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चीन : एक जर्जर देश के कायापलट की अभूतपूर्व कथा

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जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई ? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया ? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए ? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं ?

1848 में प्रकाशित कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स लिखित ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ ने गोलार्ध के हर हिस्से को जितना प्रभावित किया, उतना शायद ही किसी दूसरी किताब ने किया हो. (ज़ाहिर है, बात ख़ुदाई किताबों की नहीं, दुनिया के राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तनों से जुड़ी किताबों की हो रही है).

‘दुनिया की व्याख्या बहुत हुई, ज़रूरत बदलने की है’ – मार्क्स के इस वाक्य से सूत्र ग्रहण करते हुए तमाम देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने व्यवस्था परिवर्तन के प्रयोग किये. इन प्रयोगों में आये उतार-चढ़ावों के बीच दुनिया बहुत बदली और कम्युनिस्टों को लेकर एक ज़माने में बना आकर्षण अब कम नज़र आता है. पहली सफल क्रांति वाले देश रूस में कम्युनिस्ट पार्टी के सत्ता से बाहर हुए अरसा हो चला है, वहीं लैटिन अमेरिकी देशों में कम्युनिस्ट लोकतांत्रिक तरीक़े से बदलाव में जुटे हैं जिसकी उन्होंने भारी क़ीमत चुकाई है.

बहरहाल, कम्युनिस्ट घोषणा पत्र के प्रकाशन के ठीक सौ बरस बाद 1948 में अफ़ीमचियों के देश कहे जाने वाले चीन में कम्युनिस्ट पार्टी ने माओ-त्से तुंग के नेतृत्व में जनक्रांति का कारनामा कर दिखाया. दूसरे तमाम प्रयोगों की तरह चीन का प्रयोग इस अर्थ में भिन्न है कि वहाँ आज तक कम्युनिस्टों को पीछे नहीं जाना पड़ा. चीन उनके नेतृत्व में आज एक नयी ऊंचाई पर है.

उपनिवेशवादियों द्वारा बेतरह नोचा-खसोटा गया चीन न सिर्फ एक शक्तिशाली देश के रूप में सामने है बल्कि आर्थिक समृद्धि की उसकी रफ़्तार ने पश्चिम को हैरान कर रखा है. 1 जुलाई को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के सौ बरस पूरे हो रहे हैं. इस मौक़े पर वरिष्ठ पत्रकार सत्येंद्र रंजन ने चीन के प्रयोग को लेकर मीडिया विजिल के लिए एक ख़ास शृंखला लिखना मंज़ूर किया है. हम उनके आभारी हैं. उम्मीद है कि हिंदी पाठक इस शृंखला से समृद्ध होंगे – संपादक.

चीन : एक जर्जर देश के कायापलट की अभूतपूर्व कथा

एक जुलाई 2021 को चीन की कम्युनिस्ट अपनी स्थापना के 100 साल पूरे करेगी. किसी राजनीतिक दल का 100 साल तक प्रासंगिक बने रहना अपने-आप में एक उपलब्धि है, लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं है. दुनिया में आज ऐसी कई पुरानी पार्टियां मौजूद हैं, जो अपने-अपने देशों में प्रासंगिक बनी हुई हैं. अगर स्थापना के क्रम के हिसाब से देखें तों अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी, ब्रिटेन की कंजरवेटिव पार्टी, अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी, जर्मनी की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी (एसपीडी), भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और ब्रिटेन की लेबर पार्टी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की तुलना में खासी पुरानी ठहरती हैं. इनकी अभी अपने-अपने देशों में महत्त्वपूर्ण भूमिका बनी हुई है. बहुत-सी उपलब्धियां इन पार्टियों के नाम भी हैं, इसके बावजूद चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) ने आधुनिक विश्व के राजनीतिक इतिहास में अगर अपनी एक विशेष और अतुलनीय स्थिति बनाई है, तो उसकी वजह यह है कि उसने पिछले सौ साल में चीन जैसे बड़ी आबादी वाले देश का पूरा काया पलट कर दिया है.

आज इस परिवर्तन के आर्थिक परिणामों में सारी दुनिया में गहरी दिलचस्पी देखने को मिल रही है. मगर चीन की ये आर्थिक हैसियत वहां पिछले 100 साल में उभरे एक नए किस्म के राजनीतिक संगठन, और सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्था में आए बुनियादी बदलावों का ही नतीजा हैं. इस पूरी परिघटना को समझे बिना उसकी आज बनी आर्थिक हैसियत को नहीं समझा जा सकता. इस पूरी कथा पर गौर किए बिना यह नहीं समझा जा सकता कि सिर्फ 70 साल की अवधि में एक युद्ध जर्जर और लुंजपुंज देश दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था कैसे बन गया ? ये बात नहीं भूलनी चाहिए कि 1949 में जब चीन में सीपीसी के नेतृत्व में पीपुल्स रिपब्लिक (जनवादी गणराज्य) की स्थापना हुई, तो उसके पहले तक चीन को ‘अफीमचियों और वेश्याओं’ का देश कहा जाता था. सदियों तक राजतंत्र के तहत चली सामंती व्यवस्था और 19वीं एवं 20वीं सदी में उपनिवेशवादी और साम्राज्यवादी हमलों ने इस प्राचीन की देश की यही हालत कर रखी थी.

वो देश आज कहां हैं…? इसी हफ्ते ब्रिटेन में खत्म हुए जी-7 शिखर सम्मेलन में हुई चर्चाओं पर गौर करें, तो इसका अंदाजा खुद लग जाता है. पश्चिमी दुनिया में पिछले एक दशक से जो चर्चाएं चल रही हैं, जी-7 शिखर बैठक उसी का एक सिलसिला थी. जिन देशों ने लगभग 300 साल तक दुनिया के विभिन्न हिस्सों को उपनिवेश बनाकर रखा था, जिन्होंने पूरी दुनिया का साम्राज्यवादी शोषण किया, वे आज मिलकर चीन को घेरने की रणनीति बनाने में अपनी पूरी ऊर्जा लगाए हुए हैं. पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ‘एशिया की धुरी’ (pivot of Asia) रणनीति से इसकी शुरुआत की थी, जो आज हाई पिच पर पहुंच गई है.

2016 के राष्ट्रपति चुनाव में डॉनल्ड ट्रंप ने चीन की बढ़ती ताकत को अपना प्रमुख मुद्दा बनाया था. इसके लिए वहां के ‘ऐस्टैबलिशमेंट’ को दोषी ठहराते हुए उन्होंने ऐसा माहौल बनाया कि वे अप्रत्याशित रूप से चुनाव जीत गए. 2020 में वे हार जरूर गए, लेकिन मुद्दा इतना गरम रखा कि उनके प्रतिद्वंद्वी जोसेफ आर. बाइडेन को चीन के खिलाफ सख्त से सख्त रुख लेने में उनसे होड़ करनी पड़ी. राष्ट्रपति के रूप में अपने अब तक कार्यकाल में बाइडेन ने चीन को ‘दुनिया की नंबर एक शक्ति ना बनने देने’ को अपना सबसे प्रमुख एजेंडा बना रखा है. हालत यह है कि अमेरिका के इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए घोषित अपने पैकेज को कांग्रेस (संसद) की मंजूरी दिलवाने के लिए उन्हें ये तर्क देना पड़ रहा है कि चीन का मुकाबला करने के लिए ये जरूरी है.

जी-7 की शिखर बैठक में जो बाइडेन का प्रमुख एजेंडा बाकी छह देशों को चीन विरोधी मुहिम में सक्रिय भागीदार बनाने का रहा. इस सिलसिले में पश्चिमी देशों ने पिछले कुछ वर्षों से चीन के शिनजियांग प्रांत में उइघुर मुसलमानों के दमन की एक बनावटी कहानी तैयार की है, जिसको लेकर उन्होंने चीन की बाकी दुनिया में साख खत्म करने का अभियान छेड़ा हुआ है. ये कहानी काफी कुछ 2001 के बाद इराक के ‘व्यापक विनाश के हथियारों’ के खड़े किए गए हौव्वे से मेल खाती है. इस कहानी को चीन में आम तौर पर ‘मानव अधिकारों के हनन’, ‘जबरिया मजदूरी लेने के चलन’ और उसकी ‘तानाशाही व्यवस्था’ के पुराने आरोपों से जोड़कर पेश किया गया है.

ये सारी बातें जी-7 शिखर सम्मेलन में दोहराई गईं लेकिन जो एक नई बात वहां हुई, वह चीन की वैश्विक इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास परियोजना- बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के जवाब में जी-7 की अपनी वैसी ही परियोजना शुरू करने की घोषणा है. इसे बिल्ड बैक बेटर वर्ल्ड यानी वापस बेहतर दुनिया बनाओ नाम दिया गया है. इस परियोजना के लिए कहां से धन आएगा, उसे कौन बनाएगा, और ये कब और किस हद तक बन पाएगी…? ये बातें अभी साफ नहीं हैं. फिलहाल, गौर करने की बात यह है कि चीन ने जिस परियोजना को एशिया से यूरोप होते हुए अफ्रीका तक काफी आगे बढ़ा लिया है, अब पश्चिमी देश उसका जवाब वैसी ही परियोजना से देने की जरूरत महसूस कर रहे हैं.

और यह सिर्फ उनका अकेला मोर्चा नहीं है. दुनिया को कोरोना वैक्सीन की सप्लाई में जो रिकॉर्ड चीन ने कायम कर लिया है, उसका मुकाबला करने के लिए भी अब पश्चिम के देश जागे हैं. इस संदर्भ में उल्लेखनीय है कि कोरोना महामारी सबसे पहले चीन में फैली लेकिन चीन ने फुर्ती से उस पर काबू पाने के बाद जिस तरह अपनी अर्थव्यवस्था संभाली उसने सारी दुनिया का ध्यान खींचा. उसके बाद कई (दो बहुचर्चित हैं, लेकिन कुल पांच वैक्सीन पर काम आगे बढ़ा है) कोरोना वैक्सीन विकसित करने के साथ ही दुनिया के लगभग 70 देशों में चीन ने उनकी आपूर्ति की. उसे पश्चिमी कॉरपोरेट मीडिया ने ‘वैक्सीन डिप्लोमैसी’ का नाम दिया. अब उस कथित डिप्लोमैसी का जब पश्चिमी देश मुकाबला करने की कोशिश कर रहे हैं, तो वो मीडिया उसे ‘मानवीय मदद’ के रूप में पेश कर रहा है.

सवाल यह है कि औपनिवेशिक शोषण से विकास और समृद्धि का ऊंचा स्तर प्राप्त कर चुके पश्चिमी देश आखिर तीसरी दुनिया के एक देश- जिसे अब भी विकासशील की श्रेणी में रखा जाता है- से इतना भयभीत क्यों हैं ? अगर जो बाइडेन समेत पश्चिमी नेताओं के बयानों और पश्चिमी कॉरपोरेट मीडिया में चलने वाली चर्चाओं पर गौर करें, तो इस सवाल का जवाब सामने आने में देर नहीं लगती. वजह यह है कि बीते 300 साल में पहली बार गैर-पश्चिमी और गैर-औपनिवेशिक कोई देश पश्चिम के आर्थिक और कूटनीतिक वर्चस्व को चुनौती देने की हैसियत में उभर कर सामने आया है.

अनुमान यह है कि अगले सात साल में वह सकल रूप में (यानी प्रति व्यक्ति जीडीपी के हिसाब से नहीं) दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगा. दुनिया का मैनुफैक्चरिंग हब यानी प्रमुख केंद्र वह पहले ही बन चुका है. सूचना और संचार तकनीक के कई पहलुओं में उसने पश्चिम को पीछे छोड़ दिया है. यहां ये याद करने की बात है कि 2008 में जब पश्चिमी देशों में आर्थिक मंदी आई और उससे पूरी विश्व अर्थव्यवस्था प्रभावित हुई थी, तो अपने विशाल निवेश के जरिए उसके असर से चीन ने ही दुनिया को एक हद तक निकाला था. उसकी उसी रणनीति का अगला चरण बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के रूप में सामने आया. दरअसल, यही घटनाक्रम वह मौका बना, जब पश्चिमी दुनिया का ध्यान चीन की बढ़ती हुई हैसियत पर गया और उसके कुछ ही वर्षों के बाद ‘एशिया की धुरी’ जैसी रणनीतियों की बात सुनाई देने लगी.

तो कुल हकीकत यह है कि चीन की आज ऐसी ताकत या हैसियत बन गई है और ऐसा हाल के वर्षों में चीन सरकार ने अपनी जनता का अपनी शासन व्यवस्था में भरोसा लगातार मजबूत करते हुए किया है. इस बात की पुष्टि पिछले साल जुलाई में अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन से हुई थी. इस अध्ययन का निष्कर्ष यह रहा निकट भविष्य में कि चीन के लोगों की निगाह में वहां की शासन व्यवस्था की वैधता के संदिग्ध होने की संभावना नहीं है. 2020 में चीन ने अपने यहां चरम गरीबी खत्म करने का एलान किया था. खुद पश्चिमी मीडिया ने इस बात की पुष्टि की है कि पहले चीन के जो इलाके सबसे गरीब थे, अब वहां भी गांवों में जिंदगी काफी बदल गई है. इस बदलाव के साथ बढ़ती गैर-बराबरी जैसी कई समस्याएं भी वहां खड़ी हुई हैं, जिन पर जरूर चर्चा होनी चाहिए. इस लेख शृंखला में हम चीन की मुश्किलों और वहां जारी या नई पैदा हुई समस्याओं पर भी ध्यान देंगे. फिलहाल, हम बात एक विशाल देश के उस कायापलट की कर रहे हैं, जैसा कोई और उदाहरण विश्व इतिहास में नहीं है. इस बात की सबसे बड़ी पुष्टि खुद उन देशों के रुख से होती है, जिनमें इस कायापलट से अपना वर्चस्व टूट जाने का भय समा गया है. उसका परिणाम एक ‘नए शीत युद्ध’ के रूप में सामने आता दिख रहा है.

गौरतलब है कि पहला शीत युद्ध दुनिया ने 20वीं सदी में देखा था. तब मुकाबला तत्कालीन सोवियत संघ के खेमे और पश्चिमी देशों के बीच था लेकिन ये बात रेखांकित करने की है कि सोवियत संघ ने सैनिक और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में पश्चिमी वर्चस्व को अवश्य बड़ी चुनौती दी थी, लेकिन वह कभी दुनिया पर उनके आर्थिक वर्चस्व के लिए खतरा नहीं बन पाया था. चीन सैनिक मामलों में संभवतः आज भी अमेरिका और पश्चिमी देशों से कमजोर है. अमेरिका के आज भी दुनिया में 800 से ज्यादा सैनिक अड्डे हैं, जिससे उसके साम्राज्य को निकट भविष्य में कोई सैनिक चुनौती मिलने की गुंजाइश कम है. आधुनिक तकनीक के ज्यादातर क्षेत्रों में पश्चिमी देशों की बढ़त कायम है. इसके बावजूद चीन के उभार से आज जैसी बेचैनी उनमें देखी जा रही है, वैसी पहले शीत युद्ध के समय भी नहीं देखी गई थी.

तो जब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपनी शताब्दी मनाने की तैयारियों में जुटी है, तब बाकी दुनिया के लिए दिलचस्पी का विषय यही समझना है कि आखिर चीन ने अपनी ऐसी हैसियत कैसे बनाई ? सीपीसी ने कैसे एक जर्जर देश को वापस खड़ा किया ? इस दौरान उसने क्या प्रयोग किए ? उन प्रयोगों के सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम कैसे रहे हैं ? अगली किस्त में हम बात शुरू से शूरू करेंगे यानी देखेंगे कि आखिर ये बात कहां से शुरू हुई और फिर कैसे आगे बढ़ी ?

पुरातन चीन को आधुनिक बनाने का एक ग्रैंड प्रोजेक्ट

सीपीसी के सत्तारोहण के बाद का इतिहास भी अब 71 साल से अधिक का हो चुका है. चीन की जो उपलब्धियां हैं, उनकी जमीन इसी दौर तैयार हुई और इसी दौरान वे साकार भी हुईं लेकिन ये 71 साल आसान नहीं रहे हैं. इस दौरान कई उथल-पुथल से सीपीसी और चीन दोनों को गुजरना पड़ा. उन सबकी विस्तार से चर्चा एक लेख शृंखला में संभव नहीं है. इस दौर में कुछ पड़ाव ऐसे रहे हैं, जिनको लेकर न सिर्फ दुनिया में, बल्कि खुद चीन के अंदर भी अंतर्विरोधी समझ रही है. अब जबकि शताब्दी के मौके पर सीपीसी की भूमिका को समझने की कोशिश की जा रही है, तब उन पर और उनसे जुड़े विवादों पर एक नज़र डालना अनिवार्य है.

