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प्रेम एक कला है, संकल्प है अपना जीवन पूरी तरह से एक दूसरे व्यक्ति के जीवन को समर्पित कर देने का

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प्रस्तुत आलेख एरिक फ्रॉम की विश्वविख्यात रचना ‘द आर्ट ऑफ लविंग’ पुस्तक से लिया गया है. इसका हिन्दी अनुवाद युगांक धीर ने किया है. जैसा कि यह रचना अपने शुरुआत में ही कहता है, ‘प्रेम में, अगर सचमुच वह ‘प्रेम’ है, एक वायदा जरुर होता है – कि मैं अपने व्यक्तित्व और अस्तित्व की तहों तक प्रेम करता हूं, अपने सार तत्व में सभी मनुष्य एक जैसे ही हैं, हम सभी एक ही ईकाई के हिस्से हैं, हम सभी एक ही ईकाई हैं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम किससे प्रेम करते हैं. प्रेम एक तरह का संकल्प है – अपना जीवन पूरी तरह से एक दूसरे व्यक्ति के जीवन को समर्पित कर देने का.’
जैसा कि भारत की प्रख्यात लेखिका आभा शुक्ला लिखती हैं – ‘भले ही प्रेम अपने आप में क्रांति नहीं है लेकिन क्रांति का सबसे उत्तम ईंधन है. मेरा भी यही मानना है कि अगर कोई प्रेम नहीं कर सकता तो वह दुनिया की कोई क्रांति भी नहीं कर सकता इसलिए प्रेम कहानियां सबकी होती हैं, नायकों की भी, क्रांतिकारियों की भी, आतंकवादियों की भी…’. यही कारण है कि प्रेम क्रांति की शुरुआत हैं. चूंकि क्रांति अपने आप में एक कला है, इसलिए प्रेम करना भी एक कला है. और यह आलेख इस कला को बेहतर तरीके से प्रस्तुत करता है – सम्पादक
प्रेम एक कला है, संकल्प है अपना जीवन पूरी तरह से एक दूसरे व्यक्ति के जीवन को समर्पित कर देने का
प्रेम एक कला है, संकल्प है अपना जीवन पूरी तरह से एक दूसरे व्यक्ति के जीवन को समर्पित कर देने का

शायद ही दूसरी कोई ऐसी गतिविधि हो, दूसरा
कोई ऐसा उद्यम हो, जो प्रेम की तरह बड़ी-बड़ी
उम्मीदों और अपेक्षाओं से शुरु होकर इतने ज्यादा
मामलों में इतनी बुरी तरह विफल होता हो. 

अगर दूसरे किसी क्षेत्र के साथ इतनी ज्यादा विफलता
जुड़ी होती, तो लोग ज़रूर जानने की कोशिश करते कि
इसके पीछे कारण क्या है,
कि कैसे इन विफलताओं से बचा जा सकता है.
या फिर वे वह गतिविधि ही छोड़ देते.

लेकिन प्रेम कोई ऐसी गतिविधि नहीं है
जिसे छोड़ा जा सके, इसलिए
इसकी विफलताओं के कारण जानने की
कोशिश करना ही एकमात्र रास्ता है.
और इसके लिए सबसे पहले
प्रेम के सही अर्थों को समझना ज़रूरी है.

क्या प्रेम एक कला है ? तो फिर इसे ज्ञान और प्रयत्न की ज़रूरत होगी. या प्रेम एक सुखद अनुभूति है, जिसका अनुभव सिर्फ़ संयोग पर निर्भर है, जो सिर्फ कुछ सौभाग्यशालियों को नसीब होता है ? यह पुस्तक पहली धारणा पर आधारित है, जबकि आज अधिकांश लोग दूसरी धारणा पर विश्वास करते हैं. ऐसा नहीं कि लोग प्रेम को महत्त्वपूर्ण न समझते हों. वे तो भूखे हैं इसके; जाने कितनी सुखांत और दुखांत प्रेम-कथाएं वे फिल्‍मी पर्दे पर देखते हैं, जाने कितने प्रेम-गीत वे अपने खाली वक्‍त में सुनते हैं- लेकिन उनमें से शायद ही कोई सोचता हो कि प्रेम के बारे में कुछ जानने-सीखने की भी ज़रूरत है.

इस दृष्टिकोण के पीछे कई कारण हैं. ज्यादातर लोग सोचते हैं कि प्रेम का मतलब है कि ‘कोई उनसे प्रेम करे,’ बजाय इसके कि ‘वे प्रेम करें,’ कि उनमें प्रेम करने की क्षमता हो. इसलिए उनकी समस्या होती है कि कैसे कोई उनसे प्रेम करे, कैसे वे अपने-आपको प्रेम किए जाने के योग्य बनाएं. इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वे कई रास्ते चुनते हैं. एक रास्ता, जो खासकर पुरुष चुनते हैं, सफलता का रास्ता होता है, कि कैसे वे सामाजिक मर्यादाओं के भीतर शक्तिशाली और धनवान बनें.

