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‘कला’ : बेचैन करने वाली खूबसूरत बर्फ़ीली अवसाद की कहानी

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'कला' : बेचैन करने वाली खूबसूरत बर्फ़ीली अवसाद की कहानी
‘कला’ : बेचैन करने वाली खूबसूरत बर्फ़ीली अवसाद की कहानी
मनीष आजाद

‘कला’ अपने साथ डाह, प्रतियोगिता, पश्चाताप, ईगो की अनेकों परतें साथ लिए विकसित होती है. हाल ही में नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म ‘कला’ की कहानी भी बहुपरतीय है. हरेक परत अलग कहानी कहती है पर परस्पर गुंथी हुई.

एक परत है मां बेटी के जटिल रिश्तों की. मां बेटी को अंत तक अपना नहीं पाती. जब अपनाती है तो बहुत देर हो चुकी है. पितृसत्ता का ग्रहण बेटी के जीवन पर अभिशाप की बर्फ़ बन कर बरसता भी है और उसे आच्छादित भी किये रहता है. जुड़वां बच्चों में पहले बेटी होती है और फिर मृत बेटा. बेटे की कामना अतृप्त रह जाती है और बेटी मां की नफ़रत की आजीवन शिकार बनती है. बेटे की चाहत में एक अन्य लड़के को अपनाती है मां और बेटी को ठुकराती है.

ज़ाहिर है बेटी के ज़हन पर नफ़रत और घृणा की बर्फ़बारी ऐसी होती है कि बेटी ‘कला’ मां के अपनाये ‘बेटे’ के प्रति डाह से भर उठती है.
फ़िल्म जगत में ‘देह’ देकर कुछ हासिल किया जा सकता है, यह बात कला अपनी मां से सीखती है और उनके पोषित बेटे को विस्थापित कर संगीत का सर्वोच्च हासिल करती है. फिर भी मां उसे अपनाने से इंकार कर देती है. कला जीवन भर मां के प्यार और अटेंशन हासिल करने में अपना जीवन गंवा देती है.

Qala _ Official Trailer _ Triptii Dimri, Babil Khan, Amit Sial, Varun Grover _ Netflix India

हिमांचल की खूबसूरती को और भी रहस्यमयी और कुछ दृश्यों की मांग के अनुरूप भयावह बनाता है अमित त्रिवेदी का संगीत. संगीत का बेहतरीन साथ फिल्म को विकसित करता हुआ चलता है. कहीं कहीं संगीत फिल्म से अलग अपनी ख़ास उपस्थिति दर्ज़ कराता है. एक अलग तर्ज़ में निर्गुन सुनना अच्छा ही लगता है. एक दो गीत भी कर्णप्रिय हैं. बोल बहुत दिल को छूने वाले नहीं हैं फिर भी सुने जा सकते हैं.

कला के रूप में तृप्ति डिमरी काफ़ी सुंदर लगी हैं और चरित्र में उतर जाती हैं. बिल्कुल पश्चिम की कला फिल्म की हिरोइन की तरह. हालांकि क्लोज़अप शॉट्स में उनके चेहरे पर भाव उतने रियल नहीं लगते. जब वह डरती हैं तो वह डरी हुई नहीं लगती बल्कि अभिनय करती सी लगती हैं. कला के अभिनय को रिटेक से और निखारा जा सकता था.

कला की मां स्वस्तिका मुखर्जी ने ज्यादा सधा हुआ अभिनय किया है. उनके गहने और कॉस्टयूम काफ़ी खूबसूरत और आकर्षक है. हां इरफ़ान खान के पुत्र बाबिल खान के अभिनय पर पिता की विरासत का बोझ साफ़ नज़र आता है. पूरी फिल्म एक खूबसूरत तस्वीर की तरह शूट की गई है. हरेक फ्रेम काफ़ी कलात्मक और खूबसूरत है.

फ़िल्म 1940 के दशक की कहानी कहती है. जब गाँधी सोलन आये थे. भारत में 1940 का दशक राजनीतिक रूप से उथल पुथल का दशक है. और फिल्म देख कर पता चलता है कि उस वक्त भी अभिजात्य वर्ग अपने सामाजिक राजनीतिक यथार्थ से कटा हुआ था. उस वक्त भी उसे उससे कुछ लेना देना नहीं था. बस अपनी ज़िन्दगी जिए जा रहा था, ज़माने से बेखबर. अपनी बेटी के भी दिलो-दिमाग से ग़ाफ़िल..

कला फिल्म की निर्देशिका हैं अन्विता दत्त और प्रोड्यूसर हैं अनुष्का शर्मा. कला जब कला के लिए बनेगी, निरुद्देश्य होगी तो अवसाद में चली जाएगी. इस फ़िल्म को देख कर अवसाद की सर्द बर्फ़ दिलो-दिमाग पर छाने लगती है. बर्फ़ीली खूबसूरती बेचैन करती है, और रूह को रिहा नहीं करती.

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