ब्रिटिश लेखक और पत्रकार मार्टिन जैक्स ने लिखा है – ‘विश्व शक्ति के रूप में चीन के उदय से हर चीज में नई जान आ गई है. पश्चिम इस विचार से चलता रहा है कि ये दुनिया उसकी दुनिया है. अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसका समुदाय है. वही उसूल यूनिवर्सल (वैश्विक) हैं, जो उसके उसूल हैं लेकिन अब ये बात नहीं रह जाएगी.’ जैक्स ने ये बातें 2009 में आई अपनी किताब ‘ह्वेन चाइना रूल्स वर्ल्ड’ में कही थी. 12 साल बाद अब ये साफ है कि जैक्स की बातें काफी हद तक सच हो गई हैं.

तो जाहिर है कि ये हर लिहाज से एक युगांतकारी बदलाव है. इस बड़े बदलाव की नींव 1921 में पड़ी थी. उस वर्ष एक जुलाई को चीन के मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों और नौजवानों का एक जत्था कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के लिए शंघाई (जो उस समय फ्रेंच शासन में था) में बैठा. चेन दुशिऊ और ली दा झाओ को इस बैठक के आयोजन का श्रेय दिया जाता है. लेकिन इतिहासकारों के मुताबिक यह तारीख महज प्रतीकात्मक है, क्योंकि जिस समय शंघाई में बैठक चल रही थी, वहां पुलिस छापा पड़ गया. इस कारण बैठक में शामिल लोग भाग गए और नौकाओं से वे लगभग सौ किलोमीटर दूर एक स्थान पर गए, वहीं पार्टी के स्वरूप को आखिरी रूप दिया गया. लेकिन इस ठोस रूप लेने में अभी और वक्त लगा, हां, यह जरूर था कि वहां से यात्रा शुरू हो चुकी थी.

इस यात्रा में कई अध्याय हैं लेकिन इसके दो मुख्य चरण हैं. पहला 1921 से 1949 तक का, जो संघर्ष या सीपीसी के शब्दों में कहें तो वर्ग युद्ध का दौर है. इस लंबी लड़ाई के परिणामस्वरूप एक अक्टूबर 1949 को आखिरकार बीजिंग की सत्ता पर सीपीसी का कब्जा हुआ. उस रोज पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (चीन जनवादी गणराज्य) की नींव रखी गई, तब से लेकर सीपीसी चीन की सत्ताधारी पार्टी रही है.

अपने संघर्ष के चरण में सीपीसी को कई दौर से गुजरना पड़ा. कुओ-मिन-तांग (राष्ट्रवादी पार्टी जिसने 1911 की गणतंत्रीय क्रांति के बाद से कम्युनिस्ट क्रांति तक ज्यादातर समय देश की सत्ता संभाली) से सहयोग और टकराव, 1925 में सुन-यात-सेन की मृत्यु के बाद कुओ-मिन-तांग के बदले रुख, और उसके हमलों के कारण बनी ऐतिहासिक लॉन्ग मार्च की परिस्थितियां, जापान के साम्राज्यवादी हमलों के समय ‘जनता के अंदरूनी अंतर्विरोधों’ की सही समझ का परिचय देते हुए माओ-त्से तुंग के नेतृत्व में सीपीसी का फिर से कुओ-मिन-तांग से मिल कर युद्ध में शामिल होना, बाद में फिर से कुओ-मिन तांग से टकराव और आखिरकार बीजिंग में सीपीसी का सत्तारोहण इस दौर के प्रमुख घटनाक्रम रहे.

बहरहाल, सीपीसी के सत्तारोहण के बाद का इतिहास भी अब 71 साल से अधिक का हो चुका है. चीन की जो उपलब्धियां हैं, उनकी जमीन इसी दौर तैयार हुई और इसी दौरान वे साकार भी हुईं लेकिन ये 71 साल आसान नहीं रहे हैं. इस दौरान कई उथल-पुथल से सीपीसी और चीन दोनों को गुजरना पड़ा. उन सबकी विस्तार से चर्चा एक लेख शृंखला में संभव नहीं है. इस दौर में कुछ पड़ाव ऐसे रहे हैं, जिनको लेकर न सिर्फ दुनिया में, बल्कि खुद चीन के अंदर भी अंतर्विरोधी समझ रही है. अब जबकि शताब्दी के मौके पर सीपीसी की भूमिका को समझने की कोशिश की जा रही है, तब उन पर और उनसे जुड़े विवादों पर एक नज़र डालना अनिवार्य है.

पीपुल्स रिपब्लिक के वजूद में आने के बाद पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत, नए समाज के निर्माण के सिलसिले में गांवों में कम्यून की स्थापना, दूसरी पंचवर्षीय योजना में अपनाई गई ग्रेट लीप फॉरवर्ड की नीति, 1966 से 1976 तक चली सांस्कृतिक क्रांति, 1976 में माओ के निधन के बाद सत्ता के केंद्र में देंग श्यायो फिंग की वापसी और तब से शुरू हुआ देंग युग, और आखिर में शी जिनपिंग का मौजूद दौर – ये वो पड़ाव हैं, जिनका असर आज के चीन पर साफ देखा जा सकता है.

इस क्रम में कई विवादित सवाल रहे हैं. मसलन, ग्रेट लीप फॉरवर्ड क्या अति-उत्साह में अपनाई गई नीति थी, जिसके विनाशकारी परिणाम चीन को भुगतने पड़े ? क्या सांस्कृतिक क्रांति सीपीसी के भीतर सत्ता का संघर्ष था, जिसके भयंकर अनुभवों से चीन की एक पूरी पीढ़ी अपने जीवन में कभी नहीं उबर पाई ? क्या अपने हाथ में सत्ता का केंद्र आते ही देंग ने माओ की पूरी विरासत पलट दी और क्या वे चीन को पूंजीवाद की राह पर ले गए ? या देंग की नीतियों के तहत जो चीन बना, उससे समाजवाद का एक बिल्कुल अनूठा रूप सामने आया, जिसे सीपीसी ‘चीनी स्वभाव का समाजवाद’ (socialism with Chinese characteristics) कहती है ? या यह असल में ‘राजकीय पूंजीवाद’ पर परदा डालने के लिए गढ़ा गया एक शब्द है ? और क्या शी जिनपिंग के दौर में चीन ने राष्ट्रवाद या उग्र-राष्ट्रवाद का रास्ता अख्तियार कर लिया है, जो धीरे-धीरे साम्राज्यवादी स्वरूप ग्रहण कर रहा है ? ये तमाम वो सवाल हैं, जिन पर दुनिया पिछले छह-सात दशकों से बहस करती रही है. लेकिन गौर की बात यह है कि इसी बहस और तमाम आलोचनाओं के बीच चीन का एक महाशक्ति के रूप में उदय हो गया है.

आज सबसे अहम यह समझना है कि आखिर ऐसा कैसे हुआ ? यह समझने के क्रम में दुनिया भर के अनेक इतिहासकारों, अर्थशास्त्रियों और राजनीति शास्त्रियों के विमर्श का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है. इससे आम तौर पर जो एक बात उभर कर सामने आती है कि वो यह कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के बाद सीपीसी ने जो विकास नीति अपनाई, उसके केंद्र में हमेशा आम जन को रखा गया. माओ के दौर में समता का मूल्य ऐसी हर नीति का प्रमुख मार्गदर्शक बना रहा. इन दोनों बातों का साझा परिणाम यह हुआ कि आरंभिक दशकों में चीन ने तब जो भी सीमित संसाधन थे, उनका निवेश, जिसे अब नई भाषा में मानव विकास कहा जाता है, उसमें किया. तो जोर प्राथमिक शिक्षा, प्राथमिक स्वास्थ्य, और आम जन की सबसे प्राथमिक जरूरतों पर था.

इसी जोर की एक मिसाल बेयर फुट डॉक्टरों का प्रयोग था, जिन्हें उन आम बीमारियों के इलाज के लिए गांव-गांव भेजा गया, जिनके इलाज के लिए उच्च विशेषज्ञता की जरूरत नहीं होती. जोर ऐसे डॉक्टर तैयार करने पर रहा, जो डायरिया और आम इन्फेक्शन से होने वाले रोगों को स्थानीय स्तर पर साधारण चिकित्सा से ठीक कर सकें. निरक्षरता दूर करना और सबको बुनियादी तालीम देना पहली प्राथमिकताएं रहीं. गांवों में कम्यून बनाए गए, जिनके तहत सामूहिक खेती और अन्य उद्योग-धंधों को चलाने की योजना लागू की गई. ये प्रयोग कितना सफल रहा, यह विवादास्पद है. इसी विवाद से जुड़ा ग्रेट लीप फॉरवर्ड नीति की कथित विफलता है.

ग्रेट लीफ फॉरवर्ड की नीति दूसरी पंचवर्षीय योजना में अपनाई गई. इसका मकसद तेजी से औद्योगिक विकास था. औद्योगिक विकास के लिए श्रमिकों की जरूरत थी तो सोचा गया कि गांवों से लोगों को शहर जाने के लिए प्रेरित किया जाए. आरोप है कि इस दौरान जोर-जबरदस्ती बरती गई. कहा जाता है कि कम्यून के तहत अनाज उत्पादन के जो लक्ष्य रखे गए, वे असल में प्राप्त नहीं हुए. चूंकि उनमें जिम्मेदारी सामूहिक थी, इसलिए ग्रामीणों ने व्यक्तिगत उत्साह और जरूरी मेहनत के साथ अपना योगदान नहीं किया. इससे अनाज पैदावार में गिरावट आई लेकिन इसकी रिपोर्टिंग ईमानदारी से नहीं की गई.

सरकार को यह गलत सूचना मिलती रही कि अनाज की पैदावार पूरी आबादी को खिलाने के लिहाज से पर्याप्त मात्रा में हो रही है. कहा जाता है कि वास्तविक स्थिति उलटी थी. इसके बावजूद लाखों की संख्या में ग्रामीणों को शहरी औद्योगिक केंद्रों की तरफ भेज दिया गया. इसी बीच सूखा भी पड़ गया. नतीजा हुआ कि देश में अनाज की कमी हो गई. उससे बड़ी संख्या में मौतें हुईं. कितनी ? ये सही संख्या आज तक किसी को नहीं मालूम. पश्चिमी देशों में ये संख्या दो से तीन करोड़ तक मानी जाती है. चीन में अब तक ऐसे विश्वसनीय आंकड़े सामने नहीं आए हैं, जिनसे सही अंदाजा लग सके. लेकिन जब देंग का युग शुरू हुआ तो यह माना गया कि ग्रेट लीप फॉरवर्ड नीति पर अमल के कारण देश को अकाल झेलना पड़ा था.

ग्रेट लीप फॉरवर्ड नीति की विफलता का संबंध सांस्कृतिक क्रांति शुरू करने की माओ की मंशा से जोड़ा जाता है. माओ की सीपीसी में जो असाधारण हैसियत थी, वह पार्टी के सौ साल के इतिहास में किसी की नहीं रही. माओ की ये हैसियत उनके मार्गदर्शक व्यक्तित्व और वर्ग युद्ध के लंबे काल में उनकी नेतृत्व क्षमता की वजह से बनी थी. पार्टी में उन्हें चेयरमैन का दर्जा दिया गया था, तो उनके निधन के बाद किसी और को नहीं मिला लेकिन चूंकि वे पार्टी के सर्वमान्य नेता थे, इसलिए ग्रेट लीफ फॉरवर्ड की विफलता का ठीकरा भी उनके सिर फोड़ा जाता है.

एक राय यह है कि इस नाकामी के बाद पार्टी का एक हलका माओ के नेतृत्व पर सवाल उठाने लगा था. उससे सत्ता संघर्ष की स्थिति बन रही थी, जिसका जवाब माओ ने सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत करके दिया लेकिन माओवादी नजरिया यह है कि क्रांति के तकरीबन 15 साल बाद सीपीसी में पूंजीवादी प्रवृत्तियां उभरने लगी थी. कम्यून व्यवस्था को खत्म कर बुर्जुआ व्यवस्था लाने की कोशिशें की जा रही थी. माओ समर्थकों का आरोप था कि चीन के तत्कालीन राष्ट्रपति ली शाओ ची इसी धारा का नुमाइंदगी कर रहे थे. तो माओ ने देश के नौजवानों से क्रांति के मूल स्वरूप को बचाने का अह्वान किया. उन्होंने क्रांति के अंदर क्रांति का सिद्धांत सामने रखा. इस दौर में उनका एक प्रमुख नारा था – बॉम्बार्ड द हेडक्वार्टर्स यानी मुख्यालयों पर हमला बोलो. इसमें सबसे बड़ा मुख्यालय राष्ट्रपति का था. इसके अलावा पुरातन संस्कृति और धर्म सत्ता के जो केंद्र थे, उन्हें भी ध्वस्त करने की अपील की गई.

माओ की लोकप्रियता का आलम यह था कि लाखों नौजवान रेड गार्ड्स का हिस्सा बन गए, जिसके जरिए सांस्कृतिक क्रांति को अंजाम दिया गया. ये सच है कि उस दौरान पार्टी में जो भी माओ के आसपास के कद के नेता थे, उनकी जगह पार्टी में खत्म हो गई. इसके एकमात्र अपवाद प्रधानमंत्री झाओ एन लाइ थे. बाकी सैकड़ों नेताओं और कार्यकर्ताओं को स्टडी कैंप (अध्ययन शिविर) में भेज दिया गया. हजारों लोगों को शारीरिक श्रम करने के लिए गांव भेज दिया गया. कहा जाता है कि रेड गार्ड्स ने इस दौरान अति-उत्साह दिखाया और उन्होंने माओ की लाइन से हर असहमत व्यक्ति पर धावा बोल दिया. इस दौरान देश के आर्थिक विकास के तमाम कार्यक्रम ठहर गए. हालांकि कुछ जानकारों की राय है कि सांस्कृतिक क्रांति ने चीन के आधुनिकीकरण के उस अभियान को अपनी मंजिल पर पहुंचा दिया, जिसकी पृष्ठभूमि में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन हुआ था.

आधुनिकीकरण की परियोजना की शुरुआत दरअसल 1911 में हुए राजतंत्र विरोधी आंदोलन से हो गई थी. इसी आंदोलन के परिणामस्वरूप चीन में सदियों से चले आ रहे राजतंत्र का खात्मा हुआ. 1912 में पहली बार गणतंत्र व्यवस्था के तहत सरकार बनी. उसके बाद प्रबुद्ध वर्ग ने चीनी समाज को श्रेणीबद्धता (हायआर्की) से मुक्त करने की मुहिम छेड़ी. चीनी समाज सदियों से कंफ्यूशियस की सोच और परंपरा के साथ चल रहा था. इसका खास पहलू ऊंच-नीच का श्रेणीबद्ध ढांचा था. इसके विरोध में 1915 में चीन में नव सांस्कृतिक आंदोलन की शुरुआत हुई थी. उसके बाद 1919 में मशहूर फॉर्थ-मे मूवमेंट (चार मई आंदोलन) हुआ, जिसके जरिए उपनिवेशवाद विरोधी भावना भी नव सांस्कृतिक आंदोलन का हिस्सा बन गई.

माओ के जीवनकारों ने लिखा है कि माओ की पहली राजनीतिक दीक्षा इसी सांस्कृतिक आंदोलन के दौरान हुई थी. उसके बाद ता-उम्र वे चीन को एक आधुनिक समाज और राष्ट्र बनाने की महत्त्वाकांक्षा पाले रहे. 1966 में जब उन्होंने सांस्कृतिक क्रांति की घोषणा की, तो उसके पीछे भी उनके ये महत्त्वाकांक्षा थी. बेशक सांस्कृतिक क्रांति के दौरान ज्यादतियां हुईं, लेकिन उससे चीन में अंधविश्वास और पुरातनता के खिलाफ एक नई संस्कृति की जड़ें जमाने में भी मदद मिली. बहराहल, हकीकत यह है कि सांस्कृतिक क्रांति का दौर आधुनिक चीनी इतिहास का सबसे विवादास्पद अध्याय है. देंग जब सत्ता के केंद्र में आए, तो सीपीसी सांस्कृतिक क्रांति के दौर को एक गलती के रूप में चित्रित करने लगी.

