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रूसी क्रान्ति का विकास पथ और इसका ऐतिहासिक महत्व

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रूसी क्रान्ति का विकास और इसका ऐतिहासिक महत्व
रूसी क्रान्ति का विकास पथ और इसका ऐतिहासिक महत्व
Arjun Prasad Singhअर्जुन प्रसाद सिंह

रूस की महान समाजवादी क्रान्ति की अन्तर्वस्तु को ठीक से समझने के लिए वहां के क्रान्तिकारी संगठनों एवं संघर्षों की विकास प्रक्रिया पर गौर करना होगा. दुनिया के मार्क्सवादी चिंतकों और कम्युनिस्ट दलों/ग्रुपों के बीच करीब 35 सालों (1847 से 1882) तक यह धारणा मजबूती से कायम रही कि बड़े उद्योग और विश्व बाजार के अस्तित्व में आने के बाद क्रान्ति किसी एक देश में सम्पन्न करना सम्भव नहीं है. 1847 में एंगेल्स ने कम्युनिस्ट लीग के लिए एक प्रश्नोत्तरी के रूप में दो ड्राफ्ट प्रोग्राम लिखे थे- एक जून माह में और दूसरे अक्टूबर में. इनमें से दूसरे को ‘प्रिंसिपल्स ऑफ कम्युनिज्म’ के नाम से और बाद में ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ के साथ छापा जाने लगा. इसमें एक प्रश्न है- ‘क्या केवल एक देश में इस क्रान्ति का होना सम्भव होगा ?’ इसके जवाब में एंगेल्स साफ शब्दों में कहते हैं- ‘नहीं.’

आगे वे लिखते हैं कि कम्युनिस्ट क्रान्ति केवल एक राष्ट्रीय घटना नहीं होगी, लेकिन सभी सभ्य देशों, कम से कम इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस और जर्मनी में साथ-साथ सम्पन्न होगी. इसके बाद 1871 में ‘पेरिस कम्यून’ का प्रयोग सामने आता है, जिसे तमाम कमजोरियों के बावजूद मार्क्स एक ऐतिहासिक महत्व की घटना का दर्जा प्रदान करते हैं. इस प्रयोग ने न केवल फ्रांस, बल्कि पूरे यूरोप की क्रान्तिकारी ताकतों एवं जनता के बीच ‘सिविल वार’ की ताकत का अहसास कराया. इसके साथ-साथ इसने यूरोपीय सर्वहारा को समाजवादी क्रान्ति के कार्यभार को ठोस रूप में समझना और रखना सिखाया.

इसका सीधा सकारात्मक असर रूस के विभिन्न हिस्सों में चल रहे सामाजिक-क्रान्तिकारी संघर्षों पर पड़ा. परिणामस्वरूप, मार्क्स-एंगेल्स को 1882 में ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ के रूसी संस्करण की भूमिका में यह लिखना पड़ा कि ‘आज जार गातचिना में क्रान्ति का युद्ध बन्दी है और रूस यूरोप में क्रान्तिकारी कार्रवाई का हिरावल बन गया है.’ मालूम हो कि नरोदन्या वोल्या के सदस्यों ने 1 मार्च, 1881 को रूस के शासक एलेक्जेंडर द्वितीय का सफाया कर दिया था और उसका उत्तराधिकारी एलेक्जेंडर तृतीय इनके डर से गातचिना में जाकर छुप गया था. मार्क्स एवं एंगेल्स के उपरोक्त विश्लेषण के बाद अब क्रान्ति का केन्द्र विकसित ‘सभ्य देशों’ से बदलकर रूस जैसा ‘पिछड़ा’ व ‘निम्न पूंजीवादी’ देश बन चुका था.

रूस में जारशाही के अधिनायकवादी शासन के खिलाफ 1870 के दशक में नरोदन्या वोल्या जैसे टुटपुंजिया (पेट्टी बुर्जुआ) प्रवृति के संगठन बनने शुरू हो गये थे. वहां ‘श्रम मुक्ति दल’ नामक पहला मार्क्सवादी ग्रुप सितम्बर 1883 में अस्तित्व में आया, जिसने रूस के अन्दर मार्क्सवादी साहित्य के प्रचार में अहम भूमिका अदा की. इस ग्रुप ने रूस में पहले से स्थापित नरोदवाद की बुनियाद हिला दी. लेनिन के शब्दों में इस ग्रुप ने ‘रूस में सामाजिक-जनवादी आन्दोलन के लिए सैद्धान्तिक आधारों को प्रस्तुत किया और मजदूर वर्ग के आन्दोलन की दिशा में पहला कदम उठाया.’

इसके बाद 1898 में रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (आरएसडीएलपी) का गठन हुआ, जिसने उसी साल अपनी पहली कांग्रेस सम्पन्न की. इसकी दूसरी कांग्रेस के पूर्व लेनिन (जिनका असली नाम ब्लादिमिर इलिच उल्यानोव था) भी इस पार्टी में शामिल हो गए. उन्होंने शुरू से ही इस पार्टी के कई स्थापित नेताओं के गैर मार्क्सवादी विचार के खिलाफ तीखा संघर्ष चलाया. उन्होंने 1902 में अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘क्या करें ?’ को प्रकाशित किया, जिसमें पार्टी के कार्यभार एवं उसके संगठन के बारे में अपने विचार को सामने लाया.

