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जम्मू-कश्मीर विवादः संवैधानिक और सैनिक समाधान की विफलता

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जम्मू-कश्मीर विवादः संवैधानिक और सैनिक समाधान की विफलता

अर्जुन प्रसाद सिंह, पीडीएफआइ

भारत के विस्तारवादी शासक वर्गों ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों द्वारा 15 अगस्त, 1947 के सत्ता हस्तान्तरण के बाद ‘आजाद भारत’ के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन की देख-रेख में ‘कश्मीर समस्या’ का एक संवैधानिक समाधान निकाला था. हमारे देश के स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास और परिणाम की जानकारी रखने वाले लोगों को पता है कि जब 15 अगस्त, 1947 को एक समझौता के तहत अंग्रेजों ने भारत को आजाद करने की घोषणा की तो उस समय हमारा देश ब्रिटिश इंडिया तथा प्रिंसली रजबाड़ों में बंटा हुआ था. ब्रिटिश इंडिया के तहत 17 प्रांत थे और भारत के करीब एक तिहाई क्षेत्र में फैली हुई रजबाड़ों की कुल 565 रियासतें थीं. ट्रांसफर ऑफ पावर एक्ट में लार्ड माउंटबेटन ने न केवल भारत और पाकिस्तान को आजाद किया था, बल्कि उन्होंने यह भी घोषणा की थी कि ये सभी रियासतें भी स्वतंत्र हैं और वे अपनी इच्छा के मुताबिक भारत या पाकिस्तान में शामिल हो सकते हैं या आजाद रह सकते हैं. हालांकि, इस घोषणा के बाद माउंटबेटन ने देशी रियासतों को यह चेतावनी भी दी कि अंग्रेजों के जाने के बाद उनकी हालत ‘बिना पतवार की नाव’ की तरह है और अगर उन्होंने भारत में विलय न किया तो इससे उपजी अराजकता के लिए वे खुद जिम्मेदार होंगे. उन्होंने यह भी कहा कि ‘ब्रिटेन की महारानी आप की सुरक्षा की जिम्मेवारी नहीं लेगी, इसलिए बेहतर यह होगा कि आप आजाद होने का ख्वाब न देखें और भारत में विलय को स्वीकार करें.’ इस चेतावनी का असर यह हुआ कि 565 में से 552 रियासतों ने भारत से विलय की संधि पर हस्ताक्षर कर दिया और केवल 13 रियासतों ने पाकिस्तान में शामिल होने का निर्णय लिया.

हालांकि, हैदराबाद, जूनागढ़ एवं जम्मू-कश्मीर की रियासतों को भारतीय संघ में शामिल कराने में भारतीय शासकों को कुछ परेशानियों का सामना करना पड़ा. हैदराबाद की बहुसंख्यक जनता हिन्दू थी, लेकिन वहां का शासक निजाम मुस्लिम था. चूंकि हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय से मना कर दिया तो उसे सैन्य कार्रवाई के जरिये भारत में मिला लिया गया. गुजरात की रियासत जूनागढ़ की भी यही स्थिति थी. वहां के राजा मुस्लिम थे लेकिन ज्यादतर प्रजा हिन्दू थी। वहां भारत सरकार द्वारा फरवरी, 1948 में जनमत संग्रह कराया गया और प्रायः सभी लोगों ने भारत के साथ विलय की इच्छा जाहिर की. इसके बाद जूनागढ़ को भारत में शामिल कर लिया गया।

जम्मू-कश्मीर की स्थिति भिन्न थी. वहां के महाराजा हिन्दू थे और बहुसंख्यक प्रजा मुस्लिम थी. वहां के महाराजा हरि सिंह ने भारत या पाकिस्तान में शामिल होने से मना कर दिया और 15 अगस्त्, 1947 से लेकर 27 अक्तूबर, 1947 तक जम्मू- कश्मीर की स्वतंत्र हैसियत कायम रही. चूंकि भौगोलिक, व्यापारिक और धार्मिक रूप से इस रियासत का ज्यादा जुड़ाव पाकिस्तान से था तथा बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी, इसलिए पाकिस्तान के प्रथम गर्वनर जनरल मुहम्मद अली जिन्ना ने इसे सैन्य कार्रवाई के जरिये पाकिस्तान में शामिल करवाने की कोशिश की, जैसा कि भारत ने हैदराबाद के साथ किया था. चूंकि हरि सिंह से यथास्थिति बहाल रखने का समझौता किया था, इसलिए उन्होंने पाकिस्तानी सेना का सीधा इस्तेमाल नहीं किया. उन्होंने अफरिदी कबाइलियों द्वारा कश्मीर पर हमला करवाया, जिससे घबड़ाकर महाराजा हरि सिंह 25 अक्टूबर, 1947 को श्रीनगर से भागकर जम्मू चले गये.

अगले दिन 26 अक्टूबर, 1947 को भारत सरकार की रक्षा कमिटी की बैठक हुई, जिसमें जम्मू-कश्मीर में सैनिक हस्तक्षेप की व्यावहारिकता पर चर्चा हुई. इस बैठक में माउंटबेटन भी शामिल थे, जिन्होंने कहा कि ‘जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है तो सैनिक हस्तक्षेप कैसे हो सकता है. त्पश्चात, मिनिस्ट्री ऑफ स्टेट्स के सचिव वीपी मेनन ने विमान से जम्मू की यात्रा की. जब वे हरि सिंह के पास पहुंचे तो वे सो रहे थे, चूंकि रात भर की श्रीनगर से जम्मू की यात्रा से काफी थक चुके थे. मेनन ने उन्हें जगाया और ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ (आईओए) पर हस्ताक्षर करने के लिए उन्हें राजी किया. इस तरह 27 अक्टूबर, 1947 को कुछ शर्तों के साथ जम्मू-कश्मीर का भारत में विलय का एक अस्थायी समझौता हो गया. इस समझौता पर लॉर्ड माउंटबेटन और हरि सिंह के साथ-साथ जवाहर लाल नेहरू और शेख अब्दुल्ला ने भी हस्ताक्षर किया. इस समझौते की शर्त्तोंं के मुुुताबिक रक्षा, विदेशी मामले और संचार को छोड़कर सभी अधिकार जम्मू कश्मीर राज्य को दिये गए.

इसके बाद भारतीय सेना हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुंची और पश्तूनी आदिवासी मिलिशिया से इसका मुकाबला शुरू हुआ. चूंकि यह मिलिशिया पाकिस्तानी सेना के हथियारों से लैश थी और पाकिस्तानी सेना भी इस युद्ध में छद्म रूप से शिरकत कर रही थी, इसलिए यह युद्ध अक्तूबर, 1947 से लेकर 30 दिसम्बर, 1949 तक चला. इस बीच संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् ने कश्मीर टकराव के समाधान के लिए प्रस्ताव 39 के तहत एक 5 सदस्यीय मिशन का गठन किया. इस मिशन में अमेरिका के अलावा, अर्जेन्टीना, बेल्जियम, कम्बोडिया और चेकोस्लाविया के प्रतिनिधि शामिल थे. इस संयुक्त राष्ट्र मिशन को भारत एवं पाकिस्तान के बीच शांति बहाल करने और जम्मू कश्मीर के भविष्य के निर्धारण के लिए जनमत संग्रह की तैयारी करने का कार्यभार पूरा करना था. इसे 1 जनवरी, 1949 से दोनों देशों के बीच युद्ध विराम कराने में तो सफलता मिली, लेकिन जनमत संग्रह की तैयारी करने में यह पूरी तरह विफल रहा. इसके बाद 27 जुलाई, 1949 की दोनों देशों की सहमति से जो ‘युद्ध विराम रेखा’ (सीजफायर लाइन) बनी, उसके अनुसार पाकिस्तान के नियन्त्रण वाला भाग ‘पाकिस्तान अकुपाइड कश्मीर’ (पीओके) बन गया और शेष जम्मू, कश्मीर और लद्दाख का हिस्सा भारत के अधीन रहा. इस तरह जम्मू-कश्मीर राज्य का करीब एक तिहाई हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया. 1972 के शिमला समझौता में इसी ‘सीजफायर लाइन’ की ‘लाइन ऑफ कन्ट्रोल’ के रूप में मान्यता दी गई.

