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भारतीय वामपंथ के भटकाव और कमजोरी जिसके कारण वाम राष्ट्रीय पटल पर कमजोर हुआ

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[ भारतीय वामपंथ भटकावों के दौर से गुजर रही है. दुनिया भर में वामपंथ के पतन और सत्ताच्यूत होने के बाद यह भटकाव बड़ी बेतरतीब है, जिसका भारी असर वामपंथी आंदोलन पर हुआ है. भारत में 1925 ई. में स्थापित वामपंथ के भटकाव का अनेक विश्लेषण अनेक पार्टियों व विद्वानों द्वारा की गई है और की जाती रहेगी. हम यहां एक विश्लेषण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिससे किसी की भी सहमति और असहमति हो सकती है, पर आज जरूरत है इन सहमतियों और असहमतियों के बीच एक सशक्त रास्ता तलाशने की, जिस पर चलकर भारत में वामपंथ आगे बढ़ सकता है और सत्ता की ओर कदम बढ़ा सकता है, जो किसी भी आंदोलन की प्राथमिक शर्त है. विश्लेषण का यह आलेख आई जे राय के माध्यम से प्राप्त हुआ है. ]

भारतीय वामपंथ के भटकाव और कमजोरी जिसके कारण वाम राष्ट्रीय पटल पर कमजोर हुआ

1952 के पहले आम चुनाव में तेलंगाना से चुने गए कम्युनिस्ट उम्मीदवार रविनारायण रेड्डी को देश में सबसे ज्यादा वोट मिले थे. कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय पैमाने पर कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर थी. इसके बाद साठ के दशक में जब कांग्रेस का वर्चस्व संकटग्रस्त हुआ तो उसकी जगह लेने के लिए जिसके पास सबसे ज्यादा अवसर और क्षमता थी, वह कम्युनिस्ट पार्टी ही थी. बंगाल, असम, त्रिपुरा, केरल, आंध्र, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, पंजाब, मध्य तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश और समूचे बिहार में उसके पास शक्तिशाली जनाधार थे. भारतीय बुद्धिजीवियों के सर्वश्रेष्ठ हिस्सों के ऊपर मार्क्सवाद का गहरा असर था। इतिहास,राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र और रचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में मार्क्सवादी चिंतन की श्रेष्ठपरंपराएं विकसित हो रही थीं. आम जनता के बीच कम्युनिस्ट गरीबों के सच्चे नेता के रूप में निर्विवाद रूप से पहचाने जाते थे. उनके आलोचकों को भी उनके ऊपर भ्रष्टाचार का आरोप लगाने का मौका नहीं मिल पाता था. ऐसी बेदाग छवि ओर अनुशासित पार्टी से लैस होते हुए भी कम्युनिस्ट कांग्रेस का स्थान लेने में नाकाम रहे.




इस होड़ में उन्हें पहले समाजवादियों ने पछाड़ा और फिर हिंदुत्ववादियों ने बहुत पीछे छोड़ दिया. कम्युनिस्टों को यह विफलता इस तथ्य के बाजवूद मिली कि भारतीय समाज ऊंच-नीच, आर्थिक गैरबराबरी और जघन्य शोषण से बुरी तरह आक्रांत था. अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति भी समाजवाद की स्थापना के काफी हद तक अनुकूल थी, लेकिन जिस जमीन पर हंसिये-हथौड़े की फसल उगनी चाहिए थी, उस पर पहले बरगद उगा और फिर आगे चलकर वह कमल के लिए जरखेज साबित हुई. सवाल यह है कि कम्युनिस्ट अनुकूल परिस्थितियां होते हुए भी अपनी शर्तों पर अपना राजनीतिक बोल बाला कायम क्यों नहीं कर पाए ? अपनी विचारधारा के सर्वाधिक वैज्ञानिक होने और इतिहास की गतिशीलता पर पकड़ का दावा रखते हुए भी उनके भारतीय समाज से ऐसे संबंध क्यों नहीं बने, जिनकी परिणति क्रांतिकारी परिस्थिति के पार्टी द्वारा उपयुक्त दोहन और व्यापक जनता में उसके उत्तरोत्तर समर्थन के बढ़ने में होती ?

