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मोदी सरकार की चाकरी में गिरता सुप्रीम कोर्ट का साख

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Saumitra Rayसौमित्र राय

जब प्रशासन पर सरकार की पकड़ छूट जाए, जब निकम्मे नेता कुर्सी पर सिर्फ़ इसलिए चिपककर बैठे हों कि देश को राजधर्म से नहीं, धर्म के डंडे से हांकना है. जब यही चिपकू नेता देश की हर अहम संस्था पर भ्रष्ट, नाकारा और चापलूस अफ़सर बिठा दें तो देश में अस्थिरता, अराजकता का दौर आना लाज़िमी है. इस अराजकता के दौर में बहुतों की हालत मैसूर के महाराजा के उस घोड़े की तरह है, जिसे महंगाई और ज़ुल्म के चाबुक से सिर्फ़ हांका जाना है.

अराजकता का असर देश की इकॉनमी पर भी पड़ा है. मोदी सरकार अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से 100 लाख करोड़ का लोन लेकर बैठी है. सरकार देश की हर संपत्ति बेच देना चाहती है, लेकिन कोई खरीदने को तैयार नहीं है. अराजकता और मंदी में कोई पैसा क्यों लगाए ? भारत के विदेशी क़र्ज़ में करीब 2 लाख करोड़ की उधारी उस अमेरिका से भी है, जिसने हमें अल्पसंख्यकों पर हो रहे ज़ुल्म पर आईना दिखाया है.

भारत का जवाब हास्यास्पद है, क्योंकि जर्मनी में जाकर लोकतंत्र और फ्री स्पीच की दुहाई दे आए प्रधानमंत्री की सरकार एक पुलित्ज़र विजेता फोटोग्राफर को पेरिस जाने से रोक देती है, क्योंकि उसे पोल खुल जाने का डर है. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस बार-बार न्याय और संविधान पर आस्था जताने पर मजबूर हैं, क्योंकि विदेशी अदालतों में भारतीय न्याय व्यवस्था की नज़ीरें लगातार घट रही हैं.

सुप्रीम कोर्ट की गिरती अन्तर्राष्ट्रीय साख (ग्राफ देखें)

दिल्ली की कोर्ट से 4 बजे आने वाला आदेश किसके इशारे पर देर शाम को आता है, ताकि मोहम्मद ज़ुबैर को हाई कोर्ट की चौखट पकड़ने से रोका जा सके ? हैरानी नहीं कि चीफ जस्टिस इसे राजनीतिक दलों का एजेंडा बताते हैं लेकिन न्यायपालिका उसी एजेंडे पर चलने को मज़बूर भी है. सत्ता का खौफ़ है. खौफ़ है कि ED, IT की रेड न पड़ जाए.

महाराष्ट्र पर फैसला देने वाले जस्टिस सूर्यकांत पर 2012 में गैरकानूनी प्रॉपर्टी डीलिंग के आरोप लगे थे. 2017 में पंजाब के एक कैदी ने उन पर ज़मानत के लिए रिश्वत के आरोप लगाए. सुप्रीम कोर्ट में जज के रूप में उनकी पदोन्नति पर उसी कोर्ट के एक जज ने आपत्ति जताई थी. कोई जांच हुई ? नहीं. क्या वह भी एक एजेंडा था ? यानी दबाव चौतरफ़ा है. ईमानदार कौन है, जिस पर दबाव नहीं ?

क्या यही दबाव दिल्ली के आईपीएस अफ़सरों पर नहीं है, जो अदालत के फैसले से 4 घंटे पहले आदेश को लीक करते हैं ? जिससे नकारात्मक राय बनाई जा सके ? क्या दबाव देवेंद्र फडणवीस पर नहीं, जो स्टूल मंत्री नहीं बनना चाहते थे, लेकिन अमित शाह की ज़िद पर बनना ही पड़ा ? उनकी हालत भी इसी घोड़े जैसी है. और दबाव NIA पर भी, जिसने उदयपुर के बर्बर कत्ल का मामला तुरंत अपने हाथ ले लिया, क्योंकि क़ातिल बीजेपी का भी करीबी था.

आखिर में दबाव बीजेपी IT सेल पर भी है, जिसने ज़ुबैर को बदनाम करने के लिए टेक फॉग एप का सहारा लेकर 750 फ़र्ज़ी ट्रोल्स तैयार किये और उन्हीं में से एक की शिकायत पर ज़ुबैर की गिरफ्तारी हुई. इस चौतरफ़ा दबाव और एजेंडा के बीच लोकतंत्र के नाम पर सत्ता का म्यूजिकल चेयर चल रहा है. आप सब उसमें नासमझी के कारण फंसते चले जा रहे हैं, थोड़े से हरे चारे के तिलिस्म की आस में. ये हरा चारा सैलरी है, बिज़नेस है, रिश्वत है, ठेका है या फ़िर दलाली. बंधा हुआ घोड़ा बग़ावत नहीं कर सकता.