चीन से सीमा विवाद

ज्ञात हो कि चीन 1950 के दशक से ही इस राज्य के उत्तर-पूर्वी हिस्से पर अपना कब्जा जमाया हुआ है, जिसे अक्साई चीन के नाम से जाना जाता है. अक्साई चीन जम्मू-कश्मीर राज्य के कुल क्षेत्रफल के 5वें हिस्से के बरबार है, जहां चीनी सरकार तिब्बत पर कब्जा करने के बाद एक राजमार्ग भी बना चुकी है. आज आक्साई चीन चीन के शिनजियांग प्रांत का हिस्सा है जो काश्गर शहर के पास है. चीन और पाकिस्तान ने मिलकर दुनिया की सबसे अधिक ऊंचाई पर काराकोरम राजमार्ग बनाया है, जो समुद्र तल से 4,693 मीटर ऊंचा है और जिसकी लम्बाई 13,000 किलोमीटर है. यह राजमार्ग रणनीतिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह एक ओर चीन के काश्गर शहर को जोड़ता है तो दूसरी ओर पीओके के सोस्त सैन्य चौकी और अन्य महत्वपूर्ण ठिकानों से होते हुए हसन अबदाल के मुकाम पर जीटी रोड से मिलता है। काफी कठिन और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्र में इस राजमार्ग के निर्माण किये जाने (जिसमें 810 पाकिस्तानियों और 82 चीनियों ने अपनी जानें गवाईं) के कारण कुछ समीक्षक इसे ‘विश्व का आठवां आश्चर्य’ का दर्जा देते हैं. गौरतलब है कि अक्साई चीन को लेकर भारत और चीन के बीच गहरा विवाद है और इस क्षेत्र को लेकर 1962 में दोनों देशों के बीच युद्ध भी हो चुका है.

धारा 370 एवं 35ए के प्रावधान

भारत-पाकिस्तान के बीच जम्मू-कश्मीर के सवाल पर छिड़े युद्ध में ‘सीजफायर’ की घोषणा के करीब एक साल पहले ही ‘आजाद भारत’ के प्रथम वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन सपरिवार इंगलैंड लौट चुके थे। उनके बाद सी. राजगोपालाचारी ने अंतिम वायसराय का पद सम्हाला था, जिनका कार्यकाल 26 जनवरी, 1950 (जिस दिन भारत का संविधान लागू हुआ) को समाप्त हुआ.

जब भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को अंगीकृत किया गया तो उसमें धारा 370 को एक अस्थाई प्रावधान की तरह शामिल किया गया लेकिन चूंकि संविधान सभा ने (1957 में भंग होने तक) इस धारा को निरस्त करने या बदलने की कोई सिफारिश नहीं की, इसलिए यह भारतीय संविधान का एक स्थायी प्रावधान बन गया.

धारा 370 में उल्लिखित प्रावधानों के मुताबिक भारत के संसद को जम्मू-कश्मीर के बारे में केवल रक्षा, विदेश मामले एवं संचार के विषय में कानून बनाने का अधिकार है और किसी अन्य विषय से सम्बन्धित कानून को लागू करवाने के लिए केन्द्र को राज्य सरकार से अनुमोदन कराना होगा. इसी विशेष दर्जे के कारण जम्मू-कश्मीर पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती और राष्ट्रपति के पास इस राज्य के संविधान को निरस्त करने का अधिकार नहीं है. भारतीय संविधान की धारा 360 के तहत देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, जिसे जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं किया जा सकता. फिर भारत का शहरी भूमि कानून भी वहां लागू नहीं हो सकता. इसी तरह भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा कहीं भी जमीन खरीदने का अधिकार है और चूंकि जम्मू-कश्मीर विशेषाधिकार प्राप्त राज्य है, इसलिए दूसरे राज्यों के लोग यहां जमीन नहीं खरीद सकते.

जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के सिलसिले में 14 मई, 1954 को राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से धारा 35ए को भारतीय संविधान में जोड़ा गया. इस धारा को संविधान में संसद द्वारा संशोधन कर जोड़ा नहीं गया था, बल्कि नेहरू और शेख अब्दुल्ला के बीच हुए समझौते बाद इसे राष्ट्रपति के आदेश से जुड़वाया गया था. यह खास धारा जम्मू-कश्मीर विधान सभा को राज्य के ‘स्थायी निवासी’ की परिभाषा को तय करने का अधिकार देता है.

राज्य के स्थायी निवासी को इस धारा के तहत कुछ खास अधिकार दिये गए हैं. कोई भी अस्थायी नागरिक जम्मू-कश्मीर में न तो स्थायी रूप से बस सकता है और न ही वहां की सम्पत्ति खरीद सकता है. अस्थायी नागरिकों को वहां की सरकारी नौकरी और छात्रवृत्ति भी नहीं मिल सकती हैं. यहां तक कि वे किसी तरह के सरकारी मद्द के भी हकदार नहीं हो सकते. अगर जम्मू-कश्मीर की कोई महिला किसी अस्थाई नागरिक से शादी कर ले तो उसे भी सम्पत्ति के अधिकार से वंचित होना पड़ता था. हांलाकि, जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट ने अक्तूबर 2002 में एक फैसला दिया है, जिसके मुताबिक अस्थायी निवासियों से शादी करने वाली राज्य की महिलाओं को तो सम्पत्ति में अधिकार मिल सकता है, लेकिन ऐसी महिलाओं के बच्चे सम्पत्ति के उत्तराधिकार से वंचित रहेंगे.

संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका संयुक्त राष्ट्र संघ की भूमिका नेहरू ने जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच छिड़े विवाद के समाधान हेतू 1 जनवरी, 1948 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् से अपील की. सुरक्षा परिषद् ने दोनों देशों के बीच मध्यस्थता के लिए ‘यूनाइटेड नेशन्स कमीशन फॉर इंडिया एंड पाकिस्तान’ (यूएनसीआईपी) का गठन किया और जम्मू-कश्मीर के विलय के प्रश्न को हल करने के लिए ‘स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जनमत संग्रह’ कराने हेतू एक विशेष प्रस्ताव पारित किया. इस प्रस्ताव के जरिये पाकिस्तान को यह निर्देश दिया गया कि वह जम्मू-कश्मीर से युद्ध की नीयत से घुसे अपनी तमाम सैन्य ताकतों को हटा ले. इसमें भारत को निर्देश दिया गया कि वह कश्मीर में अपनी सेना की संख्या को घटाकर उतना ही रखे जितना कानून-व्यवस्था बहाल करने के लिए जरूरी हो.

हालांकि, तथ्य यह है कि दोनों देशों के बीच ‘सीजफायर’ कराने में सुरक्षा परिषद् को सफलता 1 जनवरी, 1949 को मिली. कई अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों का मानना है कि चूंकि दोनों पक्षों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को नहीं माना और युद्ध जारी रहा, इसलिए जनमत संग्रह कराने का मामला टल गया. चूंकि उस वक्त शेख अब्दुल्ला से नेहरू की अच्छी पटती थी, इसलिए उन्हें उम्मीद थी कि इस जनमत संग्रह में जम्मू-कश्मीर की बहुसंख्यक जनता भारत से विलय के पक्ष में मत देगी। यही कारण है कि नेहरू ने जनमत संग्रह के बारे में एक महत्वपूर्ण एवं विवादास्पद वक्तव्य दिया था, जो कलकत्ता से प्रकाशित होने वाली अमृत बाजार पत्रिका में 2 जनवरी, 1952 को छपा था : ‘‘कश्मीर न तो भारत की सम्पत्ति है और न ही पाकिस्तान की. यह कश्मीरी जनता की है. जब कश्मीर का भारत से विलय हुआ तो हमने कश्मीरी जनता के नेताओं से साफ तौर पर कहा था कि हम आखिरकार उनके जनमत संग्रह के आदेश को मानेंगे. अगर वे हमें यहां से बाहर जाने को कहेंगे तो मुझे कश्मीर छोड़ देने में कोई हिचक नहीं होगी.

हमने इस मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र को सुपूर्द किया है और शांतिपूर्ण समाधान का वचन दिया है. एक महान राष्ट्र के नाते हम इससे पीछे नहीं हट सकते हैं. हमने इस सवाल का अंतिम समाधान कश्मीर की जनता के ऊपर छोड़ दिया है, और हम उनके फैसले को पालन करने को कटिबद्ध हैं.’’

