विचारों की आंधी है और कोई भी विचार तब तक गलत नहीं होता जब तक किसी को आघात न पहुंचाए. भारत में मुख्यतः दो विचार टकरा रहे हैं वामपंथी और दक्षिणपंथी. दक्षिणपंथी विचार इस वक़्त भारत में अपने युवास्था में है. निश्चित ही उसकी पारी लंबी दिखाई देती है. वहीं वामपंथ एक ऐसा विचार है जो भारत ही नहीं पूरे विश्व के लिए आवश्यक है. अगर वामपंथ अप्रासंगिक हो गया होता तो फिर उसे नेस्तनाबूत कर देने की मुहिम ही क्यों चलती ? यह ऐसा ख्याल है, जो अभी भी मानव मुक्ति के लिए उपयोगी है लेकिन उसे एक नए जनतांत्रिक व्यक्ति की गरिमा के आदर की भावना के साथ ख़ुद को पुनः परिभाषित करने की आवश्यकता है. उसे मनुष्य और समाज की इंजीनियरिंग करके उसे उपयोगी बनाने की जगह एक ब्रह्मांडीय और पर्यावरणीय दृष्टि विकसित करनी है. यह सब मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन नहीं. संभावना कभी खत्म नहीं होती, खास कर ख़ुद को नए ढंग से खोजने की संभावना हमेशा बनी रहती है.
वामपंथ जड़ से जुड़ा विचार है जो इस वक़्त अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ताकत बना सकता है और हमें भी वामपंथ से यही उम्मीद भी करनी चाहिए. वर्तमान में सोशल मीडिया और राजनीतिक स्थिति को देख कर यह कहा जा सकता है कि भारत में वामपंथ के लिए यह सबसे बुरा वक़्त है. बुरा इसलिए कि राजनीतिक रूप से इस वक़्त वामपंथ सबसे कमज़ोर स्थिति में है लेकिन वैचारिक स्थिति में वामपंथ कभी भी उपहासित नहीं हो सकता.
संसद में वाम की संख्या नगण्य अवश्य है लेकिन केरल में उसका एक हिस्सा ज़रूर सत्ता में है, लेकिन 33 साल तक जिस प्रदेश पर उसका एक छत्र राज था, उस बंगाल में उसका आत्मविश्वास सबसे कम है. वामपंथ वहां वापस खड़ा हो पाएगा या नहीं, कहना कठिन है. भारत में वामपंथ इस समय संकट में है. कारण कई हैं. जहां संघ को किसी न किसी रूप में बच्चों के सिलेबस में शामिल किया जा रहा है, अलग से शिक्षा दी जा रही है, वहीं वामपंथ की छवि को बिगाड़ने की कोशिश की जा रही है. निराला जी की कविता कभी जो पाठ्य पुस्तक में थी ..
’वह तोड़ती पत्थर / गुरु हथौड़ा हाथ, / करती बार-बार प्रहारः- / सामने तरु-मालिका अट्टालिका, प्राकार.’
अब इसे क्या कहा जाय ? सामने तरु-मालाएं है, जहां सघन छाया होगी, अट्टालिकाएं हैं, जहां विलासपूर्ण जीवन की सभी सुख सुविधाएं होंगी और प्रकार भी है, जो महलों की रक्षा करती है. इतने उपादान होते हुए भी वह छायाविहीन पेड़ के नीचे श्रम साध्य कार्य करने को बाध्य है, अभिशप्त है. मार्क्सवाद इसी को सर्वहारा वर्ग का उत्पीडन मानता है और अट्टालिका तथा प्रकार जो पूंजीवाद के प्रतीक है, उनके विरुद्ध ही उसकी लड़ाई है. साहित्य में यह लड़ाई ही प्रगतिवादी चिंतन है. इतना गुरु हथौड़ा हाथ में है, भुजाओं में शक्ति भी है. सत्तत प्रहार की क्षमता भी है फिर भी वह अपने दुर्भाग्यपूर्ण जीवन की प्राचीर तोड़ने में अक्षम है क्योंकि व्यवस्था पूंजीवादी है.
संघ मार्क्सवाद वामपंथ को हिंसक मानते है. इस कविता को पढ़ने के बाद भी हम न हिंसक हुए, न देशद्रोही, बस विचार अवश्य बदले. मार्क्सवाद एक विकल्प है पूंजीवादी को खत्म करने का. भारतीयों की ग़ुलामी अब भी खत्म नहीं हुई है. कभी किसी देश, किसी धर्म, किसी विचार के ग़ुलाम रहते हीं आये हैं. यदि वामपंथ की प्रासंगिकता न होती तो शायद ’चे’ टी- शर्ट और ’कलम’ में न बसे होते. यह पहला मौक़ा है कि हर प्रकार के वामपंथी चौतरफा हमला झेल रहे हैं. इसी वजह से कहा जा सकता है कि यह वामपंथ के लिए सबसे अच्छा वक़्त है, क्योंकि कई बार आप अपने विरोधी द्वारा परिभाषित होते हैं.
अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संगठन आप पर हमला कर रहे हैं और आपको मिटाने की कसम खा रहे हैं, तो ज़रूर आपमें कुछ दम होगा क्योंकि आरएसएस केवल कोई छोटी और ओछी विचारधारा ही नही है वरन् वह वर्तमान में सबसे ज्यादा ताकतवर है.
लेकिन यदि बात वामपंथ की है तो इस वक़्त एक नई निगाह तो कम से कम वामियों में अपने लिए आशा की किरण देख लेगी. शुरुआत से ही वामपंथी आशा और मेहनत के ’प्रतीक’ रहे हैं. ’मजदूर एकता’ वामपंथ के ज़मीनी होने को भलीभांति दिखाती है और निश्चित हीं जमीन और जड़ से जुड़े विचार कभी खत्म नहीं होते और न होना चाहिए. वैचारिक तौर पर वामपंथ अभी भी सबसे बड़ी चुनौती हैं, लिहाज़ा संख्या के हिसाब से कम होने के बावजूद वाम अपना उद्धार कर सकते हैं. शायद पुनर्जीवन का स्रोत वही विचार हो.
- आई. जे. राय
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