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प्रेम, परिवार और पितृसत्ता

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प्रेम, परिवार और पितृसत्ता
प्रेम, परिवार और पितृसत्ता
जगदीश्वर चतुर्वेदी

प्रेम करो तो जरुरी नहीं है कि प्रेमिका या प्रेमी का प्रेम में पितृसत्तात्मक व्यवहार न हो ! प्रेमी ने बहुत सोच-विचार और वैचारिक मंथन के बाद तय किया कि शादी करेंगे. सोचा नए क़िस्म का परिवार बनाएंगे लेकिन यह सपना बहुत जल्द टूट गया. प्रेमिका शादी के बाद पुंसवादी तेवर के साथ आचरण करने लगी. उसे लगा कि घर के सारे कामकाज करना तो मर्द का काम है, उसका काम तो सिर्फ़ पढ़ना है. वह खाती और घूमती. प्रेमी जो अब पति बन चुका था वह मातहत की भूमिका निभाने लगा. समानता का नारा अचानक कहीं गुम हो गया.

कुछ महिने बाद प्रेमिका के शहर में प्रेमी की नौकरी लगी. प्रेमी ने घर न मिलने तक ससुराल में रहने का फैसला किया, लेकिन उसके बाद वह सास-ससुर की क़ैद से निकल नहीं पाया. उस पर प्रेमिका दवाब बनाने लगी कि घर जमाई होकर रहो, सास-ससुर की सेवा करो, उनके सब खर्चे उठाओ और घर का भाड़ा भी दो.

प्रेमी ने प्रेमिका से कहा कि हम दोनों ने स्वतंत्र होकर घर बसाने का निर्णय लेकर ही शादी की थी और तुमने सहमति भी दी थी फिर अचानक तुम पलट क्यों रही हो ? उसने कहा मेरे साथ शादी की है तो घर जमाई होकर रहना होगा. इसके बाद प्रेमी के स्वतंत्र परिवार बनाने, गैर-पुंसवादी परिवार बनाने की हत्या हो गई. संक्षेप में यह कहानी है एक शिक्षित महिला की !

एक अन्य शिक्षित लड़की की राय जाने बग़ैर शादी तय कर दी गई और सारे परिवार के कामकाज, देखभाल आदि का बोझा उसके ऊपर डाल दिया गया. वह पढ़ी लिखी होने के बावजूद अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पाई. तीसरे क़िस्म की वे लड़कियां हैं जो शिक्षित नहीं है लेकिन परिवार को सौंप दी गई हैं. उनकी शादी ऐसे परिवार में कर दी गई है जो खाते-पीते संपन्न परिवार हैं. इस तरह की लड़कियों के लिए परिवार ही धर्म है.

चौथे क़िस्म की वे लड़कियां हैं जो शिक्षित हैं, पति भी शिक्षित है और परिवार में वे पति की तरह ही कमाई करके लाती हैं, लेकिन मातहत की तरह रहती हैं. नौकरी करती हैं और घर के सभी दायित्व भी निभाती हैं.

इन चारों क़िस्म की लड़कियों की धुरी है परिवार और सिर्फ़ परिवार. सवाल यह है क्या परिवार की संरचना में स्वतंत्रता, समानता और संप्रभु व्यक्तित्व के लिए कोई जगह है ? क्या परिवार का ढांचा व्यक्ति को स्वतंत्र यूनिट के रुप में देखता है ? क्या परिवार में पुंसवादी जीवन मूल्यों का वर्चस्व ख़त्म हो गया है ? क्या परिवार में लोकतंत्र, समानता और मित्रता के जीवन मूल्यों के लिए कोई नई जगह भारतीय समाज बना पाया है ?

हक़ीक़त यह है इन सभी सवालों के उत्तर हमारे पास नहीं हैं क्योंकि परिवार को हम परम पवित्र मानकर चल रहे हैं. परिवार के बारे में सवाल खड़े करना गुनाह माना जाता है. परिवार पर सार्वजनिक बहस करना असभ्यता के दायरे में रख दिया गया. सच्चाई यह है भारतीय परिवार पूरी तरह अंदर से सड़ चुका है. उसे हम धर्म और सामाजिक हैसियत के आवरण में ढंककर चला रहे हैं. परिवार के सड़ने की हमको दुर्गन्ध तक नहीं आती. इससे पता चलता है कि हम संवेदनाहीन और विवेकहीन बनाए जा चुके हैं.

जिस व्यक्ति या समाज को परिवार की सड़ांध परेशान नहीं करती, वह कभी विवेकवाद अर्जित नहीं कर सकता. अविवेकवाद के कारण ही परिवार के अंदर देखने, यथार्थ को देखने, स्त्री को देखने और सरकार को देखने के हमारे नज़रिए में विवेकवाद दाखिल नहीं होता. बिखरा और सड़ा परिवार हमारे राजनीतिक दलों के लिए भी समस्या नहीं है. स्त्री उत्पीड़न भी प्रमुख समस्या नहीं है, लोकतांत्रिक हक़ों पर हो रहे हमले भी समस्या नहीं हैं क्योंकि हमने पुंसवाद और अविवेकवाद के गठजोड़ के बारे में अपनी आंखें बंद कर ली हैं.

हमारे समाज की दो आंखें हैं पुंसवाद और अविवेकवाद. इन दोनों ने परिवार, समाज, लोकतंत्र और राजनीति को पूरी तरह अपनी गिरफ़्त में ले लिया है. आज प्रेम के विकास में परिवार सबसे बड़ी बाधा है. पुराने परिवार के ढांचे और मूल्य-संरचना को नष्ट किए बिना नए समाज और नए भारत का निर्माण संभव नहीं है. सत्ता पर मोदी के रहने से नया समाज बनने वाला नहीं है.

मोदी-आरएसएस खुलेआम परिवार के सड़े गले ढांचे को बनाए रखने की वकालत कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में आने वाले समय में स्त्रियों पर हमले बढ़ेंगे, प्रेमी-प्रेमिकाओं पर हमले बढ़ेंगे. भाजपा शासित राज्यों और पूरे देश में बलात्कार की घटनाएं जिस तरह तरह बढ़ी हैं, उससे सबक़ लें, जिस तरह खुलेआम बलात्कारियों का भाजपा नेता समर्थन कर रहे हैं, उससे सबक़ लें वरना वह दिन दूर नहीं जब औरतों को अकल्पनीय कष्टों का सामना करना पड़ेगा.

अविवेकवाद और पुंसवाद की लहर से न तो न्यायपालिका बचेगी और लोकतंत्र बचेगा. परिवार को बदलो, पुंसवाद से मुक्ति के लिए संघर्ष करो, लोकतंत्र अपने आप पटरी पर आ जाएगा. फासिज्म ख़ुद ही परास्त हो जाएगा. परिवार को बचाकर फासिज्म से समाज को मुक्त करना संभव नहीं है. फासिज्म की जड़ें हमारे परिवार के ढांचे में हैं, उस पर खुलकर बातें करो, बहस करो. भारत का पूरा सिस्टम परिवार को बचाने में लगा है. परिवार को बचाने का अर्थ है पुंसवाद और अविवेकवाद को बचाना और फासिज्म की ज़मीन तैयार करना.

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