Home लघुकथा फैसला

फैसला

15 second read
0
0
199

दिल्ली में दिसम्बर की ठिठुरन वाली एक सुबह. ओस की बूंदे चादर बनकर पत्तों का आलिंगन कर रही थी. ठंडी हवा रोम-रोम में ठंडक भर रही थी. हर रोज़ की तरह सरिता जल्दी-जल्दी उठकर नाश्ता बनाने की तैयारी में थी. घर की सबसे छोटी और अपने तीन भाइयों की दुलारी बहन थी सरिता. पढ़ाई के साथ-साथ घर की जिम्मेदारियों का बोझ भी उसके कंधे पर था.

तभी पापा ने आवाज दी – ‘सरिता चाय ला दे और देखना अखबार वाला अब तक आया है या नहीं.’

सब्जी काटना छोड़ सरिता ने हड़बड़ी में चाय छानकर अपने 62 वर्षीय पिताजी को दे दिया. सरिता के पिताजी सरकारी टीचर थे और दो साल पहले ही रिटायर हुए थे.

अखबार वाला अखबार बंडल बांधकर फेंक कर जा चुका था. सरिता ने अखबार की हेडलाइन पढ़कर गुस्से से पिताजी के सामने अखबार पटक दी.

सरिता – ‘एक और बलात्कार. हद हो गई है अब तो.’

सरिता की बात सुनकर पिताजी ने ऊंचे स्वर में कहा -‘रात में घूमेगी तो यही होगा ना. किसने कहा था इतनी रात में फ़िल्म देखने जाने को ?’ सरिता ने चुपचाप अंदर जाने में ही अपनी भलाई समझी.

सरिता की कॉलेज सुबह 10 बजे से दोपहर 3 बजे तक होती थी. आज वह करीब 10 दिनों बाद कॉलेज जा रही थी. सर्दी की ऐसी मार पड़ी कि उसने बिस्तर पकड़ लिया था. एक हफ़्ते तो उसे ठीक होने में ही लग गए. फिर कुछ दिन आराम करके आज कॉलेज जाने की तैयारी में थी.

काम को निपटा कर सरिता अपने बस स्टॉप पर अपनी बचपन की सहेली रीना का इंतज़ार कर रही थी.

‘कहां रह गई यह रीना की बच्ची ? इतने दिन बाद कॉलेज जा रही हूं वह भी लेट हो जाऊंगी.’

थोड़ी देर इंतज़ार करने के बाद सरिता ने कॉलेज निकल जाना ही ठीक समझा. पन्द्रह नम्बर की सरकारी बस पकड़ी और एक खाली सीट पर जा बैठी.

आज ठंड कुछ अधिक ही थी. सूरज निकल कर चमक रहा था फिर भी कंपकपी छूट रही थी. तभी साथ पढ़ने वाली लड़की बगल वाली खाली सीट पर आकर बैठ गई.

रितु – ‘अरे सरिता कहां थी इतने दिन ? तू तो ईद का चांद हो गई आजकल.’ कुछ खुश होते हुए रितु ने कहा. उसके चेहरे पर संतोष के भाव दिख रहे थे.

सरिता- ‘क्या बताऊं यार, बीमार ऐसी पड़ी थी कॉलेज आना तो दूर बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही थी. आज 10 दिनों बाद कॉलेज जा रही हूं.’

रितु – ‘अच्छा ?’ कुछ चौंक कर उसने ने कहा. इसमें आश्चर्य चिंता दोनों का कुछ मिलाजुला भाव था.

कॉलेज जाने में करीब 25 मिनट का समय लगता था तो बातों का सिलसिला शुरू हो गया हो गया.

रितु – ‘देखा तुमने फिर गैंगरेप हुआ है. मुझे तो गुस्सा आ रहा. सोचकर ही जी घबरा उठता है. क्या बीती होगी उस लड़की पर. उसे क्या पता था कि बस में अपने दोस्त के साथ बाहर जाकर उसने इतनी बड़ी गलती कर दी.’

कुछ देर रुक कर रितु ने फिर अपनी बात कहनी शुरू की – ‘अच्छा है…कुछ लोग तो कम से कम सड़क पर निकल रहे. पुलिस तो कुछ करती नहीं. जब किसी के साथ इतना बुरा होगा तब जाकर कुछ हाथ पांव मारती है. सुना है आज भी कोई बड़ा विरोध मार्च है.