1903 में आयोजित इस पार्टी की दूसरी कांग्रेस में उनके इन विचारों पर तीखे मतभेद हुए और यह दो भागों में विभक्त हो गई- बोल्शेविक (बहुमत) और मेन्शेविक (अल्पमत). बोल्शेविकों का नेतृत्व लेनिन एवं स्टालिन जैसे प्रतिबद्ध मार्क्सवादियों के हाथों में था, जबकि मेन्शेविकों का जूलियस मार्तोव जैसे सुधारवादियों के हाथों में. दोनों ग्रुपों के बीच मुख्य वैचारिक अन्तर्विरोध इस बात पर था कि रूसी क्रान्ति का मुख्य सहयोगी वर्ग कौन होगा. बोल्शेविकों का मानना था कि सर्वहारा के नेतृत्व में सम्पन्न की जाने वाली रूसी क्रान्ति का मुख्य सहयोगी वर्ग किसान होगा, जबकि मेन्शेविक उदार पूंजीपति वर्ग को क्रान्ति का मुख्य सहयोगी मानते थे. हालांकि, दोनों का मानना था कि रूस की क्रान्ति का मुख्य चरित्र ‘बुर्जुआ जनवादी’ होगा.

1903 के बाद बोल्शेविकों और मेन्शेविकों के बीच एकता के कई प्रयास हुए, लेकिन उसमें कोई खास सफलता नहीं मिली. बोल्शेविकों को 1905 में तीसरी पार्टी कांग्रेस अलग से करनी पड़ी, लेकिन 1906 की चौथी कांग्रेस में दोनों ग्रुपों के बीच एक औपचारिक पुनर्मिलन दिखा. फिर जब 1907 की पांचवीं कांग्रेस में रूस में ‘कम्युनिस्ट क्रान्ति की रणनीति’ पर गंभीर चर्चा हुई और इसमें बोल्शेविकों का वर्चस्व स्थापित हुआ तो उनकी दिखावटी एकता भी टूट गई.

दोनों खेमों के बीच वैचारिक-सैद्धान्तिक मतभेद इतने गहरे थे कि अब एकताबद्ध होकर एक पार्टी के बैनर तले काम करना कठिन था. यहां तक कि तीसरे दूमा, यानी रूस की संसद (1907-12) के अन्दर भी दोनों खेमों के प्रतिनिधियों के बीच के वैचारिक-राजनीतिक मतभेद खुलकर अभिव्यक्त हो रहे थे. ऐसी स्थिति में बोल्शेविकों ने 1912 में ‘रूसी सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (बोल्शेविक)’ के बैनर तले अलग काम करने का निर्णय लिया, जिसके सर्वमान्य नेता लेनिन और स्तालिन थे. इसी पार्टी के नेतृत्व में 7 नवम्बर, 1917 को ‘साम्राज्यवाद की कमजोर कड़ी’ को तोड़कर रूस में समाजवादी क्रान्ति को सफल किया गया. इस समाजवादी क्रान्ति की विकास प्रक्रिया को जानने के लिए 1905 की क्रान्ति एवं 1917 की मार्च क्रान्ति के योगदान को जानना जरूरी है.

1905 की क्रान्ति

1905 के पूर्व रूस की आर्थिक-सामाजिक एवं राजनीतिक स्थिति काफी गंभीर हो गई थी. खासकर, मजदूरों, किसानों एवं छात्रों का दमनकारी जारशाही के खिलाफ आक्रोश काफी तेज था. इसमें 1903-04 में हुए रूस-जापान युद्ध में रूस की शर्मनाक हार ने आग में घी का काम किया था. इसी माहौल में पीटर्सबर्ग के ‘अभागे एवं अवमानित’ और ‘दास-निरंकुशता व स्वेच्छाचारिता के बोझ से दबे’ निवासियों (जिनमें शहर के हजारों मजदूर शामिल थे) ने पादरी गपोन के नेतृत्व में 22 जनवरी, 1905 (रविवार) को जार को अपनी अर्जी सौंपने के लिए एक जुलूस निकाला. उनकी अर्जी पर उनकी मुख्य मांगें लिखी थीं –

‘क्षमादान, सामाजिक स्वतंत्रतायें, मुनासिब उजरत, जमीन की धीरे-धीरे जनता को सुपुर्दगी, सार्विक व समान मताधिकार के आधार पर संविधान सभा का समाह्वान।’ इन मांगों के साथ-साथ उस पर यह भी लिखा था कि ‘हमारे सामने केवल दो ही रास्ते हैं-स्वतंत्रता व सुख या कब्र.’

यह प्रदर्शन पीटर्सबर्ग की जनता की राजनैतिक चेतना एवं क्रान्तिकारी संघर्षों के प्रति उनकी उन्मुक्तता का प्रतीक था. जैसे ही उनका यह शांत एवं अनुशासित प्रदर्शन शिशिर प्रसाद के सामने की चौक की तरफ बढ़ा, उन पर सैनिकों एवं कज्जाकों द्वारा क्रूर हमले किये गए. घायल मजदूरों ने उनके सामने घुटने टेक कर अनुनय-विनय किया कि उन्हें जार के पास जाने दें. लेकिन जार के आततायी उनपर दनादन गोलियां एवं तलवार चलाते रहे, जिससे 1,000 से ज्यादा लोग मारे गए और 2,000 से ज्यादा जख्मी हुए. रूस के इतिहास में इस काले दिन को ‘खूनी इतवार’ के’ रूप में जाना जाता है.

