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आदिवासी – यह नाम तो मत बिगाड़िए

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आदिवासी दिवस पर आदिवासी क्रांतिकारी ऊलगुलान के जननायक बिरसा मुंडा की याद में. उन्हें आदिवासी के बदले कई नए शब्दों से संबोधित किया जाता है.

आदिवासी - यह नाम तो मत बिगाड़िए

कनक तिवारीकनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़

कम से कम पिछले सत्तर वर्षों से देश के आठ-दस करोड़ आदिवासियों के जेहन में एक तीखा तनाव है कि उनके तरह तरह के नामकरण कथित शहरी समाज के लोग क्यों करते हैं ? इस पूरी आबादी को केवल ‘आदिवासी’ शब्द से ही प्रचलित, परिचित और परिभाषित करना, आदिवासियों की नजर में एक समाज और संविधानसम्मत उदाहरण होना चाहिए.

दरअसल यह शुरुआत भारत की संविधान सभा में एकाएक 1 दिसंबर, 1948 को हुई. उस दिन प्रारूप समिति की ओर से डॉ. अंबेडकर ने औपचारिक प्रस्ताव पेश कर दिया कि अनुच्छेद 19 (5) में ‘आदिवासी’ शब्द के स्थान पर ‘अनुसूचित जनजाति’ शब्द रखा जाए.

ऐसा परिवर्तन प्रारूप समिति ने अपनी मर्जी से किया था. उस संबंध में पहने संविधान सभा में बहस नहीं हुई थी. डॉ. अंबेडकर ने बताया कि जब प्रारूप समिति मूल अधिकारों के परिच्छेद पर विचार कर रही थी, तब तक आदिम जातियों के क्षेत्रों के संबंध में नियुक्त समिति ने अपना प्रतिवेदन पेश नहीं किया था, इसलिए संविधान के प्रारूप में आदिवासी शब्द लिख दिया गया था. बाद में देखा गया कि वन्य जातियों (ट्राइबल) इलाकों की क्षेत्रीय समिति ने भी अनूसूचित जातियां शब्द का प्रयोग किया था, इसलिए भाषा की एकरूपता की दृष्टि से आदिवासी शब्द की जगह अनुसूचित जनजाति शब्द रखना मुनासिब समझा गया.

2 दिसंबर को प्रखर आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने अपनी तल्खी में कहा कि आदिवासियों संबंधी उपसमितियों की दो रिपोर्टों पर अभी संविधान सभा में वादविवाद हो ही नहीं पाया है, नतीजतन सभा अपना सामूहिक नजरिया नहीं बना पाई है, न ही सामूहिक निर्णय तक पहुंच सकी है. फिर भी मूल अधिकारों की आड़ में बाकी सभी अनुच्छेदों पर फैसले किए जा रहे हैं. अपने विस्तृत उत्तर में डॉ. अंबेडकर ने फिर कहा अनुसूचित वनजाति (ट्राइबल) शब्द का निश्चित अर्थ है. वह सभी वन जातियों को शामिल करता है.

आदिवासी शब्द वास्तव में एक सामान्य शब्द है जिसका कोई विशिष्ट कानूनी अर्थ नहीं है. यह कुछ कुछ अछूत शब्द के समान है इसीलिए गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट, 1935 में यह ज़रूरी समझा गया कि अछूत शब्द का कोई कानूनी अर्थ किया जाए. इसी तरह आदिवासियों के संबंध में भी सोचा गया कि सभी आदिम जातियों को कमबद्ध कर दिया जाए. आदिवासियों को संविधान द्वारा कुछ विशेष अधिकार भी दिए जा रहे हैं, यदि उनसे संबंधित विषय न्यायालय में प्रस्तुत होंगे तो उसके लिए ‘आदिवासी कौन हैं’ की ठीक-ठीक परिभाषा होना आवश्यक है.

