
देश के गृह मंत्री अमित शाह ने ऐलानिया तौर पर यह कह दिया है कि भारत देश से माओवाद या नक्सलवाद का खात्मा 31 मार्च 2026 तक हो जाएगा. इस ऐलान के बाद माओवादियों को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब हाल ही में छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के अबूझमाड इलाके में हुई एक भयंकर मुठभेड़ में माओवादियों के महासचिव (जनरल सेक्रेटरी) (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया माओवादी के जनरल सेक्रेटरी) एन. केशव राव उर्फ बासव राज की उस मुठभेड़ में मौत हो गई.
नमस्कार, आप देख रहे हैं सेंट्रल गोंडवाना खबर. मैं हूं राघवेंद्र. मैं इस वक्त आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम जिले के जियानपेट्टा गांव में मौजूद हूं और मेरे साथ इस वक्त एक बहुत महत्वपूर्ण व्यक्ति मौजूद हैं, उनका नाम है एन. दिलेश्वर राव. एन. दिलेलेश्वर राव मारे गए माओवादी नेता, नक्सलियों के सुप्रीम लीडर और पार्टी के महासचिव एन. केशव राव के बड़े भाई हैं. यहां यह बताना बहुत जरूरी है कि एन. दिलेश्वर राव जो बासव राज या एन. केशवराव के जो बड़े भाई थे, वो भारत सरकार की सेवा से प्रिंसिपल सेक्रेटरी के रैंक से सेवानिवृत्त हुए हैं. मैं इस वक्त उनके घर में और उनके पैतृक गांव में उनके साथ मौजूद हूं.
पत्रकार : सर नमस्कार, मैं सेंट्रल गोंडवाना खबर की ओर से आपका स्वागत करता हूं. सर मैं सबसे पहले तो ये जानना चाहता हूं कि आप खुद इतने बड़े सरकारी पद पर रहे. आपका पूरा परिवार बहुत शिक्षित रहा. आपके पिता और आपके पिता के भाई सब टीचर हुआ करते थे. शिक्षक थे. आप सब लोगों ने और खुद बासव राज या आप शायद बेहतर उनको केशवराव के नाम से जानते हैं, वह खुद बीटेक उन्होंने किया हुआ था. फिर वो किस तरह से इस आंदोलन की तरफ चले गए ?
एन. दिलेश्वर राव : केशवराव एक अनुशासित और बहुत ही अच्छा लड़का था और पूरे गांव और श्रीकाकुलम के स्थानीय लोग बहुत अच्छे से जानते हैं कि वह कितना सौम्य, भला इंसान था. मदद करने वाला स्वभाव था और गरीबों तथा दबे कुचले लोगों के लिए बेहद संवेदनशील था. उसका स्वभाव ही ऐसा था. यहां तक कि अगर वह बाहर कहीं जाता था और कोई उससे उसकी शर्ट या कोई कपड़ा मांग लेता तो वह उसे दे देता और खुद बनियान पहनकर घर लौट आता. ऐसा उसका स्वभाव था.
और जहां तक बात है उसके नक्सल या आप जिसे माओवादी कहते हैं उसमें जाने की तो पूरे परिवार को कभी पता भी नहीं चला कि वह ऐसा कदम उठाएगा. शुरू में तो वह कभी इस दिशा में गया भी नहीं था. उसे बस गरीबों और पिछड़ों की चिंता थी और कुछ नहीं. हम खेती करते थे. हमारे पास करीब 20-25 एकड़ अच्छी जमीन थी. वह गांव में बहुत मेहनत करता था और पूरे गांव को यह बात अच्छी तरह पता थी. वह एक अच्छा किसान भी था और यह सब उस समय की बात है जब वह कॉलेज में पढ़ाई कर रहा था.
वह एक अच्छा खिलाड़ी भी था. कबड्डी में वह राज्य स्तर तक गया था. स्पोर्ट्स कोटे से उसे रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज में सीट भी मिली थी. तो यह कहना कि वह सरकार विरोधी था या ऐसा कोई विचार रखता था, बिल्कुल गलत है. उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था. मैं पूरे विश्वास से कह सकता हूं और मेरे लिए वह सिर्फ मेरा भाई ही नहीं बल्कि मेरे सबसे नजदीकी और अच्छे दोस्त जैसा था.
जब वह इंजीनियरिंग कॉलेज में गया था या उससे पहले जब वह इंटरमीडिएट और उससे ऊंची कक्षाएं पढ़ रहा था, तब मैं भारतीय वायु सेना में कार्यरत था. मैंने 1971 के युद्ध के बाद वायु सेना ज्वाइन की थी. उस समय देशभक्ति का माहौल था. हर तरफ जोश था और युवाओं को सेना में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जा रहा था. तो मैंने भी उस समय प्री-यूनिवर्सिटी छात्र के रूप में वायु सेना ज्वाइन किया, बहुत उत्साह और देश के लिए कुछ करने की भावना के साथ.
मैं वायु सेना में सेवा करता रहा और वह कॉलेज में पढ़ाई करता रहा. बस यही सब मैं कह सकता हूं. कोई भी अगर हमारे परिवार के बारे में या खासतौर पर केशवराव के बारे में कुछ गलत कहता है तो वह सरासर गलत होगा. ऐसा कुछ भी नहीं था.
पत्रकार : सर आप को बहुत लंबा समय हो गया. मुझे लगता है कि अगर मैं अंदाजा लगा रहा हूं लगभग 45 साल. आपको याद है कि आप पिछली बार अपने भाई से कब मिले थे ?
एन. दिलेश्वर राव : मेरी शादी 1979 में हुई और वह उसमें शामिल था. मेरी शादी की सारी तैयारियां, सारे काम सब उसी ने किए थे. जब वह इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा था, वह इतना अच्छा इंसान था और उस समय से लेकर 1979, 1980, 1981, 1982 तक हम दोनों बहुत ही करीब थे. मैं पंजाब में काम कर रहा था. पठानकोट और अमृतसर में. जब छुट्टियों में अपने गांव आता था तो रास्ते में वारंगल उतर जाता था, जहां वह पढ़ाई कर रहा था और उसके साथ समय बिताता था. तो इस तरह से मैं 1982 तक उसके बहुत ही निकट था.