सरिता -‘हां देखा अखबार में. लेकिन यह जो मार्च-वार्च निकालने वाले लोग हैं. मुझे वह दिखावा लगता है. गुस्सा मुझे भी आता है लेकिन इन सब से क्या होगा ?’

सरिता कहती गई – ‘मुझे बहुत गुस्सा आता है. यह सब देखकर खून खौलता है लेकिन हम लड़कियों की किस्मत ऐसी ही है. लड़की ही होना ही पाप है. हमें अब से इसे स्वीकार कर लेना चाहिए. यह समाज ऐसा ही रहेगा. मार्च और भीड़ जुटाने से कुछ नहीं होगा.’ उसका गला रुंध गया था किसी तरह उसने अपनी पूरी बात खत्म की.

रितु- ‘अच्छा बताओ डर तो सब लड़कियों को लगता है. लेकिन हम कब तक बर्दाश्त करें ? कॉलेज में, सड़कों पर, घर के आसपास, यहां तक कि घर के अंदर भी, हर जगह गंदी झेलनी पड़ती है. तुझे पता भी है…करीब 1 हफ्ते से एक बुड्ढा बस में भीड़ का फ़ायदा उठाकर लड़कियों को ग़लत तरीके से छूने की कोशिश करता है. वो हिंदी वाली अंजलि और मंजू के साथ भी हुआ.’

सरिता के चेहरे पर शून्य के भाव थे. रितु ने कहना जारी रखा.
‘क्या करें हम लड़कियां पढ़ाई छोड़ दें ? घर बैठ जाएं और बस चूल्हा-चौका करें ? घर में भी कौन सी बहुत इज़्ज़त मिल जाती है ? क्या घर में लड़कियों के साथ इस तरह की घटनाएं नहीं होती ?’ रितु की आवाज़ तेज़ हो गई थी. एक-एक शब्द उसके भीतर से निकल रहे थे.

सरिता – ‘अब बुड्ढे भी ?? छी ! बाप के उम्र के होकर भी इन्हें शर्म भी नहीं आती ? छी !’

बातों का सिलसिला आगे बढ़ पाता उससे पहले उनका कॉलेज आ गया. विषय अलग-अलग होने के कारण बस से उतर कर दोनों अलग-अलग दिशा में चल पड़े. ‘बाय !’ छोटे से अभिवादन के साथ उन्होंने अपने कदम बढ़ा दिए.

सरिता पूरे दिन भर उधेड़बुन में रही. रितु की बातें उसके मन-मस्तिष्क में घूमती रही. कॉलेज में मन नहीं लगा. कभी बुड्ढे का ख्याल आता तो कभी उस गैंगरेप पीड़िता के बारे में सोचने लगती. इसी में पूरा कॉलेज गुजर गया. उसने कॉलेज खत्म होने का इंतज़ार भी नहीं किया. 2 बजे ही बस पकड़ ली.

घर वापस आकर किसी तरह खाना खाया, फिर छत पर जाकर लेट गई. अब भी उसका मन इन्हीं घटनाओं को सोच रहा था. शायद लड़की होने के कारण वह ज़्यादा महसूस कर पा रही थी.

अगले दिन सरिता ने जल्दी से काम निपटा कर कॉलेज की बस पकड़ ली. आज रीना भी साथ में थी इसलिए सरिता का मन कुछ हल्का था.

धीरे-धीरे बस में भीड़ बढ़ने लगी. धक्का-मुक्की होने की नौबत आने ही वाली थी. भीड़ में एक बुड्ढा लड़कियों के सीट के बगल में आकर खड़ा हो गया. उसके आने से लड़कियां चौकन्ना हो गयी.

रीना चुपके से सरिता के कान में बुदबुदाई- ‘तेरे बगल वो बुढ्ढा खड़ा है..’.

रीना अपनी बात भी पूरी ना कर पाई थी कि उस बुड्ढे ने अपना हाथ सरिता कमर से छूकर हटा लिया.

अनचाही छुअन से हड़बड़ा कर सरिता ने हिम्मत जुटाई. उठकर गुस्से से बुड्ढे की तरफ देखा. उसके मुंह से गाली निकलते निकलते रुक गई.

‘हरामी….बुढ्ढा…’.

उसकी आंखों से धाराप्रवाह आंसू बह चले. मुंह से बस इतना निकला- ‘पिताजी…’

सरिता को लगा कि उसका सिर घूम रहा है. वह धम्म से अपनी अपनी सीट पर बैठ गई. उसके पिताजी भी भीड़ में कहीं खो गए.