जारशाही दमन की इस दिल दहलाने वाली घटना ने ‘ऊंघती हुई रूस की जनता’ को झकझोर कर जगा दिया. इस जघन्य जनसंहार के खिलाफ रूस के मजदूरों ने बड़े पैमाने पर सामूहिक हड़तालें की. 1905 के पहले के 10 सालों के दौरान रूस के मजदूरों ने कुल मिलाकर 4 लाख 30 हजार ऐसी हड़तालें की थीं, जो अकेले 1905 के पूरे साल में यह संख्या बढ़कर करीब 28 लाख हो गई (जबकि उस समय रूस के कुल मिल मजदूरों की संख्या 14 लाख थी). ज्ञातव्य है कि इंग्लैण्ड, अमेरिका एवं जर्मनी जैसे विकसित पूंजीवादी देशों में भी ऐसी जोरदार हड़तालें नहीं हुई थी. विश्व के राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि रूस के मजदूरों ने पहली बार पेरिस कम्यून के दौरान अपनाई गई ‘सिविल वार’ की रणनीति पर गंभीरता से अमल किया.

इसी तरह 1905 के बसंत ऋतु में रूस के विभिन्न हिस्सों में किसानों का राजनीतिक संघर्ष भी तेज हुआ. गांव के किसानों को जगाने में पीटर्सबर्ग के उन मजदूरों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिन्हें कारखानों से निष्कासित कर दिया गया था. वे मजदूर अपने गांव लौटकर न केवल शहरों की लड़ाई के बारे में किसानों को बताते थे, बल्कि उन्हें अपनी मांगों पर भी लड़ने को प्रेरित करते थे.

इसका नतीजा काफी सकारात्मक निकला और किसान इकट्ठा होकर बड़े भूस्वामियों के महलों पर हमला करने, उनकी सम्पत्तियों को आग लगाने और उनके अनाज व अन्य खाद्य पदार्थों को छीनने लगे. उन्होंने जार की पुलिस पर भी हमले किये और उन्हें मौत के घाट भी उतारे. उन्होंने जारशाही से मांग की कि अमीरों की बड़ी-बड़ी जागीरों को जनता के सुपुर्द कर दिया जाये. 1905 के शरद ऋतु (अक्टूबर-दिसम्बर) में उनका आन्दोलन चरम बिन्दु पर पहुंच गया.

किसानों के इस जुझारू आन्दोलन से प्रभावित होकर और पेरिस कम्यून की लड़ाई के सबक को आत्मसात कर दिसम्बर 1905 में मास्को के करीब 8 हजार सशस्त्र मजदूरों ने विद्रोह का बिगुल फूंका. यह विद्रोह 9 दिनों तक चला और इसे जार की फौजों ने क्रूरतापूर्वक कुचल दिया. इस तरह, रूस की 1905 की क्रान्ति दबा दी गई. ऐसा इसलिये हुआ कि उस समय बोल्शेविकों की स्थिति उतनी मजबूत नहीं थी और वे अपनी अलग तीसरी कांग्रेस की तैयारी में लगे हुए थे.

इसके अलावा एक खास बात यह थी कि पीटर्सबर्ग स्थित वर्कर्स डिप्युटिज के सोवियत का नेतृत्व त्रात्सकी के हाथों में था, जो 1905 की क्रान्ति के समय बोल्शेविकों एवं मेन्शेविकों से अलग एक स्वघोषित ‘खेमाविहीन सामाजिक जनवादी’ बन चुके थे. लेनिन के शब्दों में 1905 की क्रान्ति ‘अपने सामाजिक अन्तर्वस्तु में एक बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति थी, लेकिन संघर्ष के कायदे में सर्वहारा क्रान्ति.’

रूस में 1905 की क्रान्ति भले ही विफल हो गई, लेकिन इसने जार को ‘बुलीगीन दूमा’ की जगह ‘विधायनी दूमा’ (जिसमें अपेक्षाकृत ज्यादा लोगों को मत देने का अधिकार मिला) को स्वीकार करने को बाध्य किया. साथ ही, इसने विश्व की जनता को भी कई महत्वपूर्ण सबक दिये –

  1. इसने यूरोप में सबसे बड़े और पिछड़े देश को नींद से जगाया और क्रान्तिकारी सर्वहारा के नेतृत्व में क्रान्तिकारी जनता का निर्माण किया;
  2. इसने तुर्की, फ्रांस एवं चीन समेत सम्पूर्ण एशिया में क्रान्तिकारी आन्दोलन को जन्म दिया, और यहां तक कि भारत के राष्ट्रीयता आन्दोलन को भी प्रभावित किया;
  3. इसने आसन्न यूरोपीय क्रान्ति की ‘प्रस्तावना’ का काम किया; और
  4. इसने पेरिस कम्यून के दौरान अपनाये गए ‘सिविल वार’ की रणनीति की प्रासंगिकता को साबित किया.