1925 में कानपुर में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई थी और इसी वर्ष नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन हुआ था. ये दोनों ही संगठन अपने-अपने तरीके से भारतीय समाज की पुनर्रचना करना चाहते थे और इस परियोजना को पूरा करने के लिए भारतीय राज्य के प्राधिकार को हस्तगत करना जरूरी था. दोनों ही संगठन संसदीय लोकतंत्र में यकीन नहीं करते थे. एक वर्ग संघर्ष और राजनीतिक क्रांति के जरिए सर्वहारा वर्ग की हुकूमत कायम करना चाहता था और दूसरा हिंदुओं के समीकरण के माध्यम से एक विशाल राजनीतिकृत समुदाय की रचना करना चाहता था, ताकि धर्म आधारित राज्य की स्थापना की जा सके. संसदीय लोकतंत्र का अतिक्रमण करते हुए अपने प्रभाव का विस्तार करने के लिए दोनों ही चुनाव की प्रक्रिया में नियोजित तौर पर उतरे. आज संघ कमोबेश भारतीय राज्य के केंद्र में अपनी घुसपैठ कर पाने में कामयाब हो चुका है. इसके विपरीत कम्युनिस्ट अभी तक हाशिए पर ही हैं, जबकि शुरुआती आश्वासन के लिहाज से यह बाजी साम्यवादियों के हाथ में रहनी चाहिए थी.




माकपा के पार्टी कार्यक्रम का बहुचर्चित पैरा-112 बताता है कि जनता को छोटी-मोटी राहतें पहुचाने के मकसद से ही इस पार्टी ने विधायिकाओं में भागदारी करनी शुरू की थी अर्थात संसदीय प्रक्रिया के जरिए केंद्रीय सत्ता में आना उसका उद्देश्य था ही नहीं. संघ परिवार उन इलाकों में भी अपने उम्मीदवारों को लड़ाता रहा है जहां उनके जीतने की उम्मीद नहीं होती थी, ताकि आगे चल कर तो वहाँ उसका दावा बन सके, लेकिन साम्यवादियों का इतिहास बताता है कि उन्होंने अपने प्रभाव के क्षेत्रों से धीरे-धीरे कदम खींचे ही हैं. संभवतः इसी प्रवृत्ति के कारण जैसे ही कम्युनिस्टों के सामने गठजोड़ राजनीति करते हुए केंद्र में अपने प्रतिनिधि को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने का मौका आया, वैसे ही वे गहरे पसोपेश के शिकार हो गए. उन्हें लगा कि वे अपनी वैचारिक शुद्धता कायम नहीं रख पाएंगे और न ही सरकार पर संख्यात्मक पकड़ के अभाव में अपने जन वादी कार्यक्रम को लागू कर पाएंगे इसलिए उन्होंने ज्योति बसु के प्रधानमंत्री बनने के खिलाफ फैसला किया और गैर कांग्रेसी, गैर भाजपाई राजनीतिक ताकतों के नेतृत्व की जिम्मेदारी जनता दल की आम और कलह प्रिय शक्तियों के लिए छोड़ दी. बाद के घटनाक्रम ने साबित किया कि दरअसल उनकी इच्छा के विपरीत यह स्थान संघ परिवार के प्रतिनिधियों के लिए ही खाली हुआ था. विचित्र बात यह थी कि केंद्र में गैर कांग्रेसी गैर भाजपाई गठजोड़ बनाने में कम्युनिस्टों की प्रमुख भूमिका थी. एक सम्माननीय कम्युनिस्ट नेता को प्रधानमंत्री पद पर बैठाने का यह मौका किसी ने उन्हें दान में नहीं दिया था, बल्कि यह उन्हीं के सतत राजनीतिक प्रयासों का फलितार्थ था. यह ऐतिहासिक रूप से एक गलत निर्णय था, जिसे पिछले दिनों ही पार्टी ने दुरुस्त किया है. लेकिन पांच साल की इस अवधि में हालात पूरी तरह बदल चुके हैं. राष्ट्रीय राजनीति वामोन्मुख न रहकर दक्षिणोन्मुख हो चुकी है और वैसा मौका दोबारा आने की संभावना देख पाने में बड़े से बड़ा कम्युनिस्ट समर्थक असमर्थ है.