एजेंडा राहुल गांधी के पीछे भी है लेकिन गांधी परिवार की अकड़ और अहंकार उन्हें उन लोगों-बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकारों से नहीं जोड़ने देती, जिन्हें चारा नहीं चाहिए. देश में नया नेतृत्व खड़ा करने की कोशिश कांग्रेस भी नहीं कर रही है. सिर्फ 4 चैनलों को मददकर देश में समानांतर मीडिया खड़ा कर सकती है-जो अवाम की बात करे. नहीं हो पायेगा कांग्रेस से. बाकी कांग्रेसियों का जय-जयकार भी चारे की आस से कम नहीं है.

हर म्यूजिकल चेयर में आपरेशन लोटस दिखेगा. विपक्ष से कुर्सी छिन जाएगी. छीनी जाएगी लेकिन सिर्फ़ इकॉनमी पर मोदी सरकार मात खा चुकी है. देश उससे नहीं संभल रहा-ये दुनिया जानती है. मगर, इस कमज़ोर नस को दबाने वाला कोई नहीं है.

इसे आप आपातकाल कहें, अमृतकाल या फिर देश के सिर पर खड़ा आफ़तकाल. लोकतंत्र के चारों स्तंभ बुलडोज़र लिए एक-दूसरे को रौंदने के लिए मुस्तैद हैं. एक मौका मिला नहीं कि न्यायपालिका कभी विधायिका को रौंद देती है, तो कभी कार्यपालिका को. बीच में चौथा स्तंभ सत्ता के आगे नतमस्तक मीडिया नागरिक अधिकारों पर बुलडोज़र चला देता है. उधर बुलडोज़र न्याय का ईजाद करने वाली कार्यपालिका जब-तब न्यायपालिका की हद पार कर रौंद देती है. तीस्ता सीतलवाड़ का मामला सामने है।

कल ही लिखा था कि सिर्फ़ एक घंटे में एकनाथ शिंदे की याचिका की जिस कदर छुट्टी के दिन लिस्टिंग हुई, उससे विधायिका के अधिकारों का जमींदोज़ होना अपेक्षित था. और वही हुआ. महाराष्ट्र के डिप्टी स्पीकर बागी विधायकों को अयोग्य नहीं ठहरा सकते. एकनाथ शिंदे को 11 जुलाई तक ज़वाब देना है. एक रात में हुई मामले की लिस्टिंग 15 दिन के खेला में बदल गई.

चलिए कर्नाटक की कहानी सुनाता हूं. साल 2019, यही जुलाई का महीना. राज्य के 15 विधायकों ने पाला बदलकर इस्तीफा दे दिया, जो कांग्रेस-जद (एस) की कुमारस्वामी सरकार में शामिल थे. बागी विधायक सुप्रीम कोर्ट गए और स्पीकर से इस्तीफा मंजूर करने की अपील की. तब रंजन गोगोई चीफ जस्टिस हुआ करते थे.

गोगोई की बेंच ने 3 पेज के अंतरिम आदेश में कहा- इस्तीफ़ा देने वाले विधायकों को विश्वास मत में भाग लेने/न लेने का हक है. स्पीकर केआर रमेश कुमार यह तय करें कि इस्तीफा मंजूर करें या विधायकों को अयोग्य घोषित करें. अगले ही दिन विश्वास मत था. समीकरण यूं था कि 225 सदस्यीय विधानसभा में अगर 15+ निर्दलीय विधायक को अलग कर दिया जाए तो 209 में से कुमारस्वामी के पास 101 और बीजेपी के पास 105 की ताकत थी.

कुमारस्वामी सरकार गिर गई और येद्दियुरप्पा सरकार के राज़ में सरकारी ठेकों की दलाली के रेट 40% हो गए. तब संविधान विशेषज्ञों ने चेतावनी दी थी कि दसवीं अनुसूची पर इस कदर प्रहार दल-बदल कानून को और कमज़ोर करेगा. किसने समझा ? बीजेपी ने इसे संविधान और लोकतंत्र की जीत बताया. इसी संविधान का पोथा लिखकर कुछ लोग ताली पिटवाते हैं और मोदी इसी लोकतंत्र की दुहाई देते हैं.

लोकतंत्र उस भैंस के समान हो चुका है, जिसे कानून के डंडे से कहीं भी हांका जा सकता है- सिर्फ़ सत्ता के लिए. फ़िर डंडा चाहे पुलिस घुमाए या न्यायपालिका. उधर, बाढ़ में 122 से ज़्यादा लाशें उगल चुके असम में रैडिसन ब्लू के 70 कमरों का बिल बढ़ रहा है. होटल ने आगे सारे कमरों की बुकिंग रद्द कर दी है. सूरत के होटल का बिल अभी बकाया है. सरकार कंगाल है. परियोजनाओं का काम आगे बढ़ाने का पैसा नहीं है.

डॉलर के आगे रुपया औंधा पड़ा है. जर्मनी में लंबी फेंकने के बाद प्रधानमंत्री G7 की बैठक में हिस्सा ले रहे हैं. देश संभल नहीं रहा, लेकिन सत्ता चाहिए. सत्ता यानी ताकत और ताकत से आता है पैसा. संगठित लूट, ज़ुल्म, शोषण और आतंक से वसूला गया. प्लेटो के ‘रिपब्लिक’ पर सुकरात ने सही फरमाया था – लोकतंत्र ‘अराजकता का एक सुखद रूप है.’

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