जम्मू-कश्मीर के विवाद को शांतिपूर्ण तरीके से हल कराने के लिए सुरक्षा परिषद् ने अपने कनाडियन प्रेसीडेंट मेक नॉघटन को दिसम्बर, 1949 में जिम्मा दिया. उन्होंने प्रस्ताव किया कि पाकिस्तान और भारत अपने नियमित बलों (रेगुलर फोर्सेज) को एक साथ हटाये (सुरक्षा उद्देश्य के लिए जरूरी भारतीय नियमित बलों को छोड़कर), आजाद कश्मीर बलों, कश्मीर राज्य बलों और मिलिशिया को भंग करे और उत्तरी क्षेत्रों के प्रशासन को स्थानीय अधिकारियों के पास संयुक्त राष्ट्र संघ की निगरानी के तहत रहने दे; हालांकि इन क्षेत्रों को भी असैन्यीकरण की प्रक्रिया में शामिल किया जाये. इन सुझावों को पाकिस्तान ने तो स्वीकार किया, लेकिन भारत ने खारिज कर दिया. भारत द्वारा उक्त प्रस्तावों को खारिज किये जाने की कार्रवाई को अमेरिकी नीति नियामकों द्वारा ‘भारतीय हठ’ के रूप में देखा गया. भारत में तैनात तत्कालीन अमेरिकी राजदूत लॉय हेन्डरसन ने निष्कर्ष निकाला कि ‘भारत जान-बूझकर जनमत संग्रह से परहेज कर रहा है.’

इसके बाद सुरक्षा परिषद् ने सर आवेन डिक्सन को भारत-पाकिस्तान के बीच चल रहे जम्मू-कश्मीर विवाद को हल करने का जिम्मा दिया. डिक्सन ने अन्ततः दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के समक्ष निम्न वैकल्पिक प्रस्ताव रखे :

क) शेख अब्दुल्ला और गुलाम अब्बास के बीच एक गठबंधन सरकार बनाई जाये या विभिन्न दलों के बीच विभागों को बांटा जाये;
ख) जनमत संग्रह के पूर्व 6 माह की अवधि के लिए संयुक्त राष्ट्र की देख-रेख में गैर-राजनैतिक लोगों को लेकर एक तटस्थ सरकार का गठन किया जाये, जिसके आधे सदस्य मुस्लिम एवं आधे हिन्दू हों, और
ग) केवल संयुक्त राष्ट्र के प्रतिनिधियों को लेकर एक प्रशासनिक ढांचा स्थापित किया जाये.

नेहरू ने इन सभी सुझावों के प्रति अपनी असहमति जाहिर की, जिस पर डिक्सन ने प्रतिक्रिया व्यक्त की कि यह उनके प्रस्तावों के प्रति भारत की ‘नकारात्मक प्रतिक्रिया’ है. हालांकि, इसके बावजूद उन्होंने दोनों देशों के बीच बीच-बचाव कराने का प्रयास नहीं छोड़ा. उन्होंने दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों को पूछा कि क्या क्षेत्रीय स्तर पर जनमत संग्रह कराया जा सकता है. इस जनमत संग्रह का जो फैसला होगा, दोनों देशों को मानना होगा. भारत ने डिक्सन की इस योजना का समर्थन किया, जबकि पाकिस्तान ने विरोध.

भारतीय समीक्षक राघवन के अनुसार नेहरू ने डिक्सन के समक्ष एक विभाजन सह जनमत संग्रह योजना पेश की थी, जिसमें जम्मू एवं लद्दाख को भारत में और आजाद कश्मीर एवं उत्तरी क्षेत्र को पाकिस्तान में मिला देने और केवल कश्मीर घाटी में जनमत संग्रह की बात कही गई थी. डिक्सन ने इस योजना से सहमति जाहिर की थी. पाकिस्तान का मानना था कि भारत सम्पूर्ण जम्मू- कश्मीर में एक साथ जनमत संग्रह कराने के वायदे से मुकर रहा है. पाकिस्तान के विरोध के बाद डिक्सन ने भारत के समक्ष एक प्रस्ताव रखा कि जब तक जनमत संग्रह कराया जाता है, शेख अब्दुल्ला के प्रशासन को संयुक्त राष्ट्र कमीशन के तहत स्थगित रखा जाये.

भारत ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया. इसके बाद डिक्सन का धैर्य समाप्त हो गया और उन्होंने अपनी असफलता की घोषणा कर दी. उन्होंने अंत में टिप्पणी की कि भारत और पाकिस्तान को कश्मीर विवाद को अपने तरीके से सुलझाने के लिए छोड़ देना चाहिए.

इसके बाद अमेरिका का भारत के प्रति अविश्वास बढ़ा और उसने इस विवाद में पाकिस्तान का खुलकर साथ देना शुरू किया. फिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने इस विवाद को हल करने के लिए डॉक्टर फ्रेंक ग्राहम को अपना प्रतिनिधि बनाया. उन्होंने सर्वप्रथम दोनों देशों से कश्मीर के असैन्यीकरण का प्रस्ताव किया, जिसे पाकिस्तान ने तो स्वीकार किया, लेकिन भारत ने खारिज कर दिया. तब 16 जुलाई, 1952 को डॉ. ग्राहम ने दोनों देशों से अपने-अपने सैन्य बलों की संख्या को कम करने का प्रस्ताव किया. बाद में इस प्रस्ताव में, दोनों देशों की असहमति के मद्देनजर कुछ सुधार किये गए. लेकिन चूंकि सैन्य बलों की संख्या पर सहमति नहीं बनी, इसलिए डॉ. ग्राहम का प्रयास भी विफल रहा.

इसके बाद यूएनसीआईपी को सुरक्षा परिषद् ने भंग कर दिया और 1951 में प्रस्ताव संख्या 91 पारित कर एक संयुक्त राष्ट्र सैनिक पर्यवेक्षक ग्रुप का गठन किया. चूंकि मार्च, 1951 में भारत और पाकिस्तान के बीच करांची समझौता सम्पन्न हुआ जिसके तहत ‘सीजफायर लाईन’ की स्थापना हुई, इस पर्यवेक्षक ग्रुप को सीजफायर के उल्लंघनों पर नजर रखनी थी और उन्हें संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परषिद् को रिपोर्ट करनी थी. फिर 1971 के भारत -पाकिस्तान युद्ध के बाद हुए शिमला समझौता (1972) में कश्मीर में लाइन ऑफ कन्ट्रोल को परिभाषित किया गया. इसके बाद दोनों देशों ने इस पर्यवेक्षक ग्रुप के अधिदेश को महत्व देना बन्द कर दिया. लेकिन इसके बावजूद यह पर्यवेक्षक ग्रुप काम करता रहा, चूंकि संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे भंग करने का कोई प्रस्ताव पारित नहीं किया है.

शेख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी और धारा 370 पर हमला

शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के एक लोकप्रिय नेता थे। उन्होंने महाराजा हरि सिंह के खिलाफ ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की तर्ज पर ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो’ आन्दोलन चलाया था. जब कबाइलियों ने पाकिस्तान सेना की मदद से कश्मीर पर हमला किया था तो उन्होंने उससे मुकाबला करने के लिए कश्मीरी वॉलन्टियर फोर्स भी बनाया था. कबाइली हमले की डर से जब महाराजा हरि सिंह अपने प्रधानमंत्री मेहरचन्द महाजन और परिवार के सदस्यों के साथ श्रीनगर से भागकर जम्मू आ गए तो शेख अब्दुल्ला के वालन्टियरों ने ही श्रीनगर का प्रशासन सम्हाला था. उनकी मंशा थी कि आगे ये वालन्टियर जम्मू-कश्मीर मिलिशिया का आकार ग्रहण करेंगे, जो भारतीय सेना के कश्मीर से वापस जाने के बाद कश्मीर की रक्षा का भार अपने कंधों पर लेंगे. लेकिन जम्मू-कश्मीर की भू-राजनैतिक स्थिति ऐसी बदली कि उनकी मंशा कामयाब नहीं हुई.

