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स्युडो साईंस या छद्म विज्ञान : फासीवाद का एक महत्वपूर्ण मददगार

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स्युडो साईंस या छद्म विज्ञान : फासीवाद का एक महत्वपूर्ण मददगार

भारतवर्ष इसका गवाह रहा है कि पिछले कई वर्षों से आरएसएस-भाजपा के संचालन में किस प्रकार केन्द्र में हिन्दुत्ववादी बहुसंख्यकवाद का उत्थान हुआ है. एक तरह से देंखे तो आरएसएस-भाजपा ने वस्तुतः तरह-तरह की जबरदस्तियों, धौंस-धमकियों और यहां तक कि हत्या कर देने तक के तौर-तरीकों के जरिए देश में सक्रिय सभी तर्कशील, विवेकशील और प्रगतिशील अवाज उठाने वालों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया है. नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पानसरे, एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश जैसे तर्कशील व विवेकवान लोगों की हिन्दुत्ववादी गुंडों द्वारा हत्या कर दी गयी है. उनका अपराध यह था कि वे उस हिन्दुत्ववादी विचारधारा का विरोध कर रहे थे, जो समाज में प्रचलित विभिन्न अवैज्ञानिक या छद्म-वैज्ञानिक रीति-रिवाजों और तौर-तरीकों का प्रयत्नपूर्वक पोषण करती है. वैसे भी छद्म विज्ञान को हथियार बनाकर जो लोग समाज में अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहते हैं, उनके खिलाफ लोग सदियों से लड़ते आये हैं और आज भी वह लड़ाई जारी है.




इस साल के बिल्कुल शुरू में ही भारतीय विज्ञान कांग्रेस का 106वां अधिवेशन आयोजित हुआ था. विगत कई वर्षों से यह कांग्रेस एक ऐसे सर्कस में बदल गयी है (नोबेल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक वेंकटरमन की भाषा में), जहां विभिन्न शिक्षाविद और स्वतंत्र अनुसंधानकर्त्ता प्राचीन के विज्ञान और टेक्नोलॉजी के मामलों में गलत-सलत दावे करते आ रहे हैं और इन मामलों में उन्हें काफी प्रश्रय दिया जा रहा है. अभी तक प्रचलित वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग को खारिज करते हुए वे अपने दावों के पक्ष में तथ्यों और सबूतों के तौर पर वेद एवं पुराणों से उदाहरण देते आ रहे हैं. जैसे इस वर्ष के. जे. कृष्णन नाम के एक स्वतंत्र अनुसंधानकर्त्ता ने ऐसा एक अद्भुत दावा किया है जो सैद्धांतिक भौतिकी के क्षेत्र में न्यूटन, आईंस्टीन और हॉकिंग की भूमिका को भी पूरी तरह खारिज कर देता है. यहां तक कि उन्होंने यह तक कहा है कि गुरूत्वाकर्षण तरंगों का नाम बदलकर उन्हें ‘नरेन्द्र मोदी तरंग’ का नाम देना चाहिए.[1]

करीब एक दशक के कठिन परिश्रम के बाद गत 2016 में वैज्ञानिकों ने परीक्षण-निरीक्षणों के जरिए पहली बार गुरूत्वाकर्षण-तरंगों की हरकतों का पता लगाया. इसके फलस्वरूप सापेक्षतावाद का आम सिद्धांत और भी मजबूत आधार पर प्रतिष्ठित हो सका. अतः भारतीय विज्ञान कांग्रेस के अनुसंधानकर्त्ता जो पूरी तरह अवैज्ञानिक दावे करते आ रहे हैं, वे दावे न सिर्फ आईएससीए (इंडियन साईंस कांग्रेस एसोसिएशन) की स्क्रीनिंग प्रक्रिया को (यदि सचमुच की ऐसी प्रक्रिया जैसी कोई चीज हो) कारगरता के अभाव को ही प्रमाणित करते हैं, बल्कि साथ ही साथ यह समूची वैज्ञानिक जमात के प्रति जिन्होंने परीक्षण-निरीक्षण से प्राप्त नतीजों के आधार पर सैद्धांतिक अनुमानों की प्रमाणिकता को प्रतिष्ठित करने के लिए अपनी समूची जिन्दगी न्योछावर कर दी है, एक प्रकार का अपमान है.




उससे भी ज्यादा खतरनाक तो यह है कि ये तमाम दावे पेश करते समय श्रोतों के रूप में मूलतः स्कूलों के छात्र-छात्रओं और शिक्षक-शिक्षिकाओं को ही चुन लिया जा रहा है. स्वाभाविक है ये तथाकथित वैज्ञानिक जो मिथक और गल्पकथाएं पेश करते जा रहे हैं, उनमें सच और झूठ की पहचान करने की क्षमता इन कम उम्र छात्र-छात्रओं में नहीं रहेगी. इसके तात्पर्य दो किस्म के हो सकते हैं- पहला तो यह कि इस किस्म के दावे यह साबित करते हैं कि इन अनुसंधानकर्त्ताओं का वास्तविक उद्देश्य केन्द्र में सत्तासीन हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवादियों के साथ एक मधुर संबंध विकसित करना है. दूसरा, इससे यह भी साबित होता है कि कम उम्र के बच्चों को शिक्षित करने के मामले में वैज्ञानिक सोच और वैज्ञानिक शिक्षा इसी बीच दो पूरी तरह एक-दूसरे के विपरीत धाराओं के रूप में सामने आयी है. और उसपर भी जब भारतीय विज्ञान कांग्रेस जैसे एक मंच से इस तरह के अवैज्ञानिक व छद्म वैज्ञानिक दावे किये जाते हों, तो स्वाभाविक रूप से समस्या और भी बढ़ जाती है.

