Home गेस्ट ब्लॉग देश-दुनिया के राजनीतिक चिंतन में भगत सिंह

देश-दुनिया के राजनीतिक चिंतन में भगत सिंह

26 second read
0
0
1,205

धर्म और हमारा स्वतन्त्रता संग्राम

संभावनाओं के जननायक भगत सिंह इतिहास में उज्ज्वल उपस्थिति दर्ज करा गए. उन्होंने जीने की औसत उम्र भी नहीं ली. प्रखर नास्तिक बने धर्म के प्रति शंकालु थे. इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर भगत सिंह पिस्तौल या बम के आतंक के प्रतीक बनाए जा रहे हैं. जरूरत है, भगत सिंह के मानस की पड़ताल की जाए. उन विचारों को प्रासंगिक बनाया जाए, जो भारतीय क्रांतिकारियों का दर्शन बने थे.

भगत सिंह को राजनीतिक चिंतन के इतिहास में वास्तविक स्थान पर स्थापित करने की जरूरत है. उनका पूरा लेखन आज तक सामान्य पाठकों तक नहीं पहुंचा है. इस वीर युवक के साहसिक जोखिम के तिलिस्म से उबरकर कब उसे कॉमरेड समझा जाएगा ? उन्हें मिथक पुरुष बनाए जाने की गैर-जिम्मेदार कोशिशें चल रही हैं.




दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावाद को वीर पूजा की भावना के सहारे बांझ तर्कशास्त्र ढोने की आदत है. सभी महापुरुषों का, जो उसकी थ्योरी के प्रचार के लिए अपने आंशिक प्रतिस्मरण के जरिये उपयोग में लाए जा सकते हैं, शोषण करने से उसे परहेज नहीं है. पटेल इसलिए भी राष्ट्रवादी हैं कि उन्होंने इस्लामी देसी रियासतों का विलयीकरण करने का जोखिम उठाया.

अंबेडकर इस्लाम का विरोध करते हैं, तो उनके लिए प्रगतिशील हैं. अब गांधी भी हिंदुत्व के पैरोकार और धर्मांतरण के खिलाफ दिखाई पड़ने के कारण उनके दफ्तरों की दीवारों पर टंगे हैं. भगत सिंह उन्हें हिंसक दिखते वीर हैं, जो विरोधी विचारधारा पर बम फेंककर अपने निर्णय की पुष्टि इतिहास से करा सकते हैं. क्या यही भगत सिंह होने का तात्विक अर्थ है ?

दुनिया में चौबीस वर्ष से कम उम्र का कोई बुद्धिजीवी नहीं हुआ, जिसने पांच वर्ष अपने मुल्क के इतिहास को कंधों पर उठाए रखा. भगत सिंह ने समाजवाद या साम्यवाद के वैचारिक वर्क की इतनी बारीक परतें तर्क से चीर दी हैं, जो रूढ़ वामपंथी विचारकों के लिए संभव नहीं है. वह आजीवन प्रतिबद्ध समाजवादी की हैसियत लिए लड़ते रहे.




संविधान सभा की बहस में समाजवाद का उल्लेख होने पर भगत सिंह के नाम का जिक्र तक नहीं आया. नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और लोहिया जैसे समाजवादी विचारकों की तिकड़ी ने भी उनको वैचारिक की तरह तरजीह नहीं दी. शैक्षणिक पाठ्यक्रम में भगत सिंह नहीं हैं. ऐसे लेखक अलबत्ता हैं, जो विचार के जनपथ के हाशिये तक के लायक नहीं हैं.

साथीपन के साथ उनकी टीम ने भारतीय आजादी के लिए मुकम्मल संघर्ष किया. वह साथीपन लोकतंत्र से गायब है. समाजवाद को संविधान के जीवित लक्ष्य के रूप में घोषित करने के बाद भी देश वैश्वीकरण, मुक्त बाजार और साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेके हुए है.

धर्मनिरपेक्षता के सांविधानिक मकसद के बावजूद भारत सांप्रदायिक दंगों का सबसे बड़ा अखाड़ा है. अछूत से भाईचारा रखना भगत सिंह ने समझाया था. वे जगह-जगह सवर्णों की हिंसा का शिकार हैं. इस किसान पुत्र ने किसानों को अर्थनीति की रीढ़ बताया था. किसान थोकबंद आत्महत्याएं कर रहे हैं. सरकारें एहसान बताकर कर्ज माफ कर रही हैं, लेकिन पैदावार का उचित मूल्य और भूमि सुधार नहीं दे पाती.