जयपाल सिंह ने 24 अगस्त 1949 को बहस में सार्थक हस्तक्षेप करते फिर कहा कि यदि किसी को भारत में राज करने का अधिकार है, तो वह आदिवासियों को ही है. वे ही प्रथम श्रेणी के भारतीय हैं. अन्य लोग तो दूसरी, तीसरी, चौथी अथवा अन्य श्रेणी के हैं. हम भीख नहीं मांग रहे हैं. बहुसंख्यक समुदाय ने पिछले छह हजार वर्षों में पाप किए हैं, उनके लिए उन्हें प्रायश्चित्त करना चाहिए. वे फैसला करें कि अंगरेज सरकार ने भी आदिवासियों के साथ न्याय किया है या नहीं.

उन्होंने कहा कि संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 1940 में रामगढ़ कांग्रेस की स्वागत समिति के सभापति की हैसियत में कहा था ‘इस भाग के निवासी अधिकतर वे लोग हैं जो भारत के आदिवासी कहे जाते हैं. उनकी सभ्यता अन्य लोगों की सभ्यता से बहुत अलग है. पुराने इतिहास की खोज से यह सिद्ध हुआ है कि यह सभ्यता बहुत प्राचीन है. आदिवासियों का वंश आटिक अर्थात आर्य वंश से भिन्न है. इस वंश के लोग भारत के दक्षिण पूर्व में बहुत दूर-दूर तक बसे हुए हैं.’

जयपाल सिंह मुंडा ने तो 19 दिसंबर, 1946 को ही जवाहरलाल नेहरू के संविधान के मकसद वाले प्रस्ताव पर जिरह करते साफ कहा था कि मैं उन लाखों अज्ञात लोगों की ओर से बोलने के लिए यहां खड़ा हुआ हूं जो आजादी के सबसे महत्वपूर्ण लेकिन अनजान लड़ाके हैं और भारत के मूल निवासी हैं. उन्हें बैकवर्ड ट्राइब्स, प्रिमिटिव ट्राइब्स, किमिनल ट्राइब्स और न जाने क्या क्या कहा जाता है. हमें अपने जंगली कहलाने पर गर्व है. तीन करोड़ आदिवासियों की ओर से मैं नेहरू द्वारा रखे गए प्रस्ताव का इसलिए समर्थन नहीं कर रहा हूं कि वह एक बड़े नेता ने प्रस्तावित किया है, इसलिए कर रहा हूं कि यह देश के हर नागरिक की धड़कन और उसकी भावनाओं को जाहिर करता है. एक जंगली और आदिवासी होने के नाते प्रस्ताव में गूंथी गई जटिलाताओं में हमारी कोई खास दिलचस्पी नही है. हममें से हर एक ने आजादी के लिए संघर्ष की राह पर एक साथ मार्च किया है. अगर देश में कोई दुर्व्यवहार का सबसे ज्यादा शिकार हुआ है तो वे हमारे लोग हैं.

आहत अभिमान की मुद्रा में जयपाल सिंह कहते रहे कि हम सिंधु घाटी सभ्यता के वंशज हैं. इतिहास बताता है कि आपमें से अधिकांश लोग जो यहां बैठे हैं, बाहरी हैं, घुसपैठिए हैं, जिनके कारण हमारे लोगों को अपनी धरती छोड़कर जंगलों में जाना पड़ा. आदिवासी धरती पर सबसे अधिक लोकतांत्रिक लोग हैं. हम कोई अतिरिक्त या विशेष सुरक्षा की मांग नहीं कर रहे हैं. बस यही चाहते हैं जो नागरिक बर्ताव सबके साथ हो वही हमारे साथ भी हो. हम तो सरकार से ही सुरक्षित होना महसूस कर रहे हैं.

बहस में सरदार वल्लभभाई पटेल ने हस्तक्षेप करते कहा कि हमें कबायली जातियों को भी जयपाल सिंह के स्तर पर लाने का प्रयत्न करना चाहिए. दस वर्षों बाद जब मूल अधिकारों पर फिर से विचार हो तो वे सब हमारे स्तर पर आ जाएं और ‘ट्राइब्स’ शब्द को ही हटा दिया जाए. ट्राइब्स के लिए पृथक प्रबंध करना भारतीय संस्कृति के लिए शोभनीय नहीं है.