मार्च, 1917 की क्रान्ति

इस क्रान्ति को जूलियन कैलेण्डर के अनुसार ‘फरवरी क्रान्ति’ के रूप में जाना जाता है, क्योंकि इस कैलेण्डर के मुताबिक यह 23 फरवरी, 1917 को शुरू हुई थी. हमारे देश में प्रचलित कैलेण्डर के मुताबिक रूस में यह क्रान्ति 8 मार्च, 1917 को शुरू की गई थी. इस क्रान्ति को कुछ राजनैतिक विश्लेषक रूसी नवम्बर समाजवादी क्रान्ति का पूर्वाभ्यास मानते हैं और इसे एक ‘बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति’ की संज्ञा देते हैं.

1905 की विफल क्रान्ति के बाद रूस के साथ-साथ पूरी पूंजीवादी साम्राज्यवादी दुनिया में भयंकर उथल-पुथल मचा, जो आगे चलकर 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के रूप में सामने आया. रूस के अन्तिम जार निकोलस द्वितीय के कार्यकाल में रूस की अर्थव्यवस्था के सभी हिस्से चरमरा गये, हर जगह भ्रष्टाचार का बोलबाला हो गया, खाद्य संकट एक गंभीर रूप धारण कर लिया, किसानों की तबाही एवं मजदूरों की छंटनी एक आम बात हो गई और दूमा जैसी चुनी हुई संस्था मजाक का विषय बन गई. 1905 की क्रान्ति के एक प्रतिफल के तौर पर जो पहली दूमा 27 अप्रैल, 1906 को गठित हुई थी, उसे जार ने 8 जुलाई, 1906 को भंग कर दिया.

दूसरी दूमा का कार्यकाल भी कुछ महीनों का रहा. इसे 20 फरवरी, 1907 को गठित किया गया और 3 जून, 1907 को एक ‘इम्पीरियल डिक्री’ के तहत भंग कर दिया गया. इस दूमा के चुनाव में आरएसडीएलपी के दोनों धड़ों (बोल्शेविकों एवं मेन्शेविकों) ने भाग लिया था और उन्होंने कई सीटें भी जीती थी. इस दूमा को इसलिये भंग कर दिया गया क्योंकि इसने 55 सामाजिक-जनवादी प्रतिनिधियों को सत्र की कार्यवाहियों से बाहर रखने के सरकारी अल्टीमेटम को खारिज कर दिया था.

इसके बाद जार एवं उसके प्रधानमंत्री स्तोलिपिन ने अपनी आपातकालीन शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए दूमा के चुनाव के कानून में इस प्रकार के संशोधन किए ताकि किसानों के मतों की तुलना में भूस्वामियों एवं शहरी सम्पत्ति के मालिकों के मतों के चुनावी मान ज्यादा हों. नजीजतन, 1907 में जो तीसरी दूमा गठित हुई, उसमें भारी संख्या में जीते हुए कुलीनों, भूस्वामियों एवं व्यापारियों के प्रतिनिधियों का वर्चस्व रहा. यह दूमा अपने पूरे कार्यकाल, यानी 5 साल तक कायम रहा और जारशाही इसमें अपने 200 कानूनों को पारित करवाने में सफल हुई.

इस दूमा ने जार के प्रति इतनी स्वामिभक्ति की कि इसे ‘दूमा ऑफ लाडर््स एण्ड लॉकिज’ या ‘द मास्टर दूमा’ की उपाधि से नवाजा गया. चौथी दूमा का गठन 1912 में हुआ, जिसका कार्यकाल मार्च 1917 की क्रान्ति के दौरान समाप्त हुआ. इसका कार्यकाल काफी उथल-पुथल के दौर से गुजरा. 1914 में जब प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ तो इसमें शामिल अधिकांश राजनीतिक दलों ने जारशाही के सहयोगी की भूमिका अदा की. एक बार तो उन्होंने दूमा को युद्ध की अवधि तक भंग करने की भी सलाह दी. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सितम्बर 1915 से फरवरी 1917 तक मात्र 17 महीनों में रूस में क्रमशः 4 प्रधानमंत्रियों की नियुक्तियां हुईं. लेकिन इसके बावजूद जार की सरकार की विश्वसनीयता बरकरार नहीं रही और उसे अन्ततः सत्ता का परित्याग करना पडा़.

उपरोक्त व्यवस्थागत कारकों के साथ-साथ विश्वयुद्ध में रूसी सरकार एवं उसकी सेनाओं की विफलताओं ने भी मार्च 1917 की क्रान्ति को फूटने का सुनहरा अवसर प्रदान किया. अगस्त 1914 में सभी वर्गों एवं राजनैतिक प्रतिनिधियों (केवल बोल्शेविक पार्टी को छोड़कर) ने रूसी सरकार के युद्ध में शामिल होने का समर्थन किया था. विश्व युद्ध की घोषणा के बाद अन्य पूंजीवादी देशों की तरह रूसी समाज में भी राष्ट्रवाद का पुनर्जागरण हुआ था. लेनिन ने इस युद्ध को एक ‘साम्राज्यवादी युद्ध’ कहा था और रूसी जनता के समक्ष ‘साम्राज्यवादी युद्ध को नागरिक युद्ध में बदलो’ का नारा पेश किया था.