सांस्कृतिक क्रांति का दौर 1976 में माओ के निधन के साथ समाप्त हुआ था. उसके बाद चीन ने नई राह पकड़ी. अगली अध्याय में हम उन पर गौर करेंगे। लेकिन उससे पहले माओ के दौर का एक और अहम अध्याय है, जिसे बिना समझे पीपुल्स रिपब्लिक ने जो दिशा पकड़ी उसे नहीं समझा जा सकता. ये अध्याय दुनिया के पहले कम्युनिस्ट प्रयोग – सोवियत संघ के साथ चीन के अलगाव का है. अनेक इतिहासकार मानते हैं कि इस घटनाक्रम का विश्व साम्यवादी आंदोलन पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा. तो ये सारा घटनाक्रम किस तरह चला, इस पर बात अगली अध्याय में.

ग्रेट डिबेट और महाबंटवारा

‘ख्रुश्चेव के दौर में जब सीपीएसयू ने पूंजीवादी व्यवस्थाओं के साथ सह-अस्तित्व का सिद्धांत अपनाया, तो दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच मतभेद और तीखे हो गए. उसी दौर में सीपीसी और सीपीएसयू के बीच पत्रों के आदान-प्रदान के जरिए वो सैद्धांतिक बहस खड़ी हुई, जिसे दुनिया में ग्रेट डिबेट यानी महान बहस के रूप में जाना गया. कई वर्षों तक चली ये बहस किसी सहमति तक नहीं पहुंच सकी. सीपीएसयू के व्यवस्थाओं के शांतिपूर्ण संक्रमण और पूंजीवाद के साथ सह-अस्तित्व के सिद्धांत को सीपीसी ने कभी स्वीकार नहीं किया. हालांकि ये विडंबना ही है कि जिन माओ ने पूंजीवाद के सह-अस्तित्व की बात को उस समय ‘संशोधनवाद’ करार दिया, उनके नेतृत्व में ही चीन ने 1972 में अमेरिका के साथ दोस्ताना संबंध बना लिए.’

पूर्व सोवियत संघ और चीन की कम्युनिस्ट पार्टियों में 1960 के दशक में हुआ अलगाव विश्व साम्यवादी आंदोलन के लिए ऐसा झटका साबित हुआ, जिससे वह कभी उबर नहीं पाया. उसके साथ ही दुनिया भर की कम्युनिस्ट पार्टियां विभाजन का शिकार होने लगी. मसलन, अपने देश में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बंटवारे की पृष्ठभूमि में भी यही घटनाक्रम था, जिसके परिणास्वरूप पहले भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) और बाद में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) आस्तित्व में आईं. चीन और सोवियत कम्युनिस्ट पार्टियों के अलगाव का एक नतीजा यह भी हुआ कि जो देश अपने को कम्युनिस्ट कहते थे, उनके बीच खेमेबंदी हो गई. हालात यहां तक पहुंचे कि 1970 का दशक आते-आते चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सोवियत संघ को सामाजिक साम्राज्यवादी घोषित करते हुए उसे दुनिया के लिए मुख्य खतरा बता दिया. उसी राजनीतिक लाइन के कारण अमेरिका के साथ चीन के संबंध बेहतर होते गए. वैश्विक शक्ति संतुलन के उस विभाजन के बीच सोवियत संघ को और भी ज्यादा संसाधन हथियारों की होड़ में झोंकने पड़े. उसी दौर में उसने अफगानिस्तान में फौज भेजने जैसे दुस्साहसी कदम उठाए. इन सबकी भी सोवियत संघ के विखंडन में भूमिका रही.

लेकिन मूल प्रश्न यह है कि आखिर वो अलगाव क्यों हुआ ? इस बारे में दुनिया भर के कम्युनिस्ट विचारकों की अपने-अपने रूझान के मुताबिक समझ रही है. बहरहाल, अगर हम एक दूरी से वापस उस दौर के घटनाक्रम पर नजर डालें, तो जो ‘ग्रेट डिबेट’ छिड़ी उसकी जड़ें शास्त्रीय मार्क्सवाद (Classical Marxism) के भीतर तलाश सकते है. इसलिए यहां सोवियत संघ के अस्तित्व में आने के बाद वहां घटनाएं जिस ढंग से आगे बढ़ीं, उन पर भी एक निगाह डालना वाजिब होगा.

रूस में 1917 में हुई बोल्शेविक क्रांति का फ़ौरी एजेंडा शांति, रोटी और जमीन थे. लगातार युद्धों में उलझे देश में शांति, गरीबों के लिए रोटी और सामंती व्यवस्था में जी रहे किसानों के लिए जमीन का आकर्षण सहज समझा जा सकता है. जाहिर है, तब घोषित उद्देश्य समाजवाद की स्थापना नहीं था. बोल्शेविक क्रांति के बाद व्लादीमीर लेनिन ने जो ‘नई आर्थिक नीति’ घोषित की थी, वह घोषित एजेंडे के मुताबिक ही तैयार की गई थी. उसके तहत सामंतों की जमीन का किसानों में बंटवारा भी किया गया था लेकिन बाद में सोवियत संघ ने विकास की जो दिशा पकड़ी, उसमें बात बदल गई.

शास्त्रीय मार्क्सवाद की समझ यह है कि समाजवादी क्रांति उस समाज में ही हो सकती है, जहां उत्पादक शक्तियां उन्नत हो गई हों. इसका व्यावहारिक अर्थ है कि ऐसा उसी समाज में हो सकता है, जो सामंतवाद से निकल कर औद्योगिक पूंजीवाद में पहुंच गया हो और जहां अब मुख्य वर्गीय अंतर्विरोध औद्योगिक पूंजी और श्रम के बीच हो. जब रूस में बोल्शेविक क्रांति हुई, तब वह मोटे तौर पर सामंतवादी देश था. पूंजीवाद का उदय अभी प्रारंभिक अवस्था में था लेकिन सीपीएसयू (कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ सोवियत यूनियन) ने नए बनने वाले देश का नाम यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक रखा. जब एक बार क्रांति के बाद बनी व्यवस्था स्थिर हो गई, तो औद्योगिक व्यवस्था के विकास की मुहिम छेड़ दी गई. ऐसी किसी व्यवस्था के लिए अतिरिक्त पूंजी और श्रम की जरूरत होती है. एक देश जो साम्राज्यवाद या उपनिवेशवाद के रास्ते पर ना चल रहा हो, उसे ऐसा अतिरिक्त मूल्य देश के अंदर ही जुटाना पड़ता है. सोवियत संघ में कृषि और किसानों से इसे हासिल करने की कोशिश की गई. इस क्रम में किसानों के विरोध का सामना नवोदित व्यवस्था को करना पड़ा. पश्चिमी मीडिया में जिसे सोवियत संघ में दमन की कहानी बताया जाता है, असल में वह इसी नई सोच और विकास नीति से उपजे सामाजिक अंतर्विरोधों परिणाम थी.

चीन में जब सुन यात सेन की मृत्यु के बाद च्यांग काई शेक ने कुओ मिन-तांग सरकार की बागडोर संभाली, तब तक श्रमिक वर्ग में सीपीसी की लोकप्रियता बढ़ने लगी थी. वैसे ही तब सोवियत संघ के उदय के साथ सारी दुनिया में कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति अद्भुत जन आकर्षण देखा जा रहा था. इससे भयभीत कुओ मिन-तांग शासन ने अपने अब तक के सहयोगी कम्युनिस्टों पर हमला बोल दिया. इसमें सैकड़ों कार्यकर्ताओं को गंवाने के बाद सीपीसी को दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में पनाह लेकर वहां से नई शुरुआत करने के लिए मजबूर होना पड़ा. उसी दौर में माओ का नेतृत्व पार्टी पर स्थापित हुआ. ग्रामीण इलाकों में आधार क्षेत्र बनने के कारण माओ और सीपीसी को चीन की व्यवस्था के मूलभूत स्वरूप को बेहतर ढंग से समझने का मौका मिला. सीपीसी इस निष्कर्ष पर पहुंची कि चीन एक सामंती व्यवस्था है, जो उपनिवेशवाद के प्रभाव में है इसलिए सीपीसी ने चीन को ‘अर्ध सामंती- अर्ध औपनिवेशिक’ देश माना. माओ का निष्कर्ष था कि ऐसी व्यवस्था में औद्योगिक श्रमिकों को आधार बनाकर सीपीसी कहीं आगे नहीं बढ़ सकती. उनकी समझ बनी कि चीन के कम्युनिस्ट आंदोलन में किसानों की खास भूमिका होगी.

उस दौर में दुनिया में जहां भी कम्युनिस्ट आंदोलन था, उसका वैचारिक केंद्र सोवियत संघ होता था. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी आरंभ सोवियत नेतृत्व से सलाह और सीख ली लेकिन अपने समाज की वस्तुगत परिस्थितियों को देखते हुए माओ ने संघर्ष का अलग रास्ता चुनने का फैसला किया. बताया जाता है कि ये बात सोवियत नेतृत्व को रास नहीं आई. हालांकि जब तक बात सिर्फ संघर्ष की थी और क्रांति बहुत दूर थी, तो ये मसला महत्त्वपूर्ण नहीं बना. सीपीएसयू अपना समर्थन सीपीसी को देती रही.

सीपीसी की जो अपनी समझ बनी थी, वह 1949 में चीनी क्रांति के बाद ज्यादा प्रखर ढंग से साफ हुई. गौरतलब है कि सीपीसी ने क्रांति के बाद एक अक्टूबर 1949 को चीन को जो नाम दिया, उसमें समाजवादी शब्द नहीं था. सीपीसी ने नए चीन को पीपुल्स रिपब्लिक कहा. सीपीसी ने चीनी क्रांति को समाजवादी क्रांति भी नहीं बताया बल्कि उसे नव-जनवादी क्रांति कहा गया. इस समझ के साथ नई व्यवस्था बनाने की जो कोशिश शुरू हुई, उसमें कृषि और किसानों को खास अहमियत देते हुए ग्रामीण व्यवस्था में बदलाव की योजनाएं लागू की गईं. ये सारे वो पहलू थे, जिनकी वजह से सीपीसी के सत्ता में आने के बाद सीपीएसयू के साथ उसके वैचारिक मतभेद तेजी से उभरने लगे. फिर भी जब तक स्टालिन सत्ता में रहे, ये एक हद के भीतर ही रहे. स्टालिन के नेतृत्व में जिस तरह सोवियत संघ का तीव्र गति से विकास हुआ और समाजवादी सपने के साकार होने की सूरत उभरी, उससे स्टालिन की कम्युनिस्ट आंदोलन में ऊंची शख्सियत बन गई थी. माओ उनका आदर करते थे.

लेकिन 1953 में स्टालिन की मृत्यु के बाद दोनों देशों के कम्युनिस्ट पार्टियों में संबंध बिगड़ने लगे, खासकर निकिता ख्रुश्चेव के जमाने में जिस तरह स्टालिन की आलोचना की गई और उनके प्रभाव को सोवियत संघ में खत्म करने की कोशिशें शुरू हुईं, उससे सीपीएसयू और सीपीसी के संबंध औपचारिक रूप से बिगड़ने की शुरुआत हो गई. ख्रुश्चेव के दौर में जब सीपीएसयू ने पूंजीवादी व्यवस्थाओं के साथ सह-अस्तित्व का सिद्धांत अपनाया, तो दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के बीच मतभेद और तीखे हो गए. उसी दौर में सीपीसी और सीपीएसयू के बीच पत्रों के आदान-प्रदान के जरिए वो सैद्धांतिक बहस खड़ी हुई, जिसे दुनिया में ग्रेट डिबेट यानी महान बहस के रूप में जाना गया. कई वर्षों तक चली ये बहस किसी सहमति तक नहीं पहुंच सकी. सीपीएसयू के व्यवस्थाओं के शांतिपूर्ण संक्रमण और पूंजीवाद के साथ सह-अस्तित्व के सिद्धांत को सीपीसी ने कभी स्वीकार नहीं किया. हालांकि ये विडंबना ही है कि जिन माओ ने पूंजीवाद के सह-अस्तित्व की बात को उस समय ‘संशोधनवाद’ करार दिया, उनके नेतृत्व में ही चीन ने 1972 में अमेरिका के साथ दोस्ताना संबंध बना लिए.

इसके पहले 1956 में जब हंगरी के कम्युनिस्ट नेतृत्व ने अपनी स्वतंत्र राह चुनने की कोशिश की, तो सोवियत संघ ने वहां अपनी फौज भेज दी. कहा जाता है कि सीपीसी ने उसे सही कदम नहीं माना. आपसी संवाद में उसने इसकी आलोचना की. 1958 में जब चीन ने ग्रेट लीप फॉरवर्ड की नीति अपनाने का एलान किया, तो सीपीएसयू ने उसे पसंद नहीं किया. इस बीच चीन ने परमाणु हथियार बनाने के प्रयास तेज कर दिए थे. बताया जाता है कि ख्रुश्चेव को ये बात पसंद नहीं आई. वे चाहते थे कि ये हथियार कम्युनिस्ट दुनिया में सिर्फ सोवियत संघ के पास रहें. इन सब मसलों से तनाव और बढ़ा. धीरे-धीरे यह अंतरराष्ट्रीय मामलों में दोनों देशों के रुख में झलकने लगा. 1959 में जब तिब्बत में सरकार विरोधी आंदोलन हुए, तो सोवियत संघ ने वहां के लोगों के आंदोलन करने के अधिकार का समर्थन किया. 1960 में रोमानिया की कम्युनिस्ट पार्टी के महाधिवेशन के दौरान सोवियत और चीनी प्रतिनिधिमंडलों के बीच खुल कर नोंक-झोंक हुई. 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय सोवियत संघ ने चीन को भाई लेकिन भारत को दोस्त बताकर किसी का साफ पक्ष लेने से इनकार कर दिया. बताया जाता है कि यह दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में पहले से बिगड़ते संबंध की ताबूत में आखिर कील साबित हुआ.

साल 1964 में जब ख्रुश्चेव को सत्ता में हटा कर लियोनिद ब्रेझनेव सीपीएसयू के महासचिव बने, तो उसके बाद पूरी तरह संबंध विच्छेद हो गया. ये तथ्य इतिहास में दर्ज है कि उसके साथ ही जो रूसी इंजीनियर और तकनीशियन चीन के औद्योगिक निर्माण के लिए वहां आकर काम कर रहे थे, सीपीएसयू ने उन्हें अचानक वापस बुला लिया. इससे चीन की कई परियोजनाएं अधर में लटक गईं.

वैसे सतही विश्लेषणों में इस टूट का कारण दोनों देशों के नेताओं की महत्त्वाकांक्षाओं को भी बताया जाता है. कहा जाता है कि माओ को स्टालिन की वरिष्ठता स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन ख्रुश्चेव और बाद में ब्रेझनेव को वे कम्युनिस्ट दुनिया का नेता मानने को तैयार नहीं थे. वे खुद को अधिक वरिष्ठ समझते थे लेकिन ऐसी बातों का कोई ठोस प्रमाण नहीं होता. वैसे भी कम्युनिस्ट नेताओं के बारे में गैर-कम्युनिस्ट देशों के मीडिया में गपशप, सुनी-सुनाई और कई बार गढ़ी हुई बातों की भरमार होती है इसलिए ऐसे सतही विश्लेषणों को कभी गंभीर चर्चा का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता.

बहरहाल, तथ्य यह है कि सोवियत संघ से अलगाव के बाद चीन ने अपनी अलग राह पकड़ी. तब तक ग्रेट लीप फॉरवर्ड की नीति के खराब नतीजे भी सामने आ चुके थे. इससे चीन और सीपीसी के भीतर नई सियासी समस्याएं भी खड़ी हो गई थीं. तब बिल्कुल नए रास्ते की तलाश में माओ ने सांस्कृतिक क्रांति का आह्वान कर दिया. ये क्रांति उनके बाकी बचे पूरे जीवनकाल तक चली. 9 सितंबर 1976 को माओ के निधन के बाद जब उनकी इच्छा के मुताबिक हुआ गुओ फेंग चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नए प्रमुख बने, तो उनके ही शासनकाल में चौगुट (जिसे पश्चिमी मीडिया में गैंग ऑफ फोर कहा गया) की गिरफ्तारी के साथ सांस्कृतिक क्रांति का अंत हो गया. इस चौगुट की नेता माओ की पत्नी जियांग चिंग थीं. हुआ के शासनकाल में उन्हें भी गिरफ्तार किया गया था. आरोप है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान हुई कथित ज्यादतियां इसी चौगुट की देखरेख और निर्देशन में हुईं. चूंकि जियांग माओ की पत्नी थीं, इसलिए तब कोई उनके विरोध का साहस नहीं जुटा पाया.

