्ता के नशे में चूर जर्मन फासीवादियों ने सोवियत संघ के खिलाफ़ आक्रमण किया, जो उस समय एकमात्र ऐसा राज्य था जहां मज़दूर वर्ग सत्ता में था. महान स्टालिन के नेतृत्व वाली सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने इस विश्वासघाती आश्चर्यजनक हमले के शुरुआती झटके से जल्द ही उबरकर पूरे सोवियत लोगों को संगठित किया, उन्हें देश की रक्षा के लिए पवित्र दृढ़ संकल्प से भर दिया और जर्मन फासीवादी भीड़ के सभी दावों को चकनाचूर कर दिया.
स्टेलिनग्राद के युद्ध के मैदान में जर्मन फासीवाद को मिली हार ने स्टालिन के नेतृत्व में सोवियत संघ की जीत सुनिश्चित की. चीन की महान कम्युनिस्ट पार्टी के उदाहरण ने दुनिया के लोगों को प्रेरित किया कि जहां कहीं भी फासीवाद का दमन हुआ, वहां लोगों ने हथियार उठाकर फासीवाद का विरोध किया और उससे लड़ने के लिए ग्रामीण आधार क्षेत्रों की स्थापना की. इस तरह विश्व फासीवाद का नाश हुआ.
युद्ध के बाद जब पुराने साम्राज्यवादियों ने अपने शोषण और शासन को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया, तो उपनिवेशी दुनिया की जनता का गुस्सा, जो जागृत हो चुकी थी और अपनी ताकत को पहचान चुकी थी, जंगल की आग की तरह फैल गया और सशस्त्र संघर्ष की लपटें उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों में फैल गईं. जिस समय चेयरमैन माओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी निर्णायक जीत की ओर बढ़ रही थी, उसी समय भारत, तेलंगाना में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के नेतृत्व में एक किसान गुरिल्ला बल का गठन किया गया, लाखों किसानों में क्रांतिकारी प्रतिरोध की भावना जागृत की गई और सैकड़ों गांवों को आजाद कराया गया.
महान चीनी क्रांति की जीत और 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना ने निर्णायक रूप से जनयुद्ध की अपार शक्ति को साबित कर दिया. माओ त्से-तुंग के विचारों, मार्क्सवाद-लेनिनवाद पर आधारित चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने मजदूरों, किसानों और अन्य मेहनतकश लोगों के गठबंधन को एक मजबूत नींव पर स्थापित किया और चीनी लोगों को सशस्त्र संघर्ष के रास्ते पर जीत की ओर अग्रसर किया. इस जीत ने औपनिवेशिक दुनिया के लोगों को आंदोलित किया और दक्षिण-पूर्व एशिया के हर उपनिवेश में सशस्त्र संघर्ष मजबूती से विकसित होने लगा.
विजयी चीनी क्रांति ने उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों के लोगों के सामने स्पष्ट रूप से वह रास्ता बता दिया, जिस पर उन्हें जीत हासिल करने के लिए आगे बढ़ना चाहिए. फिर विश्व साम्राज्यवाद के कुल पतन का युग शुरू हुआ. जैसे-जैसे विश्व साम्राज्यवाद अपने अंतिम पतन के करीब पहुंचा स्टालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संशोधनवादी विद्रोही गुट ने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व हथिया लिया और दुनिया के संशोधनवादी विद्रोही गुटों ने विश्व साम्राज्यवाद को उसके विनाश से बचाने के लिए मिलकर काम करना शुरू कर दिया.
भारत में कम्युनिस्टों का मुखौटा पहने हुए विद्रोही देशद्रोही चीनी क्रांति की जीत से बुरी तरह डर गए और उन्होंने बिना शर्त तेलंगाना संघर्ष वापस ले लिया और संसदवाद का रास्ता अपना लिया. सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस के बाद सोवियत संशोधनवादी विद्रोही गुट ने अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ मिलकर उन उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों के लोगों के बीच अशांति और भ्रम फैलाया, जहां वे सशस्त्र संघर्ष कर रहे थे.
