सदाशिव के ध्यान में
एक निहित वक्रोक्ति है
जिस समय तुम
किसी दिशा पटानी के
तिर्यक में
बरमूडा में भटके हवाई जहाज़ सा
गोते लगाते हो
मैं एक आग में झुलसी हुई
स्त्री का चेहरा
अपने हाथों में ले कर
किसी नंदन वन की सैर पर हूं
पूछोगे नहीं मुझसे
कितनी घृणा है मुझे मुझ पर
जितनी मुझे तुमसे है ?
घृणा के इस संतुलन में
प्रेम की किरणें
उस ऊंचे चिनार के माथे पर सुसज्जित है
जिसके नीचे मैं सो जाता हूं
थके हुए योद्धा की तरह
युद्ध के कारण से बेख़बर
एक अदद नून रोटी की तलाश में
मेरे बचपन की भूख बेख़बर थी
उस आवर्ती सच्चाई से
जिसके घाघरे के फैलते दायरे में
समाई हुई है कई जरासंध प्रज्ञा
आधी रात के बाद
सबके अलक्ष्य में
आवर्जना के स्तूप पर सूंघते
भूखे कुत्तों की तरह
निशा चर परिव्राजक
नियति के बुद्ध हैं
या
वेंटिलेटर पर पड़े
नून रोटी की रिपोतार्ज लिखते हुए
बुझते हुए कंदील की रोशनी में
पत्नी के बिके हुए कंगन की चमक देखते हुए
मृत्यु के नृत्य पर थिरकते हुए
संवाद दाता की आख़िरी सांसे हैं
समझेगा कौन ?
मुझे मालूम है कि
यहां पर मैं एक व्यतिक्रम नहीं
एक नियम की ऐसी चर्चा कर रहा हूं
जो तुमसे छीन लेंगी
तुम्हारी रातों की नींदें
अगर तुम्हारे अंदर अब भी बचा हो
आदमी नुमा कुछ
उपरोक्त पंक्तियों में
एक विशाल शिलाखंड में टकरा कर
डूब जाना
समुंदर की अतल गहराइयों में
महज़ एक संयोग नहीं था दोस्त
हम भी लिख सकते हैं मुक़द्दर अपना
वक़्त की तरह
बशर्ते कि यक़ीन हो
वो यक़ीन
जो हरेक झुलसी हुई औरत में है कि
एक दिन मेरे जैसा कोई मिलेगा
और संवारेगा उसे त्वचा के नीचे
तुम्हें लगता होगा कि
मैं भटकता रहा हूं
युद्ध और प्रेम के बीच
लेकिन, मेरे नितांत निजी क्षणों में
दोनों का अर्थ एक ही है
मैं देख रहा हूं
पृथ्वी के एक भाग में
एथेंस के सत्यार्थी को मरते हुए
और दूसरे भाग में
मेरी स्त्री को
संध्या प्रदीप के लिए
रूई के फाहों को
अपनी ऊंगलियों के पोरों पर
कल की उम्मीद सा
उमेठते हुए
चल हट
मौत के बाद
नून रोटी की ज़रूरत क्या है
लेकिन इस अवज्ञा में
सच कहां है
बता सकती हो अदिति ?
- सुब्रतो चटर्जी
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