हुआ 1981 तक अपने पद पर रहे लेकिन इस बीच चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में भारी उथल-पुथल होती रही. देखते ही देखते देंग श्याओ फिंग पार्टी के सर्वोच्च नेता बन गए. 1981 हू याओबांग के सीपीसी का महासचिव बनने के साथ चीनी सत्ता प्रतिष्ठान पर माओ की विरासत का पटाक्षेप हो गया. हालांकि देंग के युग में भी सीपीसी ने माओ को कभी अस्वीकार नहीं किया बल्कि हमेशा यही कहा गया कि चीन मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्टालिन और माओ के रास्ते पर चल रहा है. वस्तुगत रूप से ये बात कितनी ठीक है, इस पर बात अगली अध्याय में.

जब आया ‘समाजवाद का मतलब गरीबी नहीं’ का मूलमंत्र

क्रांति के बाद माओ ने ‘हजारों फूलों को खिलने दो, हजारों विचारों को पनपने’ दो का आदर्श वाक्य चीनी समाज को दिया था. इसके तहत पार्टी के भीतर और बाहर भी असहमति रखने की छूट दी गई थी. इसी सिद्धांत के तहत क्रांति के बाद हालांकि सीपीसी के नेतृत्व में सर्वहारा की तानाशाही के विचार के आधार पर चीन की राजनीतिक व्यवस्था का संगठन किया गया, फिर भी उन आठ पार्टियों को बने रहने की इजाजत दी गई, जिनका अलग अस्तित्व था, लेकिन जिन्होंने पीपुल्स रिपब्लिक के बुनियादी उसूलों को स्वीकार कर लिया था. ये पार्टियां आज भी मौजूद हैं. उनकी नुमाइंदगी चीन की संसद – नेशनल पीपुल्स कांग्रेस में भी है.

देंग श्योओ फिंग चीन के उन नेताओं में थे, जिनकी पढ़ाई विदेश में हुई थी. देंग ने फ्रांस में चार साल की पढ़ाई पूरी करने के बाद 1924-25 में सोवियत संघ में रह कर वहां समाजवाद के निर्माण के हो रहे अभिनव प्रयासों का प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त किया था. उसके बाद जब वे चीन लौटे, तो जियांग्शी सोवियत से जुड़ गए. जियांग्शी सोवियत एक स्वायत्त साम्यवादी क्षेत्र था, जिसकी वहां स्थापना माओ दे दुंग के नेतृत्व में सीपीसी ने की थी. तब से वे हमेशा सीपीसी में सैनिक और राजनीतिक संगठनकर्ता की भूमिका में रहे. वे सीपीसी के सर्वोच्च नेतृत्व का हिस्सा बने और उनकी ये हैसियत बीच में सांस्कृतिक क्रांति के दिनों को छोड़ कर 1997 में उनकी मृत्यु तक बनी रही.

साल 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के बाद वे लगातार बड़ी जिम्मेदारियां संभालते रहे. 1955 में सीपीसी की सर्वोच्च कमेटी पोलित ब्यूरो के सदस्य बने लेकिन चीन की विकास की दिशा क्या हो, इसको लेकर चेयरमैन माओ के साथ तब उनके मतभेद भी उभरने लगे थे. वे राष्ट्रपति ली शाओ ची की तरह ही ये मानते थे कि समता को व्यावहारिक रूप देने के लिए सख्त तरीके अपनाने के बजाय चीन की व्यवस्था में निजी उद्यम के लिए भी जगह होनी चाहिए. क्रांति के बाद माओ ने ‘हजारों फूलों को खिलने दो, हजारों विचारों को पनपने’ दो का आदर्श वाक्य चीनी समाज को दिया था. इसके तहत पार्टी के भीतर और बाहर भी असहमति रखने की छूट दी गई थी. इसी सिद्धांत के तहत क्रांति के बाद हालांकि सीपीसी के नेतृत्व में सर्वहारा की तानाशाही के विचार के आधार पर चीन की राजनीतिक व्यवस्था का संगठन किया गया, फिर भी उन आठ पार्टियों को बने रहने की इजाजत दी गई, जिनका अलग अस्तित्व था, लेकिन जिन्होंने पीपुल्स रिपब्लिक के बुनियादी उसूलों को स्वीकार कर लिया था. ये पार्टियां आज भी मौजूद हैं. उनकी नुमाइंदगी चीन की संसद- नेशनल पीपुल्स कांग्रेस में भी है.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अंदर अलग-अलग लाइन की मौजूदगी 1960 के दशक के मध्य तक बनी रही. 1966 में जब सांस्कृतिक क्रांति की शुरुआत करते हुए माओ ने ‘मुख्यालयों पर बमबारी’ का नारा दिया, तब उनसे असहमत नेताओं के पार्टी नेतृत्व में बने रहना मुश्किल हो गया. जो नेता इसके शिकार बने, उनमें देंग भी थे. बताया जाता है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान वे कहीं गायब हो गए. कुछ विवरणों में बताया गया है कि उन्हें स्टडी कैंप (अध्ययन शिविर) में भेज दिया गया लेकिन वे ऐसे शायद एकमात्र बड़े नेता थे, जिनकी वापसी सांस्कृतिक क्रांति के दौर में ही हो गई. इसका श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री झाओ एन लाई को दिया जाता है, जो अकेले ऐसे बड़े नेता थे, जिनका रुतबा और पद सांस्कृतिक क्रांति के दौर में भी बना रहा. 1973 में देंग को उप-प्रधानमंत्री बनाया गया. 1975 में उन्हें पार्टी की सेंट्रल कमेटी का उपाध्यक्ष और पोलित ब्यूरो का सदस्य बनाया गया. इस तरह उनकी ताकतवर हैसियत बहाल हो गई.

1976 में माओ की मृत्यु के बाद जब सांस्कृतिक क्रांति के संचालक चौगुट (गैंग ऑफ फोर) को गिरफ्तार कर लिया गया, तो उसके बाद सीपीसी की पूरी कहानी बदल गई. माओ के मनोनीत उत्तराधिकारी हुआ गुओ फेंग की ताकत कमजोर पड़ती गई. 1980-81 आते-आते हुआ ने एक तरह से समर्पण कर दिया. अब देंग समर्थक हू याओबांग पार्टी महासचिव और झाओ जियांग प्रधानमंत्री बने. इसके साथ ही चीन के सत्ता तंत्र पर देंग का पूर्ण नियंत्रण हो गया. उन्हें तब सर्वोच्च नेता का दर्जा दे दिया गया. अब स्थितियां ऐसी बन गई थीं, जिसमें देंग अपनी सोच की दिशा में चीन को ले जा सकते थे.

इस दौर में देंग ने अपनी सबसे प्रमुख सोच यह सामने रखी कि समाजवाद का मतलब गरीबी नहीं है. ये तथ्य है कि माओ के पूरे दौर में चीन में बराबरी के आदर्श को काफी हद तक व्यवहार में हासिल किया गया था, लेकिन कुल मिला कर चीन एक गरीब देश बना रहा. चीन में उपभोग की चीजों की उपलब्धता और लोगों के उपभोग करने की क्षमता न्यून बनी रही. यह भी सच है कि ऐसी ही तस्वीरों को सामने रख कर पश्चिमी देशों के पूंजीवादी अर्थशास्त्री समाजवाद का मखौल उसे गरीबी का बंटवारा कह कर उड़ाते थे. देंग की सोच थी कि समाजवाद को उच्चस्तरीय उपभोग का अवसर देने वाली व्यवस्था का रूप लेना चाहिए. समाजवादी देश को आर्थिक और तकनीकी रूप से न सिर्फ उन्नत, बल्कि सबसे उन्नत होना चाहिए. यानी इन मामलों में उसे पूंजीवादी व्यवस्थाओं से भी बेहतर स्थिति में रहना चाहिए, तभी ये व्यवस्था लोगों का स्वैच्छिक समर्थन कायम रख पाएगी.

तो देंग के नेतृत्व वाली सीपीसी ने खुलेपन और निजी उद्यम भावना को प्रोत्साहन देने के रास्ते पर चलना शुरू कर दिया, इसकी शुरुआत कम्यून सिस्टम को खत्म करने से हुई. कम्यून सिस्टम एक सामूहिक उत्पादन और उपभोग व्यवस्था थी. अब नई व्यवस्था में किसानों को व्यक्तिगत रूप से जमीन का आवंटन किया गया. ये बात उल्लेखनीय है कि चीन में आज भी जमीन का स्वामित्व सरकार के पास है. इस तरह उत्पादन के इस महत्त्वपूर्ण स्रोत पर आज भी पब्लिक कंट्रोल है. किसान अपनी जमीन को पूर्व अनुमति लेकर किसी दूसरे को ट्रांसफर कर सकते हैं, लेकिन बेच नहीं सकते.

इसके साथ ही 1980 के दशक में चीन आर्थिक और राजनीतिक खुलेपन के एक बिल्कुल नए अनुभव से गुजरा. देश के लोगों को विदेश आने-जाने की इजाजत आसानी से मिलने लगी. उन्हें सरकार की आलोचना करने के अवसर भी उपलब्ध होने लगे. तब बाहरी दुनिया में ये अनुमान लगाया जाने लगा था कि चीन की कम्युनिस्ट व्यवस्था कुछ वर्षों में पूरी तरह बदल जाएगी. गौरतलब है कि ये वही दौर था, जब सोवियत खेमे के कम्युनिस्ट देशों में भारी उथल-पुथल हो रही थी. 1980 में पोलैंड में सॉलिडरिटी आंदोलन शुरू हो चुका था, जो वहां कम्युनिस्ट शासन के अंत का कारण बना. मिखाइल गोर्बाचेव के सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनने के साथ वहां पेरेस्त्रोइका (पुनर्रचना) और ग्लासनोश्त (खुलेपन) की नीति अपना ली गई थी. चीन को कुल मिला कर इसी परिघटना का हिस्सा तब समझा जा रहा था. 1989 आते-आते बर्लिन की दीवार गिरने की स्थिति बन चुकी थी. (असल में ये दीवार उस साल 9 नवंबर को गिरी, जिसके परिणामस्वरूप जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक यानी पूर्वी जर्मनी का पश्चिमी जर्मनी में विलय हो गया.)

तियानानमेन चौराहे पर प्रदर्शन

जिस तरह सोवियत संघ में गोर्बाचेव खुलेपन की नीति के जनक बने थे, चीन में कुछ वैसी ही भूमिका हू याओबांग निभा रहे थे. वे राजनीतिक खुलापन की वकालत कर रहे थे. इस नीति के तहत जन प्रदर्शनों की इजाजत दी जा रही थी. इसी दौर में राजधानी बीजिंग में स्थित मशहूर तियानानमेन चौराहे पर सैकड़ों प्रदर्शनकारी आकर जम गए. ये लोग सीधे राजनीतिक व्यवस्था बदलने की मांग कर रहे थे. बताया जाता है कि इसमें एक तरफ पश्चिमी ढंग के लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक छात्र और नौजवान थे, तो दूसरी तरफ माओवादी राजनीतिक कार्यकर्ता थे, जो देंग के दौर में अपनाई नीतियों से खफा थे. साथ ही इस दौर में कृषि और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में हो रहे परिवर्तनों से रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा संबंधी आई असुरक्षा से परेशान लोग भी प्रदर्शन में शामिल हो गए.

प्रदर्शन की शुरुआत 15 अप्रैल 1989 से हुई. सरकार की तमाम अपीलों को ठुकराते हुए प्रदर्शनकारी वहां जमा रहे. कुछ दूसरे शहरों में भी उनके समर्थन में प्रदर्शन होने की खबरें आने लगी. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी गहरे संकट में फंसी नजर आ रही थी. वह तय नहीं कर पा रही थी कि अपनी खुलेपन की नीति के तहत वह इन प्रदर्शनों को जारी रहने दे या सख्ती से इसे कुचल दे. पार्टी के भीतर दोनों राय के समर्थक गुट थे. आखिरकार सख्ती का समर्थक गुट भारी पड़ा, जब देंग ने प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई की इजाजत दे दी. चार जून 1989 को आखिरकार चीन की सेना – पीपुल्स लिबरेशन आर्मी ने तियेनानमेन चौराहे को खाली करा दिया. इस क्रम में कितने लोग मारे गए, यह एक विवादास्पद मुद्दा है.

बहरहाल, इस कार्रवाई से ठीक पहले हू याओबांग को महासचिव पद से हटा दिया गया. प्रधानमंत्री झाओ जियांग ने पार्टी के महासचिव की जिम्मेदारी भी संभाल ली. इसके साथ ही चीन में सीपीसी के दौर में राजनीतिक खुलेपन के हुए प्रयोग पर विराम लग गया. उसके बाद एक बार फिर से राजनीतिक व्यवस्था में डेमोक्रेटिक सेंट्रलिज्म (जनवादी केंद्रीयता) का लेनिनवादी सिद्धांत अपना लिया गया, जिस पर ये पार्टी अपनी स्थापना के बाद से चलती रही थी.

राजनीतिक खुलेपन पर लगे विराम से देंग के आर्थिक खुलेपन की नीति भी कुछ समय के लिए डगमगाती नजर आई. पश्चिमी देशों में तब चीन के खिलाफ जहरीला माहौल बन गया था. दूसरी तरफ 1991 आते-आते सोवियत खेमा ढह गया. अमेरिकी राजनीति शास्त्री फ्रांसिस फुकुयामा ने ‘इतिहास के अंत’ की घोषणा कर दी. यानी कहा यह गया कि पश्चिमी ढंग के पूंजीवाद आधारित उदारवादी लोकतंत्र ने अंतिम रूप से विजय हासिल कर ली है. अब ये व्यवस्था ही पूरी दुनिया का भविष्य है. जाहिर है, तब पश्चिमी देशों में चीन में कम्युनिस्ट शासन को कुछ गिने-चुने वर्षों की कहानी समझा जा रहा था.

तभी समाजवादी व्यवस्था के तहत देंग का दूसरा बड़ा वैचारिक आविष्कार सामने आया. यह स्पेशल इकॉनमिक जोन्स (एसईजेड) का विचार था. इसके पीछे उनकी सोच थी कि चीन के औद्योगिक और तकनीकी विकास के लिए अतिरिक्त पूंजी और कौशल की जरूरत है. ये कौशल पश्चिमी पूंजीवादी देशों के पास है, जिसे एक कम्युनिस्ट देश में आकर्षित करना आसान नहीं है. तियानानमेन की घटना के बाद तो ये काम और भी मुश्किल हो गया था. उसी माहौल में देंग ने अपना मशहूर दक्षिणी दौरा किया. वे चीन के दक्षिण तटीय प्रदेशों शेनजेन, झुहाई, ग्वांगझाऊ और शंघाई गए. वहां उन्होंने ऐलान किया कि सीपीसी के जो नेता आर्थिक सुधारों से सहमत नहीं होंगे, उन्हें पद से हटा दिया जाएगा. देंग की नई नीति के मुताबिक एसईजेड इलाकों में विदेशी कंपनियों को मुक्त कारोबार करने, टैक्स से छूट देने, चीन की मुख्य भूमि पर लागू होने वाले कानूनों के दायरे से बाहर रखने आदि की व्यवस्था की गई. आज जिस तरह आर्थिक क्षेत्र में चीन चमक रहा है, उसके पीछे इस नीति की चमत्कारी भूमिका समझी जाती है.