दूसरा रास्ता, जो खासकर स्त्रियां चुनती हैं, अपने-आपको आकर्षक बनाने का, अपने शरीर और परिधान पर ज्यादा-से-ज्यादा ध्यान देने का रास्ता होता है. अन्य रास्तों में, जो पुरूष और स्त्रियों दोनों ही चुनते हैं, मोहक शिष्टाचार, रोचक वार्तालाप, और सहयोगपूर्ण, संयत और विनम्र आचरण का विकास वगैरह आते हैं. अपने आप को ‘प्रेम के योग्य’ बनाने के भी ज़्यादातर वही तरीके हैं जो सफल बनाने के- यानी ‘मित्र बनाने और लोगों को प्रभावित करने की क्षमता’. सच्चाई यह है कि आज की संस्कृति में ज्यादातर लोग ‘प्रेम के योग्य’ होने का मतलब  लोकप्रियता और यौनाकर्षण की क्षमता’ से लगाते हैं.

प्रेम के विषय में कछ भी जानने-सीखने की ज़रूरत न होने की धारणा के पीछे दूसरा कारण यह मान्यता है कि- प्रेम की समस्या ‘लक्ष्य’ की समस्या है, न की ‘साधन’ की समस्या. लोगों का सोचना है कि प्रेम करना बहुत आसान है लेकिन इस प्रेम के लक्ष्य यानी ‘प्रेमी’ को तलाशना, और ‘उसका प्रेम हासिल करना’ असली मुश्किल काम है.

इस दृष्टिकोण के निर्माण के कारणों को आधुनिक समाज के विकास में ढूंढ़ा जा सकता है. एक कारण ‘प्रेम-लक्ष्य’ के चुनाव को लेकर 20वीं सदी में आया महान परिवर्तन है. विक्टोरिया काल में, और परंपरागत समाज व्यवस्थाओं में, प्रेम अधिकांशतः एक व्यक्तिगत अनुभव नहीं हुआ करता था, जिसकी परिणति विवाह में हो जाए. उल्टे, विवाह परंपराओं अनुसार परिवार द्वारा तय किया जाता था, और अपेक्षा की जाती थी कि विवाह के बाद प्रेम पैदा होगा. लेकिन पिछली कुछ पीढ़ियों से, ख़ासकर पाश्चात्य सभ्यताओं और आधुनिक शहरों में, रोमानी प्रेम की अवधारणा एक सार्वभीमिक सच्चाई बन गई है. उदाहरण के लिए अमरीका में, जहां परंपरागत मूल्य भले ही पूरी तरह विलुप्त न हुए हों, लोगों की एक बड़ी संख्या ‘रोमानी प्रेम’ की तलाश में रहती है – प्रेम का एक ऐसा व्यक्तिगत अनुभव जो बाद में विवाह में बदल जाए. प्रेम की स्वतंत्रता की इस नई अवधारणा ने ‘लक्ष्य’ के महत्त्व को, ‘कार्य’ के महत्त्व की तुलना में, कहीं ज़्यादा बढ़ा-चढ़ा दिया है.

इससे बहुत करीब से जुड़ा हुआ एक दूसरा तथ्य भी है, जो समकालीन संस्कृति का ही एक अंग है. हमारी समूची संस्कृति खरीदारी की भूख पर आधारित है, परस्पर आवश्यकताओं से जुड़े लेन-देन पर. आधुनिक मनुष्य की खुशी दुकानों के शो-के्सों में सजी चीज़ों को देखने के रोमांच में है, और वह सब कुछ खरीद लेने में जिसे वह एकमुश्त या किश्तों पर खरीद सकता है. यही नज़रिया वह (पुरुष और स्त्री दोनों ही) व्यक्तियों के प्रति भी अपनाता है. पुरुष के लिए एक आकर्षक स्त्री – और स्त्री के लिए एक आकर्षक पुरुष – ऐसे तोहफे हैं जिन्हें वे पाना चाहते हैं. यहां ‘आकर्षक’ का अर्थ आमतौर पर उन गुणों से होता है, जो लोकप्रिय हैं, और व्यक्तित्व के बाज़ार में जिनकी मांग है. कोई व्यक्ति ‘आकर्षक’ है या नहीं,
शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर, यह उस दौर के चलन पर निर्भर करता है. 1920 के दौर में शराब और सिगरेट पीने वाली, सख्तजान और मादक लड़कियां लोकप्रिय थीं; जबकि आज (1950 के दौर में) घरेलू और लज्जाशील युवतियां ज़्यादा लोकप्रिय हैं. 19वीं सदी के अंत में और 20वीं सदी के शुरू में, पुरुष को आक्रामक और महत्वाकांक्षी होना पड़ता था– जबकि आज उसे लोकप्रिय होने के लिए सामाजिक और सहिष्णु होना पड़ता है.