किसान आज भी राष्ट्रीय बहस के केंद्र में नहीं हैं. नौजवान भगत सिंह का सपना थे. वे ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना तथा बेकारी भत्ते से लेकर सड़कों पर उत्पात करने की सांस्कृतिक गतिविधियों में लिप्त हैं. मजदूरों को भगत सिंह मार्क्सवाद से प्रभावित होकर जेहाद बोलने के काम पर लगाना चाहते थे. वे अपने हकों में लगातार कटौती किए जाने से लुंज-पुंज हो गए हैं.

भगत सिंह उपेक्षित प्रश्नों के अनाथालय थे. जेल नियमों में अंग्रेजी पोशाक पहने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को बेहतर दर्जा मिल सकता था लेकिन भगत सिंह ने कैदियों के अधिकारों की समानता को लेकर आंदोलन किया.

भगत सिंह के प्रखर कर्मों का ताप झेलना मौजूदा राजनीति के वश में नहीं है. उनकी कुरुचिपूर्ण मूर्तियां कन्याकुमारी से गुवाहाटी और जम्मू तक मिल जाएंगी. उनकी याद में सबसे बड़ा केंद्रीय पुस्तकालय/वाचनालय खोलने की जरूरत है. उनसे बड़ा पढ़ाकू भारतीय राजनीति में कोई नहीं हुआ.




सरकारें मंत्रियों की सुरक्षा पर एक साल में जितना खर्च कर देती हैं, उतने धन से भगत सिंह साहित्य को प्रकाशित कर देश के विद्यार्थियों में वितरित कर दिया जाए, तो देश (और भगत सिंह) का ज्यादा भला हो सकता है. भगत सिंह को जन स्मृति से दूर रखने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियां एक हैं.

‘इंकलाब जिंदाबाद‘ के मुकाबले देश ‘इंडिया शाइनिंग‘, ‘फील गुड‘, ‘मेक इन इंडिया‘, ‘स्मार्ट सिटी‘, ‘लव जेहाद‘, ‘विशेष आर्थिक क्षेत्र‘, ‘सेंसेक्स‘, ‘परमाणु करार‘ के नवयुग में लाया गया. भगत सिंह ने बीसवीं सदी के तीसरे दशक में भविष्यमूलक सवाल देश की छाती पर उकेरे थे. इक्कीसवीं सदी में उस क्रांति का पुनर्पाठ हो. वह महान नवयुवक वैचारिक फलक के ताजा इतिहास में पिछले अस्सी-नब्बे वर्षों में ध्रुवतारे की तरह स्थायी है.

बहस, अभिव्यक्ति की आजादी, जन प्रतिरोध, सरकारों की खिलाफत के अधिकार छिन रहे हैं. जो चारित्रिक हस्ताक्षर नहीं हैं, राजनीतिक चेक पर दस्तखत कर रहे हैं. मेहनतकश मजदूरों के वेतन बढ़ने की संभावनाएं और असंगठित मजदूर नक्कारखाने में तूती हैं. पहले से ही सुरक्षित लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के कड़े कानून बन रहे हैं.




उन्होंने उद्योगपतियों की एकता का नारा नहीं दिया. नहीं कहा कि वकील या डॉक्टर एक हों. दुनिया के मजदूरों, किसानों और नौजवानों की एकता की ही उनकी कोशिश थी. उन पर समाजवादी देशजता का नशा छाया था. वह रास्ता हालांकि मार्क्स के विचारों से निकल कर आता था.

भगत सिंह असमय काल-कवलित हो गए. भारतीय हुक्मरान भी उनसे भय खाते हैं. उनके विचारों को क्रियान्वित करने में कानूनों की घिग्गी बंध जाती है. भगत सिंह ने इतने अनछुए सवालों का स्पर्श किया है कि उन पर अब भी समझ विकसित होना बाकी है. उनके विचार केवल प्रशंसा के योग्य नहीं हैं. उन पर क्रियान्वयन कैसे हो-इसके लिए बौद्धिक विमर्श और जन आंदोलनों की जरूरत है.

–  साथी आई. जे. राय




Read Also –

44 जवानों की हत्या के आड़ में फर्जी राष्ट्रवादियों की गुण्डागर्दी
महान शहीदों की कलम से – साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाजमुस्तफा कमाल पाशाः आधुनिक तुर्की, आधुनिक इस्लाम




प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर पर फॉलो करे…]



Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

जाति-वर्ण की बीमारी और बुद्ध का विचार

ढांचे तो तेरहवीं सदी में निपट गए, लेकिन क्या भारत में बुद्ध के धर्म का कुछ असर बचा रह गया …