जयपाल सिंह ने पलटवार करते कहा मुझे खेद है मैंने जो कुछ कहा है उसका मतलब सरदार पटेल ने अपने ढंग से अलग लगाया है. जवाहरलाल नेहरू ने भी बहस में हस्तक्षेप करते कहा कि मैं जयपाल सिंह से सहमत हूं कि कबायली जातियों तथा उनके प्रदेशों की रक्षा होनी चाहिए लेकिन इनकी कल्पना मूल अधिकारों के रूप में करना गलत बात होगी. कबायली जातियों की रक्षा करने का विशेष ध्यान रखा जाए.

27 अगस्त, 1947 को भी बहस करते जयपाल सिंह ने कहा ही था कि आदिवासी अल्पसंख्यक नहीं हैं. वे लोग जो देश के मूल निवासी हैं, उनकी संख्या चाहे कितनी ही थोड़ी क्यों नहीं हो, कभी भी अल्पसंख्यक नहीं समझे जा सकते. उन्हें अधिकार प्राकृतिक परंपराओं से प्राप्त हुए हैं और संसार में कोई भी उनसे इसे छीन नहीं सकता.

आदिवासी जीवन और अधिकारों पर अपना पूरा जीवन समर्पित कर देने वाली लेखक और विचारक रमणिका गुप्ता ने आदिवासी अस्मिता का सवाल बार-बार पुरजोर तरीके से उठाया है. उनका तर्क है कि ‘जनजाति‘ शब्द आदिवासियों की अस्मिता को धुंधला ही नहीं करता बल्कि उनके अस्तित्व पर भी सवाल उठाता है. आदिवासियों की कोई जाति नहीं होती तो उन्हें जनजाति कैसे कहा जा सकता है ? उन्हें कबीला कह दिया जाए, लेकिन जाति नहीं. वनवासी के रूप में उनका नया नामकरण करने सांप्रदायिक शक्तियां प्रयासरत हैं. इसलिए वे घर वापसी का जबरिया नारा लगाती रहती हैं. वे उच्च वर्गों के धर्म में आदिवासियों की संस्कृति को समायोजित करने का खतरनाक खेल खेल रही हैं. मसलन गुजरात में ‘जय जोहार‘ का ‘जय श्रीराम‘ में रूपांतरण किया जा रहा है. वनवासी शब्द तो आदिवासियों के उद्भव को ही चुनौती देता है. वह उनके जंगली, पिछड़ा तथा असभ्य होने की पैरवी करता है. यह शब्द उनकी पहचान को विलोपित करने का षड़यंत्र भी हो सकता है.

रमणिका गुप्ता ने कहा कि यूएनओ ने अपने घोषणा पत्र में आदिवासी राष्ट्र को परिभाषित किया है. उसके अनुसार ‘आदिवासी राष्ट्र का तात्पर्य उन लोगों के वंशजों से है, जो किसी देश की वर्तमान भूमि के पूरे या कुछ भाग पर विश्व के अन्य भागों की किसी भिन्न संस्कृति अथवा नस्ल के लोगों द्वारा पराजित कर दिए जाने या उनके साथ किसी समझौते के तहत अथवा अन्य किसी तरह से वर्चस्वहीन अथवा औपनिवेशिक स्थिति में ढकेल दिए जाने के पहले से ही वहां रह रहे थे.’

रमणिका गुप्ता बेहद तल्खी में यहां तक कहती हैं, ‘भारत के मैदानी इलाकों के लोग इन्हें जंगली मानते रहे हैं. भारतीय शास्त्रों ने इन्हें बड़े-बड़े दांतों, सींगों एवं पूंछ वाले जंतुनुमा जीव सिद्ध करने में कभी कोई कोर कसर नहीं रखी. इन्हें दानव, राक्षस या असुर कहकर अपमानित किया गया. पश्चिम में लोगों ने इन्हें ‘पगान‘ कहा और ट्राइब कहकर इनके जंगलीपन का अहसास जताया और इनकी अवमानना की. इस प्रकार पूर्व हो या पश्चिम, दोनों सभ्यताओं ने इन्हें मनुष्य तो माना ही नहीं, एक जंतुनुमा जीव जरूर सिद्ध किया.’