1982 में एक घटना हुई. उसके हॉस्टल में जहां वह पढ़ रहा था, वहां आरएसयू से सहानुभूति रखने वाले कुछ लोग शामिल थे या जो भी उस विवाद से जुड़े थे. वह किसी आपराधिक गतिविधि में शामिल नहीं था. कैंटीन में कोई समस्या हुई थी. एबीवीपी और आरएसयू के छात्रों के बीच झगड़ा हुआ. दोनों पक्ष आपस में भिड़े और लड़ाई हुई. वह वहां मौजूद नहीं था. लेकिन जब उसे घटना का पता चला तो वह उसे रोकने के लिए वहां पहुंचा.
तब तक आरएसयू पक्ष का एक छात्र घायल हो गया था और एबीवीपी का एक छात्र मारा गया. और क्योंकि वह आरएसयू छात्र संघ का अध्यक्ष था या सचिव था तो पुलिस ने उसे केस में A1 यानी मुख्य आरोपी बना दिया. फिर मैंने उससे पूछा कि सच्चाई क्या है ? मुझे साफ-साफ बताओ ताकि मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकूं. क्योंकि उस समय मैं एयर फोर्स से इमरजेंसी छुट्टी लेकर आया था और गांव में उससे मिला. मैंने उसे कहा मुझे साफ-साफ बताओ कि बात क्या है ? तो उसने कहा – अन्ना, बड़े भाई मैं किसी भी तरह की आपराधिक चीज में शामिल नहीं हूं. बस आरएसयू का एक हमदर्द हूं. मैं वहां था झगड़ा चल रहा था, मैं उसे रोकने गया था. लेकिन पुलिस ने मुझे ही मुख्य आरोपी बना दिया. गिरफ्तार किया गया.
मतलब असल में उस समय उसे पकड़ा ही नहीं गया था. वह गांव लौट आया था. फिर पुलिस गांव आई. मैं घर पर ही था. उन्होंने कहा कि हम तुम्हारे भाई को ढूंढ रहे हैं और पूछताछ के लिए बुलाना है. मैंने पुलिस से पूछा कि समस्या क्या है ? क्योंकि मेरे भाई ने मुझे बताया था कि वह शामिल नहीं था और मैं उस पर विश्वास करता था. वह कभी मुझसे झूठ नहीं बोलता था इसलिए मैंने स्वयं जाकर उसे पुलिस को सौंपा. खुद मैंने सौंपा.
बाद में हमने वारंगल में जमानत की अर्जी दाखिल की. हम उसे देखना चाहते थे लेकिन पुलिस उसे कई पुलिस स्टेशनों में ले गई. उन्हें उन्होंने कभी उसे ठीक से दिखाया नहीं. लगभग 5 दिन तक वह कहां रहा, कुछ पता नहीं चला. फिर हमने अदालत में मामला दायर किया और लौट आए. बाद में मेरी छुट्टी खत्म हो गई तो मैं फिर से एयरफोर्स में लौट गया. जमानत और अन्य कानूनी मामलों को देखने की जिम्मेदारी परिवार को दी.
फिर मैं दोबारा लौटा. तब तक उसे रिमांड कैदी के रूप में विशाखापट्टनम सेंट्रल जेल भेज दिया गया था. मेरा ससुराल वहीं था. मैं वहीं रह रहा था. मुझे बहुत बुरा लगा कि मैंने ही उसे पुलिस के हवाले किया. मुझे लगा कि मैंने गलती की. मैं ही दोषी हूं. फिर मैं उसे सेंट्रल जेल में मिलने जाता था. मैंने जेल अधिकारियों और पुलिस से बात की कि मुझे बताएं, मैं उसके लिए क्या कर सकता हूं ? आप जो कहेंगे मैं करूंगा, उसकी मदद के लिए. लगभग हर दिन या एक दिन छोड़कर मैं उससे सेंट्रल जेल में मिलने जाता था.
वह अच्छा वॉलीबॉल खिलाड़ी था. मैं भी वॉलीबॉल खिलाड़ी था. मैं एयरफोर्स की कमांड स्तर की टीम में खेलता था. वह भी वॉलीबॉल और कबड्डी का अच्छा खिलाड़ी था. हम दोनों आमने-सामने की टीम बनाते थे. जेल में मैं उसके साथ वॉलीबॉल खेलता था और उसे समझाता था कि क्या करना है, कैसे सोचना है. लेकिन जब जमानत मिली और जो भी प्रतिक्रियाएं थी. आरसीयू की ओर से जो लोग थे उन्होंने उसे भगा दिया.
बाद में उसने मुझसे संपर्क किया. कभी फोन से तो कभी और तरीकों से. मैंने कहा कि इस केस को खत्म होने दो. फिर वह लौट आएगा. मुझे बाद में इतना ही पता चला. उसके बाद कभी-कभी वह मुझसे फोन या अन्य माध्यमों से संपर्क करता था. लेकिन 1983 के बाद विशेषकर 1983 के अंत से मेरा उससे संपर्क लगभग टूट गया. उसके बाद मैं उसे नहीं ढूंढ पाया
पत्रकार : उस समय आप लोग जब 83 में यह हुआ कि उनसे संपर्क समाप्त हो गया, तो क्या आप लोगों को यह जानकारी हो गई थी कि अब वो सीपीआई माओइस्ट का हिस्सा हो गए हैं ?