चेयरमैन माओ ने कहा है कि आज का विश्व साम्राज्यवाद एक ऐसे घर की तरह है जो एक अकेले खंभे अमेरिकी साम्राज्यवाद पर टिका हुआ है. और इसलिए, अमेरिकी साम्राज्यवाद का विनाश विश्व साम्राज्यवाद को पूरी तरह से नष्ट कर देगा. यही कारण है कि देशद्रोही ख्रुश्चेव गुट ने अमेरिकी साम्राज्यवाद की ओर सहयोग का हाथ बढ़ाया. और यही कारण है कि चेयरमैन माओ ने 1957 में हमें चेतावनी दी और घोषणा की कि उग्र क्रांतिकारी संघर्षों के युग में संशोधनवाद मुख्य खतरा है.
अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष, जिसे चेयरमैन माओ ने 1962 में शुरू किया था, ने पूरी दुनिया में क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादियों के बीच उत्साह की एक नई लहर ला दी. दुनिया के हर देश में कम्युनिस्ट पार्टी संशोधनवादी पार्टी नेतृत्व के विरुद्ध विद्रोह के साथ उबलने लगी और क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादियों ने अपनी कतारें बंद करनी शुरू कर दीं. साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष ने एक नए उच्च चरण में प्रवेश किया. साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान लेते हुए, वीर वियतनामी सेनानियों ने विश्व साम्राज्यवाद के एकमात्र स्तंभ, अमेरिकी साम्राज्यवाद पर प्रहार किया.
यह स्पष्ट हो गया कि साम्राज्यवाद का विनाश निकट था. यह स्वीकार करने में थोड़ी सी भी हिचकिचाहट, कि चेयरमैन माओ का विचार वर्तमान युग का मार्क्सवाद-लेनिनवाद है, साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष को कमजोर कर सकती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह उसी हथियार को कुंद कर देता है जिससे संशोधनवाद का मुकाबला किया जाना है. चेयरमैन माओ ने हमें सिखाया है कि संशोधनवाद पर प्रहार किये बिना हम साम्राज्यवाद पर आक्रमण करने के लिए एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते.
वर्तमान युग में जब साम्राज्यवाद पूर्ण पतन की ओर अग्रसर है, हर देश में क्रान्तिकारी संघर्ष ने सशस्त्र संघर्ष का रूप ले लिया है; सोवियत संशोधनवाद, समाजवाद का मुखौटा बरकरार न रख पाने के कारण साम्राज्यवादी रणनीति अपनाने को मजबूर हो गया है; विश्व क्रान्ति एक नये उच्चतर चरण में प्रवेश कर चुकी है; और समाजवाद विजय की ओर अदम्य रूप से आगे बढ़ रहा है – ऐसे युग में संसदीय मार्ग अपनाने का अर्थ है विश्व क्रान्ति की इस आगे बढ़ती यात्रा को रोकना. आज क्रान्तिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादी संसदीय मार्ग नहीं अपना सकते.
यह बात केवल औपनिवेशिक और अर्द्ध-औपनिवेशिक देशों के लिए ही नहीं, बल्कि पूंजीवादी देशों के लिए भी सच है. विश्व क्रान्ति के इस नये युग में जब चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति में विजय प्राप्त हो चुकी है, दुनिया भर के मार्क्सवादी-लेनिनवादियों का मुख्य कार्यभार ग्रामीण क्षेत्रों में आधार स्थापित करना और सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से मजदूरों, किसानों तथा अन्य सभी मेहनतकश लोगों की एकता को मजबूत आधार पर खड़ा करना हो गया है. इसलिए, क्रांतिकारी मार्क्सवादी-लेनिनवादियों द्वारा दिए गए नारे ‘चुनावों का बहिष्कार करो’ और ‘ग्रामीण आधार स्थापित करो तथा सशस्त्र संघर्ष के क्षेत्र बनाओ’, पूरे युग के लिए वैध बने हुए हैं.
संसदीय मार्ग पर चलते हुए दुनिया भर के क्रांतिकारियों ने सदियों से एक बहुत बड़ा रक्त-ऋण जमा होने दिया है. अब इस रक्त-ऋण को चुकाने का समय आ गया है. लाखों शहीद क्रांतिकारियों से आह्वान करते हैं: ‘मरते हुए साम्राज्यवाद पर जोरदार प्रहार करो और इसे धरती से मिटा दो !’ अब दुनिया को नए तरीके से फिर से बनाने का समय आ गया है ! इस लड़ाई में हमारी जीत पक्की है !
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