जम्मू-कश्मीर के भारत में सशर्त्त विलय के बाद महाराजा हरि सिंह ने शेख अब्दुल्ला को महात्मा गांधी एवं जवाहर लाल नेहरू की सलाह से राज्य के आपात्कालीन प्रशासन का प्रधान बना दिया. बाद में उन्होंने 17 मार्च, 1948 को जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री के रूप में भी शपथ ली. हालांकि, वे कभी नहीं चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर का पाकिस्तान में विलय हो, लेकिन प्रधानमंत्री बनने के बाद भारतीय सत्ता की धर्मनिपेक्षता के प्रति उनके मन में संदेह पैदा होना शुरू हुआ. वे अपनी कैबिनेट की बैठकों में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के तहत जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह कराने पर जोर देने लगे. उनके कैबिनेट में शामिल बक्शी गुलाम मोहम्म्द एवं अन्य मंत्रियों को एहसास हुआ कि वे जम्मू-कश्मीर को एक आजाद देश बनाना चाहते हैं. असंतुष्ट मंत्रियों ने उनकी शिकायत तत्कालीन सदर-ए-रियासत कर्ण सिंह से की और कर्ण सिंह ने जवाहर लाल नेहरू के निर्देश पर शेख अब्दुल्ला को 8 अगस्त, 1953 को प्रधानमंत्री के पद से बर्खास्त कर दिया. साथ ही, उन्हें बहुचर्चित ‘कश्मीर कंस्पिरैसी केस’ में फंसा कर जेल भी भेज दिया गया.

उनकी बर्खास्तगी और गिरफ्तारी के बाद कांग्रेस समर्थक बक्सी गुलाम मुहम्मद को प्रधानमंत्री बनाया गया और उनके द्वारा गठित मिलिशिया में शामिल मुस्लिम सैनिकों को या तो बर्खास्त या गिरफ्तार कर लिया गया. शेख अब्दुल्ला को करीब 11 सालों तक लगातार कैद रखा गया. जब 8 अप्रैल, 1964 को राज्य सरकार ने उनपर लगाये गए सारे आरोपों को हटा लिया तो उन्हें जेल से रिहा किया गया. जेल से छूटकर जब वे श्रीनगर पहुंचे तो वहां की जनता ने उनका जोरदार स्वागत किया. हालांकि, इसके बावजूद उन्हें आगे करीब 10 सालों तक उनके घर में ही नजरबन्द रखा गया. फिर जब प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने शेख अब्दुल्ला के साथ 1975 में समझौता किया, तो उन्हें 25 फरवरी, 1975 को जम्मू-कश्मीर का मुख्य मंत्री बनाया गया. इसके बाद उन्होंने जम्मू-कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय का अधिकार और वहां जनमत संग्रह कराने की मांग को त्याग दिया और जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मान लिया. पुरस्कार स्वरूप, प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने उन्हें मृत्यु पर्यन्त (8 सितम्बर, 1982 तक) मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने दिया.

शेख अब्दुलला की गिरफ्तारी एवं नजरबन्दी के दौरान भारत सरकार द्वारा धारा 370 की मूल भावना को तहस-नहस कर दिया गया. गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर के लिए अलग संविधान बनाने के लिए सितम्बर, 1951 में ‘जम्मू-कश्मीर संविधान सभा’ गठित की गई थी. इसने 17 नवम्बर, 1956 को एक संविधान को अंगीकार किया, जो 26 जनवरी, 1957 से पूरे जम्मू-कश्मीर राज्य में लागू हो गया. इस संविधान के मुताबिक राज्य के प्रधान के रूप में सदर-ए-रियासत और प्रधानमंत्री बनाने की व्यवस्था की गई. इस संविधान सभा द्वारा नियुक्त ‘बेसिक पिं्रसिप्लस कमिटी’ ने सदर-ए-रियासत को विधान सभा द्वारा 5 साल के लिए चुने जाने की सिफारिश की, जिसे संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया. लेकिन कांग्रेस की केन्द्रीय सरकार ने इस व्यवस्था का यह कहकर विरोध किया कि धारा 370 के प्रावधानों के मुताबिक महाराजा हरि सिंह को राज्य के प्रधान के रूप में मान्यता दी गई है.

हालांकि, बाद में केन्द्र सरकार ने इस सिफारिश को स्वीकार किया, लेकन हरि सिंह के पुत्र कर्ण सिंह को ही सदर-ए-रियासत के रूप में निर्वाचित कराया. ज्ञात हो कि इसके पूर्व भी जवाहर लाल नेहरू के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप पर उन्हें 1949 में राज प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त किया गया था. युवराज कर्ण सिंह 17 नवम्बर, 1952 से लेकर 30 मार्च, 1965 तक सदर-ए-रियासत के पद पर विराजमन रहे. इसके बाद जम्मू कश्मीर के संविधान में एक मौलिक संशोधन कर उन्हें राज्य का गवर्नर बना दिया गया। इसी तरह प्रधानमंत्री के पद को भी समाप्त कर दिया गया और कांग्रेसी नेता गुलाम मोहम्मद सादिक (जो मार्च 1965 तक प्रधानमंत्री के पद पर आसीन थे) को राज्य का पहला मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया.

पुनः 1975 में भारत के राष्ट्रपति ने धारा 370 के तहत यह आदेश निर्गत किया कि जम्मू-कश्मीर विधायिका को गवर्नर की शक्तियों में किसी प्रकार का फेर-बदल करने का अधिकार नहीं होगा. यह मामला जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में पेश किया गया और दिसम्बर 2015 में इसने फैसला दिया कि सदर-ए-रियासत के पद में बदलाव करके गवर्नर की बहाली करना गैर-संवैधानिक है. तब से शेख अब्दुल्ला की पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस समेत जम्मू-कश्मीर की प्रायः सभी बड़ी पार्टियां यह मांग करती रही हैं कि जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को 1947 के समझौते के अनुसार बहाल की जाये.

वर्ष 2000 में जब जम्मू-कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस की सरकार बनी तो उसने एक ‘राज्य स्वायत्तता रिपोर्ट’ पारित किया, जिसमें यह मांग की गई कि राज्य की स्वायत्तता को 1953 की पूर्वावस्था के अनुसार पुनर्बहाल किया जाये। तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी की केन्द्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर विधान सभा द्वारा पारित इस मांग को ठुकरा दिया. सच्चाई तो यह है कि 1970 के दशक के मध्य आते-आते जम्मू-कश्मीर को भारतीय संघ के साथ एकीकृत करने हेतू कुल 23 संवैधानिक आदेश निर्गत किये गए और धारा 370 के बावजूद इस राज्य को भारतीय संघ का एक ‘संविधानी इकाई’ कहा जाने लगा.

अभी तक 262 केन्द्रीय कानूनों को जम्मू-कश्मीर में लागू किया जा चुका है। भारत की नौकरशाही के साथ-साथ चुनाव आयोग और न्यायपालिका जम्मू-कश्मीर में अपनी भूमिका अदा कर रही है. वहां की निर्वाचित सरकार को कई बार राष्ट्रपति द्वारा भंग किया जा चुका है. केन्द्रीय चुनाव आयोग केन्द्र सरकार की मर्जी के अनुसार वहां चुनाव कराता रहा है, जिसकी प्रतिक्रिया में आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए संघर्षरत ताकतें विधानसभा एवं लोकसभा के चुनावों का बहिष्कार करती रही हैं.

शेख अब्दुल्ला के भारत सरकार के समक्ष घुटना टेकने के बाद उनकी छवि धुमिल हुई और उनकी मृत्यु के बाद उनके पुत्र फारूख अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री बनाया गया. वे कुल मिलाकर 3 बार मुख्यमंत्री के पद पर आसीन हुए – पहली बार 1982 से 1984 तक, दूसरी बार 1986 से 1990 तक और तीसरी बार 1996 से 2002 तक. उन्होंने 1987 के विधान सभा चुनाव जीतने के लिए नवम्बर 1986 में ही कांग्रेस पार्टी से हाथ मिलाया. उस वक्त केन्द्र की सत्ता पर राजीव गांधी की सरकार काबिज थी. इस चुनावी गठजोड़ से जम्मू-कश्मीर की जनता बड़े पैमाने पर नाराज हुई. जब मार्च 1987 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव कराने की घोषणा हुई तो नेशनल कान्फ्रेंस एवं कांग्रेस ने मिलकर उम्मीदवार खड़ा किये. इस गठजोड़ के खिलाफ मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) बना, जिसने इस चुनाव में फारूख अब्दुल्ला को कड़ी टक्कर दी.