एन. दिलेश्वर राव : नहीं एक बार फोन पर बातचीत के दौरान मैंने उससे कहा था. मैं बहुत नाराज था. बहुत कठोर शब्दों में बात की थी. मैंने कहा – क्या बात है हम कानूनी लड़ाई लड़ेंगे, तुम वापस आ जाओ और हम देखेंगे कि जो भी सबसे अच्छा संभव होगा वो करेंगे. अगर तुम जेल में भी हो तो क्या हुआ केस दर्ज करो और हम उसके लिए लड़ेंगे. हम देखेंगे कि क्या हो सकता है. लेकिन तब उसने फोन पर मुझसे कहा अन्ना अगर मैं वापस आ भी जाऊं तो पुलिस मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगी.
उसने कहा, अगर आप चाहते हैं कि मैं अपनी जान गवां दूं तो आपकी बात मानकर मैं लौट आता हूं. अगर आप जोर देंगे तो मैं वापस आ जाऊंगा. लेकिन आप देखना वहां पहुंचने के बाद पुलिस वाले ही मुझे किसी ना किसी तरह से खत्म कर देंगे. यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया. फिर मैंने उससे कहा तुम अपने फैसले पर फिर से सोचो. अगर कुछ भी संभव हो कोई भी सहायता चाहिए तो हम हमेशा तुम्हारे साथ हैं. पूरा परिवार तुम्हारे साथ है. हम तुम्हारी हर संभव मदद करेंगे. 6यही सब हुआ था.
पत्रकार : लेकिन उसके बाद से फिर आज तक मतलब उनकी अब अभी तो लगभग 5 दिन पहले उनकी डेथ भी हो गई तो 83-84 के बाद उसके बाद आप लोगों का किसी तरह का कोई संपर्क नहीं रहा एक दूसरे से ?
एन. दिलेश्वर राव : उसके बाद जब भी मैं आता था क्योंकि मैंने वायु सेना छोड़ दी थी. वो भी उसी की वजह से. मेरे पिता बहुत परेशान थे. उनकी तबीयत बहुत खराब थी. उन्हें न्यूमोथरेक्स और फेफड़ों की समस्या थी. मुझे अस्पताल में उनकी देखभाल करनी पड़ती थी. मेरा एक छोटा भाई था और बहनें भी थी. पूरे परिवार की जिम्मेदारी उठाना एक बड़ा मसला बन गया था इसलिए उस समय मुझे वायु सेना छोड़नी पड़ी.
मैं वायु सेना से वापस आ गया. फिर मैं घर पर रहने लगा. उसके बाद मैंने सिविल सेवाओं में काम करना शुरू किया. अंततः मैं पोर्ट सर्विसेज बंदरगाह सेवाओं में गया और अंडमान निकोबार द्वीप समूह में मैंने चीफ पोर्ट एडमिनिस्ट्रेटर मुख्य बंदरगाह प्रशासक के रूप में कार्य करना शुरू किया जो कि अंडमान निकोबार के सभी बंदरगाहों का प्रमुख कार्यकारी पद होता है. इस दौरान मुझे परिवार की देखभाल करनी पड़ी और हम सब ने मिलकर यह किया.
लेकिन फिर भी भगवान का बहुत शुक्र है कि हमारे सारे बच्चे अच्छे से पले बढ़े, होशियार निकले. उन्होंने अच्छी पढ़ाई की. मेरी सभी बहनों की शादी हो गई और हम सब अपनी-अपनी जिंदगी में ठीक से बस गए. हमारा किसी भी माओवादी या नक्सली से कोई संपर्क नहीं था. सिर्फ केशवराव को छोड़कर. हमारा किसी से कोई नाता नहीं था. बिल्कुल भी नहीं. हम सब ने अपनी-अपनी जिंदगी अपने ढंग से जी. शायद हमारे परिवार और बच्चों की वजह से हम सब सही रास्ते पर रहे. हम उनके जैसे बहादुर नहीं थे. उन्होंने मृत्यु का मार्ग चुना. कभी शादी नहीं की. वह अकेले रहे और गरीब आदिवासियों के साथ काम करना चाहते थे.
जब भी कोई ऐसा मौका आता था, वह पूरी तरह समर्पित हो जाते थे. वह वंचितों के लिए बहुत चिंतित रहते थे लेकिन हम उनके जैसे नहीं बन पाए क्योंकि हम परिवार के साथ थे. मैं खुद यह स्वीकार करता हूं कि उस संदर्भ में मैं उनके जैसा बहादुर नहीं था. मैं एक डरपोक था. मैं यह कह सकता हूं अगर मैंने भी उनकी तरह रास्ता चुना होता तो जिंदगी बिल्कुल अलग होती. लेकिन हम सब अपने परिवारों के साथ थे और पुलिस तथा बाकी चीजों से डरते थे. और शायद यही कारण था कि मैं भी श्रीकाकुलम जिले से दूर आंध्र प्रदेश से बाहर रहा. मैंने देश भर में काम किया. इसी तरह से मैंने अपनी जिंदगी बिताई. मैं भारत सरकार की सेवाओं में इतना ऊपर पहुंचा कि मुझे चीफ पोर्ट एडमिनिस्ट्रेटर और संयुक्त सचिव स्तर का पद मिला. बस यही है मेरी कहानी.
पत्रकार : सर एक एक सामान्य तौर पर जब लोग चर्चा करते हैं तो यह कहा जाता है कि वारंगल का यह जो कॉलेज था जिसको रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज कहते हैं या वारंगल की जो यूनिवर्सिटी थी, उस समय उसको लोग कहते हैं कि नक्सलिज्म का एक तरीके से स्कूल था. तो आपने आपने अभी यह बताया कि आपका भाई जो है उसको क्योंकि एक झूठे मुकदमे में फंसा दिया गया था और उनका यह उनका यह मानना था कि अगर वो लौट करके गांव आते हैं तो उनकी जान को खतरा है. तो यह तो एक कारण था कि वो उस मूवमेंट की तरफ आकर्षित हुए होंगे. लेकिन क्या आपको इसमें भी कुछ सच्चाई लगता है कि एक समय में बहुत रोमांटिसिज्म था खासतौर पे उन स्टूडेंट्स के अंदर जो वारंगल यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे क्योंकि उसमें से बहुत सारे लोग डॉक्टर्स इंजीनियर्स बहुत सारे लोग निकले जो बाद में नक्सलवादियों के आंदोलन को जिन्होंने जॉइन किया ?