जो भी हो, किसी से प्रेम करने की भावना आमतौर पर अपने व्यक्तित्व की लोकप्रियता की संभावना के साथ ही विकसित होती है. मैं बाज़ार में उपलब्ध हूं, लेकिन मुझे पाने वाला सामाजिक दृष्टि से आकर्षक होना चाहिए, और साथ ही मेरे ऊपरी और भीतरी गुणों को देखते हुए वह मुझे चाहता भी हो. इस तरह जब दो व्यक्तियों को यह अहसास हो जाता है कि अपने सामर्थ्य के हिसाब से, बाजार में उन्हें सबसे अच्छी वस्तु या सबसे अच्छा खरीदार मिल गया है, तो वे एक-दूसरे से ‘प्रेम’ करने लगते हैं. ज्यादातर, जैसाकि संपत्ति खरीदने के मामले में होता है, इस मामले में भी छिपी हुई संभावनाओं और संभावित फायदों की काफी अहमियत रहती है. उस संस्कृति में जिसमें बाज़ार की धारणा सर्वोपरि है, और जिसमें भौतिक सफलता सबसे बड़ा मूल्य है – इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि मनुष्य के प्रेम-संबंध भी वही समीकरण अपना लें, जो वस्तुओं और बाज़ार के बीच स्थापित हैं

तीसरी भूल जो इस मान्यता को जन्म देती है कि प्रेम के बारे में कुछ भी सीखने की ज़रूरत नहीं है – ‘प्रेम हो जाने’ के प्रारंभिक अनुभव और ‘इस प्रेम-भावना को एक स्थाई भावना बनाए रखने’ के बीच का फर्क है. अगर दो लोग, जो एक-दूसरे के लिए बिल्कुल अजनबी होते हैं, अपने बीच की दीवारें गिराने में और एक-दूसरे के बहुत करीब और अंतरंग महसूस करने में सफल हो जाते हैं – तो ये जीवन के सबसे चरम आनंद के और सर्वाधिक उत्तेजक क्षण होते हैं. खासकर उन लोगों के लिए तो और भी ज्यादा उन्मादपूर्ण होता है, जो अकेलेपन, निरुत्साह और प्रेमविहीनता के शिकार होते हैं. यह आपसी अंतरंगता अक्सर यौन-आकर्षण और यौन-संबंधों के शुमार से, या उन्हीं के साथ शुरू होने से, और भी उन्मादपूर्ण ऊंचाई हासिल कर लेती है. लेकिन इस तरह का प्रेम, अपनी स्वाभाविक प्रकृति के कारण, स्थाई नहीं होता. जैसे-जैसे ये लोग एक-दूसरे से ज्यादा परिचित होते जाते हैं, उनकी अंतरंगता का जादुई उन्माद कम होता जाता है; और अंततः इस तथ्य से उपजने वाली खीज और निराशा और परस्पर उकताहट उनके बीच के शुरुआती आकर्षण को बिल्कुल ख़त्म कर देती है. पर शुरू में वे इस तथ्य से वाकिफ नहीं होते; उलटे वे एक-दूसरे के प्रति इस उन्मादी आकर्षण को; और अपने तूफानी प्रेम को, अपने प्रेम की गहराई का प्रमाण समझते हैं – जो वास्तव में उनके पहले के जीवन के अकेलेपन का प्रमाण भर होता है.

उनका दृष्टिकोण – कि प्रेम से आसान कोई चीज़ नहीं है – निरंतर बरकरार रहता है, बावजूद इसके कि इसे झुठलाने वाले प्रमाण प्रचुर मात्रा में उनके सामने होते हैं. शायद ही दूसरी कोई ऐसी गतिविधि हो, दूसरा कोई ऐसा उद्यम हो, जो प्रेम की तरह बड़ी-बड़ी उम्मीदों और अपेक्षाओं से शुरू होकर इतने ज्यादा मामलों में इतनी बुरी तरह विफल होता हो. अगर दूसरे किसी क्षेत्र के साथ इतनी ज्यादा विफलता जुड़ी होती, तो लोग ज़रूर जानने की कोशिश करते कि इसके पीछे कारण क्या है, कि कैसे इन विफलताओं से बचा जा सकता है. या फिर वे वह गतिविधि ही छोड़ देते. लेकिन प्रेम कोई ऐसी गतिविधि नहीं है जिसे छोड़ा जा सके, इसलिए इसकी विफलताओं के कारण जानने की कोशिश करना ही एकमात्र रास्ता है. और इसके लिए सबसे पहले प्रेम के सही अर्थों को समझना ज़रूरी है.