लोकप्रिय कांग्रेस नेता मुफ्ती सईद ने भी काफी चालाकी के साथ एमयूएफ को वोट देने की अपील की. 23 मार्च, 1987 को मतदान हुआ, लेकन इसके पूर्व ही एमयूएफ के कार्यकर्त्ताओं को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार कर लिया गया. इस चुनाव में 80 प्रतिशत मतदान हुआ और 24 मार्च को मतगणना कराई गई. प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इशारे पर मतगणना में काफी धांधली की गई और एमयूएफ के कई जीते हुए उम्मीदवारों को हटा दिया गया. इस चुनाव में सैयद सलाहुद्दीन (जो बाद में हिजबुल मुजाहिदीन के सरगना बने) की भी श्रीनगर की अमीरा कदम सीट से जीत हुई, लेकिन उन्हें धांधली कर हरा दिया गया. करीब एक सप्ताह बाद चुनाव परिणाम की घोषणा हुई, जिसके मुताबिक नेशनल कॉन्फ्रेंस को 40 और कांग्रेस को 26 सीटें प्राप्त हुईं. एमयूएफ को केवल 4 सीटें मिलीं. इस चुनाव परिणाम पर न तो भारतीय और न ही अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया एवं पर्यवेक्षकों को यकीन हुआ.

वैसे तो जम्मू-कश्मीर में 1957, 1962, 1967 एवं 1977 के चुनावों में भी धांधलियां की गईं लेकिन 1987 के चुनाव में जो अप्रत्याशित धांधलियां, खासकर केन्द्र सरकार की देख-रेख में की गईं, उसने सारे रेकॉर्ड को तोड़ दिया. इस चुनाव के बाद एमयूएफ के नेताओं और कार्यकर्त्ताओं को ‘राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में शामिल होने’ के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. केन्द्र एवं राज्य सरकार की मिलीभगत से की गई इन कार्रवाईयों से जम्मू-कश्मीर की व्यापक जनता का भारतीय लोकतंत्र और चुनाव प्रणाली से विश्वास उठ गया. इसकी प्रतिक्रियास्वरूप 1989 में वहां सशस्त्र संघर्ष (मिलिटेन्सी) शुरू हो गया. सैयद सलाहुद्दीन ने नारा दिया- ‘जो ना मिला संदूक से, वो लेंगे बंदूक से.’ फिर हजारों की तादाद में कश्मीरी नौजवानों ने पाक अधिकृत क्षेत्र में जाकर हथियार चलाने की ट्रैनिंग ली. वहां से लौटने के बाद सशस्त्र संघर्ष का ऐसा दौर चला कि हालात राज्य सरकार के नियंत्रण में नहीं रहे. 29 मई, 1977 में अमानुल्ला खान और मकबूल भट के नेतृत्व में बर्मिघम (इंगलैंड) में बना जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) भी ‘कश्मीर की जनता की आजादी’ के इस संघर्ष में शामिल हो गया. आज की तारीख में कश्मीर में जेकेएलएफ की बागडोर यासीन मल्लिक के हाथ में है.

1989 में शुरू किया गया संघर्ष इतना व्यापक और असरदार हो गया कि 1990 में फारूख अब्दुल्ला सरकार को इस्तीफा देनी पड़ी. इसके बाद वहां राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा और मिलिटेन्ट एवं उनके समर्थकों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियें का सिलसिला शुरू हुआ. क्रूर राजकीय दमन के इसी दौर में 9 मार्च, 1993 को 26 धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक संगठनों के एक मोर्चा के रूप में श्रीनगर में ऑल पार्टी हुर्रियत कान्फ्रेंस की स्थापना की गई, जिसने जम्मू-कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए केन्द्र सरकार के खिलाफ ‘राजनैतिक संधर्ष’ चलाने का संकल्प लिया. बाद में इस मोर्चा में कुछ और संगठन भी शामिल हुए.

इस मोर्चा में जमात-ए-इस्लामी के नेता सैयद अली शाह गिलानी, जेकेएलएफ के नेता यासीन मल्लिक और आवामी एक्शन कमिटी के नेता मीरवाइज उमर फारूख भी शमिल हैं. इनमें से गिलानी को कट्टरपंथी व पाकिस्तान समर्थक और उमर फारूख को नरमपंथी व भारत समर्थक के रूप में प्रचारित किया जाता है. यासीन मल्लिक को जम्मू-कश्मीर की जनता के बीच ‘आजादी’ का प्रतीक माना जाता है. गौरतलब है कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस में शामिल होने के बाद जेकेएलएफ ने 1994 में एकतरफा हथियारबन्द संघर्ष छोड़ देने की घोषणा की. हालांकि, हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने आपसी मतभेदों के चलते नवम्बर 2000 में भारत सरकार से एक तरफा ‘युद्ध विराम’ की घोषणा की. इस युद्ध विराम के बाद जम्मू-कश्मीर में कई चुनाव कराये गए, जिसका हुर्रियत कॉन्फ्रेंस ने बहिष्कार किया. साथ ही, भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर विवाद को हल करने के लिए हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के प्रतिनिधियों के साथ कई वार्त्तायें आयोजित कीं. इसके अलावा इसके लिए कई स्वतन्त्र वार्त्ताकार समूह भी बनाये गए.

लेकिन चूंकि भारत सरकार ने वहां की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार की स्वीकृति नहीं दी (जैसा कि कभी नेहरू और जयप्रकाश नारायण ने दे दी थी) और यहां तक कि धारा 370 के तहत दिये गए स्वायत्तता के प्रावधानों की भी अवहेलना की, इसलिए इन वार्त्ताओं का कोई नतीजा नहीं निकला. साथ ही साथ, भारत सरकार जम्मू-कश्मीर की जनता का दिल जीतने के बजाय, वहां सेना के बल पर मनमाना शासन थोपती रही.

नतीजतन, 1947 से लेकर अबतक 12 मिलियन कश्मीरी जनता को शरणार्थी का जीवन जीना पड़ा है, 5 लाख से अधिक लोग मौत के घाट उतारे जा चुके हैं और दसियों हजार महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार बनना पड़ा है. एक विश्वसनीय रिपोर्ट के मुताबिक 1989 से अबतक 95 हजार से अधिक लोग कश्मीरी सेना या पुलिस बलों के हाथों मारे गए हैं, जिनमें से 7,120 की हत्या पुलिस कस्टडी में की गई है. करीब 8,000 कश्मीरियों का कोई अता-पता नहीं है. 11,000 से अधिक कश्मीरी लड़कियों एवं महिलाओं को सैन्य बलों द्वारा यौन हिंसा का शिकार बनाया गया है. केन्द्रीकृत सैन्य दमन अभियान के तहत पिछले 30 सालों में 1,09191 आवासीय घरों एवं दूसरे भवनों को ढाहा जा चुका है.

सैनिक समाधान की कोशिश सैनिक समाधान की कोशिश इतना ही नहीं, भारतीय शासकों ने जम्मू-कश्मीर समस्या का सैनिक समाधान निकालने की भी कोशिश की है. अब तक इस मुद्दे को केन्द्र में रखते हुए भारत-पाकिस्तान के बीच कुल 4 युद्ध और कई सर्जिकल स्ट्राइक हो चुके हैं. पहला युद्ध अक्टूबर, 1947 से 1 जनवरी, 1949 तक हुआ, जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है. दूसरा युद्ध 1965 में 17 दिनों तक चला, जिसके बाद 1966 में रूस के ताशकंद में दोनों देशों के बीच समझौता हुआ. यह समझौता रूस के प्रधान मंत्री की पहल पर हुआ था, जो भारत के प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब खान के बीच लम्बी वार्त्ता के बाद 11 जनवरी, 1966 में सम्पन्न हुआ था. इस समझौते में यह तय हुआ था कि दोनों देश शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और झगड़ों का निबटारा शांतिपूर्ण तरीके से करेंगे.

इसके अलावा यह भी तय हुआ था कि दोनों देश अपनी सेनाओं को 5 अगस्त, 1965 की सीमा रेखा पर पीछे हटा लेंगे और राजनीतिक, आर्थिक एवं व्यापारिक सम्बंध स्थापित करेंगे. इसी महत्वपूर्ण समझौता पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी, 1966 को ही ताशकंद में लाल बहादुर शास्त्री की मौत हो गई. शास्त्री के परिवार के सदस्यों और कई अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों ने उनकी मौत को स्वाभाविक/प्राकृतिक नहीं माना और निष्पक्ष राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय निकायों द्वारा इसकी जांच की मांग की. इतनी महत्वपूर्ण क्षत्ति के बावजूद दोनों देशों ने ताशकंद समझौता की शर्त्तों को नहीं माना और दोनों के बीच 1971 में तीसरा युद्ध छिड़ा.