एन. दिलेश्वर राव : नहीं, वारंगल उन दिनों इंजीनियरिंग के प्रमुख स्थानों में से एक था. उन दिनों आप जानते हैं आईआईटी की संख्या बहुत कम थी और जो आप एनआईटी कहते हैं, वही उस समय वारंगल आरसी रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज था और वह सबसे बेहतरीन इंजीनियरिंग कॉलेजों में से एक माना जाता था. मैं चाहता था कि मेरा भाई बहुत अच्छी तरह पढ़ाई करें. एक अच्छा इंजीनियर बने, एक अच्छा अधिकारी बने और एक अच्छी जिंदगी जिए. यही मेरा उद्देश्य था. इसी कारण मैंने उसे बीटेक के बाद एमटेक करने के लिए प्रोत्साहित किया. बीटेक के साथ-साथ मेरा सगा बहनोई मेरी सबसे छोटी बहन का पति भी वहीं पढ़ रहा था.
वह उस समय एमटेक कर रहा था. उसी के साथ मेरे गांव से ही एक और सज्जन वहां पढ़ाई कर रहे थे. एक और लड़का भी था. आदिन जय कॉलेज से क्योंकि हमारे गांव में जो लोग पढ़े लिखे थे, वे अधिकतर बुद्धिमान थे. इस तरह मुझे मालूम है कि हमारे परिवार से ही सात से अधिक लोग उस समय केशवराव के साथ वारंगल में पढ़ाई कर रहे थे. वे सब भी उसे प्रोत्साहित करते थे. केशवराव कभी भी माओवादी जैसा नहीं था. ना ही उसे उस समय माओवादी कहा जा सकता था और ना ही कोई चरमपंथी. वह एक सहानुभूति रखने वाला व्यक्ति था क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा था.
जैसा मैंने पहले बताया वह हमेशा गरीबों की मदद करता था. कई बार जब वह चल रहा होता और कोई गरीब आदमी उससे शर्ट मांगता तो अपनी शर्ट उतार कर देता और बनियान पहनकर घर लौट आता. उसने कभी अपने लिए कपड़े नहीं खरीदे. हमेशा मैं ही उसे खरीद कर देता था या फिर मेरे पिताजी उसे देते थे. इतना सरल और दूसरों की मदद करने वाला व्यक्ति था वह.
पत्रकार : सर एक चीज बताइए कि श्रीकाकुलम जो एरिया है यह तो आजादी के लगभग उसी समय बहुत सारे यहां माओवादियों का प्रभाव था. कम्युनिस्ट पार्टी को मानने वाले लोग थे.
एन. दिलेश्वर राव : नहीं, उस समय माओवाद नहीं था. उस समय उसे पीपल्स वॉर ग्रुप कहा जाता था. नक्सल और पीपल्स वॉर ग्रुप ये सब बाद में आए. यह बात 1967 के आसपास की है. उस समय मैं श्रीकाकुलम क्षेत्र में था. वहां बहुत सी कहानियां सुनी जाती थी. उस समय माओवाद जैसा कुछ नहीं था. बाद में जब ये सारे गुट एकजुट हुए, तब जाकर इसे माओवाद कहा गया. उस समय यह नक्सल था.
लेकिन मैं जो कहना चाहता हूं यह है कि यह ना तो नक्सलवाद था और ना ही इसे पीपल्स वॉर ग्रुप कहते हैं. वह आरएसयू (रेडिकल स्टूडेंट यूनियन) में था. बस उतना ही. वह सिर्फ एक सहानुभूति रखने वाला व्यक्ति था. उस एबीवीपी छात्र की दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु की घटना के बाद उस पर A1 मुख्य आरोपी के रूप में मामला दर्ज किया गया और पुलिस ने उसे नक्सल घोषित कर दिया. बस इतना ही. वरना जैसा कि किसी भी बुद्धिमान छात्र के साथ होता है, वह भी एक अच्छा जीवन जी सकता था और एक सरकारी अधिकारी के रूप में स्थापित हो सकता था. ऐसा मुझे लगता है.
पत्रकार : तो सर मैं उसी उसी सवाल को दूसरे तरीके से पूछना चाह रहा था. मैं ये पूछना जानना चाह रहा हूं कि 1960 के दशक में 1967-69 यहां पे बहुत मास किलिंग्स हुई थी. सीआरपीएफ और लोकल ट्राइबल्स और जो कम्युनिस्ट लीडर थे उनके बीच में लगातार क्लैश चल रहे थे. आप तब से और अभी तक का समय आपने देखा है. आपको क्या लगता है कि आपके भाई का जो रास्ता था वो उस समय मजबूरी थी उनकी या ये जो मूवमेंट है, जो तरीका वो लोग यूज़ करते हैं उसको आप किस नजर से देखते हैं ?
एन. दिलेश्वर राव : मूल रूप से मैं अपने गांव श्रीकाकुलम और आंध्र प्रदेश से बाहर था क्योंकि मैं एयरफोर्स में था. उसके बाद विभिन्न अन्य सेवाओं और शिपिंग मंत्रालय में काम किया. इसलिए आपकी बताई गई इन गतिविधियों के बारे में मेरी जानकारी केवल लोगों से सुनकर और जानकर ही थी. मैंने खुद इसे यहां कभी सीधे अनुभव नहीं किया.