इतनी बड़ी गलती सिर्फ परिस्थितियों के गलत आकलन का परिणाम नहीं हो सकती थी. उसके पीछे राजसत्ता को लेकर परंपरागत कम्युनिस्ट दुविधा की भूमिका को देखा जाना चाहिए. सोवियत क्रांति के इतिहास की जानकारी रखने वाले जानते हैं कि लेनिन अगर राजसत्ता पर कब्जा करने के बोल्शेविक आग्रह को न मनवा पाते तो मेंशेविक उस समय तक क्रांतिकारी परिस्थितियों की प्रतीक्षा करते रहते जब तक बाजी पूंजीपति वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों के हाथ में न चली जाती. लेनिन ने इससे भी आगे जाकर यह साबित किया कि रूस में उद्योगों का विकास क्रांति करने लायक हद तक हो चुका है. यही भूमिका चीन में माओ ने यह सिद्ध करके निभाई कि आधुनिक सर्वहारा वर्ग की अनुपस्थिति के बावजूद चीनी किसान क्रांति की जिम्मेदारी निभा सकते हैं. मार्क्सवाद का रूसीकरण करने के लिए लेनिन ने तत्कालीन इंटरनेशनल के नेताओं से संघर्ष किया था. इसी तरह माओ ने मार्क्सवाद का चीनीकरण करने के लिए स्तालिन के निर्देशों को मानने से इंकार कर दिया था. भारत में कम्युनिस्ट पार्टी अपनी विचारधारा का देशीकरण करने में नाकाम रही. वस्तुतः यहां उसने ऐसा कोई प्रयास ही नहीं किया. किसी ने रूसी नमूने पर काम करने की कोशिश की तो किसी ने चीनी नमूने पर. नकल का आलम यह रहा कि एक कम्युनिस्ट संगठन ने तो फिलिपीनी कम्युनिस्टों के तर्ज पर राष्ट्रीय मोर्चा बनाने का प्रयास कई वर्षों तक किया.




आश्चर्य की बात यह है कि भारतीय समाज को समझने के लिए पार्टियों के पास मार्क्सवाद से प्रभावित बुद्धिजीवियों द्वारा किए गए बेहतरीन अनुसंधानों का खजाना हमेशा रहा है. चाहे भारतीय के अनूठे परिवर्तनकारी और कल्याणकारी चरित्र को समझने की समस्या हो अथवा जाति और राजनीति के संबंधों पर व्यावहारिक पकड़ बनाने की उलझन हो या प्राचीन हिंदू समाज की गतिशीलता को ग्रहण करना हो, मार्क्सवादी विद्वत्ता सब कुछ उपलब्ध कराने में समर्थ है, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रतिष्ठान के चिंतन और व्यवहार में इसकी झलक कभी नहीं दिखाई पड़ती. भारतीय परिवेश के सिलसिले में वे आज तक कमोबेश स्तालिन द्वारा दी गई परिभाषा से चिपके हैं और संसदीय राजनीति से जुड़ने के दौरान जाति के बदलते हुए रूपों से वे आवश्यक सामंजस्य स्थापित नहीं कर पाए हैं. वे ज्यादा से ज्यादा जाति का कार्यनीतिक इस्तेमाल करते आए हैं, अन्यथा उन्हें उस आदर्श समय की ही प्रतीक्षा रहती है जब पश्चिमी इतिहास का नियतत्ववाद भारतीय यथार्थ पर पूरी तरह लागू होने लगेगा.