इस युद्ध के शुरूआती दौर में रूसी सेना को कुछ सफलता भी मिली, लेकिन जैसे ही युद्ध काफी संगीन हो गया, उसे भारी पराजय का सामना करना पड़ा. जनवरी 1917 आते-आते करीब 60 लाख रूसी या तो मारे गए, घायल हुए या गायब हो गये. सैनिक साजो-सामान और खाद्य पदार्थों की अपर्याप्त आपूर्ति से सैनिक काफी हताश हो गए और वे भारी तादात में सेना से पलायन करने लगे. 1917 की मार्च क्रान्ति के पूर्व के कुछ महीनों में उनके पलायन की संख्या औसतन 34,000 तक पहुंच गई.

युद्ध की विभीषिका और खाद्यान्नों समेत जरूरी चीजों की कमी ने रूस की जनता में तीव्र आक्रोश पैदा किया. ऐसी क्रान्तिकारी परिस्थिति में बोल्शेविकों द्वारा युद्ध के खिलाफ दिये गए ‘शांति, रोटी और जमीन’ के नारे ने जनता को संघर्ष के मैदान में उतारने में अहम् भूमिका अदा की. सबसे पहले 7 मार्च, 1917 को पेत्रोग्राद स्थित सबसे बड़े औद्योगिक प्लांट पुतिलोव के मजदूरों ने हड़ताल की घोषणा की. ये हड़ताली मजदूर 8 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाती महिलाओं के बड़े जत्थे के साथ शामिल हो गए.

उन्होंने साथ मिलकर पेत्रोग्राद की सड़कों पर लाल झण्डों एवं बैनरों के साथ विशाल प्रदर्शन किया. उनके बैनरों पर लिखा था – ‘निरंकुश शासन का नाश हो !’ 9 मार्च को प्रदर्शनकारियों की संख्या बढ़कर करीब 2 लाख तक पहुंच गई और 10 मार्च को विद्रोहियों ने पेत्रोग्राद के प्रायः सभी औद्योगिक प्रतिष्ठानों को बन्द करा दिया. उनकी ओर से जोरदार मांग की गई कि युद्ध तत्काल खतम किये जायें और जार को हटाकर किसी प्रगतिशील राजनैतिक नेता को देश की सत्ता सौंपी जाये.

इससे बौखलाकर जार ने 11 मार्च को सेना को विद्रोहियों को दबाने का आदेश दिया लेकिन सेना ने इस आदेश के खिलाफ विद्रोह कर दिया और वे हजारों की तादात में प्रदर्शनकारियों की जमात में हथियारों के साथ शामिल हो गये. इसके बाद पूरी तरह जार की सत्ता व्यवस्था चकनाचूर हो गई और उसके विश्वस्त सेना प्रमुखों एवं मंत्रियों ने उसे सत्ता छोड़ने की सलाह दी. अन्ततः जार निकोलस द्वितीय ने 15 मार्च, 1917 को सत्ता छोड़ दी और अपने स्थान पर अपने भाई ग्रेंड ड्यूक को सत्ता सौंपने को नामित किया लेकिन ग्रेंड ड्यूक इसके लिए तैयार नहीं हुए और 16 मार्च को रूस की सत्ता की बागडोर दूमा द्वारा नियुक्त ‘अस्थायी सरकार’ के हाथों में आ गई.

इस सरकार के प्रधान के पद पर एक उदार अभिजात राजकुमार जी.वाई.ल्वोव को बिठाया गया, जिसका किसी अधिकृत पार्टी से कोई सम्बन्ध नहीं था. इस सरकार में मुख्यतः बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधि और जमींदार शामिल थे. इसमें पूंजीपतियों की मुख्य पार्टी ‘कैडेट’ को शासक पार्टी के रूप में प्रथम स्थान प्राप्त था. इस पूंजीवादी सरकार में मेन्शेविक के साथ-साथ ‘समाजवादी’ केरेन्सकी (जो सही मायने में निम्न पूंजीवादी जनवादियों के ग्रुप ‘त्रुदोविक’ के नेता थे) भी शामिल हो गये. अवसरवादी केरेन्सकी ने अपने को मार्च 1917 में ‘समाजवादी-क्रान्तिकारियों’ की कतार में इसलिए शामिल किया, ताकि ऐसा करना उसके लिए लाभदायक था.

इस तरह 1917 की मार्च क्रान्ति के बाद रूस में करीब 300 सालों से लगातार चली आ रही ‘रोमानोव’ की सत्ता एवं शासन-व्यवस्था का अन्त हो गया. इस क्रान्ति ने न केवल जारशाही को करारा सबक सिखाया, बल्कि मेन्शेविकों के सुधारवादी एवं बुर्जुआ पक्षीय चेहरे को भी सामने लाया. यह क्रान्ति मूलतः एक शहर केन्द्रित जनविद्रोह की निष्पत्ति थी, जिसमें मजदूरों के साथ-साथ महिलाओं, जार के सैनिकों और यहां तक कि दूमा के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने भी अपनी भूमिकायें अदा की थी. कुल मिलाकर इस बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति ने नवम्बर 1917 की समाजवादी क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया था.