हां, यह सच है कि मैंने इन बातों को सुना और समझा. उस समय पीपुल्स वॉर ग्रुप, नक्सलवादी और अन्य के बीच कभी-कभी लड़ाई होती थी. यह एक वैचारिक संघर्ष था. मैंने कभी यह महसूस नहीं किया कि वे कोई अपराधी, हत्यारे, बलात्कारी या अन्य कोई दुष्ट व्यक्ति हैं. मैं कहता हूं कि वे दलित, आदिवासियों और अन्य पीड़ितों के लिए लड़ रहे थे. और यदि वह अपराधी होते तो वे अपने परिवारों को छोड़कर बिना शादी किए ऐसा जीवन क्यों बिताते ? यदि कोई अपराधी होता है तो उसके पास परिवार, पत्नी और बच्चे क्यों नहीं होते ?
क्या कोई कह सकता है कि वे सच्चे अपराधी या आतंकवादी हैं ? नहीं. इसका मतलब है कि वे अपनी विचारधारा के लिए लड़ रहे हैं. एक शिक्षित व्यक्ति को इस विचारधारा को समझना चाहिए. मैं एक शिक्षित हूं इसलिए मैं समझता हूं. इस संदर्भ में जिस रास्ते पर वे चल रहे थे, वहां खून करावा और लड़ाई केवल पुलिस के खिलाफ ही होती थी. किसी आम आदमी के खिलाफ नहीं. पुलिस कौन है ? वे भी मध्यम वर्ग के गरीब लोग हैं जो अपनी तनख्वाह के लिए जीविका चला रहे हैं जैसे बाकी सरकारी कर्मचारी. उनके पास हथियार और प्रशिक्षण है लेकिन उनकी अपनी कोई विचारधारा नहीं है. वे अपने वरिष्ठों के आदेश पर काम करते हैं. इसलिए मैं उन पुलिस वालों के खिलाफ नहीं हूं, जो जमीन स्तर पर लड़ रहे हैं.
ठीक उसी तरह जैसे यह लोग आदिवासियों, गरीबों और पीड़ितों के लिए लड़ रहे हैं. जो जंगलों में रहते हैं. जिनके पास भोजन नहीं है और जिनके पास हम जैसे आम लोग की जिंदगी में जो सुविधाएं पाते हैं, वे सब नहीं है. उनके पास परिवार भी नहीं है. वे अपने माता-पिता से दूर हैं तो यह सब किस लिए ? यह लोग भी वैसे ही हैं जैसे पुलिस वाले, पर वे तनख्वाह नहीं पाते. उन्हें कोई पैसे नहीं देता. वे जो जंगल में उपलब्ध होता है उसी से अपना जीवन चलाते हैं. क्या यह लोग पैसे के लिए हत्या कर रहे हैं ? क्या वह सोने के लिए जा रहे हैं या किसी अन्य चीज के लिए ? नहीं. मेरा ऐसा मानना है. यह मेरा व्यक्तिगत विचार है. दूसरों के अपने अलग विचार हो सकते हैं.
लेकिन एक शिक्षित व्यक्ति के रूप में मेरा विचार यह है कि उनका उद्देश्य क्या है ? और उन पुलिस वालों का उद्देश्य जो यह सब कर रहे हैं, क्या है ? दोनों लगभग समान स्थिति में हैं. वे सभी पिछड़े हैं. निम्न वर्ग के हैं. पुलिस वाले तनख्वाह पाते हैं. उन्हें हथियार और आधुनिक उपकरण दिए जाते हैं, जिन्हें सरकार प्रदान करती है. वे लड़ रहे हैं और इसके परिणाम भुगत रहे हैं. उनके पास और कोई विकल्प नहीं है. उन्हें हथियार उठाने ही पड़ते हैं. और वे जवाबी कार्यवाही में लड़ रहे हैं.
इस संघर्ष में लोग मर रहे हैं क्योंकि पुलिस और सरकारी पक्ष के लोग जो ऊपर हैं उनके पास ज्यादा धन, आधुनिक हथियार और तकनीकी उन्नत है. वे हमेशा श्रेष्ठ स्थिति में रहेंगे. स्वाभाविक रूप से कौन जीतेगा ? जो श्रेष्ठ है वही जीतेगा. अब प्रश्न यह है कि माओवादी क्यों असफल हैं ? वे ज्यादा मारे जा रहे हैं. वे पुराने हथियारों से लड़ रहे हैं. कभी-कभी पुलिस या किसी और स्रोत से हथियार और सामान तस्करी करके ले आते हैं. बस लड़ाई यही है.
पत्रकार : सर एक चीज और बताइए कि आपके जो भाई थे एन. केशवराव, वो जो सीपीआई माओइस्ट के टॉप मोस्ट लीडर बन गए थे देश के. लेकिन वो माओवादी पार्टी में इतने बड़े पद पर या इससे पहले वो किसी और पद पर रहे होंगे तो आप लोगों को यह जानकारी थी कि आपका भाई जो है वो इतने बड़े पद पर है पार्टी के अंदर ?
एन. दिलेश्वर राव : मेरे लिए, मेरे भाई के लिए, हमारे परिवार के लिए, मेरे पिता जो इतने दुखी थे कि उन्होंने अपने दूसरे बेटे को नहीं देखा, वे मर गए. बहुत कष्ट हुआ. बहुत परेशानी हुई हमारे परिवार के लिए ऐसी स्थिति में. उसकी क्या स्थिति है यह हमारे लिए कोई महत्व नहीं रखता. बिल्कुल भी मायने नहीं रखता. माओवादी हो या नीच या उच्च मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता. वे अपने कारण के साथ हैं. मेरे लिए वह सिर्फ मेरा भाई है और क्या है ? मेरी खून के रिश्तेदारी में मेरे सबसे करीबी और सबसे प्यार करने वाला व्यक्ति हैं.
इसलिए मैं इस बात पर गर्व नहीं करता कि वह माओवादी प्रमुख है या कोई और है या जो भी दलाल या दालम है, मैं इससे बिल्कुल भी संबंधित नहीं हूं. मैं इससे खुश नहीं हूं. मैं माओवादी विचारधारा के उन पहलुओं को स्वीकार नहीं करता.