विडंबना यह रही कि एक ओर भारतीय मार्क्सवाद आदिम साम्यवाद से दास प्रथा तक विकास के आख्यानों में खोया रहा, ताकि उसे अपना इच्छित नियतत्ववाद उपलब्ध हो सके, लेकिन दूसरी ओर वर्ण-जाति की पारंपरिक गतिशीलता उसे आक्रांत करती रही. पार्टी के ढांचे पर स्वतःस्फूर्त ढंग से बौद्धिक विमर्श की कला में माहिर मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी छा गए. ये लोग निर्विवाद रूप से समता और समाजवाद के लिए प्रतिबद्ध थे, लेकिन जातिगत प्रतिनिधित्व को वैचारिक मान्यता नहीं थी, इसलिए शूद्र और अंत्यज तबकों को पार्टी नेतृत्व में स्थान मिलना नामुमकिन हो गया. भारतीय यथार्थ था ही ऐसा कि निचले तबकों के पास मार्क्सवाद की जटिल विद्या पर महारत हासिल करने लायक शैक्षिक पृष्ठभूमि हो ही नहीं सकती थी.




पार्टी की यह आंतरिक संरचना, यथार्थ से कटा हुआ अति सरलीकृत वर्गवाद, संसदीय रास्ता अपनाते हुए भी उसके जरिए मिलने वाली सत्ता के प्रति संदेह का भाव और भारतीय भारतीय परिवेश के चरित्र को समझने में हुई समस्याओं के मिले जुले प्रभाव के कारण साम्यवादियों का असर घटता चला गया. अधूरे मन से की गई संसदीय राजनीति के कारण कम्युनिस्ट कतारें ज्योति बसु के क्षेत्रीय अपवाद को छोड़ कर कोई भी राष्ट्रीय नायक विकसित नहीं कर सकीं. उन्होंने इस कमी की भरपाई नेहरू के व्यक्तित्व के जरिए करनी चाही. वे उन्हें राष्ट्रीय पूंजीपति वर्ग का प्रगतिशील प्रतिनिधि मानते रहे. नेहरू ने इस परिस्थिति का जम कर दोहन किया. गुटनिरपेक्ष आंदोलन की चरम ख्याति के जमाने में भारत आए मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने कम्युनिस्ट सांसदों से मिलते समय टिप्पणी की थी कि ‘‘अपने देश में तो मैं इन लोगों को जेल में रखता हूं.’’ इस पर नेहरू का उत्तर था कि ‘‘वे अपने कम्युनिस्टों को जेल की बजाय संसद में रखते हैं.’’ हल्के मूड में हुई बातचीत के मतलब बहुत गहरे थे. जिस संसद का इस्तेमाल करके साम्यवादी क्रांतिकारी हालात का निर्माण करना चाहते थे, वही संसद शुरू से उनकी सीमा निर्धारित करने के उपादान की भूमिका निबाह रही थी. जाति को न समझ पाने के कारण साम्यवादी मंडल आयोग के राजनीतिक प्रभाव का पूर्वानुमान नहीं कर पाए.




राष्ट्रवाद के सकारात्मक पहलुओं से न जुड़ पाने के कारण वे उसके सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे नकारात्मक आयामों के खिलाफ खड़े होने लायक जनवैधता अर्जित कर पाने में विफल रहे. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के बदलते रूपों के मुकाबले पुरानी चाल की समाजवादी गोलबंदी निष्प्रभावी होने के लिए अभिशप्त थी. इस तरह मंडल, मंदिर और मार्केट के तीन मकारों ने कम्युनिस्टों को पूरी तरह रक्षात्मक-मुद्रा अपनाने पर मजबूर कर दिया. मोटे तौर पर इन्हीं सब कारणों के मिले-जुले प्रभाव के कारण अतीत का एक अत्यंत संभावनापूर्ण आंदोलन आज समाज और राजनीति में परिवर्तन की शक्ति खो चुका है. उसकी शत्रु शक्तियां और विरोधी विचारधाराएं आगे बढ़ती जा रही हैं. भारतीय मार्क्सवाद पचहत्तर साल बाद भी अपने भारतीय संस्करण से वंचित है.




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