नवम्बर 1917 की क्रान्ति

मार्च क्रान्ति के बाद गठित अस्थायी सरकार ने सभी प्रशासकीय मामलों में अपने नियन्त्रण को स्थापित करने के लिए पेत्रोग्राद सोवियत या वर्कर्स कॉन्सिल, जिसे समाजवादियों ने इस सरकार के 4 दिन पहले ही एक प्रतिद्वन्दी निकाय के रूप में गठित कर ली थी, के साथ मिलकर काम करने की कोशिश की. लेकिन चूंकि मजदूरों और सैनिकों पर सोवियत का नियंत्रण था, इसलिए अस्थायी सरकार उसके सामने बौनी बनी रही. दूसरे, इस सरकार ने ‘जनता की स्वतंत्रता’ का नारा तो दिया, लेकिन खुलकर पूंजीपतियों, जमीन्दारों एवं राजतंत्रवादियों के हित में काम किया. इससे मजदूरों, किसानों एवं सैनिकों में आक्रोश पैदा होना स्वाभाविक था.

इसी बीच 16 अप्रैल, 1917 को जर्मन सरकार के सहयोग से लेनिन पेत्रोग्राद पहुंचने में कामयाब हुए. उन्होंने आते ही साम्राज्यवादी युद्ध एवं उसमें भागीदारी कर रही अस्थायी सरकार के खिलाफ रूस की जनता को जगाना शुरू किया. साथ ही साथ, उन्होंने युद्ध के पक्ष में खड़े प्लेखानोव (जिन्हें रूसी समाजवाद का पितामह कहा जाता है) जैसे ‘सामाजिक अन्धराष्ट्रवादियों’ की भी तीखी आलोचना की. इस सिलसिले में दिये गए उनके भाषणों एवं वक्तव्यों को ‘अप्रैल थीसिस’ के रूप में छापा गया.

लेनिन ने बोल्शेविकों के संगठन एवं आन्दोलन को सही दिशा में संचालित करने का प्रयास किया और इसके लिए ‘शांति, रोटी और जमीन’ के अलावा ‘बिना किसी अनुबद्धता या क्षतिपूर्ति के युद्ध की समाप्ति’, ‘सोवियत को सारी सत्ता’ तथा ‘जोतने वालों को सारी जमीन’ जैसे अर्थपूर्ण एवं प्रभावी नारे दिये. शुरू में बोल्शेविकों एवं रूस की जनता पर इन नारों का अपेक्षित असर नहीं पड़ा, लेकिन जुलाई आते-आते जनाक्रोश उबल पड़ा.

17 जुलाई को करीब 5 लाख लोग पेत्रोग्राद की सड़कों पर आ गये, जिनमें मजदूरों, सैनिकों एवं नाविकों की व्यापक भागीदारी थी. अस्थायी सरकार ने इस स्वतःस्फूर्त जनविद्रोह को बोल्शेविकों के षड्यन्त्र के रूप में समझा और तत्काल उसके प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार करने का आदेश दिया. ऐसी स्थिति में लेनिन को फिनलैंड भागना पड़ा और अन्य बोल्शेविक नेताओं को गिरफ्तारी झेलनी पड़ी. जन विद्रोह की स्थिति से निबटने के लिए 7 मई को एलेक्जेंडर केरेन्सकी को अस्थायी सरकार का प्रमुख बनाया गया.

केरेन्सकी ने अपनी सत्ता सम्हालने के बाद अभिव्यक्ति की आजादी, मृत्यु दण्ड की समाप्ति और हजारों राजनीतिक बन्दियों की रिहाई की घोषणा की. इसके अलावा उन्होंने लोगों को काम और भोजन उपलब्ध कराने का भी वादा किया, जिसे पूरा करने में वे विफल रहे. हालांकि, उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में रूस की भागीदारी को पूर्ववत कायम रखने का निर्णय लिया, जिसका व्यापक स्तर पर विरोध हुआ.

सरकार ने युद्ध विरोधी प्रदर्शनों और अवज्ञाकारी सैनिकों पर कई बार गोलियां चलाईं और पेत्रोग्राद में बोल्शेविकों पर भी सैनिक हमले तेज किये. प्रतिक्रियास्वरूप, किसान एवं सैनिक अस्थायी सरकार से विमुख होकर बोल्शेविकों का साथ देने लगे. 14 से 18 सितम्बर के बीच करीब 7 लाख रेलवे मजदूरों ने सरकार के खिलाफ जबरदस्त हड़ताल की, जिसके दवाब में बोल्शेविकों को जेलों से रिहा करना पड़ा. इसके बाद अक्टूबर में पेत्रोग्राद एवं मास्को की सोवियतों का चुनाव हुआ, जिसमें बोल्शेविकों को बहुमत प्राप्त हुआ. 8 अक्टूबर को त्रोत्सकी को पेत्रोग्राद सोवियत का चेयरमैन बनाया गया.