इसी दौर में देंग ने सीपीसी और अपने देशवासियों को hide strength, bide time की सलाह दी थी. यानी जब तक चीन शक्तिशाली नहीं हो जाता, उसे अपनी क्षमताओं को छिपा रखते हुए समय काटना चाहिए. यानी कुल मिलाकर उन्होंने झुक कर चलने की सलाह दी. देंग की समझ थी कि उस समय पूरी पश्चिमी दुनिया चीन के खिलाफ थी. चीन उनसे टकराव मोल लेने की स्थिति में नहीं था. चीन के सामने तब मुख्य चुनौती अपनी जनता का जीवन स्तर बढ़ाना था. देंग मानते थे कि जब तक ऐसा नहीं हो जाता, चीन को बेवजह अपनी ताकत या खूबियों का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए. अनुभव यही है कि चीन तब इसी रास्ते पर चला.

आज चीन संभवतः उस जगह पर पहुंच गया है, जब वह खुद को अपनी शक्ति और खूबियों का प्रदर्शन करने के योग्य समझ रहा है. बेशक, चीन का कायापलट हो चुका है लेकिन इस दौर में चीन में आर्थिक गैर-बराबरी असाधारण रूप से बढ़ी है. चीन में उपभोक्तावाद बढ़ा है, जिसे माओ हतोत्साहित करते थे. चीन में वैसी कई सामाजिक और सांस्कृतिक बुराइयां वापस आ गई हैं, जिनसे क्रांति के बाद के आरंभिक दशकों में उसने मुक्ति पाई थी.

इसी कारण ये बहस खड़ी हुई है कि चीन आज समाजवादी है या पूंजीवादी ? वह पीपुल्स रिपब्लिक है या उसकी व्यवस्था राजकीय पूंजीवाद से आगे बढ़ते हुए authoritarian capitalism का रूप ले चुकी है ? क्या चीन साम्राज्यवादी हो गया है ? क्या चीन एक ऐसा देश बन गया है, जहां पूंजीवाद और अधिनायकवादी व्यवस्था की तमाम बुराइयों का मेल हो गया है ? मानव अधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करते हुए क्या उसने ‘हजारों फूलों को खिलने दो, हजारों विचारों को पनपने दो’ के सिद्दांत को तिलांजलि दे दी है ? क्या वह सचमुच विश्व में उदार लोकतंत्र के लिए एक चुनौती बन गया है ? ये तमाम सवाल हमारी इस लेख का अगला अध्याय है. अगली अध्याय में हम इनके जवाब ढूंढने की कोशिश करेंगे.

माओ की बनायी ज़मीन पर देंग ने बोये समृद्धि के बीज

सोवियत संघ में निकिता ख्रुश्चेव के सत्ता में आते ही स्टालिन की विरासत से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने न सिर्फ खुद को अलग कर लिया, बल्कि पार्टी से स्टालिन के प्रभाव को खत्म करने और स्टालिन की विरासत को लांछित करने के अभियान भी चलाये गए. माओ को लेकर ऐसा कुछ चीन में कभी नहीं हुआ. माओ आज भी कम्युनिस्ट चीन के सर्वोच्च प्रतीक पुरुष हैं. सीपीसी की लगातार ये समझ रही है कि देंग ने चीन की समृद्धि का जो महल खड़ा करने की शुरुआत की, वह बड़ा योगदान माओवाद ने जो जमीन तैयार की थी, उसके ऊपर चलते हुए ही किया गया.

जब 1990 के दशक के मध्य तक जब देंग शियाओ फिंग के सिद्धांत को चीन ने अपना लिया और उनका स्वरूप पूरी तरह स्पष्ट हो गया, तब से यह बहस चलती रही है कि क्या ऐसा माओ दे दुंग के विचारों को तिलांजलि देते हुए किया गया ? इसमें तो कोई शक नहीं कि ये रास्ता अलग था और इसकी कई बातें माओ के आदर्शों के खिलाफ जाती थीं लेकिन यह सच है कि चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) के बहुमत ने बिना किसी प्रत्यक्ष प्रतिरोध के देंग के रास्ते को स्वीकार कर लिया. ये गौर करने की बात है कि न तो देंग के दौर में, और न ही उसके बाद- सीपीसी ने कभी माओवाद को अस्वीकार किया. 1980 के दशक में माओवाद की समीक्षा जरूर की गई थी, जिसमें सांस्कृतिक क्रांति की आलोचना की गई थी, लेकिन कुल मिलाकर माओवाद की विरासत को पार्टी ने गले लगाए रखा था.

देंग की मृत्यु के बाद सीपीसी ने ‘no two denials’ का सिद्धांत घोषित किया. इसका अर्थ है कि वह न तो माओ की विरासत से इनकार करती है और न ही देंग के बताए रास्ते से. तब से पार्टी के मंचों पर मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्टालिन-माओ और देंग की तस्वीरें देखने को मिलती रही हैं. यहां ये तुलना उचित होगी कि सोवियत संघ में निकिता ख्रुश्चेव के सत्ता में आते ही स्टालिन की विरासत से सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने न सिर्फ खुद को अलग कर लिया, बल्कि पार्टी से स्टालिन के प्रभाव को खत्म करने और स्टालिन की विरासत को लांछित करने के अभियान भी चलाये गए. माओ को लेकर ऐसा कुछ चीन में कभी नहीं हुआ. माओ आज भी कम्युनिस्ट चीन के सर्वोच्च प्रतीक पुरुष हैं.

सीपीसी की लगातार ये समझ रही है कि देंग ने चीन की समृद्धि का जो महल खड़ा करने की शुरुआत की, वह बड़ा प्रयत्न माओवाद ने जो जमीन तैयार की थी, उसके ऊपर चलते हुए ही किया गया. अगर माओ के जमाने में चीन में मानव विकास के क्षेत्रों में भारी निवेश नहीं किया गया होता, वहां एक स्वस्थ और शिक्षित युवा आबादी तैयार नहीं हुई होती, और संसाधनों को नए सिरे से संगठित नहीं किया गया होता, तो देंग के लिए तेज गति से औद्योगिक और तकनीकी विकास की योजनाओं को लागू करना संभव नहीं होता.

देंग की विकास नीति संबंधी सोच क्या है, यह काफी कुछ सांस्कृतिक क्रांति के पहले स्पष्ट हो चुका था इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि जब माओ की मृत्यु के बाद उनके हाथ में सीपीसी की कमान आई, तो वे उस दिशा में चीन को ले गए. लेकिन आज जब हमें यह सुविधा है कि तकरीबन चार दशक में चीजें जहां पहुंची हैं, वहां से मुड़ कर उन दिनों के हालात पर गौर करें, तो कुछ पहलुओं का जिक्र इस सिलसिले में अवश्य किया जाना चाहिए. ये बात ध्यान में रखने की है कि चीन में देंग के सिद्धांत पर बनी सहमति और सोवियत खेमे में साम्यवादी व्यवस्थाओं का ढ़हना लगभग समकालीन घटनाएं हैं.

सोवियत खेमे के बिखरने के बाद पूरी दुनिया में नई परिस्थितियां पैदा हो गई थी. तब दुनिया भर की चर्चाओं में चीन में कम्युनिस्ट शासन का खात्मा भी लगभग तय मान कर चला जा रहा था. सोवियत खेमे के देशों में समाजवादी व्यवस्था के खिलाफ जनता के एक बड़े हिस्से में भड़के विद्रोह की बड़ी वजह वहां पश्चिमी देशों की तुलना में उपभोग का स्तर निम्न होना माना गया था. वहां की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टियों में उभरी नौकरशाही जन भावनाओं से लगभग कट गई थीं. नतीजा यह हुआ कि जनता का एक बड़ा तबका पश्चिमी जीवन शैली को ललचाई नजरों से देखने लगा. इससे सोवियत आर्थिक व्यवस्था हालांकि समता आधारित और जन-कल्याण की भावना से प्रेरित थी, लेकिन वह अपनी ही जनता में आकर्षण खोने लगी. धीरे-धीरे सत्ता के सख्त नियंत्रण के भीतर लोगों की भावनाएं सुलगती रहीं, जिनका एक समय पर विस्फोट हो गया. ये सारी बातें चीन में भी हो सकती थी.

जब सोवियत खेमे का ध्वंस हो गया, तो उसके बाद समाजवाद बनाम पूंजीवाद की वैश्विक बहस में पलड़ा पूंजीवाद के पक्ष में झुक गया था. बेशक समाजवाद की तरफ से इस बहस को तेज करने के लिए अनुकूल समय नहीं था और न ही अब माओ के युग की तरह समाजवादी विचारधारा का ‘निर्यात’ करने के लिए अनुकूल समय बचा था. ये अनुमान लगाना गलत नहीं होगा कि इन परिस्थितियों का भी असर चीन में देंग के रास्ते के प्रति आसानी से उभरी आम सहमति के पीछे एक कारण रहा होगा.

देंग ने जब देश को धनी बनाने और तब अपनी ताकत छिपाते हुए समय काटने का सूत्र दिया, तो ये बात चीन की कम्युनिस्ट और आम जन को व्यावहारिक लगी होगी. इस नए सिद्धांत का असर यह हुआ कि चीन ने विदेशी पूंजी और तकनीक को आमंत्रित करने की मुहिम छेड़ दी. इस क्रम में समझौते भी किए. मसलन, साल 2000 आते-आते चीन विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) का सदस्य बनने को तैयार हो गया. इस बात को तब पश्चिम में अपनी पूंजीवादी विचारधारा की जीत के रूप में देखा गया.

उस दौर के पर्यवेक्षकों ने इस बात को दर्ज किया है कि किस तरह 1949 की क्रांति के बाद तीन दशकों तक पश्चिमी दुनिया के लिए पराया रहा चीन धीरे-धीरे वहां गहरे आकर्षण का केंद्र बनने लगा. 1990 के दशक के उत्तरार्द्ध तक अमेरिकी पूंजपतियों में चीन जाकर निवेश करने की होड़ लग गई. उनके लॉबिस्ट्स के प्रभाव में चलने वाली दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियों में चीन समर्थक नीतियां अपनाने की होड़ लग गई. जब अमेरिका में यह हो रहा था, तो जाहिर है कि उसके पीछे चलने वाला यूरोप इस होड़ से बच नहीं सकता था.

पश्चिमी मीडिया के अध्ययनकर्ताओं ने बताया है कि वहां का शासक वर्ग जिस देश को दोस्त या दुश्मन बता दे, मीडिया वफादार अनुयायी की तरह उनके पक्ष या विपक्ष में कृत्रिम सहमति या असहमति गढ़ने में लग जाता है. साल 2000 के आसपास के द इकॉनमिस्ट, फाइनेंशियल टाइम्स, वॉल स्ट्रीट जर्नल आदि जैसे पश्चिमी बहुराष्ट्रीय पूंजी के मुखपत्रों के अंकों पर गौर करें, तो उनमें चीन के महिमामंडन की एक पूरी श्रृंखला हम देख सकते हैं.

ये जज्बा कुछ वैसा ही था, जैसा आज चीन के खिलाफ जूनून में दिख रहा है. और जब ये पत्र-पत्रिकाएं एक खास मुहिम चलाने लगती हैं, तो उसका असर पूरे पश्चिमी मीडिया, और फिर प्रकारांतर में तीसरी दुनिया के मीडिया पर भी देखने को मिलने लगता है. चूंकि देंग के रास्ते की वजह से चीन का सस्ता श्रम, बेहतर बुनियादी ढांचा और बड़ा बाजार पश्चिमी पूंजीपतियों को उपलब्ध हो गया था, तो वो दौर पश्चिम में चीन के महिमामंडन का दौर बन गया. इसका चीन पर जो असर हुआ, वही हमारी इस लेख श्रृंखला का विषय है. लेकिन पहले यह देखना भी उपयोगी होगा कि इसका असर पश्चिमी दुनिया पर क्या हुआ ?

आज अमेरिका और एक हद तक यूरोप में भी जिस de-industrialization की चर्चा है, वह दरअसल उन दोनों जगहों पर नई भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था के तहत वहां से चीन के लिए पूंजी के हुए पलायन का ही परिणाम है. अमेरिका में पूंजीपतियों को चीन के बाजार का लाभ उठाने की छूट देने के लिए सितंबर 2000 में परमानेंट नॉर्मल ट्रेड रिलेशन्स (पीएनटीआर) ऐक्ट पारित किया गया था. विशेषज्ञों ने इसे दर्ज किया है कि उसके बाद के दो दशक में अमेरिका में 40 हजार कारखाने बंद हो गए, 20 लाख रोजगार के अवसर खत्म हो गए, और वेतन वृद्धि गतिरुद्ध हो गई. दूसरी तरफ बड़ी कंपनियों के मुनाफे में अरबों डॉलर की वृद्धि होती चली गई. इससे अमेरिका आज एक असंतुष्ट समाज है. ऐसे ही असंतोष का फायदा 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में चीन विरोधी माहौल बनाते हुए डॉनल्ड ट्रंप ने उठाया. नतीजा यह है कि अमेरिकी समाज में आज तीखा ध्रुवीकरण है. वहां के आम लोग दोनों प्रमुख पार्टियों को अपनी बदहाली के लिए जिम्मेदार मानते हैं, क्योंकि पूंजीपतियों के दबाव में 1990 से 2010 तक डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टियों ने चीन समर्थक नीतियां अपनाए रखी थी. इस de-industrialization के परिणामस्वरूप अमेरिका और यूरोप के समाजों में आर्थिक गैर-बराबरी तेजी से बढ़ी है. वहां हालात ऐसे हो गए हैं कि जब कोरोना महामारी आई और चीन से सप्लाई चेन टूट गया, तो अपनी जनता को मास्क या पीपीई किट जैसी साधारण चीजों को आसानी से मुहैया करने में उन्होंने खुद को अक्षम पाया.

दूसरी तरफ चीन दुनिया का कारखाना बना हुआ है. दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वह बन चुका है. क्वांटम कंप्यूटिंग जैसी टेक्नोलॉजी में वह सबसे आगे है. वह एक बड़ी सैनिक शक्ति के रूप में भी उभर रहा है. बेशक चीन में भी आर्थिक गैर-बराबरी बढ़ी है, लेकिन उसके साथ-साथ ही उसकी पूरी आबादी का जीवन स्तर भी उठा है. इस कारण तमाम सर्वेक्षणों में चीनी समाज की तस्वीर आज एक संतुष्ट और अपनी व्यवस्था में भरोसा रखने वाले समाज के रूप में उभरती है.

ये गौरतलब है कि चीन में उत्पादन का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत जमीन अब भी सरकार के स्वामित्व में है. वहां एक मजबूत पब्लिक सेक्टर मौजूद है. पंचवर्षीय योजनाओं की प्रथा सशक्त बनी हुई है. आर्थिक नीतियों पर सरकार का नियंत्रण है. ये नियंत्रण किस हद तक है, यह हाल में दुनिया के सबसे धनी व्यक्तियों में से एक और अलीबाबा कंपनी के मालिक जैक मा पर हुई सरकारी कार्रवाई के दौरान जाहिर हुआ. उसके बाद ये खबरें दुनिया भर में सुर्खियां बनीं कि अलीबाबा और दूसरी कंपनियां चीन सरकार की योजना के मुताबिक आविष्कार (innovation) और तकनीक क्षेत्र में निवेश बढ़ाने पर राजी हो गई हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी इसे ही ‘समाजवाद का चीनी स्वरूप’ (socialism with Chinese characteristic) कहती है.

देंगवादी सुधार के आरंभिक वर्षों में कई पब्लिक सेक्टर इकाइयों का निजीकरण हुआ था, तब हेल्थ केयर का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र में चला गया. शिक्षा में प्राइवेट सेक्टर का हिस्सा बढ़ने लगा. लेकिन पिछले एक दशक में इनमें से कई नीतियों को बदला गया है. हेल्थ केयर में एक बार फिर से पब्लिक सेक्टर का रोल बढ़ा है. पब्लिक एजुकेशन का ढांचा दुरुस्त हुआ है. और हाल में कोरोना महामारी के समय ये दिखा कि किस तरह पब्लिक सेक्टर ने महामारी को संभालने में एक बड़ी भूमिका निभाई.

दरअसल, चीनी अर्थव्यवस्था का यही स्वरूप वो वजह है, जिसको लेकर पश्चिमी देशों से पिछले एक दशक में उसका टकराव बढ़ता चला गया है. पश्चिमी देशों की मुख्य शिकायत यह है कि पूंजी के भूमंडलीकरण से जो नई अर्थव्यवस्था बनी, उसने उनके यहां सामाजिक विभेद और असंतोष खड़ा कर दिया, जिससे उनकी राजनीतिक व्यवस्था आज एक बड़ी चुनौती का सामना कर रही है. जबकि चीन में इस नई परिघटना का असर उसके धनी देश के रूप में उभरने के रूप में हुआ है और ऐसा वहां सामाजिक और मानव विकास में अभूतपूर्व सुधार के साथ हुआ है. पश्चिमी देश इसे ‘अनुचित व्यापार व्यवहार’ कहते हैं. वे चाहते हैं कि चीन अपने पब्लिक सेक्टर को पूरी तरह ध्वस्त करे लेकिन सीपीसी ने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया है.