एक लेखक डाॅ. विनायक तुमराम इस मामले में बहुत तल्ख हैं. उनका कहना है कि भारत तथा पश्चिम के कई समाज वैज्ञानिकों और विचारकों ने आदिवासी की परिभाषा, परिचय और पहचान को स्थिर करने के लिए शोध किए हैं. विमर्श भी किए हैं. ऐसे शोधकर्ताओं में गिलिन और मिलिन, डब्ल्यू. जे. पेरी, डी. रीवर्स, बोगाडर््स, राल्फ पीडिंग्टन, डी. एन. मजूूूमदार, डाॅ. बी. एच. मेहता, डाॅ. गुरुनाथ नाडगोंडे और डाॅ. जी. एस. धुर्वे आदि का उल्लेख होता है.इन सब विचारकों ने आदिवासियों के संबंध में अर्थपूर्ण परिभाषाएं की हैं.

इम्पीरियल गजट तथा भारतीय संस्कृति-कोश में भी ‘आदिवासी कौन’ विषय पर चर्चा की गई है. दुर्भाग्य से लेकिन आज आदिवासी शब्द के उच्चारण से ही हमारे सम्मुख खड़ा हो जाता है- ‘प्रत्येक सदी से छला, सताया गया, नंगा किया गया और एक सोची समझी साजिश के तहत जंगलों में जबरन भगाया गया एक असंगठित मनुष्य, अपनी स्वतंत्र परंपरा सहित, सहस्त्र सालों से गांव देहातों से दूर घने जंगलों में रहने वाला संदर्भहीन मनुष्य, एक विशेष पर्यावरण में अपने सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों को जान की कीमत पर संजोकर रखने वाला प्रकृतिनिष्ठ, तथा प्रकृति निर्भर मनुष्य, कमर पर बित्तेभर चिंदी लपेटे, पीठ पर आयुध लेकर भक्ष्य की खोज में मारा मारा भटकने वाला शिकारी मनुष्य ! कभी राजनीतिक तथा सांस्कृतिक वैभव से इतराने वाला यह कर्तव्यहीन मनुष्य, परंतु वर्तमान में लाचार, अन्यायग्रस्त तथा पशुवत जीवन यापन करने वाला मनुष्य  -यही है उसका कुल जीवन-वेदना से भरा उसका लोकाचार.’

अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच की ओर से फैसला लिखते तेज तर्रार जज मार्कंडेय काटजू ने तर्क किया कि भारत में लगभग आठ प्रतिशत रहते आदिवासी ही यहां के मूल निवासी हैं. 92 प्रतिशत हिंदुस्तान की आबादी आव्रजकों की संतान है. जिस तरह उत्तर अमेरिका की आबादी का समीकरण है. भारत में रह रहे 92 प्रतिशत लोग ज्यादातर पश्चिमोत्तर इलाकों और कुछ पूर्वोत्तर इलाकों से आकर बसे हैं.

उन्होंने कहा कि पहले यह तर्क किया जाता था कि भारत के मूल निवासी द्रविड़ सभ्यता धारक हैं. बाद में वैज्ञानिक और नृतत्वशास्त्र के शोध के बाद अब यह समझ आया है कि इस देश के मूल निवासी द्रविडों के पहले से ही रहते आए आदिवासी ही हैं. इसका दुनिया के कई महत्वपूर्ण शोध प्रबंधों में उल्लेख है. यह भी शोध में आया है कि मुंडा आदिवासी भारत में सबसे पुरानी सभ्यता के धारक हैं. वे मोटे तौर पर झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पश्चिम बंगाल वगैरह के इलाकों में बस गए हैं. इसके साथ साथ गोंड, संथाल, भील आदि कई नाम भी प्रचलित हैं. आदिवासियों के संबंध में उल्लेख ‘वर्ल्ड डिक्शनरी ऑफ माइनोरिटीज़ एंड इंडिजिनस पीपुल्स : आदिवासीस’ में भी विस्तार से हुआ है.