ऐसे अनुकूल माहौल में बोल्शेविक केन्द्रीय कमिटी ने 23 अक्टूबर को सशस्त्र विद्रोह करने का निर्णय लिया और पेत्रोग्राद सोवियत ने एक ‘सैनिक क्रान्तिकारी कमिटी’ का गठन भी किया. इसके पहले उन्होंने अस्थायी सरकार से यह मांग भी की कि वह सारी राज्य-सत्ता सोवियतों के हाथों में सौंप दे. लेकिन न केवल सरकार, बल्कि मेन्शेविकों एवं सामाजिक क्रान्तिकारी पार्टियों ने इसका विरोध किया.

इस तरह, लेनिन के शब्दों में ‘क्रान्ति के शांतिपूर्ण विकास’ का शायद आखिरी मौका चूक गया, अब बोल्शेविकों के सामने सत्ता दखल का एकमात्र विकल्प था सशस्त्र क्रान्ति के मार्ग पर आगे बढ़ना.’ लेनिन एवं स्टालिन के दिशा निर्देश में बोल्शेविकों ने सशस्त्र विद्रोह की मुकम्मल योजना बनाई और 7-8 नवम्बर की रात में लाल गार्ड की टुकड़ियों, नाविकों एवं पेत्रोग्राद में तैनात फौज के क्रान्तिकारी सैनिकों ने शिशिर प्रसाद (विंटर पैलेस) पर हमला बोल दिया. उस समय वहां अस्थायी सरकार सैनिक स्कूलों के विद्यार्थियों और ‘तूफानी दस्तों’ के हथियारबन्द संरक्षण में टिकी हुई थी.

8 नवम्बर को करीब 4 बजे भोर में अस्थायी सरकार के सदस्यों को बन्दी बना लिया गया और लेनिन ने रूस की समाजवादी क्रान्ति के सफलता की घोषणा की. रूस की नई समाजवादी सरकार ने उसी दिन शांति, जमीन एवं मजदूरों-किसानों की सरकार की स्थापना सम्बन्धी 3 डिक्रियां जारी की. इस प्रकार, विश्व के राजनैतिक पटल पर पहली बार रूस में एक ‘लाल दुर्ग’ की स्थापना हुई.

समाजवादी क्रान्ति के अन्तर्राष्ट्रीय महत्व

  1. रूस की समाजवादी क्रांति न केवल रूस की जनता बल्कि पूरे विश्व समुदाय के लिए एक महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में सामने आई. इस क्रान्ति के पूर्व मानव जीवन के इतिहास में कई क्रान्तियां सम्पन्न हुई है, लेकिन नवम्बर समाजवादी क्रान्ति की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती हैं. इस क्रान्ति ने विश्व के पैमाने पर स्थापित पूंजीवाद को एक गंभीर चुनौती दी और विश्व की शोषित-उत्पीड़ित जनता के समक्ष साम्यवाद के विकल्प को पेश किया. इसने पूरी दुनिया की व्यवस्था को दो भागों में बांट दिया- समाजवादी व्यवस्था और पूंजीवादी व्यवस्था. इसने दुनिया की मेहनतकश जनता को यह रास्ता दिखलाया कि पूंजीवादी व्यवस्था को चकनाचूर करके ही वे अपने दुःख-तकलीफों से सदा-सदा के लिए निजात पा सकते है.
  2. रूसी नवम्बर क्रान्ति ने मार्क्सवादी-लेनिनवादी शिक्षण को व्यवहार के धरातल पर सही साबित किया और इस तरह इसने मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्त को मूर्त रूप दिया. इसने दुनिया की मेहनतकश जनता को दर्शाया कि उनके हितों के अनुरूप बुनियादी क्रान्तिकारी सुधारों को केवल समाजवादी क्रान्ति के जरिये ही पूरा किया जा सकता है.
  3. इस क्रान्ति ने दुनियां के मेहनतकश लोगों के वर्गीय हितों के पक्ष में सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता की ताकत को भी प्रदर्शित किया. इसके प्रभाव में जर्मनी, फिनलैंड, आस्ट्रीया, हंगरी जैसे पूंजीवादी देशों की मेहनतकश जनता को पूंजीवादी-राजतंत्रवादी व्यवस्था को उखाड़ फेकने हेतु प्रेरित किया. हलांकि, इन देशों की त्वरित जन क्रान्तियों को मुख्यतः मजदूर वर्ग की अंदरूनी कमजोरियों और पूंजीपति वर्ग की गद्दारी के चलते करीब एक साल के भीतर ही दबा दिया गया. इसके अलावा जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैड एवं अमेरिका जैसे विकसित पूंजीवादी-साम्राज्यवादी देशों में प्रथम विश्वयुद्ध को तत्काल बंद करने की मांग को लेकर काफी जोरदार आन्दोलन उभरकर सामने आया.
  4. इस क्रान्ति ने वैसे तो दुनियां भर के आन्दोलनों में एक नई ऊर्जा प्रदान की लेकिन खासकर लैटिन अमेरिकी एवं औपनिवेशिक व आश्रित देशों की शोषित-उत्पीड़ित जनता को जगाने में इसने एक अहम भूमिका अदा की. इसने मिस्र, सीरिया, ईराक, लेबनान एवं टर्की में चल रहे मुक्ति संघर्षो को काफी प्रोत्साहित किया.
  5. इसने चीन एवं भारत समेत दुनियां के दर्जनों देशों में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया. चीन एवं भारत में क्रमशः 1920 एवं 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई. रूस की क्रान्ति के बाद गठित समाजवादी राज्य ने न केवल चीन की क्रांति को सफलता की मंजिल तक पहुंचाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की, बल्कि भारत में चल रहे राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम में भी काफी योगदान किया. इस राज्य ने वियतनाम एवं कम्बोडिया की क्रान्ति में भी कई प्रकार की मदद की.