देंग का रास्ता सही था या नहीं, इस बारे में बहसें चलती रहेंगी लेकिन फिलहाल यह तो साफ है कि उस रास्ते ने चीन को एक महाशक्ति बनाने में बड़ी भूमिका निभाई है. चीन ने ये उपलब्धि ‘no two denials’ के सिद्धांत को मानते हुए हासिल की है लेकिन चीन की आज जो व्यवस्था है, वह कितनी समाजवादी है ? क्या चीन सचमुच अब भी मार्क्स-एंगेल्स-स्टालिन-माओ के रास्ते पर चल रहा है ? यह विडंबना है कि एक समय खुद चीन ने सोवियत संघ पर सामाजिक साम्राज्यवादी होने का आरोप लगया था, आज खुद उस पर साम्राज्यवादी होने के इल्जाम लग रहे हैं. आखिर इस आरोप में कितना दम है ? इन सवालों पर विवेचना अगले अध्याय में हम करेंगे.

जब चीनी सपने ने भरी उड़ान

बहरहाल, इस दौर में चीन जिस दिशा में चला है, उससे यह तो साफ है कि वह मार्क्सवादी समाजवाद की शास्त्रीय समझ के अनुरूप नहीं है. उसके वैश्विक प्रभाव को देखते हुए उस पर साम्राज्यवादी रास्ते पर चलने के आरोप भी इसी वजह से लगे हैं. इसीलिए पश्चिम के बहुत से वामपंथी भी चीन और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ रहे टकराव को दो पूंजीपति शक्तियों के टकराव के रूप में पेश करते हैं.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव जियांग जेमिन ने साल 2000 में एक नया सिद्धांत दिया, जिसका संबंध पार्टी के चरित्र से था, इसे Three Represents यानी तीन प्रतिनिधित्व का सिद्धांत कहा जाता है. सीपीसी आज भी इसी सिद्धांत पर चल रही है. इस सिद्धांत के मुताबिक –

  • सीपीसी उन्नत उत्पादक शक्तियों की विकास प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करती है.
  • वह उन्नत संस्कृति की धाराओं का प्रतिनिधित्व करती है.
  • वह चीन की जनता की व्यापक बहुसंख्या के हितों का प्रतिनिधित्व करती है.

गौरतलब है कि इस सिद्धांत में सर्वहारा या शोषित वर्ग के प्रतिनिधित्व की बात छोड़ दी गई है. उसे जनता की व्यापक बहुसंख्या में समाहित समझा गया है. उन्नत उत्पादक शक्तियों का मतलब उद्यमी वर्ग है, जिसे परंपरागत या शास्त्रीय कम्युनिस्ट विमर्श में बुर्जुआ कहा जाता रहा है. 2002 में जब हर पांच साल पर होने वाली सीपीसी की कांग्रेस (महाधिवेशन) में इस सिद्धांत को अपना लिया गया, तो बहुत से हलकों में यह कह कर सीपीसी की आलोचना हुई कि उसने वर्ग आधारित प्रतिनिधित्व और प्रकारांतर में वर्ग संघर्ष की बात छोड़ दी है, जो मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्टालिन-माओ विचारधारा का मूल आधार है.

2002 में हू जिनताओ पार्टी के महासचिव बने. उनके कार्यकाल के दस साल में पार्टी में कोई बड़ा सैद्धांतिक बदलाव देखने को नहीं मिला. उस दौरान सीपीसी और चीन कुल मिला कर देंग-जियांग जेमिन के मार्ग पर आगे बढ़ी. इस दौरान ‘उन्नत उत्पादक शक्तियों’ का प्रभाव पार्टी और समाज पर बढ़ा. यही दौर है, जब चीन में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार की शिकायतें सामने आईं. दूसरी ओर पूंजीवादी आर्थिक और सांस्कृतिक प्रवृत्तियां भी समाज में गहरी हुईं. मगर अंतरराष्ट्रीय मामलों में चीन hide strength, bide time के मंत्र का पालन करते हुए अपनी घरेलू समृद्धि को बढ़ाने में जुटा रहा.

सीपीसी के ये दिशा कुछ और स्पष्ट हुई, जब 2012 में शी जिनपिंग पार्टी महासचिव बने. शी जिनपिंग ने तब कहा- ‘चीन का सपना (The Chinese Dream) चीनी राष्ट्र का महान पुनरुत्थान है.’ तब उन्होंने ‘दो शताब्दी समारोहों’ तक के लिए अपने लक्ष्य घोषित किए. कहा कि 2021 में सीपीसी की शताब्दी पूरी होने तक चीन का मकसद एक औसत समृद्ध समाज बनना होगा. उसके बाद 1949 में पीपुल्स रिपब्लिक की स्थापना के सौ साल पूरे होने तक उद्देश्य एक पूर्ण विकसित देश बनना होगा. चीन अब उसी दिशा में चल रहा है. कहा जा सकता है कि 2021 तक का लक्ष्य उसने प्राप्त कर लिया है.

शी के कार्यकाल में भ्रष्टाचार से संघर्ष और जन कल्याण की वैसी नीतियों पर भी जोर रहा है, जिसे आम तौर सोशल डेमोक्रेटिक कहा जाता है. शी ने महासचिव बनते ही ‘भ्रष्ट बाघों और मक्खियों’ पर समान सख्ती से कार्रवाई की घोषणा की थी. यानी किसी भी भ्रष्ट व्यक्ति को नहीं छोड़ा जाएगा, चाहे वो रसूखदार व्यक्ति हो या आम शख्स. बेशक इसके तहत कम्युनिस्ट पार्टी में ऊंची हैसियत पर रहे लोगों को भी सजा दी गई है लेकिन इससे भ्रष्टाचार सचमुच कितना नियंत्रित हुआ है, ये जानने का हमारे पास कोई निष्पक्ष स्रोत नहीं है.

सोशल डेमोक्रेटिक नीतियों के तहत हेल्थ केयर और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका तेजी से बढ़ाई गई है. इस दौर का एक और आविष्कार ‘मार्केट सोशलिज्म’ की अवधारणा है. इसका मतलब साफ है – यानी उद्देश्य समाजवादी रहेगा, लेकिन बाजार को अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्रता के साथ काम करने का मौका दिया जाएगा. भारत के अनुभव के हिसाब से देखना चाहें, तो इसे नेहरूवादी ढांचे की मिश्रित अर्थव्यवस्था जैसा एक प्रयोग कह सकते हैं. शी के इन्हीं विचारों को अब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की पंथ-धारा (pantheon) में Xi Jinping Thought (विचार) के नाम से जगह दी गई है.

बहराहल, इस बीच दो घटनाएं ऐसी हुईं, जब झुक कर चलते हुए समृद्धि बढ़ाने का देंग शियाओ फिंग का मंत्र बेअसर हो गया. मतलब यह कि चीन की बढ़ रही समृद्धि और ताकत पर दुनिया का ध्यान चला गया. इसमें पहला मौका 2007-08 में आई वैश्विक मंदी का रहा. उस समय जब सारी दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं गहरे संकट में फंस गईं, तब चीन ने सरकारी भारी खर्च के जरिए उस स्थिति से निकलने की बड़ी पहल की. चीन सरकार ने तब 586 अरब डॉलर के प्रोत्साहन पैकेज का एलान किया. इसके जरिए चीन के अंदर इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास की महती योजनाएं शुरू की गईं, साथ ही जन-कल्याणकारी कार्यों पर भारी रकम खर्च की गई.

नतीजा यह हुआ कि चीन के बुनियादी उद्योग क्षेत्र की उत्पादन क्षमता में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई. उसका उपयोग आधुनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में किया गया. असल में तेज गति से जैसा उच्च कोटि का बुनियादी ढांचा वहां बना, उससे दुनिया के सामने ये जाहिर हुआ कि चीन ने कैसी आर्थिक और तकनीकी ताकत हासिल कर ली है ! इस क्रम में चीन में आयात की भारी वृद्धि हुई, जिसका तब विश्व अर्थव्यवस्था को संभालने में बड़ा योगदान रहा. इस कारण तब कई अर्थशास्त्रियों ने चीन को विश्व अर्थव्यवस्था का इंजन बता दिया. 2008 में ही बीजिंग में ओलिंपिक खेलों का आयोजन हुआ. इसके शानदार आयोजन ने भी दुनिया को हतप्रभ किया, ऊपर से ऐसा पहली बार हुआ, जब स्वर्ण पदकों की तालिका में चीन पहले नंबर पर पहुंच गया. ये सब ध्यान खींचने वाली घटनाएं थी.

कहा जाता है कि इस दौर में चीन के पास बुनियादी उद्योगों में भारी निवेश के कारण उत्पादन और इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में प्राप्त क्षमता उसके अपने घरेलू उपयोग की जरूरत से कहीं बहुत ज्यादा हो गई तो चीन ने उसके इस्तेमाल का रास्ता ढूंढा. 2012 में शी पार्टी महासचिव बने, तो उन्होंने इस क्षमता का इस्तेमाल करने की एक अंतरराष्ट्रीय परियोजना घोषित की. इसे बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के नाम से जाना गया है. इसके तहत प्राचीन इतिहास के सिल्क रोड के पैटर्न पर एशिया से यूरोप और अफ्रीका तक सड़क, रेल और जल मार्ग को विकसित करने की परियोजना शुरू की गई. इसके तहत अलग-अलग देशों में चीन की वित्तीय मदद से आधुनिक बुनियादी ढांचे का विकास शुरू किया गया. अब तक 167 देश इस परियोजना का हिस्सा बन चुके हैं. इस परियोजना में ऋण चीन के बैंक उपलब्ध कराते हैं, चीनी कंपनियां प्रोजेक्ट्स निर्मित करती हैं, जिसमें ज्यादातर चीन में उत्पादित सामग्रियों का इस्तेमाल होता है. इस तरह इस परियोजना के जरिए चीन का आंतरिक आर्थिक विकास अंतरराष्ट्रीय विकास योजनाओं से जुड़ गया है. जाहिर है, इस वजह से खासकर विकासशील देशों में चीन के प्रभाव में बढ़ोतरी हुई है.

एक तरफ यह घटनाक्रम हुआ है. दूसरी तरफ अमेरिका और बाकी पश्चिमी देश 2007-08 की मंदी की लगी मार के असर से आज तक नहीं उबर पाए हैं. दरअसल, अगर गहराई में जाकर देखें तो उन देशों ने वित्तीय भूममंडलीकरण पर जोर देकर 1990 और 2000 के दशकों में अपना जो de-industrialization किया, यह उसका परिणाम है. चूंकि उन्होंने अपने बुनियादी उद्योगों को चीन जाने दिया, इसलिए रोजगार और आम आदमी की औसत आमदनी को संभाले रखने का तंत्र उनके हाथ से निकल गया. उनकी पूरी अर्थव्यवस्था शेयर मार्केट, बैंकिंग, बीमा, रिएल एस्टेट और हाई टेक कंपनियों के कारोबार में सिमट गई. आज इन क्षेत्रों के मालिक ही असल में उन देशों की पूरी अर्थव्यवस्था, और यहां तक कि राजनीति के नियंत्रक हैँ. इससे पश्चिमी समाजों में विभाजन पैदा हुई है. दूसरी तरफ उसी घटनाक्रम का दूसरा पहलू चीन है, जो अपनी जनता के जीवन स्तर को सुधारते हुए अपने वैश्विक प्रभाव को लगातार बढ़ाने में सफल हो रहा है – यही आज बने ‘नए शीत युद्ध’ का मूल कारण है.

बहरहाल, इस दौर में चीन जिस दिशा में चला है, उससे यह तो साफ है कि वह मार्क्सवादी समाजवाद की शास्त्रीय समझ के अनुरूप नहीं है. उसके वैश्विक प्रभाव को देखते हुए उस पर साम्राज्यवादी रास्ते पर चलने के आरोप भी इसी वजह से लगे हैं इसीलिए पश्चिम के बहुत से वामपंथी भी चीन और पश्चिमी देशों के बीच बढ़ रहे टकराव को दो पूंजीपति शक्तियों के टकराव के रूप में पेश करते हैं. इस क्रम में लेनिन की इस समझ को आधार बनाया जाता है कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की सर्वोच्च अवस्था है. समझ यह है कि पूंजीवादी देश अपने अतिरिक्त उत्पादन को खपाने और मुनाफा बढ़ाने के लिए विदेशों में बाजार की तलाश करते हैं. इसी समझ के आधार पर पहले विश्व युद्ध को मार्क्सवादी विचारकों ने साम्राज्यवादी ताकतों के हितों की लड़ाई के रूप में पेश किया था.

लेकिन चीन को इस खांचे में फिट करने के लिए चीन की अंदरूनी व्यवस्था को कैसे समझा जाए, ये बुनियादी सवाल खड़ा होता है. सीपीसी आज चीन की व्यवस्था को Socialism with Chinese Characteristic यानी चीनी स्वभाव का समाजवाद कहती है लेकिन उसके वो आलोचक जो उसे सीधे पूंजीवादी कहने से बचना चाहते हैं, वो उसे राजकीय पूंजीवाद (state capitalism) कहते हैं. कुछ अधिक कड़े आलोचक एक कदम आगे बढ़ते हुए चीन के लिए अधिनायकवादी पूंजीवाद (Authoritarian capitalism) शब्द का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन अगर गहराई और तमाम जटलिताओं को ध्यान में रखें, तो ऐसे तमाम चरित्र चित्रण (characterization) एक प्रकार का सरलीकरण मालूम पड़ेंगे.

इसलिए कि समाजवाद क्या है, इस बारे में आज तक कोई सर्वमान्य समझ दुनिया के सामने नहीं है. अगर मार्क्सवादी विमर्श के भीतर ही इस प्रश्न पर गौर करें, तो इस बात का उल्लेख जरूर करना होगा कि कार्ल मार्क्स ने समाजवाद और साम्यवाद शब्दों का अक्सर एक ही अर्थ में इस्तेमाल किया था. उनके विमर्श में यह एक खास प्रकार के सिस्टम (व्यवस्था) के बजाय एक ऊंचा आदर्श और मार्गदर्शक सिद्धांत है, जहां मानव समाज को अपने विकासक्रम में पहुंचना है. ये अवस्था तब आएगी, जब समाज में वर्ग और राज्य-व्यवस्था का विलोप हो जाएगा. मार्क्स की कल्पना में समाजवादी/साम्यवादी अवस्था एक वर्ग-विहीन और राज्य-विहीन व्यवस्था होगी.

इतिहासकारों की एक धारा की समझ है कि 1871 में पेरिस कम्यून का जिस क्रूरता से दमन किया गया, उसके बाद मार्क्सवादी विमर्श में ये बात आई कि तुरंत वर्ग विहीन व्यवस्था का सपना साकार नहीं होगा इसलिए उसके पहले की किसी अवस्था पर चर्चा शुरू हुई. उस चर्चा से ही सर्वहारा की तानाशाही का विचार उभरा. उसी विमर्श से ये बात सामने आई कि क्रांति को अंजाम देने और उसके बाद राज्य व्यवस्था को संचालित करने के लिए सर्वहारा के प्रतिनिधि एक अग्रिम दस्ते की जरूरत होगी. इस अग्रिम दस्ते का व्यावहारिक रूप कम्युनिस्ट पार्टी होगी.

जब 1917 में रूस में क्रांति हुई और सत्ता बोल्शेविकों के हाथ में आई, तब उनके सामने ये व्यावहारिक प्रश्न खड़ा हुआ कि नई व्यवस्था को वे कैसे चलाएंगे और उसे क्या नाम देंगे. इस नई परिस्थिति में यह समझ बनी कि साम्यवाद की मंजिल तक पहुंचने से पहले एक अवस्था समाजवाद की होगी, जिसमें वर्ग और राज्य दोनों कायम रहेंगे, लेकिन राज्य पर नियंत्रण सर्वहारा/श्रमिक वर्ग का होगा इसलिए सोवियत संघ के नाम साथ समाजवादी शब्द जोड़ा गया. 1970 के दशक में आकर सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने ये एलान किया कि सोवियत संघ में समाजवाद के निर्माण का कार्य पूरा हो गया है और अब साम्यवाद की तरफ यात्रा शुरू हो गई है, हालांकि वो यात्रा कहां पहुंची, यह अब हम सबके सामने है.