हिंदी के सुविख्यात समालोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने अपने एक पुराने लेख में आदिवासी शब्द पर अलग तरह से विचार किया है. वे अंगरेजी के ‘ट्राइबल‘ शब्द को हिंदी के आदिवासी शब्द से अलग खांचे में रखना चाहते हैं. दरअसल ‘इंडिजिनस पीपुल्स‘ शब्द पूरी दुनिया में आदिवासियों के लिए मान्य है और उसका वैसा ही अनुवाद होता है. अनुसूचित जनजति शब्द के पक्ष में भी उनके तर्क हैं और वनवासी शब्द को लेकर भी.

इसके बरक्स वे प्रसिद्ध आदिवासी विचारक जे. जे. राॅय बर्मन के आधार पर कहते हैं कि आदिवासियों में सभी जातियां मूल आदिवासी जाति की श्रेणी में नहीं आतीं. मूल आदिवासियों में अनेक जनजातियां बाहर से भी आई हैं. आज इन जनजातियों के लोग जहां रहते हैं वहां वे मूल रूप से नहीं रहते थे. मसलन मणिपुर के कूकी आदिवासी और मिजोरम के लूसिस जनजाति के लोग भारत के बाहर से कुछ सौ साल पहले आए हैं. इन्हें अंगरेजों ने भारत में बसाया था.

आदिवासियों की तरह दलितों को भी कुछ विचारक भारत का मूल बाशिंदा मानते हैं लेकिन भारत सरकार उन्हें उस तरह मानने को तैयार नहीं है. इसके बरक्स प्रसिद्ध समाजशास्त्री डाॅ. श्यामाचरण दुबे का मत रहा है कि जो मूल निवासी आर्यों के हमले के बाद वन क्षेत्रों की ओर चले गए, वे तो आदिवासी कहलाए, जो लेकिन आर्यों की मातहती में उनके ही इलाके में रहकर उनके अनुचरों की तरह बने रहने को मजबूर किए गए, बाद में उन्हें दलित कहा गया.

यह भी तर्क कर दिया गया है कि ‘ट्राइबल‘, ‘जनजाति‘ और ‘आदिवासी‘ इन तीनों पदबंधों के अर्थ में अंतर है. चतुर्वेदी कहते हैं कि राॅय बर्मन ने सही रेखांकित किया है कि हमें आदिवासी पदबंध को ट्राइबल का समानांतर नहीं समझना चाहिए और यह भी कि आदिवासी के नाम से परिचित जातियों को आदिम जातियां नहीं कहा जा सकता.

(12) बी.के. रॉय बर्मन आदिवासी समस्याओं के बहुत गहन और तार्किक अध्येता रहे हैं. उन्होंने ‘आदिवासी’ शब्द के संबंध में अपनी स्थापनाओं को विस्तार देते हुए विन्यस्त भी किया है. वे मौखिक परंपराओं, नृतत्वशास्त्रीय साक्ष्यों और समाज के व्यावहारिक आचरण के आधार पर तय करते हैं कि आदिवासियों के पहले भी कुछ लोगों का भारत में रहवास पाया जाता है. इसके साथ-साथ कुछ इलाकों में व्यापक अर्थ में आदिवासी कहलाते वर्ग अलग-अलग समय पर आकर बसते रहे हैं.

मसलन छोटानागपुर इलाके में मुंडा आदिवासियों की बसाहट के पहले से जो समुदाय वहां निवास करते रहे हैं, उन्हें ‘असुर’ शब्द से संबोधित किया जाता रहा है. ओरांव समूह की बसाहट बाद में मध्ययुग में हुई. संथाल समुदाय के लोग, जो बहुत बड़ी संख्या में हैं, 18वीं सदी में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा मौजूदा स्थान पर बसाए गए थे, क्योंकि उन्हें पहाड़िया आदिवासियों के मुकाबले कड़ी मेहनत करने वाले कृषि श्रमिकों की जरूरत रही है. इसी तरह भीलों की बसाहट सदियों पुराने वक्त से होना कई शोधकर्ताओं ने पाया है.

