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कांचा इलैय्या की किताबों से घबड़ाते क्यों हैं संघी-भाजपाई ?

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कांचा आयलैया की किताबों से घबड़ाते क्यों हैं संघी-भाजपाई ?

कांचा इलैय्या की किताबों में ऐसा क्या है, जिससे हिंदुत्वादी को नफरत है ? वे कभी इन किताबों पर प्रतिबंध लगवाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पहुंच जाते हैं, कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठक्रम से उनकी किताबें निकलवाने के लिए जोर लगाते हैं. कभी उन्हें जान से मारने की धमकी देते हैं. इस विषय से जुड़े करीब सभी प्रश्नों का कंवल भारती जी ने विस्तार से जवाब दिया है. इस लेख को जरूर पढ़ा जाना चाहिए.




कंवल भारती लिखते हैं “अभी हाल की घटना दिल्ली विश्वविद्यालय की है, जिसके अकादमिक मामलों को देखने वाली स्टैंडिंग कमेटी ने राजनीति शास्त्र के पाठयक्रम से प्रख्यात बहुजन लेखक कांचा इलैय्या की तीन पुस्तकें निकालने का निर्णय लिया है, ये तीन किताबें हैं : (1) ‘व्हाई आई एम नॉट हिन्दू’, (2) ‘पोस्ट हिन्दू इंडिया’ और (3) ‘बफैलो नेशनलिजम’.

‘पोस्ट हिन्दू इंडिया’ वही पुस्तक है, जिसे पढ़कर तेलगुदेशम पार्टी के सांसद टी. जी. वेंकटेश ने कांचा इलैय्या को सरेआम सड़क पर फांसी देकर मारने की घोषणा की थी. इस सांसद ने उनके खिलाफ इतनी दहशत पैदा कर दी थी कि उन्होंने आपने आपको अपने घर में कैद कर लिया था. उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में, जो 30 सितम्बर, 2017 के अंग्रेजी समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुआ है, उन्होंने अपनी किताब ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ के बारे में विस्तार से चर्चा की है. यह किताब 2009 में प्रकाशित हुई थी. एक छोटे प्रकाशक ने इसका तेलगु अनुवाद कराकर प्रत्येक अध्याय को अलग-अलग पुस्तिकाओं में छाप दिया.




इसका पहला अध्याय आदिवासी लोगों पर है, जिसका नाम है ‘अवैतनिक शिक्षक’. दूसरा अध्याय चमारों पर है, जिसका नाम उन्होंने ‘हाशिये के वैज्ञानिक’ रखा है. तीसरा अध्याय महारों पर है, जिसका नाम ‘उत्पादक सैनिक’ है. उसके बाद का अध्याय धोबी समुदाय पर है, जिसका नाम ‘उपेक्षित नारीवादी’ है. एक अध्याय नाइयों पर है, जिसका नाम ‘सामाजिक चिकित्सक’ है. इसके बाद एक अध्याय लुहारों, सुनारों और कुम्हारों पर है, जिसका नाम ‘अज्ञात इंजीनियर’ है. इसी तरह एक अन्य अध्याय ‘दुग्ध और मांस अर्थव्यवस्था’ पर है, तो एक ‘खाद्य उत्पादक’ जाट, गूजरों और कप्पुओं पर है.अंतिम अध्याय उन्होंने वैश्य समुदाय पर लिखा है, जिसका नाम ‘सामाजिक तस्कर’ है.





सारा विवाद इसी ‘सामाजिक तस्कर’ अध्याय पर है, जिसे तेलगु प्रकाशक ने तेलगु में अलग पुस्तिका में छापा है. इसी ‘सामाजिक तस्कर’ को पढ़कर वैश्य समुदाय ने कांचा इलैय्या का लगातार विरोध किया था. ‘सामाजिक तस्कर’ में कांचा इलैय्या ने क्या स्थापित किया है ? इसे भी उन्होंने अपने इंटरव्यू में स्पष्ट किया है. वह कहते हैं, “उत्तर-गुप्त काल से ही सारा व्यापार वर्णव्यवस्था के द्वारा वैश्यों के लिए सुरक्षित हो गया था और वे वस्तुओं की खरीद-फरोख्त में लोगों के साथ धोखा करते थे. इतिहास बताता है कि वे अपने धन को जमीन में दबा कर रखते थे, जिसे वे ‘गुप्त धन’ कहते थे. वे उस धन को वापस कृषि उत्पादन के कार्यों में कभी व्यय नहीं करते थे. इस संस्कृति में परोपकार की भी कोई अवधारणा नहीं है. दूसरी जातियों के साथ अन्तर्विवाह की भी अवधारणा भी इसमें नहीं है. वे त्योहारों पर भी मिलते-जुलते नहीं हैं. वे लगभग हर किसी को अछूत समझते हैं. यही संस्कृति उच्चतम स्तर पर चली गई है.

आज भारतीय व्यापार की 46 प्रतिशत पूंजी इसी बनिया समुदाय के हाथों में है. इस तरह ‘सामाजिक तस्कर’ पर यह छोटा सा अध्याय बताता है कि किस तरह तस्करी करके राष्ट्र की पूंजी को अवैध रूप से उसकी सीमाओं के बाहर ले जाया जा रहा है. सामाजिक तस्करी तब होती है, जब धन देश के भीतर रहता है. लेकिन यह मनु के धर्मशास्त्र के अनुसार निर्धारित की गई एक ही जाति तक सीमित है इसलिए वे कोई निवेश नहीं करते, सिर्फ जमाखोरी करते हैं और यह जमाखोरी किसी सामाजिक कार्य में व्यय नहीं होती है.”




आरएसएस का हिन्दू तंत्र इस लोकतांत्रिक वैचारिकी को कैसे बर्दाश्त कर सकता है ? वह कब चाहेगा कि कांचा इलैय्याकी किताबें दलित-बहुजनों को हिन्दू धर्म के आध्यात्मिक फासीवाद के विरुद्ध तैयार करें और ब्राह्मण राष्ट्र के निर्माण को चुनौती मिले. इसलिए दिल्ली विश्वविद्यालय की ब्राह्मणवादी स्टैंडिंग कमेटी से, जिसमें एक भी लोकतांत्रिक प्राणी सदस्य नहीं है, कांचा इलैय्या के लोकतांत्रिक विचारों को पाठ्यक्रम से निकालने की ही अपेक्षा की जा सकती है. कमेटी के लोग कांचा इलैय्या के विरोधी नहीं हैं, वरन सच यह है कि उनका मस्तिष्क उसी हिन्दू साहित्य से निर्मित हुआ है, जो ब्राह्मण, मनु, राम, वेद, वेदांत और पुराण के बाहर सोचना ही नहीं चाहता.

  • डा रामू सिद्धार्थ




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