पिछले 2014 से आयुष (आयुर्वेद, योग, युनानी नैचुरोपैथी, सिद्ध व होमियोपैथी) नाम का एक मंत्रलय शुरू किया गया है, जिसका उद्देश्य डॉक्टरी के कई सारे तौर-तरीकों को प्रचारित करना है. इनमें से अधिकांश ही अविज्ञान या छद्म विज्ञान है.[2] एक ओर यह केन्द्र सरकार अलग मंत्रलय की स्थापना कर इस तरह के अवैज्ञानिक तौर-तरीकों का प्रचार करने के लिए पैसे खर्च कर रही है और दूसरी ओर, स्वास्थ्य परिसेवाओं का लगातार निजीकरण करने के जरिए इन्हें आम लोगों की पहुंच से बाहर बना दिया जा रहा है. ग्रामीण क्षेत्रें में जनता तो वैसे ही झोला छाप डॉक्टरों के भरोसे है. नतीजतन जिन सभी बीमारियों से असानी से ही छुटकारा पाया जा सकता है, उनके प्रकोप से भी कई बार ग्रामीण क्षेत्रें में रोगी मौत के मुंह में चले जाते हैं. इस समस्या के हल के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तरों पर प्रचलित विभिन्न अवैज्ञानिक तौर-तरीकों के खिलाफ लगातार जागरूकता पैदा करने के प्रचार-अभियान चलाये जाएं.इसके अलावा और भी ज्यादा संख्या में ऐसे सरकारी अस्पताल जरूरी हैं, जहां मामूली खर्च से भी प्रचलित स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो सके. पर इन सबकी जगह ‘आयुष’ जैसे कदम उठाये जा रहे हैं.




2016 के दिसम्बर में आईआईटी दिल्ली में एक वर्कशॉप का अयोजन किया गया था, जिसका उद्देश्य था स्वास्थ्य के क्षेत्र में पंचगव्य (गाय के ही मूत्र, दूध, गोबर, दही और घी) के गुणों की जांच करने के लिए देश में एक प्रोजेक्ट शुरू करना. यहां तक कि दिल्ली आईआईटी को विषय पर देश के विभिन्न शिक्षा-संस्थानों से पचास रिसर्च-प्रस्ताव भी मिले.[3] केरल के केन्द्रीय विश्वविद्यालय ने हाल ही में एक प्रेस-विज्ञप्ति के जरिए बताया है कि केवल ‘राष्ट्रीय महत्व’ के विषयों को ही शोध का विषय बनाया जा सकेगा.[4] इस तरह के निर्देश स्वाभाविक रूप से ही अनुसंधानकर्त्ताओं के शोधकर्म की स्वतंत्रता के क्षेत्र में एक सीमाबद्धता पैदा करते हैं. इस तरह के दिशानिर्देश परीक्षण-निरीक्षण पर आधारित वैज्ञानिक मानसिकता के घोर विरोधी हैं.

देश में जो हिन्दुत्ववादी फासीवादी प्रवृत्ति निरंतर बढ़ती जा रही है, उसका प्रतिरोध करना विरोधी मत को सामने लाने के जरिए ही संभव है. इसीलिए हिन्दुत्ववादी फौज सक्रिय रूप से अविज्ञान या छद्म विज्ञान को प्रचारित करने की कोशिशें करती रहती है, जिससे विज्ञान सम्मत मानसिकता के फलने-फूलने से उद्भूत विरोध करने की स्पिरिट को कुचल दिया जा सके. दूसरे विश्वयुद्ध के पहले हिटलर आर्य जाति के वर्ण-अधारित प्रभुत्व की धारणा को प्रचारित करने के जरिए ही जर्मन जनता को यहूदियों के खिलाफ खड़ा करने में समर्थ हुआ था. इतिहास का यह एक उदाहरण साबित करता है कि किस प्रकार छद्म विज्ञान को प्रश्रय देना किसी भी फासीवादी शासन-व्यवस्था की एक आम कार्यपद्धति है. भारत के मामले में भी यदि भीतर से विरोधी मत को जोर-शोर से उठाया नहीं गया तो समाज में फासीवादी प्रवृति को बढ़ावा तो मिलेगा ही, साथ ही, इस तरह के छद्म विज्ञान का प्रकोप और भी ज्यादा बढ़ेगा.




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