इस युद्ध में पाकिस्तान को काफी क्षत्ति हुई और उसका एक बड़ा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान उससे अलग होकर बांग्लादेश बन गया. इस युद्ध में अमेरिका और ब्रिटेन ने पाकिस्तान का पक्ष लिया और अमेरिका ने बंगाल की खाड़ी में अपनी नौसेना का 7वां बेड़ा भी भेजा, जो नौसेना के हवाई जहाजों और अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित था. इस अमेरिकी बेड़ा के साथ ब्रिटेन का नौसैनिक बेड़ा शामिल होने जा रहा था लेकिन इसके पहले भारत सरकार के अनुरोध पर सोवियत रूस का ‘फ्लोटिला’ वहां पहुंच गया, जो अण्विक हथियारों से लैस समुद्री जंगी जहाजों, सबमैरिनों और मिसाइलों से पूरी तरह सुसज्जित था. इसने अमेरिकी बेड़ा को घेर लिया और उसके चटगांव या ढाका पहुंचने के रास्तों को रोक दिया. इसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन को पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा और इस तरह भारत की जीत और बांग्लादेश की स्वतन्त्रता सुनिश्चित हुई.

इसके बाद दोनों देशों के बीच चौथा युद्ध हुआ, जिसे ‘कारगिल युद्ध’ के नाम से जाना जाता है. यह युद्ध मई और जुलाई 1999 के बीच हुआ, जिसमें करीब 30,000 भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तान के 5,000 सैनिकों और घुसपैठियों से मुकाबला किया. यह युद्ध तब हुआ जब दोनों देशों के पास परमाणु हथियार मौजूद थे. इस युद्ध में पाकिस्तानी सेना को सीमा पार धकेलने में भारतीय सैनिकों को काफी नुकसान उठाना पड़ा. फिर भी भारत सरकार इसे ‘आपरेशन विजय’ के रूप में प्रचारित करती और मनाती है.

इसके अलावा केन्द्र की मनमोहन सरकार एवं नरेन्द्र मोदी सरकार के कार्यकाल में पाकिस्तान की सीमा पार के ‘आतंकी ठिकानों’ पर कई सर्जिकल स्ट्राइक किये गए. खासकर मोदी राज में 26 फरवरी, 2019 को बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक को काफी प्रचारित किया गया. बालाकोट एयर स्ट्राइक पुलवामा आतंकी हमला (जिसमें सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हो गये थे) के बदले में किया गया था. मोदी सरकार ने दावा किया कि इस स्ट्राइक में 200 से 400 आतंकी मारे गये हैं और उनका प्रशिक्षण केन्द्र ध्वस्त कर दिया गया है. जबकि सच्चाई यह है कि न तो आतंकी प्रशिक्षण केन््रद धवस्त हुआ और न ही कोई आतंकी मारा गया. ऊपर से भारतीय एयर फोर्स का एक जेट विमान भी मार गिराया गया और एक पायलेट को भी पाकिस्तानी सेना ने गिरफ्तार कर लिया (जिसे बाद में बाइज्जत छोड़ दिया गया).

गौरतलब है कि कश्मीर सीमा विवाद के मसले पर 1962 में भारत और चीन के बीच भी युद्ध हो चुका है, जिसकी चर्चा ऊपर की गई है लेकिन, इतने सारे युद्धों और सर्जिकल स्ट्राइकों के बावजूद जम्मू-कश्मीर विवाद का कोई कारगर समाधान नहीं निकाला जा सका.

पांचवें युद्ध की तैयारी पांचवें युद्ध की तैयारी

अंधराष्ट्रवादी-फासीवादी मोदी सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को संसद में भारतीय संविधान की धारा 370 की मूल अन्तर्वस्तु को लगभग समाप्त कर देने का प्रस्ताव पेश कर भारत-पाकिस्तान के बीच पांचवें युद्ध का बीज बो दिया है. अगली शाम को इसने जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन कानून, 2019 को भी पारित करा लिया है. इस कानून के द्वारा जम्मू-कश्मीर को प्राप्त विशेष दर्जा खतम कर दिया गया है. भाजपा एवं आरएसएस काफी लम्बे अरसे से ‘एक देश में एक विधान, एक निशान और एक संविधान’ का नारा लगाती रही है, लेकिन उन्हें 6 अगस्त, 2019 को इस नारा को कारगर बनाने में सफलता मिली है.

अब जम्मू-कश्मीर को अपना अलग संविधान एवं अलग झण्डा रखने का अधिकार नहीं होगा. इस कानून के मुताबिक जम्मू-कश्मीर से राज्य का दर्जा छीनकर उसे दो केन्द्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया हैं – पहला जम्मू-कश्मीर एंव दूसरा लद्दाख. जम्मू-कश्मीर के पास एक निर्वाचित विधानसभा होगी, हालांकि उसके अधिकार काफी कम होंगे. लद्दाख के पास कोई विधान सभा नहीं होगी. मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में लागू धारा 35 ए को भी खतम कर दिया है और अब इस राज्य के बाहर रहने वाले भारतीय नागरिकों को वहां जमीन खरीदने, बसने और सरकारी नौकरी पाने का अधिकार मिल गया है. इसके साथ-साथ, जम्मू-कश्मीर में अपना व्यापारिक साम्राज्य फैलाने के लिए मुकेश अम्बानी एवं अडानी जैसे बड़े कारपोरेट घरानों को भी छूट मिल गई है.

जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्थिति में इतने बड़े बदलाव लाने के पहले मोदी सरकार ने 2 अगस्त को अमरनाथ यात्रियों को घाटी छोड़ने का आदेश दिया, 35,000 सुरक्षा बलों को कश्मीर में तैनात किया और 4 अगस्त को ही कश्मीर को एक बड़े कैदखाने में तब्दील कर दिया. करीब 80 लाख कश्मीरियों को उनके घरों में बन्द कर दिया गया और उनके टेलीफोन, मोबाइल और इंटरनेट सेवायें बन्द कर दी गईं. वहां की दुकानों और अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठानों के साथ स्कूलों, कॉलेजों और यहां तक कि यातायात के साधनों को भी बन्द कर दिये गए. अस्पताल में मरीजों का पहुंचना भी काफी मुश्किल हो गया. इसके बावजूद जब गांवों और कस्बों में भारत सरकार के खिलाफ मिटिंगों और प्रर्दशनों का सिलसिला शुरू हुआ तो बड़े पैमाने पर लोगों की गिरफ्तारियां की गईं.

जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवानों के आग्नेयास्त्र लगभग जब्त कर लिए गए. मोदी सरकार ने कश्मीर के कुल 36 संगठनों को आतंकी संगठन घोषित कर दिया और उनमें से कईयों (जिनमें जमात-ए-इस्लामी एवं जेकेएलएफ भी शामिल हैं) पर प्रतिबंध भी लगा दिया है. गैर सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अबतक करीब 13 हजार कश्मीरियों (जिनमें प्रोफेसर, वकील एवं राजनीतिक नेतागण भी शमिल हैं) को गिरफ्तार कर जम्मू-कश्मीर एवं देश के अन्य राज्यों के जेलों में कैद कर दिया गया है. जम्मू-कश्मीर पुलिस ने स्वीकार किया है कि इन गिरफ्तार लोगों में 144 कम उम्र के किशोर (अवयस्क) भी शामिल हैं, जिनमें से 2 की उम्र 9 और 11 साल की है. एक जांच टीम द्वारा इक्ट्ठा किए गए आंकड़ों के मुताबिक 500 से अधिक नेताओं एवं कार्यकर्त्ताओं (जिनमें हुर्रियत कॉन्फ्रेंस एवं अन्य दलों के नेता ओर दो जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट के वरीय अधिवक्ता भी शामिल हैं) को गिरफ्तार किया गया है और उनमें से दर्जनों पर पब्लिक सेफ्टी एक्ट, जम्मू-कश्मीर जैसे दमनात्मक कानून भी लगाया गया है. यहां तक कि राज्य के पूर्व मुख्य मंत्री  फारूख अब्दुल्ला को भी इसी कानून के तहत जेल भेजा गया है. इनके अलावा दो अन्य पूर्व मुख्यमंत्रियों-फारूख अब्दुल्ला के बेटे उमर अब्दुल्ला और पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की महबूबा मुफ्ती को भी कैद कर लिया गया है.