महत्वपूर्ण है कि पूर्वोत्तर राज्यों में जो जनजातियों के लोग 18वीं सदी से आना शुरू हुए, उनके लिए उन इलाकों में आदिवासी शब्द का प्रयोग नहीं होता. बहुत पहले जो समूह या वर्ग राज्य सत्ता से पृथक रहकर स्वायत्त होकर समूहगत जीवनयापन करता था, उन्हें ‘जन’ के नाम से जाना जाता था. नए इलाकों में जाकर बसने के बावजूद और वर्ण व्यवस्था से बाहर रहते हुए उनकी स्वायत्तता सुरक्षित रही है. इन सब गुणों के कारण पहचाने जाने वाले लोग भी ‘आदिवासी’ की व्यापक परिभाषा में शामिल माने जाते हैं.

दरअसल ‘आदिवासी’ शब्द का हिन्दी भाषा में संधि विच्छेद करने से उसका निहितार्थ साफ हो जाता है. ‘आदि’ का अर्थ सबसे पुरातन या प्राथमिक है और ‘वासी’ स्थायी हो चुकी बसाहट का अर्थ है. यह तय करना समाजविज्ञानियों, नृतत्वशास्त्रियों, इतिहासकारों, पर्यावरणविदों और अन्य कई सामाजिक अध्ययनों के शोधकर्ताओं के लिए अब भी एक पेचीदी पहेली के रूप में बौद्धिक जद्दोजहद के लिए लगातार गैरपरिणामधर्मी स्थिति कायम है. आदिवासी अध्ययन एक नया, उत्तेजक और अनुसंधानात्मक बौद्धिक क्षेत्र के रूप में विन्यस्त है.

मोटे तौर पर भारतीय उपमहाद्वीप में वे आदिवासी समझे जाते हैं, जो इस इलाके में इंडो-आर्यन और द्रविड़ सभ्यताधारकों के पहले से निवास करते आए हैं. यह शब्द बांग्लादेश के चकमा, नेपाल के थारू और श्रीलंका के वेद्दा नागरिक समूहों के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है. इस व्यापक और लचीली परिभाषा के तहत आदिवासियों की बसाहट और मौजूदा उपस्थिति आंध्रप्रदेश तेलंगाना, छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, असम, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, पूर्वोत्तर भारत और अंदमान तथा निकोबार द्वीप समूहों में बड़ी संख्या में निवासरत है. इस शब्द का चलन 1930 के दशक में तत्कालीन राजनीति के कारणों से स्वीकार किया गया और बाद में इसकी ताईद सुप्रीम कोर्ट ने भी कर दी.

‘वनवासी’ और ‘गिरिजन’ जैसे कई शब्दों का जाने-अनजाने और सायास-अनायास इस्तेमाल भारत की कई राजनीतिक विचारधाराएं समय-समय पर करती रही हैं. उनमें उग्र हिन्दूवाद के आनुषंगिक संगठन और महात्मा गांधी जैसे नेता भी शामिल रहे हैं, लेकिन ऐसे अन्य शब्द आदिवासी की मुनासिब पहचान के लिएलोकजीवन में सर्वसम्मत इस्तेमाल होने की हालत में नहीं आ सके.

भारत के संविधान में कई आदिवासी पहचानों, बोलियों और वर्ग समूहों को शामिल करने की कोशिश इस परिभाषा के तहत की गई है जो अनुच्छेद 366 (25) के तहत कहती है :

‘अनुसूचित जनजातियों’ से ऐसी जनजातियां या जनजाति समुदाय अथवा ऐसी जनजातियों या जनजाति समुदायों के भाग या उनमें के यूथ अभिप्रेत हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 342 के अधीन अनुसूचित जनजातियां समझा जाता है.’

अनुच्छेद 342 में आदिवासी की पहचान करने का अधिकार इतिहास, परंपराओं, सामूहिक सामाजिक समझ और शब्दों के लोकव्यापी अर्थ की प्रचलित मान्यताओं के मुकाबले संसद और सरकार के अधिकार में दे दिया गया है. उसके अनुसार संसद ने अपनी समझ का बयान संवैधानिक भाषा में दर्ज किया गया है. वह आदिवासियों की ऐतिहासिक उत्पत्ति, भौगोलिक सीमाओं और प्रसरणशीलता को एक दायरे में कैद करता है.