अपने आप को किसी तरह बटोर कर सरिता अगले स्टॉप पर रुक गई. वह कहीं भाग जाना चाहती थी. कहां उसे खुद नहीं पता. वह घर नहीं जाना चाहती थी. घर जाने के ख्याल से उसका चेहरा पीला पड़ गया गया. वह अपने कदमों को तेज़-तेज़ बढ़ाने लगी. आंसू की धारा रुकने का नाम नहीं ले रही थी. उसके कदमों की रफ़्तार और तेज़ हो गई. भागते-भागते सरिता बस अपने पिताजी को याद कर रही थी. मुंह से निकल रहा था ‘पिताजी आप नहीं हो सकते. पिताजी…आप नहीं हो सकते..’

कभी मंजू का चेहरा याद आता तो कभी अंजली का. फिर कभी अचानक पिताजी में बदल जाता. फिर अचानक उसे बलात्कार पीड़िता याद आ जाती जाती. बदहवास सरिता बस भागती जा रही थी.

भागते-भागते अचानक उसके कदम रुक गए. सामने हज़ारों की भीड़ दिखाई दे रही थी. चारों तरफ पुलिस की घेराबंदी थी. लोग ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे थे हालांकि उनके शब्द अस्पष्ट थे. कुछ नज़दीक जाने पर भारी संख्या में लड़के लड़कियां पोस्टर लिए हुए दिखे. नज़दीक जाते ही चिल्लाहट नारे में बदल गए. अब उसे स्पष्ट सुनाई दे रहा था…

‘दिल्ली पुलिस मुर्दाबाद !!
‘दोषियों पर करवाई करो !!
‘यौन हिंसा बंद करो !!
‘बलात्कार नहीं सहेंगे !!
‘पितृसत्ता मुर्दाबाद !!

उस हवा में बेहद जोश था. जोश था हर पीड़ित लड़की को इंसाफ दिलाने का. जोश था महिला विरोधी समाज को बदलने का. जोश था कुछ कर दिखाने का.

सरिता के रुके हुए कदम अचानक से खुद ही बढ़ चले. उसी क्षण उसे खुद में वही पीड़िता दिखने लगी. कुछ ही देर वहां खड़ी हर एक लड़की में उसे पीड़िता की शक्ल नज़र आने लगी.

भीड़ के नज़दीक पहुंच कर उसके कदम थमे नहीं. अब वह खुद ही उस नारे लगाती भीड़ का हिस्सा हो गयी.

तभी किसी ने ज़ोर से आवाज़ दी- ‘इंक़लाब ज़िंदाबाद !!’

सरिता ने भी मुट्टी तानते हुए कहा- ‘ज़िंदाबाद !, ज़िंदाबाद !!’

  • आकांक्षा आजाद

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay

ROHIT SHARMA

BLOGGER INDIA ‘प्रतिभा एक डायरी’ का उद्देश्य मेहनतकश लोगों की मौजूदा राजनीतिक ताकतों को आत्मसात करना और उनके हितों के लिए प्रतिबद्ध एक नई ताकत पैदा करना है. यह आपकी अपनी आवाज है, इसलिए इसमें प्रकाशित किसी भी आलेख का उपयोग जनहित हेतु किसी भी भाषा, किसी भी रुप में आंशिक या सम्पूर्ण किया जा सकता है. किसी प्रकार की अनुमति लेने की जरूरत नहीं है.

Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • दलित मालिक, सवर्ण रसोईया

    दलित जाति के एक युवक की नौकरी लग गई. कुछ दिन तो वो युवक अपने गांव आता जाता रहा. शादी ब्याह…
  • पागलखाना प्रसंग (लघुकथाएं)

    जब पागल खाने का दरवाजा टूटा तो पागल निकाल कर इधर-उधर भागने लगे और तरह-तरह की बातें और हरकत…
  • सेठ जी का पैसा

    एक सेठ जी एक करोड़ रूपया नगद लेकर ट्रेन में सफर कर रहे थे. अपने आप को सुरक्षित करने के लिए…
Load More In लघुकथा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

ग्लोबल गांधी फिल्मों का विषय तो हो सकता है, उनका मोहताज कभी नहीं

1930 में टाइम मैगजीन ने गांधी को पर्सन ऑफ द ईयर नवाजा था. उनकी मशहूरियत अब तक भारत और दक्ष…