बहरहाल, चीन की कम्युनिस्ट ने न तो 1949 की क्रांति को समाजवादी क्रांति कहा, न ही जिस नई व्यवस्था की उसने स्थापना की, उसके साथ समाजवादी शब्द को जोड़ा. ये बात भी गौरतलब है कि चाहे सोवियत संघ और उसके खेमे के देश हों या आज मौजूद क्यूबा या वियतनाम जैसे देश हों, उन सब जगहों पर अर्थव्यवस्था का संचालन राज्य (state) के हाथ में है (या रहा) है. ऐसे में जो भी आधुनिक औद्योगिक ढांचा वहां खड़ा हुआ है या खेती या कारोबार को जो रूप दिया गया है, उसे सहजता से राजकीय पूंजीवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है. आखिर इन व्यवस्थाओं में उत्पादन के लिए अतिरिक्त मूल्य कहीं ना कहीं से जुटाए जाते हैं. फिर जो उत्पाद तैयार होते हैं, उनका आयात-निर्यात किया जाता है इसलिए चीन में अगर राज्य के नियंत्रण में एक खास ढंग का प्रयोग हुआ है, तो उसे राजकीय पूंजीवाद कह कर खारिज करना कोई विवेकशील प्रतिक्रिया नहीं है.

अब प्रश्न है कि क्या चीन की व्यवस्था Authoritarian है और क्या वहां के राजकीय पूंजीवाद ने साम्राज्यवाद का रूप ग्रहण कर लिया है ? तो सवालों पर गंभीर विवेचना की जरूरत है. इस लेख के अगले अध्याय में हम इस पर गौर करेंगे.

चीन में समस्याएं तो हैं, लेकिन..!

जिस तरह चीन वैचारिक चुनौतियों और विश्व शक्ति संतुलन के बीच घिर गया था, वह खुद को बदलते हुए और झुक कर चलते हुए अपना विकास करने की राह पर नहीं चलता, तो क्या आज वह वैसी ताकत के रूप में खड़ा हो पाता, जैसा कि आज है ? उस समय सीपीसी ने अपना सारा ध्यान दुनिया बदलने के सपने से हटाकर चीन में अपना शासन बचाए रखने और देश को समृद्ध बनाने के सपने पर केंद्रित नहीं किया होता, तो क्या आज समाजवाद (भले वह चीनी स्वभाव वाला हो, जिससे वामपंथी लोगों की असहमति है) को पश्चिमी दुनिया उतनी गंभीरता से लेती, जितना आज उसे लेना पड़ रहा है ? और क्या तब पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए दुनिया में कोई चुनौती रह जाती, जैसाकि अब हम देख रहे हैं ?

एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार authoritarianism का अर्थ ऐसी राजनीतिक व्यवस्था से है, जिसमें सत्ता किसी एक ऐसे नेता या एक छोटे शासक समूह के हाथ में केंद्रित रहती है, जो संवैधानिक रूप से जनता के प्रति जवाबदेह नहीं होता. इसकी व्याख्या करते हुए ब्रिटैनिका में लिखा है – authoritarian नेता अक्सर अपनी सत्ता का उपयोग मनमाने ढंग से और कानून सम्मत संस्थाओं का बिना आदर किए करते हैं. इन नेताओं को जनता चुनावी प्रतिस्पर्धा के जरिए हटा नहीं सकती.

अब आइए, इस परिभाषा के आधार पर चीन की व्यवस्था को परखने की कोशिश करते हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नौ करोड़ सदस्य हैं. उसकी इकाइयां शहरों और गांवों से लेकर औद्योगिक इकाइयों तक में फैली हुई हैं. फिर श्रमिक संगठनों, कृषक संगठनों, छात्र संगठनों आदि का एक पूरा तंत्र देश में फैला हुआ है. इस पूरे तंत्र में नीचे से ऊपर तक पार्टी इकाइयों के पदाधिकारियों के चुनाव की प्रणाली काम करती है. पार्टी की केंद्रीय समिति, पॉलित ब्यूरो, पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति, और पदाधिकारी इसी प्रक्रिया से चुने जाते हैं. नेशनल पीपुल्स कांग्रेस यानी राष्ट्रीय संसद के लिए लगभग 2,200 सदस्यों का चुनाव इसी तरह नीचे से ऊपर तक की प्रक्रिया से होता है. बेशक इस चुनाव प्रक्रिया में कम्युनिस्ट पार्टी या पीपुल्स रिपब्लिक के मूलभूत सिद्धांतों के प्रति निष्ठा रखने वाली बाकी आठ पार्टियों के सदस्य ही हिस्सा लेते हैं लेकिन गौरतलब है कि चीन ने कभी यह नहीं कहा कि वह बहुदलीय लोकतंत्र है. लेकिन बहुदलीय लोकतंत्र ना होने का मतलब सत्ताधारी नेताओं की कोई जवाबदेही का ना होना भी है, ये समझ सही नहीं है.

दुनिया में राजनीतिक संगठन के स्वरूप का अब तक कोई एक आदर्श ढांचा नहीं उभरा है. विभिन्न समाज या वहां की सियासी ताकतें यह तय करती हैं कि वहां कैसा राजनीतिक ढांचा अपनाया जाएगा. मसलन, ईरान ने अगर इस्लामिक रिपब्लिक का ढांचा अपनाया है, तो सिर्फ इसलिए उसकी वैधता (legitimacy) को संदिग्ध नहीं माना जा सकता कि वह अमेरिका या ब्रिटेन या जर्मनी जैसा ढांचा नहीं है.

फिर ये समझ भी सिरे से गलत है कि पश्चिमी ढंग के राजनीतिक संगठन में authoritarianism नहीं है. जैसी authority चीन में कम्युनिस्ट पार्टी या ईरान में गार्जियन काउंसिल assert करती हैं, वैसा ही अमेरिका में वहां का कॉरपोरेट सेक्टर करता है, जिसकी मंशा से अलग वहां कोई चुनाव परिणाम या मुख्यधारा मीडिया विमर्श चलना संभव नहीं है. पिछले कुछ वर्षों में अमेरिका में बर्नी सैंडर्स और ब्रिटेन में जेरेमी कॉर्बिन को सत्ता के करीब पहुंचने से रोकने के लिए व्यवस्था की जैसी गोलबंदी हुई और खासकर जिस तरह कॉर्बिन को बदनाम करने की कोशिशें हुईं, उसके बाद इस बात में और भी कोई संदेह नहीं रह गया.

मानव विकास के क्रम में ऐसी तमाम authority का लोप होना चाहिए. ऐसी अवस्था आनी चाहिए जब नागरिक सचमुच स्वतंत्र हों लेकिन वो अवस्था अभी दुनिया के किसी हिस्से में नहीं आई है. कम्युनिस्ट पार्टियों का भी आखिर यही दावा है कि वे ऐसी अवस्था लाने के लिए प्रयासरत या संघर्षरत हैं लेकिन इसके लिए उनकी समझ है कि मनुष्य की स्वतंत्रता को सीमित करने वाले पहलू समाज की सरंचना में निहित हैं. जब तक इस संरचना को बदल कर एक उन्नत संस्कृति का सूत्रपात नहीं होगा, सभी मनुष्यों की समान स्वतंत्रता की बात महज छलावा है.

अगर हम मशहूर अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के ‘Freedom as Development’ की अवधारणा पर गौर करें (यानी विकास को स्वतंत्रता के संदर्भ में समझने की कोशिश करें), तो ये बात कुछ और स्पष्ट हो सकती है. प्रो. सेन के मुताबिक विकास का मतलब और मकसद मनुष्य को अस्वतंत्रताओं (un-freedoms) से क्रमिक रूप से मुक्त करना है. गरीबी, चिकित्सा का अभाव, पर्याप्त शिक्षा का अभाव, उन परिस्थितियों के अभाव जिनसे इनसान अपनी तमाम क्षमताओं के विकास कर सके और अपनी तमाम संभव स्वतंत्रताओं को जी सके, ऐसे un-freedoms हैं, जो हमारे आस-पास मौजूद रहते हैं.

यहां प्रासंगिक प्रश्न यह है कि अगर कोई व्यवस्था अपनी आबादी के अंदर करोड़ों लोगों को गरीबी से बाहर लाती है, सबको बेहतर चिकित्सा और शिक्षा की सुविधाएं मुहैया कराती है, उनकी सांस्कृतिक अवस्था को उन्नत बनाती है, तो वे लोग अपने आस-पास मौजूद un-freedoms से धीरे-धीरे मुक्त होते हैं या नहीं ? चीन ने पिछले 71 साल में इस रूप में un-freedoms से अपने लोगों को मुक्त करने की दिशा में अभूतपूर्व प्रगति हासिल की है – ये बात विश्व बैंक जैसी पूंजीवादी दुनिया की संचालक संस्थाएं भी मानती हैँ.

अभिव्यक्ति की आजादी समेत तमाम मानव अधिकारों की रक्षा बेशक हर समाज में होनी चाहिए. अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में चीन का रिकॉर्ड और वहां मौजूद परिस्थितियां समस्याग्रस्त हैं. यहां तक कि कुछ समय पहले चीन के सरकार समर्थक अखबार के संपादक हू शिनजिन ने भी ये बात स्वीकार की थी. इस रूप में मानव अधिकार संबंधी एक अहम पहलू पर चीन का रिकॉर्ड कमजोर है.

ये बहस का मुद्दा है कि उत्पादक शक्तियों को उन्नत करते हुए सबको विकास और तमाम स्वतंत्रताओं का अधिकतम मौका देते हुए व्यक्तियों के सभी अधिकारों की रक्षा को कैसे संभव बनाया जाए. लेकिन एक बार फिर यहां ‘whataboutism’ (यानी एक के दोष की चर्चा होने पर दूसरे पक्ष का दोष बताना) की कीमत पर भी इस बात का उल्लेख करना जरूरी है कि दुनिया में अभी कोई ऐसा देश या समाज नहीं है, जहां सबके अधिकारों की समान रक्षा की व्यवस्था कायम कर ली गई हो. पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में जो संवैधानिक अधिकार निहित हैं, उनका एक वर्ग चरित्र रहता है. वो अधिकार सचमुच किसे कितना मिलते हैं, यह इस पर निर्भर करता है कि वह व्यक्ति किस वर्ग से संबंधित है.

दरअसल, अधिकार या आजादी कोई वर्ग निरपेक्ष धारणाएं नहीं हैं. इनका एक वर्गीय संदर्भ (class context) होता है. पूंजीवादी समाजों में होता यह है कि शासक वर्ग इनके बारे में अपनी समझ और अपने हित को पूरे समाज या देश की समझ और हित के रूप में पेश कर देता है. चूंकि वह शासक वर्ग है, इसलिए राजनीति, जनमत को तय करने वाली तमाम तरह की संस्थाओं, समाचार माध्यमों आदि पर उसका नियंत्रण रहता है. इनके जरिए वह जनता के उपेक्षित और शोषित तबकों में भी अपनी राय पर सहमति गढ़ने में सफल हो जाता है.

विश्व जनमत पर पश्चिमी संस्थाओं और मीडिया की ऐसी पकड़ है कि उन देशों के अंदर के विभेदों, अंतर्विरोधों और कमजोरियों पर बाकी दुनिया में कोई तथ्यपरक और सार्थक चर्चा नहीं हो पाती जबकि जिन देशों को ये देश अपने लिए खतरा या जिन्हें दुश्मन मानते हैं, उनके खिलाफ वे पूरी दुनिया में माहौल बना देते हैं. एक समय सोवियत संघ, फिर इस्लामी दुनिया और आज चीन को लेकर जिस तरह का एकतरफा विमर्श दुनिया ने देखा है या देख रही है, उसकी असल वजह यही है.

वरना, अगर सामाजिक विकास और न्याय के साथ विकास की कसौटियों पर गौर करें, तो चीन की व्यवस्था में अनेक खामियों और समस्याग्रस्त पहलुओं के बावजूद हकीकत यह है कि उसकी उपलब्धियां आधुनिक काल में ठोस और विचार-विमर्श का एक महत्त्वपूर्ण आधार उपलब्ध करवाने वाली हैं. आखिर हर व्यवस्था एक प्रयोग है. राजतंत्र से लेकर उदारवादी लोकतंत्र तक के विकास क्रम में अनेक बातें बिना किसी सचेत मानवीय प्रयास के हुईं। कुछ उपलब्धियों के लिए लोगों को प्रयास करने पड़े और कुछ के लिए कुर्बानियां भी देनी पड़ीं.

फ्रांस की क्रांति, उपनिवेशवाद विरोधी महान संघर्ष, समाजों के भीतर न्याय के लिए अनगिनत लड़ाइयां आदि सचेत मानवीय प्रयास के उदाहरण हैं, जिस दौरान हजारों लोगों ने अमूल्य बलिदान दिए हैं लेकिन उन संघर्षों के परिणामस्वरूप जो व्यवस्थाएं बनीं, उन पर जल्द ही धनी और समाज पर दूसरे तरह के प्रभाव रखने वाले समूहों या निहित स्वार्थों ने नियंत्रण कर लिया. ऐसा उन समाजों में भी काफी हद तक हुआ, जहां समाजवाद या साम्यवाद का आदर्श सामने रख कर क्रांतियां हुईं. चीन भी इसका अपवाद नहीं है लेकिन चीन की विशेषता यह है कि उसने अपने प्रयोग को आगे बढ़ाया.

जैसा कि चीन के कई अध्ययनकर्ताओं ने कहा है, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने सौ साल के अपने इतिहास में सीखने और नए हालात के मुताबिक अपना पुनर्आविष्कार करने की जैसी मिसालें कायम की हैं, वैसा उदाहरण कोई और नहीं मिलता. अब यह काल्पनिक बात है, और काल्पनिक बातों का कोई महत्त्व नहीं होता, फिर भी कई बार ये सवाल अक्सर मन में आता है कि अगर सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी सीखने और खुद को बदलने की ऐसी क्षमता या ऐसा लचीलापन दिखाया होता, तो आज दुनिया की सूरत कैसी होती !

बहरहाल, जो लोग खुद को वामपंथी मानते हुए भी चीन को एक बुराई या पश्चिमी पूंजीवाद के समकक्ष मानते हैं, ये प्रश्न उनके सामने है : सोवियत संघ के बिखराव के बाद चीन की व्यवस्था भी अगर ढह गई होती, तो उनकी राय में वह दुनिया के लिए अच्छी बात होती या बुरी बात ? उस समय जिस तरह चीन वैचारिक चुनौतियों और विश्व शक्ति संतुलन के बीच घिर गया था, वह खुद को बदलते हुए और झुक कर चलते हुए अपना विकास करने की राह पर नहीं चलता, तो क्या आज वह वैसी ताकत के रूप में खड़ा हो पाता, जैसाकि आज है ?

उस समय सीपीसी ने अपना सारा ध्यान दुनिया बदलने के सपने से हटा कर चीन में अपना शासन बचाए रखने और देश को समृद्ध बनाने के सपने पर केंद्रित नहीं किया होता, तो क्या आज समाजवाद (भले वह चीनी स्वभाव वाला हो, जिससे वामपंथी लोगों की असहमति है) को पश्चिमी दुनिया उतनी गंभीरता से लेती, जितना आज उसे लेना पड़ रहा है ? और क्या तब पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए दुनिया में कोई चुनौती रह जाती, जैसाकि अब हम देख रहे हैं ?

अब चूंकि बात साम्राज्यवाद पर आ गई है, तो बेशक इस सवाल पर भी चर्चा होनी चाहिए कि चीन साम्राज्यवादी है या नहीं. हमारी इस लेख के अगले अध्याय का विषय यही होगा. लेकिन उसके पहले एक बात जरूर रेखांकित करनी चाहिए कि अभाव और गरीबी में आई समता टिकाऊ नहीं होती है – सोवियत संघ के प्रयोग का यही अनुभव है. अगर लोगों को जरूरी चीजों के लिए लंबी कतारें लगानी पड़े और वे लोग अपनी प्रतिस्पर्धी विचारधारा वाली व्यवस्था के उच्च वर्ग की सुख सुविधाओं को ललचाई आंखों से देखते रहें, तो उसका क्या परिणाम होता है, यह दुनिया ने देखा है. ऐसा परिणाम चीन का होगा या नहीं, यह मालूम नहीं है लेकिन फिलहाल तथ्य यह है कि सोवियत संघ का प्रयोग कुल 74 साल चला, चीन का अब 71 साल का हो चुका है.