इस दिशा में सबसे पहला कदम यह जानना है कि ‘प्रेम एक कला है,’
बिल्कुल वैसे ही जैसे जीना एक कला है. अगर हम प्रेम करना सीखना चाहते हैं, तो हमें बिल्कुल उसी तरह इस दिशा में आगे बढ़ना होगा, जैसे हम कोई दूसरी कला – संगीत, चित्रकारी, सिलाई-कढ़ाई, या चिकित्सा-शास्त्र, इंजिनियरिंग वगैरह – सीखते हैं.

किसी भी कला को सीखने के अनिवार्य अंग क्या हैं ? किसी कला को सीखने की प्रक्रिया को दो भागों में बांध जा सकता है – पहला, सिद्धांत में सिद्धहस्तता; और दूसरा, अभ्यास में सिद्धहस्तता. अगर मैं चिकित्सा-कला सीखना चाहता हूं तो मुझे सबसे पहले मानव-शरीर से और विभिन्‍न रोगों से जुड़े तथ्यों की जानकारी होनी चाहिए. यह जानकारी प्राप्त करने के बाद यह कतई नहीं कहा जा सकता कि मैं डॉक्टर बन गया हूं. इसके लिए मुझे अच्छा-ख़ासा अभ्यास करना होगा; और जब मेरा सैद्धांतिक ज्ञान और अभ्यास दोनों मिलकर अनुकूल परिणाम देने लगेंगे, तभी कहा जा सकेगा कि मैं चिकित्सा-कला में निपुण हो गया हूं. इसका एक सरल पैमाना होगा मेरे इंट्यूशन (अंतर्वोध) का विकास, जो किसी भी कला में सिद्धहस्तता का निचोड़ होता है.

लेकिन सिद्धांत और अभ्यास के अलावा एक तीसरी चीज़ भी होती है जो किसी भी कला में सिद्धहस्तता के लिए ज़रूरी है – और वह है साधना. अपनी कला में सिद्वहस्तता प्राप्त करना मेरे लिए सर्वोपरि होना चाहिए; दुनिया की कोई भी चीज मेरे लिए मेरी कला से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं होनी चाहिए. यह बात जितनी संगीत, चिकित्सा या वस्त्र-डिजाइनिंग के बारे में सत्य है, उतनी ही प्रेम के बारे में भी. और यहां हमें इस प्रश्न का भी उत्तर मिल जाता है कि हमारी संस्कृति में लोग इस कला को सीखने में इतनी कम रुचि क्यों दिखाते हैं – वावजूद इस क्षेत्र में बार-बार विफलताओं के, बावजूद प्रेम के लिए एक गहरी और निरंतर तड़प के ! करीब-करीब हर दूसरी चीज़ प्रेम से ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझी जाती है – सफलता, प्रतिष्ठा, धन, कैरियर- करीब-करीब हमारी सारी ऊर्जा इन्हीं लक्ष्यों की प्राप्ति में व्यय होती रहती है – जबकि प्रेम की कला सीखने की हमारे पास ज़रा भी फुर्सत
नहीं होती !

क्या यह माना जाए कि हम उन्हीं चीज़ों को सीखने योग्य समझते हैं जो हमें धन या प्रतिष्ठा दिला सकें ? जबकि प्रेम – जो सिर्फ़ आत्मा को ‘लाभ’ पहुंचाता है, किंतु आधुनिक दृष्टि से ‘लाभरहित’ है – हमें एक ऐसा व्यसन प्रतीत होता है जिस पर ऊर्जा व्यय करने का हमें अधिकार नहीं है ?

जो भी हो, आगे जो चर्चा हम करने जा रहे हैं, उसमें प्रेम की कला को दो भागों में विभाजित करके समझा जाएगा. सबसे पहले मैं प्रेम के सिद्धांत की चर्चा करूंगा – जिसको पुस्तक का एक बड़ा हिस्सा समर्पित है – और फिर मैं प्रेम के अभ्यास पर बात करूंगा; क्योंकि किसी भी दूसरे क्षेत्र की तरह प्रेम के क्षेत्र में भी अभ्यास को लेकर बहुत ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता.

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