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न्यूज चैनल : शैतान का ताकतवर होना मानवता के लिये अच्छी बात नहीं

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हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
अधिकतर न्यूज चैनल यही खतरनाक खेल कर रहे हैं. उन्होंने खबरनवीसी का अर्थ सिरे से ही बदल दिया है. इसे सीधे-सीधे दलाली कह सकते हैं. न्यूज चैनलों का इतना विस्तार हुआ, उनकी ताकत में इतना इज़ाफ़ा हुआ ?शैतान का ताकतवर होना मानवता के लिये अच्छी बात नहीं.

कभी-कभी अफसोस होता है कि विज्ञान ने इतनी उन्नति की ही क्यों कि टेलीविजन का आविष्कार हुआ और फिर एक दिन उस पर न्यूज चैनलों की शुरुआत हो गई. अब टीवी है, उस पर न्यूज चैनल हैं और प्राइवेट संस्थानों को न्यूज चैनल चलाने की छूट है तो खबरनवीसी की आड़ में दलाली तो होगी.

टीवी आने के बाद ज़िंदगी में कई रंग जुड़े. अच्छा लगा. शुरू-शुरू में ब्लैक एंड व्हाइट टीवी पर फिल्में और चित्रहार देखना कितना मनोहारी लगता था. क्रिकेट मैच देखते तो स्टेडियम में होने की फीलिंग आती. टीवी के पर्दे पर क्रिकेटरों को बॉलिंग-बैटिंग करते देख हम रोमांचित हो जाते. तब सरकारी न्यूज चैनल थे सिर्फ. भले ही वे सरकारी भोंपू थे, लेकिन पब्लिक को बरगलाने की उनकी सीमा थी.

फिर, टीवी रंगीन हुआ और प्राइवेट चैनलों का आना शुरू हुआ. हम अचंभित से रह गए यह जान कर कि ऐसे चैनल भी आ गए हैं जिनमें चौबीसों घण्टे सिनेमा ही दिखाता है. उसके बाद तो इतनी तेजी से परिदृश्य बदला कि एक से एक खेल चैनल, फिल्मी गानों का चैनल, देसी चैनल, विदेशी चैनल…पता नहीं किस-किस तरह के कितने चैनल. देखते ही देखते हमारी टीवी में दो-ढाई सौ चैनल चलने लगे. रिमोट का बटन दबाते जाइए. अभी अटल जी का भाषण हो रहा है, अगला बटन दबाइये. सचिन तेंदुलकर चौका मार रहा है, अगला बटन, हेमा मालिनी नाच रही है. फिर अगला बटन, पुदीने की चटनी कैसे बनाएं. अगला, टॉम क्रूज धड़ाधड़ गोलियां बरसा रहा है. फिर अगला… फिर अगला. पूरी दुनिया हमारे सामने. अलग-अलग रंगों में, अलग-अलग प्रभाव छोड़ते हुए.

टीवी ने उपभोक्तावाद को बेतरह बढावा दिया. विज्ञापन हमारी ज़िंदगी के अंग बन गए. हमारे नायक कारपोरेट के एजेंट बन कर हमें तरह-तरह की चीजें बेचने लगे. हम लालच से पराभूत हो कुंठाओं में जीने लगे कि यह नहीं लिया तो जीवन क्या जिया. उपभोक्तावाद के बहाव में समाज में खुदगर्जी और अमानुषिकता बढ़ने लगी. लालच ने भ्रष्टाचार को कई गुना बढाया. बिकने के लिये लोग उतावले होने लगे. तरह-तरह की ख़रीदगी, तरह-तरह से बिकना. लेकिन, मामला तब बहुत अधिक बिगड़ने लगा जब न्यूज चैनलों की बाढ़ आ गई. यह बहुत संवेदनशील मसला था जिसे न सरकार संभाल सकी, न समाज संभाल सका.

प्रिंट मीडिया बहुत पहले से हमारे जीवन का हिस्सा था. छपे हुए अक्षरों की विश्वसनीयता थी. कोई अखबार अगर किसी निहित उद्देश्य से किसी खबर को तोड़ता-मरोड़ता था तो भी उसकी बहुत महीन सी प्रक्रिया थी. गिरते-गिरते भी प्रिंट मीडिया का एक स्तर था.

टीवी के प्राइवेट न्यूज चैनलों ने न सिर्फ खबरों की परिभाषा बदल दी बल्कि पत्रकारिता के मायने ही बदल दिए. पत्रकारिता की आड़ में दलाली प्रिंट मीडिया के दौर में भी चलती थी लेकिन थोड़ी-बहुत इज़्ज़त बचा कर. टीवी न्यूज चैनलों ने पत्रकारिता की इज़्ज़त उघाड़ दी. अपवाद वे ही रहे जिन्होंने अन्य वस्त्र तो उतारे, बस चड्ढी रहने दी.

सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि न्यूज चैनल मानसिकता का निर्माण करते हैं. वे अपनी ताकत और अगले की कमअक्ली को समझते हैं. तो, वे अपनी ताकत बेचते हैं और देखने-सुनने वालों की कमअक्ली का लाभ उठाते हुए उसके मानसलोक पर अधिकार कर लेते हैं. ऐसे देश और समाज में, जिसमें आमलोगों की शिक्षा का स्तर अतिसामान्य हो, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की यह ताकत बहुत खतरनाक होती है. यह पूरी पीढ़ी को अपने हित-अहित से बेख़याल, बेपरवाह बनाती है.

हमारे देश में अधिकतर न्यूज चैनल यही खतरनाक खेल कर रहे हैं. उन्होंने खबरनवीसी का अर्थ सिरे से ही बदल दिया है. इसे सीधे-सीधे दलाली कह सकते हैं, हालांकि आड़ खबरनवीसी की ही है. आम लोगों की मानसिकता को दूषित करने में उन्होंने जितनी सफलता पाई है उतनी तो प्रोपेगेंडा का कोई अन्य स्रोत हजार सालों में भी न कर पाए.

इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है कि न्यूज चैनल किसके लिये दलाली कर रहे हैं. अगर आकाओं के उद्देश्य देश और समाज के लिये, मानवता के लिये खतरनाक हैं तो फिर मामला बेहद संगीन हो जाता है. तब, अक्सर अफसोस होने लगता है कि ऐसा हुआ ही क्यों कि न्यूज चैनलों का इतना विस्तार हुआ, उनकी ताकत में इतना इज़ाफ़ा हुआ ?शैतान का ताकतवर होना मानवता के लिये अच्छी बात नहीं.

इससे अच्छा तो वही था, जब हम बच्चे थे. हमारे गांव में अखबार 12 बजे दिन को पहुंचता था. पिताजी विकल इंतजार करते रहते थे. अच्छी-अच्छी पत्रिकाएं, अच्छे-अच्छे विचार, अच्छे संस्कार.

आज लगता है, कैसा था वह दौर, जब धर्मवीर भारती, कन्हैया लाल नंदन, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, अज्ञेय, राजेन्द्र माथुर, प्रभाष जोशी, राजकिशोर जैसे-जैसे लोग उन अखबारों, पत्रिकाओं के संपादक होते थे, जिन्हें हम पढ़ते थे, खबरों के लिये, विश्लेषणों के लिये जिन पर हम निर्भर रहते थे. उदारवाद, वैश्वीकरण, संचार क्रांति और अविश्वसनीय तरीके से तीव्र तकनीकी विकास ने दुनिया को बेहद आगे बढ़ा दिया है लेकिन मानवता को रिवर्स गियर में डाल दिया है.

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