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फेसबुक और निकम्मे प्रोफेसर !

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फेसबुक और निकम्मे प्रोफेसर !
फेसबुक और निकम्मे प्रोफेसर !

हमारे बहुत सारे रीयल मित्र मेरी आलोचना करते हैं और खिल्ली उड़ाते हैं कि यह क्या तमाशा कर रहे हो, हर समय फेसबुक पर लिखते रहते हो, फेसबुक लेखन किसी काम नहीं आएगा, कोई याद नहीं रखेगा इसे, समय बर्बाद करना बंद करो और किताबें लिखो, जमीनी स्तर पर काम करो. मैं अपने मित्रों से सहमत नहीं हूं. मेरा मानना है फेसबुक लेखन हमारे देश के युवाओं की मुख्यधारा का लेखन है. फेसबुक युवाओ और वयस्कों का बेहतरीन लोकतांत्रिक मीडियम है, यह बड़े पैमाने पर स्याही और कागज बचाकर ज्ञान और सूचनाएं विनिमय करने वाला मीडियम है.

यह दिलचस्प और जोखिमभरा मीडियम है. यह ऐसा मीडियम है जिसमें आपका दिल नहीं घुटता. मेरे लिए तो फेसबुक सबसे मधुर मीडियम है. फेसबुक लेखन को जो लोग साहित्य नहीं मानते, उनसे मैं असहमत हूं. तरीके और सलीके से फेसबुक पर लिखा भी साहित्य है. यह मीडियम है.

अनेक सज्जन प्रोफेसर आए दिन फेसबुक को गरियाते रहते हैं. साहित्य के क्षय, आलोचना के क्षय, शिक्षा के क्षय, विवेक के क्षय का रोना रोते रहते हैं. इस तरह के प्रोफेसरों से हम यही कहना चाहते हैं कि आप अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन को क्यों नहीं देखते, वहां पर फेसबुक का सबसे ज्यादा उपयोग होता है, लेकिन साहित्यालोचना जमकर लिखी जा रही है. हर रोज नई आलोचना की किताबें बाजार में आ रही हैं, कक्षाएं भरी रहती हैं.

अमेरिका में सोशलमीडिया का वर्चस्व है. वहां सबसे ज्यादा बेहतरीन लेखन सामने आया है. हम यह भी जोड़ना चाहते हैं अमेरिका में पूंजीवाद के रहते आज भी दुनिया में सबसे ज्यादा मार्क्सवाद पर सेमीनार वहां के विश्वविद्यालयों में होते हैं.

हम यही कहना चाहते हैं कि निकम्मेपन को ज्ञान नहीं कहते, न लिखने को पंडिताई नहीं कहते. प्रोफेसर हो तो फेसबुक पर रहो, सामाजिक-राजनीतिक हस्तक्षेप करो, सामाजिक दायित्व निभाओ. मोटी पगार लेते हो लेकिन सामाजिक हस्तक्षेप के नाम पर किनाराकशी करते हो, यह प्रोफेसर की सही भूमिका नहीं हो सकती.

इंटरनेट आने के पहले सोचते थे. याद करने की कोशिश करते थे, लेकिन इंटरनेट आने के बाद तो स्थिति यह है कि किसी ने कुछ भी पूछा तो तुरंत इंटरनेट पर खोजने लगते हैं. हम कहना चाहते हैं, सोचो, स्मृति में जाओ, इंटरनेट में नहीं. स्मृति में न मिले तब.इंटरनेट पर जाओ.

मैं किसी भी चीज पर लिखने के पहले काफी सोचता हूं, जिसका लिखा पढ़ता हूं उस पर सोचता हूं. सोचने से समझने में मदद मिलती है. फेसबुक पर ऐसे मित्र भी हैं जो किसी भी विचार पर एक क्षण भी सोचने के लिए खर्च नहीं करते, इसलिए वे विचार की जटिलता को समझने में असमर्थ होते हैं. मैं किसी के लेखन को घटिया नहीं कहता. असहमत होता हूं, ब्लॉक करता हूं, लेकिन घटिया नहीं कहता.

वेश्यागामी होना या पोर्न देखना घटिया कर्म है, लेकिन फिल्मी गाने या संगीत सुनना या कम्युनिस्ट लेखन या वैचारिक लेखन पढ़ना सभ्यता है. सोशलमीडिया की खूबी है कि उसमें लिखते हैं तो एक क्षण में आप पाठकों के बीच में और नहीं लिखते हैं तो पाठकों से विदाई.

फेसबुक लेखन के जरिए आप परवर्ती पूंजीवाद यानी लेट कैपीटलिज्म को समझ सकते हैं. इसके कम्युनिकेशन और संस्कृति के परिवेश को समझ सकते हैं. इस दौर के राजनीतिक परिवेश की जानकारी सहज हासिल कर सकते हैं. जिन्दगी को वर्चुअल और रीयल तजुर्बों की कसौटी पर परख सकते हैं. दिमाग में भरे विचारों को निकाल सकते हैं, साथ ही दिमागों में विचार भी भर सकते हैं. यह ऐसा माध्यम है जिसमें गुलामी की वकालत नहीं की जा सकती.

फेसबुक में मजहबी विश्वासों, विचारधारा या आस्था के लिए कोई स्थान नहीं है. यह तो मात्र कम्युनिकेशन है. फेसबुक लेखन कोई आखिरी सनद नहीं है. विचार पसंद आए मानो, न आए मत मानो. यह कम्युनिकेशन है, व्यक्ति और समुदाय के बीच में संवाद है, विचार-विनिमय है. इसमें लिखे को लेकर बुरा मानने की जरुरत नहीं है. पसंद न हो मत पढो, मत लाइक करो, शराफत से पेश आओ, अनजान लोगों से बात करने की कला विकसित करो.

फेसबुक पर यदि कोई यूजर कहीं से सामग्री ले रहा है और उसे पुनः प्रस्तुत करता है और अपने स्रोत को नहीं बताता तो इससे नाराज नहीं होना चाहिए. यूजर ने जो लिखा है वह उसके विचारधारात्मक नजरिए का भी प्रमाण हो जरूरी नहीं है. फेसबुक तो नकल की सामग्री या अनौपचारिक अभिव्यक्ति का मीडियम है. यह अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति है. कम्युनिकेशन का कम्युनिकेशन है. यहां विचारधारा, व्यक्ति, उम्र, हैसियत, पद. जाति, वंश, धर्म आदि के आधार पर कम्युनिकेशन नहीं होता.

फेसबुक में संदर्भ और नाम नहीं कम्युनिकेशन महत्वपूर्ण है. फेसबुक की वॉल पर लिखी इबारत महज लेखन है. इसकी कोई विचारधारा नहीं है. फेसबुक पर लोग विचारधारारहित होकर कम्युनिकेट करते हैं. विचारधारा के आधार पर कम्युनिकेट करने वालों का यह मीडियम ‘ई’ अलगाव पैदा करता है.

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