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गांधी जी का देसी अर्थशास्त्र

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गांधी जी का देसी अर्थशास्त्र

गुरूचरण सिंह

13 फरवरी, 1927 को अपने दौर के मशहूर अर्थशास्त्री बी. एफ. मदान को 13 फरवरी, 1927 को एक ख़त लिखा था गांधी जी ने जिसमें यह वाक्य भी दर्ज है : ‘अर्थशास्त्रियों ने विषय के रूप में अर्थशास्त्र को अनावश्यक रूप से दुरुह बना दिया है.’

लगभग एक सदी खत्म होने को है, जब उन्होंने यह बात कही थी. तब से लेकर अब तक अर्थशास्त्र तो पता नहीं कितनी घुमावदार गलियों, पगडंडियों और राजमार्गों से गुज़र चुका है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति का धारदार हथियार बन चुका है. धन-पिशाचों के घर बांदी बनकर चाकरी करता रहा है. IIMs और CA संस्थानों से निकल कर भारी जेब वालों को समानांतर अर्थव्यवस्था, टैक्स चोरी और सरकारी तंत्र की मिलीभगत से बैंक कर्ज़ के ज़रिए आम जन के पैसे को गटक जाने के गुर सिखाता रहा है. लेकिन एक बात तो सब पर एक समान लागू होती है, ये सारे अर्थशास्त्री राजनीतिज्ञों की तरह बात तो आम जनता की करते हैं, उसके सहारे नोबेल पुरस्कार भी पा जाते हैं लेकिन रहते हैं सरकार और धनपिशाचों के कृपाकांक्षी ही. चाहिए नीति आयोग या आरबीआई में कोई महत्वपूर्ण पद ही. यही कारण है कि किसी ने भी किताबी ज्ञान से बाहर जा कर आमजन की जरूरतों को समझने की जरुरत ही नहीं समझी.

गांधी जी ने एक सदी पहले ही इस मर्म को समझ लिया था इसलिए परिभाषिक शब्दावली का इस्तेमाल न करते हुए देश की जरूरतों के मुताबिक आर्थिक समाधान निकाले. यह दूसरी बात है उनका नाम लेकर ही अपना वजूद बनाए रखने वाली सियासी पार्टी ने उसे पूजे जाने वाले ईश्वर की तरह एक मूर्ति बना कर गांधी संग्रहालय में ही क़ैद कर दिया, उसके सिद्धांतों पर चले कभी नहीं. लंदन में गोलमेज कांफ्रेंस के दौरान उनका एक इंटरव्यू याद आ रहा है जो CWMG, VOL VIII के पृष्ठ 241-248 में दर्ज है. यह इंटरव्यू 29 अक्टूबर,1931 को चार्ल्स पेट्रिक ने कुछ अन्य लोगों के साथ लिया था. ट्रस्टीशिप के बारे में उनकी सोच पर प्रकाश डालता है, इंटरव्यू का यह हिस्सा इस प्रकार हैै –

सवाल- आपके विचार से भारत के देशी राजा, जमींदार, उद्योगपति और साहूकार किस तरह से धन इकट्ठा करते हैं ?

गांधीजी- अभी तक तो जनसाधारण का शोषण करके ही करते हैं ( एकदम साफ बात बिना किसी लग लपेट के).

सवाल- क्या इन लोगों को कोई ऐसा सामाजिक अधिकार है कि ये उन सीधे-सादे मजदूरों या किसानों से ज्यादा अच्छी तरह से रहें, जिनकी मेहनत की बदौलत ये अपनी दौलत बढ़ाते हैं ?

गांधीजी- नहीं, ऐसा अधिकार तो नहीं है …मैं कुशाग्रबुद्धि व्यक्ति को अधिक संपत्ति अर्जित करने की छूट तो दूंगा और इसके लिए उसे अपनी योग्यताओं का उपयोग करने से भी नहीं रोकूंगा लेकिन उसके लाभ का अतिरिक्त अंश (जरूरत से ज्यादा हिस्सा) तो फिर आम जनता के पास ही आना चाहिए— ठीक उसी प्रकार, जिस प्रकार किसी परिवार की कमाऊ संतानों की कमाई पूरे परिवार की संपत्ति होती है. (शिक्षा और बदलते सामाजिक मूल्यों ने संयुक्त परिवार की अवधारणा ही ख़त्म दी, तो फिर कैसे समझा जा सकता है यह सिद्धांत ?)

दरअसल वे अपनी कमाई संपत्ति के केवल ट्रस्टी हैं (मालिक नहीं), इससे अधिक कुछ नहीं हैं वे. हो सकता है कि मुझे इससे आखिर में घोर निराशा ही मिले, लेकिन मैं इसी आदर्श का हिमायती हूंं और मौलिक अधिकारों की घोषणा में भी यही अर्थ निहित है.

सवाल- क्या आप ऐसा नहीं मानते कि भारतीय किसानों और मजदूरों की गरीबी का एक मुख्य कारण यह है कि उनके श्रम के फल को जमींदार और पूंजीपति हड़प लेते हैं और जमींदारों और पूंजीपतियों के लाभ का एक बहुत ही छोटा अंश सरकारी खजाने में जाता है ?

गांधीजी- जी हांं, मैं इस बात से सहमत हूंं.

सवाल- आप पूंजीपतियों में न्यास-व्यवस्था (ट्रस्टीशिप) लाएंगे कैसे ? लोगों को केवल समझा-बुझाकर ?

गांधीजी- केवल समझा-बुझाकर नहीं. मैं अपने साधन पर ध्यान केंद्रित करूंगा…मेरा शस्त्र ‘असहयोग’ है. कोई भी (शोषणकारी व्यवस्था) बिना सहयोग के फल-फूल नहीं सकती, चाहे वह सहयोग स्वेच्छा से दिया जाए या लाचारी से.

सवाल- क्या कोई पूंजीपतियों को न्यासी बनाने में कामयाब हुआ है ? न्यासियों को कमीशन क्यों मिलना चाहिए ?

गांधीजी- जिनके पास भी संपत्ति है उन सबसे मैं न्यासी बनने को कहता हूंं. इसका मतलब यह है कि वे केवल इसलिए न्यासी न बनें कि वे अधिकारपूर्वक संपत्ति के मालिक हैं, बल्कि इसलिए बनें कि जिन लोगों का उन्होंने शोषण किया है, उन्होंने ही उन्हें इस संपत्ति का स्वामित्व सौंपा हुआ है.

कमीशन उन्हें इसलिए मिलना चाहिए कि (अभी) पैसा उनके हाथों में है…मैं इस कमीशन के लिए कोई निश्चित प्रतिशत तय नहीं कर रहा हूंं बल्कि उनसे उतने की ही मांग करने को कहता हूंं जितने का वे अपने आपको पात्र समझते हैं.

उदाहरण के लिए जिसके पास सौ रुपये होंगे उससे मैं कहूंगा कि वह पचास रुपये अपने पास रखे और बाकी पचास मजदूरों को दे दे लेकिन जिसके पास एक करोड़ रुपये होंगे उससे मैं, समझ लीजिए, बहुत-से-बहुत एक प्रतिशत ही अपने पास रखने को कहूंगा.’

अफसोस, आज ही के दिन एक विक्षिप्त व्यक्ति ने इस आदमी का ही नहीं, इस एक विचार का भी क़त्ल कर दिया था क्योंकि यदि वह जीवित रहता तो बहुत मुमकिन है इसे अमल में ला कर कम से कम अजमाया तो जाता ही, सत्य के साथ किए अन्य प्रयोगों की तरह !!!

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ROHIT SHARMA

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