पत्रकार : लेकिन सर अब क्योंकि आपके भाई नहीं रहे. उनकी एक एनकाउंटर में उनकी डेथ हुई, जिसको अच्छी मौत तो नहीं कहा जा सकता.तो आपके भाई की तरह जो लोग हैं या जो इस तरह की विचारधारा में विश्वास रखते हैं, उनके लिए आपका क्या मैसेज आज की तारीख में होगा, जब इस तरह से आक्रामकता के साथ पुलिस उनको क्रश कर रही है ?
एन. दिलेश्वर राव : मेरे लिए कोई भी शांति को अपना उद्देश्य बनाए. भारत का एक लोकतांत्रिक देश है, जहां आज लगभग 145 करोड़ लोग रहते हैं. इसलिए हमें यह देखना चाहिए कि इन 145 करोड़ लोगों को सबसे अच्छा जीवन कैसे दिया जा सकता है. चाहे आप उन्हें माओवादी कहें या किसी और समूह के राजनीतिक नेताओं को या किसी और को जो भी हो, उद्देश्य केवल शांति और एक साथ जीवन बिताना होना चाहिए. और सिद्धांत होना चाहिए जीने दो जीने दो.
मैं चाहता हूं कि पुलिस विचारधारा वालों को जीने दे और गरीबों को जीने दे. पुलिस वाले जो लोग हैं वे अनजाने में केवल आदेशों का पालन करते हुए लड़ रहे हैं. वे किसी विचारधारा के लिए नहीं लड़ रहे हैं. इसलिए ऐसा नहीं होना चाहिए. अब हम भारत में हमेशा कहते हैं कि हम दुनिया को सिखाएंगे कि युद्ध रास्ता नहीं है, हिंसा रास्ता नहीं है और कहते हैं कि संघर्ष का रास्ता सही नहीं है. हमेशा बातचीत, वार्ता और समाधान ही हमारे लोकतंत्र का रास्ता होना चाहिए. यही रास्ता अपनाना होगा.
लेकिन हम सब लोकतंत्र कहकर कई बार दिखावा करते हैं. जो मैं महसूस करता हूं वे झूठे लोकतंत्री हैं. वे असली लोकतंत्री नहीं है, जो किसी को मारकर लोकतंत्र बचाने की बात करते हैं. हमें इन्हें मुख्यधारा में लाना चाहिए. वे आपके अपने बच्चे हैं. वे बाहर के दुश्मन नहीं हैं. क्या आप विश्वास करते हैं ? क्या कोई इसे अस्वीकार करता है ? वे भी उसी देश के गरीब और दबे कुचले नागरिक हैं. वे अमीरों के बच्चे नहीं हैं जिनके पीछे पैसा, दांव पेच, पीढ़ियों का निवेश हो. वे बस आज के समय में जी रहे हैं इसलिए यह लड़ रहे हैं. क्या वे किसी विचारधारा के लिए करोड़ों रुपए दांव पर लगा रहे हैं ? कोई इसे बेच सकता है ?
मैं 72 साल का हूं. मेरे पास क्या है ? शायद कुछ और साल हो. मेरे पिता 72 की उम्र में मर गए. अब मैं उसी उम्र का हूं और दुर्भाग्यवश मेरा भाई केशवराव 70 की उम्र में मर गया. उसका जन्म 1955 में हुआ था. दो साल मुझसे छोटा. अब मैं इस अवस्था में क्या सोचूं ? मैं अपनी पीढ़ी के लिए पैसा दांव पर लगाने के बारे में कभी नहीं सोचता. तो जो लोग यह सब बातें करते हैं कि लोकतंत्र के लिए लड़ रहे हैं, मैं उसे स्वीकार नहीं करता. मैं इसे स्वीकार नहीं करता.
मेरे अनुसार असली कारण यह नहीं है वे क्यों लड़ रहे हैं ? लड़ाई सिर्फ पुलिस और जिन्हें आप उग्रवादी कहते हैं के बीच है. वे आतंकवादी नहीं हैं. वे उग्रवादी हैं. उग्रवादी का अर्थ होता है कि वे अपनी विचारधारा के लिए कट्टर हैं. उनकी विचारधारा के कारण उन्हें आतंकवादी कहा जाता है और मारा जाता है, मेरी नजर में यह ठीक नहीं है. यह देश के लिए अच्छा रास्ता नहीं है. अगर लोकतंत्र को बढ़ावा देना है तो हमें सबके साथ एक समग्र दृष्टिकोण रखना होगा. बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक. दृष्टिकोण ऐसा होना चाहिए कि हम अच्छी शिक्षा पर ध्यान दें. विकास पर ध्यान दें. बहुत सारे क्षेत्रीय असंतुलन हैं.
क्यों आदिवासियों को माओवादियों के साथ जोड़ा जाता है ? यह समझना जरूरी है. मुझे आपके लिए यह समझाना नहीं है. खासकर आप पत्रकारों के लिए आप सब मुझसे बेहतर जानते हैं. क्या ऐसा नहीं है वे वे लोग हैं जो यह कर रहे हैं. आपने देखा होगा कि आदिवासियों की मौतें पुलिस माओवादी झड़पों में ज्यादा होती हैं. इसका कारण क्या है ?
मैं अंडमान में था. मैंने पोर्ट सर्विस में वहां के आदिवासी जनजातियों को सेवा दी है. मैंने वहां के जनजातियों जैसे जारवा, ग्रेट अंडमानी और ओंगी को देखा है. क्योंकि पोर्ट सर्विस में हमें उन तक पहुंचना होता था और सुविधाएं देना होता था. ब्रिटिश ने इतिहास में अंडमान के आदिवासियों को लाखों की संख्या में मारा लेकिन आदिवासियों ने ब्रिटिशों के लिए क्या किया ? वे द्वीपों पर कब्जा करना चाहते थे और ब्रिटिशों ने उनकी अनदेखी की और लाखों आदिवासियों को मारा. अबडीन बाजार में ब्रिटिशों और अन्य के बीच युद्ध हुआ था. मैं इन सब बातों को जानता हूं क्योंकि मैंने वहां काम किया है. लेकिन उनकी गलती क्या थी ? अब उनकी संख्या बहुत कम रह गई है. वे समाप्त हो रहे हैं. वे अब ज्यादा नहीं रहेंगे. शायद वहां कोई आदिवासी जनजाति नहीं बचेगी.