यह परिभाषा आदिवासी को तयशुदा और क्रमांकित अनुसूचित जातियों के खांचे में तब्दील और कैद करती है. अब हर तरह के वैधानिक प्रयोजन के लिए वही आदिवासी है, जिस पर संविधान की समझ का मुलम्मा चढ़ा है. इस परिभाषा के कारण कई तब के पहले समझे जा रहे आदिवासी परिभाषा के मैदान से बाहर कर दिए गए हैं. अब इतिहास में उनकी मुनासिब पहचान का हाशियाकरण हो गया है.

अनुच्छेद 342 कहता है –

342. अनुसूचित जनजातियां –

  1. राष्ट्रपति किसी राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में और जहां वह राज्य है वहां उसके राज्यपाल से परामर्श करने के पश्चात् लोक अधिसूचना द्वारा, उन जनजातियों या जनजाति समुदायों अथवा जनजातियों या जनजाति समुदायों के भागों या उनमें के यूथों को विनिर्दिष्ट कर सकेगा, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए यथास्थिति उस राज्य या संघ राज्यक्षेत्र के संबंध में अनुसूचित जनजातियां समझा जाएगा.
  2. संसद्, विधि द्वारा, किसी जनजाति या जनजाति समुदाय को अथवा किसी जनजाति या जनजाति समुदाय के भाग या उसमें के यूथ को खंड (1) के अधीन निकाली गई अधिसूचना में विनिर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से अपवर्जित कर सकेगी, किन्तु जैसा ऊपर कहा गया है उसके सिवाय उक्त खंड के अधीन निकाली गई अधिसूचना में किसी पश्चातवर्ती अधिसूचना द्वारा परिवर्तन नहीं किया जाएगा.

आदिवासी की पहचान और परिभाषा स्थिर करने के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर चिंताओं और कोशिशों का घनत्व भी उपजता रहा है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ की एक एजेंसी है जिसने अपने सदस्य देशों के नागरिकों की मानवीय समस्याओं को सुलझाने की कोशिशें की हैं. 1957 में आइएलओ ने इंडिजिनस एंड ट्राइबल पापुलेशन्स कनवेन्शन (क्रमांक 107) आयोजित किया जो दुनिया के सभी नस्ल और प्रकृति के आदिवासियों के जीवन संबंधी सवालों को हल करने की दिशा में एक अच्छा प्रयत्न था.

इस कनवेन्शन ने दुनिया के सभी देशों में रह रहे आदिवासियों की मुनासिब वैज्ञानिक परिभाषा स्थिर करने के लिए उन सभी को अधिमान्यता देने का प्रस्ताव किया जो आदिवासी या अर्ध-आदिवासी आबादी समूहों के लोग स्वतंत्र देशों में रह रहे हों और उन्हें उन देशों में प्रचलित समझ और मान्यताओं के लिहाज से ऐतिहासिक और भौगोलिक कारणों से माना जाता रहा हो कि वे वहां किसी बाहरी आक्रमण या औपनिवेशीकरण के पहले से रह रहे हैं. भले ही उनकी उस तरह वैधानिक मान्यता रही हो या नहीं रही हो. यदि वे अपनी सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के मानक प्रतिमानों की तरह पहचाने भी जाते रहे हों. इस परिभाषा के स्थिरीकरण के समर्थन में दुनिया के कई देशों ने हस्ताक्षर किए, उनमें भारत भी शामिल है.

1989 में कनवेन्शन 169 के अनुसार उसमें आंशिक सुधार करने की जरूरत महसूस की गई. दरअसल 1985 में ही आदिवासी समूहों, उनके नेताओं और अन्य विशेषज्ञ समूहों ने यह महसूस किया कि प्रचलित समझ के अनुरूप स्थिर की गई परिभाषा की परिधि में कई आदिवासी समूह शामिल नहीं हो पा रहे हैं. इसलिए परिभाषा को लचीला बनाने की कोशिश जरूरी है.