चीन साम्राज्यवादी है या नहीं ?

अमेरिकी प्रोफेसरों ली झोंगजिन और डेविड कोट्ज ने कहा है कि चीन के पूंजीपतियों के अंदर भी वैसा साम्राज्यवादी रूझान है, जैसा किसी देश के पूंजीपतियों में होता है, लेकिन उनके इस रूझान को चीन सरकार नियंत्रित कर देती है. चीनी आर्थिक व्यवस्था में बड़े बैंक सरकार के स्वामित्व में हैं. वे शेयर होल्डर्स के प्रति नहीं, बल्कि चीन की जनता के प्रति जवाबदेह हैं. प्रमुख उद्योग सरकारी कंपनियों के स्वामित्व में हैं, जिन्हें पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारी विनियमन के बीच काम करना पड़ता है.

ब्रिटेन की लेबर पार्टी समर्थक वेबसाइट counterfire.org पर एक लेख में वामपंथी लेखक ड्रैगान प्लावसिच ने कुछ समय पहले कहा कि चीन उस रास्ते पर चलने का सिर्फ एक ताजा उदाहरण है, जिस पर ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका ने चलते हुए वैश्विक व्यापार और निवेश के अवसरों को अपनी राष्ट्रीय सीमा से बाहर तक फैलाया..वे प्रतिस्पर्धा के जिस तर्क से प्रेरित हुए थे, वह उससे गुणात्मक रूप से अलग नहीं था, जिससे आज चीन प्रेरित हो रहा है.

प्रतिस्पर्धा लगातार आविष्कार की मांग करती है. इस प्रक्रिया में उत्पादन में मानव श्रम की भूमिका लगातार घटती जाती है. इससे मुनाफे की दर गिरती जाती है. पूंजीपति इसकी भरपाई नए बाजार पर कब्जा करके और उत्पादन लागत को घटा कर करते हैं. यही आर्थिक इंजन साम्राज्यवाद के केंद्र में रहता है.

स्पष्ट है प्लावसिच यह कहा कि चीन आज एक साम्राज्यवादी देश है. ऐसी राय पश्चिमी देशों के ज्यादातर वामपंथी हलकों की है.

इसी समझ के आधार पर उन्होंने “Neither Washington nor Beijing” (न तो अमेरिका के साथ, न चीन के साथ) का नारा गढ़ा है. लेकिन वेस्टर्न लेफ्ट के विश्लेषण के साथ दिक्कत यह रही है कि उसने अपने विमर्श में पश्चिमी साम्राज्यवाद को बहुत पहले गौण कर दिया था. ऐसा करके उसने अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों की आज के विश्व में भूमिका को स्वाभाविक रूप से अग्रणी मान लिया.

इस तरह इराक या लीबिया पर हमले जैसे मामलों में कभी कभार विरोध जताने के अलावा उसने पश्चिमी साम्राज्यवाद की रोजमर्रा के स्तर पर क्या भूमिका है, इस सवाल से ध्यान हटा लिया.

ये कहानी पहले विश्व युद्ध के समय से लेकर आज तक जारी है. इसी समझ के आधार पर पहले विश्व युद्ध के समय कई देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपनी-अपनी सरकारों का समर्थन किया, जबकि मार्क्सवाद नजरिए से साम्राज्यवाद के सबसे प्रमुख व्याख्याकार व्लादीमीर लेनिन ने उस युद्ध को बाजार पर नियंत्रण के लिए साम्राज्यवादी ताकतों का आपसी युद्ध माना था.

लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूंजीवाद की उच्चतम अवस्था (Highest Stage) बताया था. उन्होंने कहा था कि साम्राज्यवाद की सबसे संक्षिप्त परिभाषा यही हो सकती है कि यह पूंजीवाद की मोनोपॉली (एकाधिकार) वाली अवस्था है. उन्होंने कहा था कि किसी व्यवस्था के साम्राज्यवाद मे तब्दील होने के लिए उसमें निम्नलिखित पांच विशेषताएं होनी चाहिए –

  1. पूंजीवादी उत्पादन की मुख्य शाखाएं उस स्तर तक पहुंचे, जब मुनाफा देने वाले कारोबार सिर्फ वही बचें, जिनमें विशाल मात्रा में पूंजी का केंद्रीयकरण इस रूप में हो कि वह मोनोपॉली का रूप ले ले.
  2. वित्तीय कुलीनतंत्र का उदय हो – खास कर बैंकों का जो अर्थव्यवस्था का इंजन बन जाएं.
  3. आर्थिक वृद्धि (growth) के लिए पूंजी का निर्यात (पूंजी का निवेश) अहम हो जाए.
  4. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मोनोपॉली वाले पूंजीपतियों के संघ बनें, जो दुनिया को आपस में बांट लें.
  5. पूंजीवादी ताकतें दुनिया को पूरी तरह आपस में बांट लें. इस रूप में वे दुनिया भर के बाजारों और संसाधनों को एक पूंजीवादी विश्व व्यवस्था में एकीकृत कर लें.

पहले विश्व युद्ध के समय ऐसी ही स्थिति बन गई थी. उसके बाद भी पूंजीवादी ताकतों ने दुनिया का बंटवारा किया, लेकिन इस बीच सोवियत संघ का उदय हो चुका था. सोवियत संघ और आगे चल कर उसके नेतृत्व वाला समाजवादी खेमा पश्चिमी साम्राज्यवाद के विरुद्ध के एक बड़ी धुरी के रूप में उभरा. उसके उदय से दुनिया भर में उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों को बल मिला. इन आंदोलनों के दौरान और उनकी सफलता के बाद नव-स्वतंत्र देशों के आर्थिक निर्माण में समाजवादी खेमे का सक्रिय सहयोग उस दौर के इतिहास में स्पष्ट रूप से दर्ज है.

जिस समय लेनिन ने साम्राज्यवाद की व्याख्या की थी, उस समय चीन खुद साम्राज्यवादी शोषण का शिकार था. 1949 तक वह ऐसे शोषण का केंद्र बना रहा.

अक्टूबर 1949 की चीनी क्रांति की एक बड़ी उपलब्धि यही रही कि उससे पश्चिमी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद की जड़ों को हिलाने में मदद मिली. तब चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में हासिल हुई जीत का स्वागत साम्राज्यवाद के खिलाफ शोषित दुनिया की महान विजय के रूप किया गया था.

तब से साल 2000 तक चीन अपने निर्माण और अपनी गरीबी एवं पिछड़ेपन की समस्या से निपटने में लगा रहा. ऐसा सिर्फ पिछले 20 वर्षों में हुआ है, जब चीन की अर्थव्यवस्था ने लगातार ऊंची विकास दर हासिल की और चीन एक बड़ी आर्थिक और तकनीकी (technological) शक्ति के रूप में उभरा.

इस बीच वहां की उत्पादक शक्तियां उन्नत अवस्था में पहुंची हैं, और उनके साथ ही न सिर्फ पूंजीपति बल्कि मोनोपॉली पूंजीपति भी अस्तित्व में आए हैं. चीन ने विदेशों में जो प्रत्यक्ष निवेश किए हैं, वह भी अब काफी ठोस रूप ले चुका है. यह निवेश कुछ यूरोपीय देशों से भी अधिक हो चुका है, लेकिन अगर प्रति व्यक्ति जीडीपी की तुलना में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को देखें, तो यह आज भी एक प्रतिशत से कम है.

इस रूप में अमेरिका तो दूर, वह जापान, आयरलैंड, स्वीडन, नीदरलैंड्स और यहां तक कि संयुक्त अरब अमीरात (UAE) से भी चीन अभी पीछे है.

राजनीतिक विश्लेषक स्टीफन गोवान्स ने कहा है कि साम्राज्यवाद आर्थिक हितों से प्रेरित होकर दूसरे देशों पर वर्चस्व कायम करने की प्रक्रिया है.

इस सिलसिले में यह विश्लेषण का मुद्दा है कि आज चीन का दुनिया के कितने देशों पर घोषित या अघोषित वर्चस्व है ? पश्चिमी विमर्श में चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को ऐसा ही वर्चस्व कायम करने की कोशिश के रूप में चित्रित किया जाता है. इस प्रोजेक्ट के क्रम में चीन के कर्ज के जाल में देशों के फंसने की चर्चा लंबे समय तक रही, लेकिन हाल में खुद एक अमेरिकी पत्रिका (द अटलांटिक) ने अपनी शोध कथा से इस निष्कर्ष पर पहुंची कि कर्ज के जाल (डेट ट्रैप) की तमाम बातें निराधार हैं.

जांबिया जैसे देशों का जो अनुभव है, वह कर्ज के जाल की कहानी की पुष्टि नहीं करता. ये बात खुद पश्चिमी टीवी चैनल- फ्रांस-24 की पर चली चर्चाओं में सामने आई है. ग्रीस के पूर्व वित्त मंत्री यानिस वारोफाकिस ने चीन सरकार से अपनी बातचीत के अनुभव के आधार पर कहा है कि उन्हें कभी ये महसूस नहीं हुआ कि चीन के निवेश या आर्थिक मदद का उद्देश्य ग्रीस पर वर्चस्व कायम करना है.

किताब –हैज चाइना वॉन- के लेखक और सिंगापुर के जाने-माने राजनयिक किशोर महबुबानी की भी यही राय रही है कि कम से कम अब तक चीन ने जो आर्थिक संबंध बनाए हैं, उनका स्वरूप वैसा नहीं है, जैसा पश्चिमी मीडिया में चित्रित किया जाता है, बल्कि उसका ऐसा न होना ही वजह है, जिससे इतनी बड़ी संख्या एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के देश चीन की योजनाओं का हिस्सा बने हैं.

ब्रिटिश लेफ्ट के प्रमुख अखबार- द मॉर्निंग स्टार- में लिखे एक विश्लेषण में उसके विश्लेषक कार्लोस मार्तिनेज ने लिखा कि जब दुनिया पहले से साम्राज्यवादी ताकतों ने बांट रखी हो, तब कोई नया देश तभी साम्राज्यवादी बन सकता है, जब वह किसी देश से वहां मौजूद साम्राज्यवादी देश को खदेड़ दे, लेकिन अभी तक ऐसा कोई युद्ध नहीं हुआ है, जिसमें चीन ने किसी देश को खदेड़ दिया हो !

मशहूर बुद्धिजीवी और भाषाविद नोम चोम्स्की वैसे चीन के अंदर नागरिक स्वतंत्रताओं के अभाव के कारण चीन के कड़े आलोचक रहे हैं, लेकिन साम्राज्यवाद के मुद्दे पर उन्होंने कहा है- जब अमेरिका का दुनिया में लगभग 800 सैनिक अड्डे हैं, तब किसी देश की सरकार पर हमला करना और वहां की सरकार को उखाड़ फेंकना या वहां आतंकवादी गतिविधि चलाना संभव नहीं है.

अपने बड़े सैन्य बजट के बावजूद चीन ऐसा करने में सक्षम नहीं हुआ है.

दरअसल, चीनी साम्राज्यवाद की सारी चर्चा तब शुरू हुई, जब चीन ने जाने या अनजाने में hide strength, bide time की नीति छोड़ दी.

पिछले दस साल में हुआ यह है कि वह अपनी ताकत को जताने लगा है. पास-पड़ोस के देशों के साथ आपसी संबंधों से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक में वह अब झुक कर चलने की नीति का पालन नहीं करता. अचानक हुए इस बदलाव ने सबका ध्यान खींचा है.

चूंकि इस बीच चीन के अंदर पूंजीवादी विकास भी तेजी से हुआ है, तो उससे चीनी साम्राज्यवाद की कहानी विश्वसनीय लगने लगी है.

बहरहाल, जैसाकि ऊपर हमने देखा, चीनी साम्राज्यवाद के लिए दुनिया खाली नहीं है. चीन के विदेशी निवेश को जगह इसलिए मिली है कि उसने उन देशों को इसके लिए चुना, जिन्हें पश्चिमी पूंजीपति मुनाफा देने योग्य बाजार नहीं समझते हैं. उसकी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजना इसलिए आगे बढ़ी, क्योंकि एक तो उसने इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिहाज से अत्यंत पिछड़े देशों को प्राथमिकता दी और दूसरे इसके लिए या कर्ज देने के लिए वैसी शर्तें नहीं रखीं, जैसी पश्चिमी देश रखते हैँ. मसलन, श्रम या जलवायु मानदंडों का पालन या एक खास ढंग की अंदरूनी राजनीतिक व्यवस्था अपनाना.

किताब Is China Imperialist ? Economy, State and Insertion in the Global System के लेखक अमेरिकी प्रोफेसरों ली झोंगजिन और डेविड कोट्ज ने कहा है कि चीन के पूंजीपतियों के अंदर भी वैसा साम्राज्यवादी रूझान है, जैसा किसी देश के पूंजीपतियों में होता है, लेकिन उनके इस रूझान को चीन सरकार नियंत्रित कर देती है. चीनी आर्थिक व्यवस्था में बड़े बैंक सरकार के स्वामित्व में हैं. वे शेयर होल्डर्स के प्रति नहीं, बल्कि चीन की जनता के प्रति जवाबदेह हैं.

प्रमुख उद्योग सरकारी कंपनियों के स्वामित्व में हैं, जिन्हें पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए भारी विनियमन के बीच काम करना पड़ता है. सीपीसी में पूंजीपतियों का भी प्रतिनिधित्व है, लेकिन इस बात के कोई साक्ष्य नहीं हैं कि पूंजीपति सीपीसी को नियंत्रित या निर्देशित करते हैँ.

इसलिए चीनी अर्थव्यवस्था की दिशा उस तरह साम्राज्यवाद की तरफ नहीं खिंचती, जैसाकि ब्रिटेन या अमेरिका या जापान की अर्थव्यवस्थाओं में होता है. फिर चीन पहले से मौजूद साम्राज्यवादी ताकतों से प्रत्य़क्ष सैनिक टकराव के बिना अपना अनौपचारिक साम्राज्यवाद कायम करने की स्थिति में भी नहीं है.

इसके बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज चीन और पश्चिमी देशो के बीच टकराव की स्थितियां बढ़ती जा रही हैं. इस सिलसिले में एक बात ध्यान खींचती है. वह अमेरिकी शासक वर्ग में मौजूद वो आम सहमति है, जिसके तहत वहां की सरकार उस देश को शत्रु देश घोषित कर देती है, जो अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती दे.

पिछले कुछ वर्षों से अमेरिकी सरकार ने अघोषित रूप से यही किया हुआ है. अब इसमें कोई शक नहीं है कि चीन ने इस वर्चस्व को चुनौती दी है. ये चुनौती सैनिक क्षेत्र में कम, आर्थिक क्षेत्र में ज्यादा है.

लेकिन इसकी वजह दोनों देशों की पॉलिटिकल इकॉनमी और वहां राज्य-व्यवस्था उभरे मॉडल हैं.

पिछले 40 साल में अमेरिका और पश्चिमी देशों ने बेरोक निजीकरण और पूंजी के भूमंडलीकरण को प्रोत्साहित कर अपने हाथ कमजोर कर लिए हैँ, जबकि चीन सरकार ने पब्लिक सेक्टर, पंचवर्षीय योजना के जरिए विकास की नीति, और अर्थव्यवस्था में सरकारी हस्तक्षेप को कायम रख कर अपनी ताकत न सिर्फ बरकरार रखी है, बल्कि उसमें इजाफा किया है.

आज जब अमेरिका और उसके साथी देश चीन के ‘अनुचित व्यापार व्यवहार’ की शिकायत करते हैं, तो दरअसल वे सिस्टम के इस मॉडल की ही बात करते हैं. वे चाहते हैं कि चीन इसे तोड़ दे. यानी वह मार्केट सोशलिज्म की बात करना छोड़, मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था को अपना ले.

अगर गौर से देखा जाए, तो आज उभरे टकराव का असल कारण यही है.

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