इसी तरह यहां भी हमारे पास आदिवासी हैं. हम उन्हें आदिवासी कहते हैं. अलग-अलग नाम, अलग-अलग जंगलों और इलाकों में. लेकिन क्यों पुलिस माओवादी संघर्ष में ज्यादा आदिवासी मरते हैं ? कारण क्या है ? क्या कोई इस पर विचार करता है ? मुझे उम्मीद है कि पत्रकार और पाटरीकार इसे बेहतर समझते हैं.
पत्रकार : सर अभी पिछले कुछ महीनों से शांति वार्ता (पीस टॉक्स) की बात हो रही है. लेकिन क्योंकि माओवादियों का आंदोलन दिख रहा है बहुत कमजोर हुआ है. तो इसलिए सर लगता तो नहीं है कि सरकार शांति वार्ता की बात करेगी या माओवादियों की जो मांग है कि निशर्त वार्ता के लिए वो लोग मांग कर रहे हैं तो वो तो सरकार मानने से रही. आपका भाई इस आंदोलन के सबसे बड़े लीडरों में से एक था. शांति वार्ता के बारे में आपकी क्या राय है?
एन. दिलेश्वर राव : सबसे पहले मैं अपने भाई को बड़ा नेता नहीं मानता. वह वह सब कुछ नहीं है जो आप लोग उसे बना देते हो. मेरे लिए वह सिर्फ एक भाई है. एक प्यारा भाई और कुछ नहीं. दूसरी बात आप पूछते हो कि शांति कैसे होनी चाहिए और इसे कौन लाएगा? ? यानी समझौता कौन करेगा ? सरकार या माओवादी ? यह दोनों पक्षों से आना चाहिए. अगर एक तरफ से कोशिश हो रही है तो दूसरी तरफ से भी आगे बढ़नी चाहिए. क्या ऐसा नहीं है ? क्योंकि वे आपके अपने बच्चे हैं और उनके लिए भी यह उनका देश है ? इसलिए इस संदर्भ में आगे बढ़ने का रास्ता होना चाहिए. रास्ता होना चाहिए.
हम सब दुनिया के लिए कहते हैं, जहां कहीं भी युद्ध लड़ाई होती है हमें हमेशा बातचीत करना चाहिए और शांति ही लक्ष्य होना चाहिए. लेकिन क्या हम यहां भी वही कर रहे हैं ? हमें ऐसा ही करना चाहिए. मैं यह नहीं कह रहा कि वे क्या कर रहे हैं या सरकार क्या कर रही है. मैं ना तो सरकार का विरोध कर रहा हूं और ना ही उन लोगों का. हो सकता है वे कमजोर पक्ष में हो या कुछ भी हो. वे आगे बढ़ रहे हैं. हमें उस मौके को लेना चाहिए. हमें अवसर को पकड़ना चाहिए. हमें लोगों को जीना सिखाना है, मरना नहीं. यही मेरा सिद्धांत है.
पत्रकार : सर अब अब एक चीज बताइए. आज 25 तारीख है और जब हम आपके इस गांव में आपके साथ बातचीत कर रहे हैं. आप इंतजार कर रहे हैं. 5 दिन से अधिक हो गए हैं. आपके भाई की बॉडी अभी तक नहीं मिली है. हमारी जानकारी में हमको ऐसा बताया गया कि जब आपके छोटे भाई उनके मृत शरीर को लेने के लिए नारायणपुर गए हुए थे तो वहां शायद पुलिस ने उनको रोक दिया. ये एग्जैक्टली क्या आप क्या जानकारी है आपके पास ?
एन. दिलेश्वर राव :किसी को एलगेशन नहीं कर रहा हूं. किसी के दूसरे का करना हो. मैं बस इतना चाहता हूं कि मेरे भाई का शव हमें सौंप दिया जाए. क्योंकि हमारे बच्चे, हमारी मां और हम सब ने उसे पिछले 45 सालों से नहीं देखा है. तो हमें उसके चेहरे की आखिरी झलक जरूर मिलनी चाहिए. जो लोग अभी तक नहीं दे पाए हैं. इसलिए हमें यह अवसर दिया जाना चाहिए. यह हमारा न्यूनतम अधिकार है. शव हमें दिया जाना चाहिए. हमें उसे अपने हिंदू रीति रिवाजों के अनुसार अंतिम संस्कार करने देना चाहिए. हमें उसके शव को अपनी आंखों के सामने अग्नि को देना चाहिए. मैं सभी से अपील करता हूं कि यह कोई भी आपके परिवार में हो सकता है. कोई अधिकारी, कोई बड़ा नेता अगर उनका भी ऐसा समय आए तो हम क्या करेंगे ?
कृपया हमारी मदद करें कि मेरे भाई का शव हमें वापस दिया जाए. मैं बुधवार से ही कोशिश कर रहा हूं जब यह घटना हुई. मैंने अखबारों में इस मुठभेड़ के बारे में पढ़ा. तब मैं पुलिस से संपर्क करने की कोशिश कर रहा हूं. मैं ज्यादा विवाद नहीं करना चाहता लेकिन कोई भी पुलिस वाला मेरी मदद नहीं कर रहा है. मैंने यहां श्रीकाकुलम में एसपी से मुलाकात की और बात की. उन्होंने कहा कि हमसे क्या समस्या है ? उन्होंने कहा कि तुम कोशिश करो कि उसका शव कहीं रख दिया गया है और वही अंतिम संस्कार कर दो. कहीं और मत ले जाना. मैंने कहा यह कैसे हो सकता है ?
