
सुब्रतो चटर्जी
ये तो सर्वविदित है कि कि निजी पूंजी का महल मज़दूरों के शोषण की नींव पर खड़ी है. सुदूर शिकागो के जांबाज़ों की शहादत की गूंज पूरी दुनिया में सुनाई पड़ी और दुनिया भर में श्रम नियमों में बड़े पैमाने पर बदलाव हुए, जिसके फलस्वरूप आठ घंटे के काम और न्यूनतम वेतन, भत्ते, रिटायरमेंट बेनिफिट, महिला और पुरुषों के लिए समान वेतन, मातृत्व पितृत्व अवकाश जैसे अनेक सुधार समय समय पर होते रहे.
हालिया दिनों में दो ख़बरें भारत से निकल कर आईं हैं. पहली ख़बर सुप्रीम कोर्ट के एक टिप्पणी के अनुसार गिग वर्करों को भी रेगुलर वर्करों की तरह हरेक तरह की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा का हक़ होना चाहिए. अगर इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ जाए तो जोमैटो, स्विगी इत्यादि कंपनियों के लाखों गिग वर्करों के दिन बहुरेंगे.
इसका सबसे बड़ा असर संविदा पर रखे गए सरकारी और ग़ैर सरकारी कर्मचारियों पर भी पड़ेगा. यह निर्णय मरणशील पूंजीवाद का ग़ुलामी प्रथा को पिछले दरवाज़े से पुनर्स्थापित करने की कोशिश पर भारी चोट होगी. सरकार को मजबूरन अपनी जनविरोधी नीतियों का त्याग करना होगा.
दूसरी तरफ़, रक्त पिपासु, बेईमान कॉरपोरेट जगत की ग़ैर ज़िम्मेदाराना मुनाफ़ाखोरी की वृत्ति पर भी क़ानूनी शिकंजा कसेगा. सबसे बड़ी बात है कि अगर ये क़ानून बन जाता है तो विश्व भर में मज़दूरों और कामगारों की स्थिति सुधारने के लिये भारत जैसे अत्यंत पिछड़े और गरीब देश के न्यायपालिका को सर्वोच्च सम्मान मिलेगा.
दूसरी ख़बर योगी के रामराज्य के मथुरा से आ रही है. मथुरा के डीएम ने एक ऐसे कर्मचारी को पोस्ट रिटायरमेंट लाभ अदालती आदेश के वावजूद मना कर दिया क्योंकि उस कर्मचारी ने अपनी अस्थाई सेवा काल को भी स्थाई सेवा काल में जोड़ कर क्लेम किया था.
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस पर मथुरा के ज़िलाधिकारी पर नॉन बेलेबल वारंट जारी कर दिया और स्थानीय पुलिस को उन्हें गिरफ़्तार कर अदालत में पेश करने का आदेश दिया. भारतीय न्यायिक व्यवस्था में यह पहला उदाहरण है जब किसी अदालत ने किसी नौकरशाह पर क़ानून के उल्लंघन के लिए सीधी कार्रवाई की है.
इस ख़बर को सुप्रीम कोर्ट द्वारा धर्म संसद पर रोक लगाने में असमर्थ होने पर हिमाचल प्रदेश के चीफ़ सेक्रेटरी को सीधे तौर पर ज़िम्मेदार ठहराने के आदेश के साथ जोड़ कर भी देखा जा सकता है.
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट और इलाहाबाद हाई कोर्ट के रवैये से ये साफ़ ज़ाहिर है कि भारत का क़ानून कामगारों के प्रत्यक्ष या परोक्ष शोषण के खिलाफ है और अब इसके लिए दोषी अफ़सरों और सरकार पर भी सख़्त होने का मन बना चुकी है. बहुत हद तक इसका श्रेय भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश को जाता है.
अब आते हैं मेरे अव्यावहारिक सुझाव पर. गांधी जी चाहते थे कि उद्योगपति अपने उद्योगों के ट्रस्टी बनें और अपने कामगारों के प्रति वात्सल्य का भाव रखें. आदर्शवाद के अतिरेक में गांधी जी नहीं समझ पाए कि यह तभी संभव होगा जब सारे उद्योगपति मन, वचन और कर्म से विशुद्ध गांधीवादी होंगे, जो कि असंभव है.
लेनिन और माओ ने राज्य के अधीन सारे उत्पादन के साधनों को कर दिया और समाज को व्यक्तिगत लाभ हानि की सोच से छुटकारा दिलाने की कोशिश की. इसके परिणामस्वरूप मज़दूरों के अंदर एक मशीन का उदय हुआ, जिसे न कोई महत्वाकांक्षा थी और न ही कोई क्रिएटिव चेतना.
नतीजा ये हुआ कि उत्पादन की गुणवत्ता और क्वांटिटी पर भी असर पड़ा. लोभ और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के बग़ैर आदमी अधूरा रह जाता है. चीन ने सीमित निजीकरण के रास्ते समाजवादी उत्पादन को इतना बढ़ा दिया कि आज वह अमरीका के बाद दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है.
भारत न सोवियत संघ है और न ही कम्युनिस्ट चीन. भारत गांधीवादी देश भी नहीं है. भारत एक अर्ध सामंती, बीमार पूंजीवादी व्यवस्था है जिसमें मोदी सरकार ने फासीवाद का तड़का लगाया है.
ऐसे में मज़दूरों और कामगारों की भलाई के लिए लिए कौन सा रास्ता बचता है ? ख़ास कर वैसे समय में जब एक घोर दक्षिणपंथी सरकार निजी पूंजी के चरणों में लहालोट होकर विश्व बैंक के इशारे पर श्रम क़ानूनों को शिकागो विद्रोह के पीछे वाली स्थिति में ले जाने को तत्पर है. एक ऐसे समय में जब सरकार का जनकल्याणकारी चेहरा ग़ायब हो गया है और देश की समूची संपत्ति और प्राकृतिक संसाधनों पर बेईमान धंधेबाज़ों के आधिपत्य के लिए उनके लठैतों जैसा काम कर रही है.
क्या न्यायपालिका के इक्का दुक्का फ़ैसलों और टिप्पणियों के भरोसे देश के विशाल मज़दूर वर्ग के हित को हम छोड़ दे सकते हैं ? बिल्कुल नहीं.
औद्योगिक क्रांति के पांचवे चरण में मज़दूरों के संघर्ष को भी अगले चरण तक ले जाने की ज़रूरत है. हमें इस बात के लिए लड़ना होगा कि सरकारी हो या निजी, हरेक कंपनी में कार्य रत हरेक कामगार उसका शेयर होल्डर हों ताकि किसी भी मालिक या प्रबंधन को एंटी लेबर फ़ैसला लेने की हिम्मत नहीं हो. वेतन और लाभांश के फ़र्क़ को ख़त्म करना होगा. इससे उत्पादन, उत्पादन की गुणवत्ता और समाज के आख़िरी आदमी की क्रय शक्ति, तीनों में इज़ाफ़ा होगा.
सुनने में अव्यावहारिक लगता है. है न ? शिकागो declaration भी एक दिन ऐसा ही लगा था. सभी को मज़दूर दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !
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