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कायरता और कुशिक्षा के बीच पनपते धार्मिक मूर्ख

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कायरता और कुशिक्षा के बीच पनपते धार्मिक मूर्ख

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

मैंने सभी धर्मों की कुप्रथाओं पर लिखा है, मगर हिन्दू या इस्लाम पर लिखना हमेशा क्रिटिकल रहता है क्योंकि एक तो दोनों ही धर्मो में धार्मिक मुर्ख बेहिसाब है और दूसरा वे तथ्य को मानने या सत्य का शोधन करने के बजाय अपनी मूर्खतापूर्ण आस्थाओं को ही सही मानकर जीते हैं. अतः इनकी कु-प्रथाओ पर लिखने पर अनेक बार धमकियां मिलती है. ये तर्क नहीं दे सकते इसलिये धमकियां देते हैं (हिन्दू और मुस्लिम विद्वानों को मेरी इस बात पर विशेष ध्यान देने की जरुरत है) क्योंकि आज मैं फिर से लिख रहा हूं !

जैसे ‘पृथ्वी स्थिर हैं’ (बाइबिल के अनुसार), यह गैलिलियो के प्रामाणिक सिद्धांत से असत्य साबित हुआ. साथ में यह भी कि जब पृथ्वी स्थिर ही नहीं है तो ईसा मसीह भी परमेश्वर का पुत्र नहीं हो सकता क्योंकि बाइबिल के अनुसार इन दोनों में बड़ा गहरा आपसी नाता है. अतः एक के गलत सिद्ध होने पर दूसरा स्वतः ही असत्य सिद्ध हो जाता है और इसे बहुत ज्यादा – कट्टर ईसाइयों को छोड़कर – ज्यादातर ईसाईयों ने स्वीकार भी कर लिया है. और इसीलिये वे धार्मिक जीवन या धर्म के अनुसार जीने के बजाय, अच्छा जीवन जीने में यकीन करते हैं और शायद इसीलिये वे विज्ञान के सबसे ज्यादा करीब हो चुके हैं.

ठीक ऐसे ही ज्यादातर सभी जैनी अपने धर्म में फैली कुरीतियों को आसानी से स्वीकार करते हैं और ‘कुरितियों में सुधार करने की जरुरत हैं’ ऐसा मानते हैं. इससे परिवर्तन की उम्मीद बंधती है, हालांकि कुछ लोग या समुदाय मूर्खता की हद तक कट्टर है लेकिन फिर भी वे परिवर्तन को स्वीकार कर लेते हैं. ये शायद जैनों में शिक्षा के प्रति जागरूकता का कमाल है इसलिये उनसे सुधार की अपेक्षा और परिवर्तन की उम्मीद रखी जा सकती है.

मुस्लिमों का तो धर्म ही कुरीतियों और कुप्रथाओं पर बना था और उसमें ईशनिंदा कानून घाव में मवाद की तरह शामिल किया गया. अर्थात आज के समय में सबसे ज्यादा रूढ़िवादी और मुर्ख अनुयायियों वाला धर्म इस्लाम है और इसके सारे नियम मानवता के साथ-साथ प्राणिमात्र के विरोधी हैं. अपनी मूर्खतापूर्ण आस्थाओं में जकड़ा हुआ ये धर्म आज भी एक ऐसी किताब के हिसाब से टिका है, जो 7वीं सदी में लिखा गया और जिसके मूर्खतापूर्ण नियमों में आज तक कोई भी परिवर्तन समय के अनुसार नहीं हुआ (हालांकि कुछ सुधारवादी मुस्लिम ‘सुधार’ की बातें तो करते हैं लेकिन उच्च शिक्षित होने के बाद भी ये लोग उस मूर्खता के पुलंदे को मनुष्य द्वारा लिखा हुआ मानने से इन्कार करते हैं, जबकि मेरा मानना है कि दुनिया के सारे साम्प्रदायिक या धार्मिक ग्रन्थ उस धर्म के लोगों द्वारा अपनी-अपनी सुविधानुसार लिखे गये हैं. और जब तक वे इस बात से सहमत नहीं होंगे तब तक वे आधुनिक और प्रगतिशील होने का दावा तक नहीं कर सकते (ये बात वे जितनी जल्दी समझ लेंगे, उतना उनके लिये अच्छा रहेगा).

अब बचे हिन्दू, जो गाहे-ब-गाहे आजकल संस्कृत को सबसे प्राचीन और सभी भाषाओं की जननी बताते नहीं अघाते लेकिन वे धार्मिक मुर्ख ये नहीं जानते कि नये अनुसंघान से ये पता चला है कि संस्कृत (जिसे देवभाषा कहा जाता है और जिसमें हिन्दू धर्म में बड़े-बड़े ग्रन्थ भी रचे गये हैं) भाषा इण्डोयूरोपीय (भारतीय-यूरोपीय और भारतीय-फारसी यानि ईरानी) कुल की भाषा है. अर्थात दो भाषाओं के मिलन से बनी है. और जो भाषा दो भाषाओं के मिलन से बनी हो वो समस्त भाषाओं की न तो जननी हो सकती है और न ही सबसे प्राचीन हो सकती है क्योंकि कम-से-कम दो ऐसी भाषायें तो इससे भी पुरानी थी, जिनसे ये भाषा जन्मी (हालांकि भाषा के संसार में संस्कृत बहुत बाद में जन्मी. उससे पहले सैकड़ों भाषायें प्रचलन में थी और संस्कृत के पैदा होने तक तो उनमें से कई भाषायें विलुप्त भी हो चुकी थी).