आदिवासी समस्याओं के विशेषज्ञ बी.के. राॅय बर्मन कहते हैं कि पिछली परिभाषा को शिथिल करते हुए उसमें यह आंतरिक परंतुक सन्निहित हुआ कि आदिवासी किसी भी देश में प्रावधानित या परिभाषित किसी विशेष श्रेणी के वर्ग समूह ही नहीं होंगे और न ही उन्हें विश्व के किसी देश या इलाके में सीमित करने की परिभाषा के अनुसार समझा जाए. इस परिभाषा में उन प्रभावित वर्ग समूहों को भी शामिल करना होगा जिन्हें किसी मुल्क की सरहद में कैदी समझे बिना अन्य जगहों पर बसाहट के अवसर आए हों, लेकिन वे फिर भी अपनी पारंपरिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक व्यवस्थाओं से अंतर्संबंधित रहे हों.

दुर्भाग्य से 1989 के आईएलओ कनवेन्शन 169 पर कई उन देशों ने हस्ताक्षर नहीं किए जो आईएलओ के कन्वेशन 107 से सहमत थे. अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के वक्त भारत ने भी कनवेन्शन 169 पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया. इस तरह भारत ने खुद को संविधान की मर्यादा के तहत रखा. हस्ताक्षर करने का आशय यही होता है कि ऐसे देश कनवेन्शन की भावना और अनुदेश को अपने संविधान और कानूनसम्मत राज्य में अवधारणासहित लागू करने की सहमति देते हैं.

दिक्कत यह है कि शब्दों के खेल तथा उलझन में कौन-सा सही शब्द है जो इस देश के उन मूल निवासियों का परिचय और नामकरण कर सकता है, जो सबसे पुराने निवासी हैं और जिन्हें आक्रामक सभ्यताधारकों ने सदियों में घने जंगलों की ओर खदेड़ दिया है ? यदि वे आदिवासी नहीं हैं तो क्या हैं ? आदिवास ही उनकी मुख्य पहचान है. सभ्यता, संस्कृति, भाषा, बोली, परंपराएं और त्यौहार तथा व्यवसाय एवं अन्य सामाजिक आचरण बाद में जुड़ते गए.

‘अनुसूचित जनजाति’ शब्द संवैधानिक मान्यता लिए हुए है. भले ही उसका कानूनी अर्थ विन्यस्त किया जा सकता हो, वह लेकिन व्यापक सामाजिक समझ की भाषा का परिचायक नहीं है. जो भी बाद में आकर शामिल होते गए, उन्हें आदिवासी की परिभाषा में रखने या नहीं रखने को लेकर मतभेद हो सकता है, जो मूलतः भारत में सबसे पहले से निवास करते रहे हैं, वे तो आदिवासी ही हैं. समय के आयाम में यह व्यापक लचीली और सर्वस्वीकार्य परिभाषा ही आदिवासी शब्द को स्थिर कर सकती है.

ऐतिहासिकता के लिहाज से भी भारत में यह तय होता रहा है कि सिंधु घाटी सभ्यता के पतन के बाद कई आदिवासी जमावड़े भारत में जगह-जगह आकर हजारों वर्ष पहले बसते गए हैं. ये सभी पश्चिम में गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र से फैलते हुए पश्चिम मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश, ओडिशा, झारखंड वगैरह में निवास करते पूर्व की ओर बढ़ते चले गए. दक्षिण में भी कर्नाटक, तमिलनाडु के नीलगिरि क्षेत्र, केरल के वायनाड जिले, चामराजानगर की पहाड़ियों सहित मैसूर क्षेत्र में भी पश्चिमी घाट तक फैले हुए हैं.

एक शोध यह भी कहता है कि अंदमान में रहने वाले आदिवासी ही पूरी तौर पर भारत के मूल निवासी हैं क्योंकि वहां किसी बाहरी आदिवासी समूह का आव्रजन इतिहाससम्मत सिद्ध नहीं होता. इन पचड़ों में पड़े बिना भी समाज की व्यापक सामूहिक और सर्वसम्मत समझ के चलते आदिवासी शब्द का उच्चारण कारने से एक तस्वीर उभरती है. उसे लेकर बहस की कोई गुंजाइश नहीं होती. फिर भी वह बौद्धिकों द्वारा जिरह के केन्द्र में बार-बार रखी जाती है.

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