रूसी समाजवादी क्रान्ति का अंतर्राष्ट्रीय महत्व केवल दुनियां की जनता के क्रान्तिकारी आंदोलनों पर पड़ने वाले प्रभावों तक ही सीमित नही है, बल्कि इसका ऐतिहासिक महत्व क्रान्ति और समाजवादी विकास के कुछ मूल भूत नियमों को निर्धारित करने में भी है. इन नियमों को इस प्रकार पेश किया जाता है –

  1. इस क्रान्ति ने साबित किया कि सर्वहारा एक ऐसा क्रान्तिकारी वर्ग है, जिसे इतिहास ने तमाम शोषित-पीड़ित जनता के संघर्षो को नेतृत्व प्रदान करने का दायित्व सौंपा है. इस वर्ग के नेतृत्व के बिना समाजवादी क्रान्ति को सफल नहीं किया जा सकता है और सर्वहारा के अधिनायकत्व के बिना समाजवाद के निर्माण की गाड़ी को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता.
  2. किसी भी शोषक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने और उसकी जगह नवजनवादी या समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के लिए क्रान्तिकारी अगुआ के रूप में एक मजबूत मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी का होना जरूरी है.
  3. सर्वहारा के नेतृत्व में सत्ता दखल करने और समाजवाद के निर्माण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के दौरान शोषक वर्गो एवं उसकी राजसत्ता के हिंसात्मक प्रतिरोध का सामना करना लाजिमी है.
  4. रूस में समाजवाद के निर्माण और घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय अवसरवाद के खिलाफ संघर्ष के दरम्यान मार्क्सवाद का विकास हुआ और साम्राज्यवाद के युग में लेनिनवाद की विचारधारा अस्तित्व में आई. मार्क्सवाद-लेनिनवाद की विचारधारा ने दुनियां की कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ताकतों को दक्षिणपंथी एवं वामपंथी अवसरवाद से निर्मम संघर्ष करने का एक कारगर औजार प्रदान किया.
  5. रूसी समाजवादी क्रान्ति ने दुनिया की मेहनतकश जनता को सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद का पाठ पढ़ाया ताकि वे आपसी तालमेल बिठाकर सभी देशों में शांति जनवाद एवं समाजवाद के लिए चल रहे संघर्षो को विजय की मंजिल की ओर ले जा सकें. इसने द्वितीय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया.
  6. इसने राष्ट्रीयता के जटिल प्रश्न के समाधान का एक मॉडल पेश किया, जिसके तहत राष्ट्रीय उत्पीड़न को समाप्त कर राष्ट्रों के बीच समानता एवं भाईचारा के आधार पर संबंध बनाने का दिशा-निर्देश दिया गया.
  7. इसने सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकार के सिद्धांतों में गुणात्मक विकास किया, जिससे प्रभावित होकर 1946 में संयुक्त राष्ट्र संघ को मानवाधिकारों की सार्विक घोषणा करनी पड़ी. इस घोषणा में कई ऐसे अधिकार शामिल किये गये जिन्हें यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (USSR) के संविधान में काफी पहले शामिल किया जा चुका था.
  8. इस क्रान्ति ने विश्व की जनता के समक्ष ‘दुनिया के मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनगण एक हो’ का एक नया और सटीक नारा दिया. इसने यह सबक सिखाया कि किसी एक देश की क्रान्ति विश्व क्रान्ति का ही एक हिस्सा होती है और रूस की क्रान्ति के बाद यूरोप, एशिया एवं लैटिन अमेरिका के देशों में जो भी क्रान्तियां (जनवादी या समाजवादी) हुई हैं, वे एक दूसरे से अंतर्गुंथित हैं.

इस प्रकार रूस की समाजवादी क्रान्ति ने पूरे विश्व समुदाय को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से काफी प्रभावित किया है लेकिन दुर्भाग्य है कि इसका प्रभाव लंबे समय तक कायम नहीं रह सका. आज की तारीख में दुनियां के किसी भी देश में समाजवादी सरकार एवं व्यवस्था का अस्तित्व नहीं है. समाजवादी रूस एवं चीन में दशकों पूर्व पूँजीवाद की पुनर्स्थापना हो चुकी है और रूस का तो एक साम्राज्यवादी देश में पतन हो चुका है. इतिहास के एक ऐसे मोड़ पर 2017 में रूसी समाजवादी क्रान्ति की 100वीं वर्षगांठ दुनियां भर में मनायी जायेगी. इस सुनहरे अवसर पर हमें रूसी क्रान्ति की उपलब्धियों को याद करने के साथ-साथ इसके पतन के भीतरी एवं बाहरी कारणों की खोज करनी चाहिए.

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