असल में ये विदेशी आर्यों के स्थानन्तर से उपजी भाषा है और शायद यही कारण है कि भारत की कुल जनसंख्या के 96 प्रतिशत लोग न तो संस्कृत समझते हैं और न ही बोल पाते हैं. पुराने समय में आर्यों के प्रति घृणा के कारण उनकी भाषा के प्रति भी नफरत का रवैया शायद आम लोगों के जनमानस में था, इसीलिये संस्कृत दूसरों के मन में जगह नहीं बना पायी. और आज तो ये साबित तथ्य है कि संस्कृत विदेशी भाषा है और जब भाषा विदेशी है तो इसको बोलने वाले तो देशी हो ही नहीं सकते थे. इससे ये भी साबित हुआ कि आर्य विदेशी थे और हिन्दू उन्हीं विदेशियों की फ्यूजन वंशों की संतानें हैं अर्थात किसी में भी शुद्ध रक्त नहीं है (जिसका दम्भ ज्यादातर हिन्दुओं को है और इसी से वे दुसरो में अपनी श्रेष्ठता साबित करते फिरते हैं, जबकि अब तो आने वाले कुछ वर्षों में ये विज्ञान के आधार पर सिद्ध हो जायेगा, क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से विश्व भर के वैज्ञानिकों ने पूरी दुनिया के लोगों के अलग-अलग डीएनए को वर्गीकरण के आधार पर जांच कर उनके डीएनए का मूल आरएनए रिकॉर्ड कर रहे हैं, अर्थात कुछ वर्षों में अपने डीएनए के आधार पर हम गूगल से भी जान सकेंगे कि हमारा मूल वंश कौन-सा है).

मूर्खता की मिसाल पेश करते हुए मेरे एक हिन्दु मित्र ने लिखा कि ‘मुझे लगता है मुसलमानों को मुल्क की शांति के लिये बाबरी मस्जिद का दावा छोड़ने के साथ-साथ अपनी नागरिकता भी छोड़ देनी चाहिये. सरकारी नौकरियों को भी छोड़ देना चाहिये. काशी-मथुरा की मस्जिदों को भी छोड़ देना चाहिये. निकाह, तलाक, कब्रिस्तान भी छोड़ देना चाहिये. अगर इस्लाम धर्म ही छोड़ दें तो मुल्क में ज्यादा शांति होगी !!’

तो मेरा उनको कहना है कि – जनाब ये वाला स्लोगन तो बाकी रह गया कि ‘दुनिया छोड़ दे तो परम शांति हो जायेगी’ (खैर ये तो ठिठोली कर रहा हूं, असल प्रत्युत्तर तो निम्नोक्त है) यथा –

अरे साहब ! जिन्हें दूसरों की चीजें हड़पने का चस्का लग जाये तो फिर आप कितने ही दावे छोडो लेकिन वो अपनी आदत नहीं छोड़ेंगे. अतीत में जैन मंदिरों को भी ऐसे ही कब्जाया था. जैनों ने भी उन मंदिरों के दावे को छोड़ दिया और चूंकि वे सक्षम थे, अतः सोचा हम दूसरे बना लेंगे लेकिन क्या इनकी आदत बदली ?

नहीं बदली बल्कि ये और ज्यादा ढ़ीठ हो गये और फिर इन्होंने बौद्ध विहारों पर कब्जा कर अपने आश्रम और मठ स्थापित किये. बौद्धों ने भी अपने दावे के साथ-साथ देश भी छोड़ दिया लेकिन क्या इनकी आदत बदली ?

नहीं बदली बल्कि इससे इनके दिमाग में ये वहम बैठ गया कि हम सबसे ज्यादा ताकतवर हैं इसीलिये होगा वही जो हम चाहते हैं. और इसीलिये अब ये एक मस्जिद पर कब्जा कर रहे हैं, बाद में और दूसरी का भी नंबर लगेगा (मैं सोचता हूं कि चाहे उन्हें कैसे भी बनाया गया हो मगर अब लोकतंत्र है, राजतन्त्र नहीं. अतः जैसा है वैसा ही यथावत रहता है. चाहे अतीत में वो मंदिर को तोड़कर बनायी गयी हो या किसी को मारकर बनायी गयी हो, इससे अब कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि अब उसमें इस तरह से बदलाव करना संभव नहीं है). और आप कह रहे हैं मुस्लिम भी दावा छोड़ दे, देश, नागरिकता इत्यादि छोड़ दें ? लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि इसके बाद वे बदल जायेंगे ?

ये नहीं बदलेंगे क्योंकि जैसे जब किसी हिंसक जानवर के मुंह इंसानी खून लग जाता है तो उसे इंसानों को मारने में मजा आता है न, वैसे ही ये जमीनखोर हो गये हैं और इन्हें दूसरों की जमीन कब्जाने में अब मजा आता है. कल तक इनके शिकार जैन और बौद्ध थे, आज मुस्लिम हैं, कल कोई और होंगे (याद रखियेगा मेरी बात) और अगर इन्हें अभी नहीं रोका गया तो ये लाइलाज रोग की तरह अनियंत्रित हो जायेंगे और फिर इतिहास और ऐतिहासिक धरोहरों को ऐसे मिटा दिया जायेगा, जैसे वे कभी थे ही नहीं !

नोट : किसी मनुष्य या धर्म को नीचा दिखाना. अपमान करना या अपना ज्ञानाभिमान प्रदर्शित करना इस पोस्ट का कतई उद्देश्य नहीं. 21 वीं सदी में भी यदि हम वैज्ञानिक तर्क से धर्म या मजहब को दूर रखने का प्रयत्न करते हैं तो क्या यह महामुर्खतापूर्ण कार्य नहीं है ?

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