जब मुझे पुलिस का मन समझ में आ गया तो मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा. मेरी मां रो रही है. हम सब व्यथित हैं. तब मैंने सबसे बड़ी अदालत में केस दायर किया. मेरी मां और मैंने लंच मोशन दायर किया और उसके बाद मैं बहुत आभारी हूं कि आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट ने इस मामले को सुना और छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश की सरकार ने जवाब दिया. उन्होंने स्पष्ट आदेश दिया कि शव रिश्तेदारों को सौंपा जाए ताकि वे अंतिम संस्कार कर सकें. उसके बाद भी हमें कई तरह की बाधाएं मिली.
पहले मैंने शव के लिए वाहन भेजा उसे बलपूर्वक वापस भेज दिया गया. वे कहते हैं कि तुम छत्तीसगढ़ की सीमा में नहीं आ सकते. हमें वापस लौटाया गया और आंध्र पुलिस ने उस टीम का मार्गदर्शन किया और धमकी दी कि वे ना जाएं. कल कोर्ट के निर्देश के बाद मैंने फ्रीजर वाला एंबुलेंस भेजा. वह आज सुबह-सुबह नारायणपुर पहुंचा. मैं लगातार प्रयास कर रहा हूं. अधिकतर अधिकारी फोन नहीं उठाते. मैं संदेश भेज रहा हूं और आपकी तरह कुछ पत्रकारों से भी मदद मांग रहा हूं कि कृपया हमारी मदद करें. शव हमें वापस दिलाने में मदद करें.
अगर ऐसा होता है तो हम किसी भी अन्य पहलू की परवाह नहीं करते. केवल शव हमें चाहिए. हम अपने रीति-रिवाजों से उसे अंतिम विदाई देंगे. हमें उसके शव के साथ कुछ घंटे दु:ख मनाने दो. यही हमारा उद्देश्य है. कुछ और नहीं. लेकिन बहुत सारे बाधाएं आई हैं. अगर मैं बताऊं कि क्या-क्या बाधाएं हैं तो मैं पुलिस और अधिकारियों के सामने पक्षपाती लगूंगा. क्या ऐसा नहीं है ? हम सब जानते हैं छत्तीसगढ़ में क्या हो रहा है. अपने परिचितों से पूछिए. आप जानते हैं वहां क्या हो रहा है और यहां पुलिस में क्या हो रहा है. सब जानते हैं.
मुझे पता चला है कि राजनीतिक नेता भी हस्तक्षेप कर रहे हैं ताकि शव यहां ना लाया जाए. हम कहां हैं ? क्या हम लोकतंत्र में हैं ? संविधान के लिए, मौलिक अधिकारों के लिए, अनुच्छेद 21 14 के लिए ? यह सब क्यों हमें मिले हैं ? क्योंकि मैं इतना बड़ा स्तर पर नहीं हूं. मेरे पास पैसे नहीं हैं. मैं राजनीतिक या प्रशासनिक उच्चाधिकारियों तक नहीं पहुंच सकता, इसलिए हम अकेले हैं. इसके अलावा मैं कुछ नहीं सोच सकता. मैं आपसे बहुत दुख और पीड़ा के साथ बात कर रहा हूं.
मैं छत्तीसगढ़ सरकार और पुलिस से विनती करता हूं कि जो कुछ भी हुआ, अब केशव की आत्मा जा चुकी है. अब केवल उसका शरीर बचा है. छ: दिन नहीं, पांच दिन से वह शरीर वहीं पड़ा है. वहां की स्थिति क्या होगी ? एक जानवर भी एक दिन में मर जाता है. हम शव को पास रखना पसंद नहीं करते. हम उसे दफनाना चाहते हैं. क्या ऐसा नहीं है ? अगर छ: दिन से ज्यादा हो गए हैं तो हम इंसान के साथ क्या कर रहे हैं ? भगवान ने हमें दिल और दिमाग दिया है. हमें इंसानियत दिखानी चाहिए. इंसान बनो. जो मैं कहना चाहता हूं बस यही है. बस एक शब्द जियो और जीने दो और संविधान का पालन करो. अगर कोई कानून का उल्लंघन करता है तो कानून के अनुसार कार्यवाही करो.
मुझे उम्मीद है आप सब मेरी बात से सहमत होंगे.
पत्रकार : सर हम समझ सकते हैं कि यह समय कितना मुश्किल है आपके लिए. लेकिन इस मुश्किल समय में भी आपने हमसे बात की. उसके लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया. माओवाद का रास्ता सही है या गलत, यह मैं आपके अपने विवेक पे छोड़ता हूं लेकिन एक विडंबना ही इसको कहेंगे कि आज 25 तारीख है. आज से लगभग 12 साल पहले आज ही के दिन 2013 में छत्तीसगढ़ के झीरम घाटी में माओवादियों ने कांग्रेस के 30 से अधिक नेताओं को मौत के घाट उतार दिया था.
आज 25 तारीख को दोपहर के लगभग 1:30 बजे तक जो नंबाला केशव राव का मृत शरीर का उनके परिजन उनके गांव में इंतजार कर रहे हैं, झीरम घाटी और बस्तर के उन्हीं जंगलों में यह उम्मीद की जा रही है कि कुछ देर बाद उसी रास्ते से केशवराव का शव आयेगा. अभी तक तो ऐसी कोई खबर मिली नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने उनका मृत शरीर उनके परिजनों को सौंप दिया है. लेकिन यह विडंबना ही है कि कुछ देर बाद उसी रास्ते से एन. केशवराव उर्फ़ बासव राज का पार्थिव शरीर उसी रास्ते से लौट रहा होगा, जहां 13 साल पहले उन्होंने झीरम कांड को अंजाम दिया था.
हम माओवाद के समर्थक नहीं हैं, ना हम किसी तरह माओवाद को रोमांटिसाइज करते हैं लेकिन हम जानते हैं कि सच का सामने आना भी इतना जरूरी इतना ही जरूरी है और इसलिए हम ग्राउंड से यह सच की खबरें आप तक पहुंचाते रहते हैं.
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