मीडिया एवं न्यायपालिका की भूमिका मीडिया एवं न्यायपालिका की भूमिका मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर में प्रिंट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया पर कई प्रकार के प्रतिबंध लगा दिये हैं. वहां कुछ अखबार छप तो रहे हैं लेकिन इंटरनेट बंद होने की वजह से उन्हें एजेन्सियों से समाचार नहीं मिल रहे हैं. कश्मीरी टीवी चैनल पूरी तरह बन्द हैं. जम्मू-कश्मीर के प्रायः सभी अखबार अघोषित सेंसरशीप के शिकार हैं, नतीजतन उनके द्वारा प्रकाशित पन्नों की संख्या काफी घट गई है. दिल्ली एवं देश के विभिन्न महानगरों से छपने वाले अखबारों में मोदी सरकार के गुणगान किये जा रहे हैं. वो लिख रहे हैं कि जम्मू-कश्मीर को बिना शर्त्त भारतीय संघ में मिलाने का जो काम नेहरू सरकार को ही पूरा कर देना चाहिए था उसे करीब 70 साल बाद मोदी सरकार को करना पड़ा है. वो यह भी लिख रहे हैं कि धारा 370 को लगभग समाप्त करने और धारा 35 ए को पूरी तरह हटाने से जम्मू-कश्मीर की विकास दर तेज होगी, वहां नये-नये उद्योग लगाये जायेंगे और कश्मीरी नौजवानों को रोजगार मिलेगा, वहां के पर्यटन उद्योग में काफी वृद्धि होगी, वहां की महिलाओं को आर्थिक-सामाजिक-राजनैतिक बराबरी का अधिकार मिलेगा, आदि, आदि. जबकि सच्चाई यह है कि जम्मू- कश्मीर को कैदखाना बना देने और आवाजाही पर रोक लगाने से लाखों टन सेब के फल सड़ गए हैं और पर्यटन उद्योग को काफी नुकसान हुआ है.

फिर जम्मू-कश्मीर राज्य का विकास भी देश के अधिकांश राज्यों, यहां तक कि गुजरात से भी बेहतर है। वहां कृषि मजदूरों की मजदूरी दर गुजरात की तुलना में दो गुनी से अधिक है और वहां गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली आबादी का प्रतिशत भी 12 है, जबकि गुजरात का 22 है. भारतीय अखबार एवं टीवी चैनल जम्मू-कश्मीर में होने वाले मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों को लगभग नजरअंदाज कर रहे हैं. वे वहां के जनता द्वारा किये जा रहे प्रतिरोध की खबरों को भी प्रकाशित/प्रसारित नहीं कर रहे हैं. देशवासियों को इसकी थोड़ी-बहुत खबर बीबीसी एवं अल-जजीरा जैसे चैनलों और न्यूयार्क टाइम्स एवं वाशिंगटन पोस्ट जैसे अखबारों के जरिये मिल जाते हैं. हालांकि, अंतर्राष्ट्रीय प्रेस एवं मीडिया रिपोर्टरों की आवाजाही को प्रतिबंध्ित किया गया है, फिर भी उन्हें मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे कश्मीरी जनता के कई वीडियो को प्रसारित करने में सफलता मिली है.

कश्मीर में अखबारों के प्रकाशन में हो रही दिक्कतों को लेकर कश्मीर टाइम्स के कार्यकारी सम्पादक अनुराधा भसीन ने सुप्रीम कोर्ट में एक अर्जी भी दी है, जिसमें अखबार एवं पत्रकारों की स्वतन्त्रता बहाल करने की अपील की गई है.जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय के बार एसोसियेशन के अध्यक्ष ने एक जांच दल के सदस्यों के समक्ष बयान दिया है कि शांति-व्यवस्था बनाये रखने के नाम पर की जारी अन्धाधुंध गिरफ्तारियों के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील और बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट फाइल करने में काफी मुश्किलों का समाना करना पड़ रहा है. हालांकि, इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट में 5 अगस्त से लेकर 19 सितम्बर, 2019 तक कुल 252 बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट (हेबियस कॉर्पस) फाइल किये जा सके हैं. न्यायालय पहुंचने में हो रही दिक्कतों को लेकर एडवोकेट हुजेफा आहमदी एवं बाल अधिकार कार्यकर्त्ता इनाक्षी गांगुली एवं शांता सिन्हा ने 16 सितम्बर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट में एक पिटिशन दाखिल किया है. इस पिटिसन की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जम्मू-कश्मीर से इस बाबत एक रिपोर्ट मांगी है.

इसके अलावा मोदी सरकार द्वारा धारा 370 के दो महत्वपूर्ण प्रावधानों को हटाने, जम्मू-कश्मीर राज्य को दो हिस्सों में बांटने और कश्मीर की जनता एवं प्रेस की आजादी पर पाबन्दियां लगाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अलग-अलग कुल 20 याचिकाएं दायर की गई हैं. इन याचिकाओं में जिन मुद्दों को उठाया गये हैं, वे भारत जैसी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के वजूद के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं. ये सभी याचिकायें अगस्त के तीसरे सप्ताह तक दायर की गई हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक 5 सदस्यीय बेंच ने इन सभी याचिकाओं की एक साथ सुनवाई 1 अक्तूबर, 2019 को की. फिर इस बेंच ने यथास्थिति बहाल करने का कोई अन्तरिम आदेश नहीं दिया और केन्द्र सरकार एवं जम्मू-कश्मीर प्रशासन को अपने-अपने शपथ पत्र दाखिल करने के लिए 6 सप्ताह से अधिक का समय दे दिया.

इसी सिलसिले में कश्मीर में बड़े पैमाने पर हो रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर दो कश्मीरी नागरिकों द्वारा अमेरिका के टेक्सास (हॉस्टन) कोर्ट में दायर पिटिशन की चर्चा जरूरी है. यह पिटिशन ‘कश्मीर खालिस्तान रेफ्रेन्डम फ्रंट’ की ओर से दायर किया गया है. इस पर सुनवाई करते हुए टेक्सास कोर्ट की ओर से प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह एवं भारतीय सेना के कमान्डर जनरल कवलजीत सिंह ढिल्लन को 20 सितम्बर, 2019 (यानी ‘हाउडी मोदी कार्यक्रम’ से 2 दिन पहले) को एक ‘सम्मन’ (बुलवा) भेजा गया है. इस ‘सम्मन’ की अमेरिकी अखबारों एवं वहां 22 सितम्बर को आयोजित ‘हाउडी मोदी कार्यक्रम’ (जिसमें करीब 50 हजार भारतीय एनआरआई मौजद थे) में काफी चर्चा हुई.

विभिन्न देशों एवं भारतीय दलों की प्रतिक्रियायें विभिन्न देशों एवं भारतीय दलों की प्रतिक्रियायें विभिन्न देशों एवं भारतीय दलों की प्रतिक्रियायें भारत सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 की मूल भावना को ध्वस्त और धारा 37ए को समाप्त करने का दुनिया के अधिकांश देशों, जिनमें अमेरिकी, फ्रांस, जर्मनी, रूस, जापान, अफगानिस्तान, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, आस्ट्रेलिया आदि शामिल हैं, द्वारा समर्थन किया गया है. खासकर, अमेरिका, जो पहले इस मसले पर पाकिस्तान के साथ खड़ा था, के समर्थन का खास महत्व है. यह राजनायिक बदलाव, दुनिया के बदले भू-राजनीतिक समीकरण और दक्षिणपंथी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प एवं फासीवादी नरेन्द्र मोदी की चारित्रिक एकरूपता को प्रदर्शित करता है। गौरतलब है कि हाल में अमेरिका ने जापान, आस्ट्रेलिया और भारत को साथ लेकर ‘क्वाड्रिलेटरल सेक्युरिटी डायलॉग’ (क्वाड) नामक एक सामरिक समूह बनाया है, जिसका मकसद चीन को रणनीतिक रूप से घेरना है. हालांकि, पाकिस्तान के साथ-साथ यूके, चीन एवं तुर्की जैसे देशों ने भारत की इस एकतरफा कार्रवाई का विरोध किया है.

भारत में कार्यरत अधिकांश राजनीतिक दलों ने भी मोदी सरकार की कार्रवाई का समर्थन किया है। एनडीए में शामिल दलों के अलावा कई बड़े विपक्षी दलों ने भी खुलकर समर्थन किया है, मानो अपने को राष्ट्रभक्त साबित करने में उनके बीच होड़ लगी है. ऐसे विपक्षी दलों में आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस भी शामिल हैं. 18 अक्तूबर, 2019 को कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का यह बयान देश के कई अखबारों में छपा है – ‘कांग्रेस ने धारा 370 हटाने के पक्ष में वोट दिया, लेकिन जिस उद्धत तरीके से इसे किया गया, उसका विरोध किया.’ यह बयान कांग्रेस के राजनीतिक दिवालियेपन को दिखाता है. हाल में राहुल गांधी ने भी कश्मीर के मसले पर दिये गए अपने बयान में जो पलटी खाई है, वह उनकी अपरिपक्वता को प्रदर्शित करता है. वो जब कश्मीर की जनता पर लगी पाबन्दियों की जानकारी लेने श्रीनगर एयरपोर्ट पहुंचे तो उन्हें वहीं से वापस कर दिया गया. तब उन्होंने दिल्ली आकर बयान दिया कि कश्मीर में कुछ भी ठीक-ठाक नहीं है जैसा कि केन्द्र सरकार दावा करती है; वहां मानवाधिकारों का बड़े पैमाने पर उल्लंघन हो रहा है.

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने जब उनके इस बयान को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर उद्धृत किया तो राहुल ने कहना शुरू किया कि पकिस्तान के प्रधानमंत्री उनके बयान को तोड़-मरोड़ रहे हैं. साथ में, उन्होंने जोर देकर कहा कि कश्मीर विवाद को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर उठाने की कोई जरूरत नहीं है, यह भारत-पाकिस्तान के बीच का मामला है. वे ऐसा बयान देते हुए भूल गए कि कभी जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘कश्मीर न तो भारत की सम्पत्ति और न ही पाकिस्तान की सम्पत्ति है, यह कश्मीर की जनता की है.’ इसी तरह, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने भी जम्मू-कश्मीर के विशेष राज्य के दर्जे को समाप्त करने की कार्रवाई का समर्थन किया है, जबकि वे खुद दिल्ली को एक पूर्ण राज्य का दर्जा और अधिकार देने की मांग करते रहे हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) से हस्तक्षेप की मांग जनवरी, 1948 में जवाहर लाल नेहरू ने जम्मू-कश्मीर विवाद के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की थी, इस बार पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने गुहार की है. पिछली बार तो यूएनओ ने इस विवाद को सुलझाने की कोशिश की थी, लेकिन इस बार उसने हस्तक्षेप करने की पाकिस्तान की मांग को ठुकरा दिया है. इस संस्था के प्रमुख एंटोनियो गुटरेस ने भारत-पाकिस्तान से अपील की है कि दोनों देश आपसी बातचीत के जरिये कश्मीर विवाद को हल करें. पाकिस्तान ने यूएनओ के मानवाधिकार परिषद् में भारत के खिलाफ प्रस्ताव लाने की कोशिश की, लेकिन किसी देश, यहां तक कि इस्लामिक देशों ने भी उसका समर्थन नहीं किया. संयुक्त अरब अमीरात ने तो साफ शब्दों में कहा कि ‘कश्मीर विवाद भारत का आन्तरिक मामला है. हालांकि, यूएनओ की 74वीं जनरल असेम्बली (जो 17 से 30 सितम्बर, 2019 तक न्यूयॉर्क (अमेरिका) में आयोजित हुई) में चीन के विदेश मंत्री यांग यि ने कहा कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख की स्थिति में किसी तरह का एकतरफा बदलाव गलत है. उन्होंने यह भी कहा कि इस विवाद का समाधान यूएन चार्टर, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के प्रस्तावों और द्विपीक्षीय समझौतों के अनुरूप शांतिपूर्ण एवं समुचित तरीके से किया जाना चाहिए. स्वाभाविक है कि भारत ने उनके इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताई. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प ने कश्मीर विवाद में मध्यस्थ बनने की मंशा जाहिर की है, लेकिन भारत इसके लिए राजी नहीं है.

27 सितम्बर को नरेन्द्र मोदी और इमरान खान दोनों ने यूएन महासभा को सम्बोधित किया. चूंकि मोदी कश्मीर के मुद्दे को आन्तरिक मामला मानते हैं, इसलिए उन्होंने इस मसले को यूएन महासभा में नहीं उठाया. लेकिन इमरान ने अपने भाषण में काफी जोर देकर कहा कि ‘अगर जम्मू-कश्मीर के मामले में यूएनओ/सुरक्षा परिषद् हस्तक्षेप नहीं करता है तो दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध छिड़ सकता है, जिसका नतीजा पूरी दुनिया को भुगतना होगा.’

नरेन्द्र मोदी और अमित शाह तो हाल के दिनों में पाक अधिकृत कश्मीर पर हमला करने एवं पाकिस्तान की ओर जाने वाला पानी को रोकने जैसे भड़काऊ बयान देते रहे हैं. गौरतलब हैं कि अपने-अपने देश की जनता के बीच युद्धोन्माद पैदा करना भारतीय एंव पकिस्तानी शासक वर्गों की जरूरत है. खासकर, मोदी द्वारा अंधराष्ट्रवाद की भावना को भड़काकर चुनावी गोटी खेला जा रहा है. इस तरह भारत-पाकिस्तान के बीच एक नये युद्ध की शमा बंधने लगी है और यह मानने में कोई शक नहीं है कि इस युद्ध से दोनों देशों की जान-माल को भारी नुकसान होगा.

भारतीय अखबारों में छपी खबर के मुताबिक 20 अक्तूबर, 2019 को भारतीय सेना द्वारा पीओके के 4 आतंकी ठिकानों’ पर तोप से हमले किए गए हैं. भारतीय थल सेना प्रमुख विपिन रावत ने दावा किया है कि कम से कम 20 आतंकवादी और 6 से 10 पाकिस्तानी सैनिक मारे गए हैं और कई पाकिस्तानी सैन्य चौकियां ध्वस्त हो गई हैं. जबकि पाकिस्तानी सेना के मेजर जनरल आसिफ गफूर ने भारतीय सेना के उक्त दावे का खंडन किया है और कहा है कि पाकिस्तानी सेना द्वारा की गई प्रतिक्रियात्मक कार्रवाई में कम से कम 9 भारतीय सैनिक मारे गए हैं और कई घायल हुए हैं.

युद्ध विरोधी जन पक्षीय ताकतों का दायित्व

युद्धोन्मादी फासीवादी नरेन्द्र मोदी सरकार के खिलाफ देश की सभी प्रगतिशील एवं जनपक्षीय ताकतों का दायित्व होता है कि वे सर्वप्रथम इस सरकार से 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर के सम्बंध में लिए गए सभी फैसलों को रद्द करने की मांग करें.

इसका सीधा मतलब यह होता है कि केन्द्र सरकार अविलम्ब धारा 370 एवं 37ए को 5 अगस्त, 2019 की पूर्व स्थिति के मुताबिक पुनर्बहाल करे. इसके अलावा वे मांग करें कि वह जम्मू-कश्मीर की जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता दे; वहां तैनात अतिरिक्त सैन्य बलों को वापस बुलाये एवं नागरिक जीवन में सैन्य हस्तक्षेप बन्द करे; सभी विपक्षी नेताओं, राजनैतिक कार्यकर्त्ताओं एवं समर्थकों को बिना शर्त्त रिहा करे; दूरसंचार सेवाओं एवं आवागमन पर लगे प्रतिबंधों को तत्काल समाप्त करे; कश्मीर घाटी में सामान्य स्थिति बहाल करे और इसके पूर्व जम्मू-कश्मीर में प्रखंड कराने का निर्णय वापस लें.

भारत की तमाम सरकारों ने पिछले 70 सालों में जम्मू-कश्मीर की जनता के प्रति देश के शेष भागों की जनता के बीच नफरत का भाव पैदा किया है. ऐसी स्थिति में जनपक्षीय ताकतों का दायित्व बनता है कि वे देश की जनता के बीच जम्मू-कश्मीर की जनता के लिए संवेदना पैदा करें. साथ ही, उन्हें जम्मू-कश्मीर में हो रहे मानवाधिकार उल्लंघन के मामलों के खिलाफ गोलबंद करें. उन्हें आम जनता को समझना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर विवाद का समाधान न तो भारत-पाकिस्तान वार्ता या युद्ध और न ही यूएनओ या अमेरिका के हस्तक्षेप द्वारा संभव है, बल्कि इसका समाधान जम्मू-कश्मीर की जनता को शामिल करके, यानी उनकी इच्छा-आकांक्षा को महत्व देकर ही किया जा सकता है.

5 अगस्त, 2019 को केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा कश्मीर में धारा 370 को निष्प्रभावी किये जाने के बाद से वहां के जनजीवन की क्या स्थिति है, इस पर वहां गये वकीलों और सामाजिक कार्यकत्र्ता द्वारा एक रिपोर्ट पेश की गई है, जिसे यहां click कर पढ़ सकते हैं.

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