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‘अदालत एक ढकोसला है’

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विक्रम सिंह चौहान अपनी एक पोस्ट को शेयर करते हुए लिखते हैं : संजीव भट्ट की पत्नी और उनका परिवार संजीव की रिहाई के लिए कभी हाई कोर्ट तो कभी सुप्रीम कोर्ट का चक्कर काट रहे हैं. शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से बेल एप्लिकेशन को एक तरह से रिजेक्ट करते हुए गुजरात सरकार से 4 हफ़्तों में जवाब मांगा है. अब सुनवाई मई के फर्स्ट वीक में होगा तब तक चुनाव भी खत्म हो जाएंगे. इससे पहले गुजरात हाई कोर्ट ने भी 4 हफ़्ते का समय सरकार को दिया था. यह न्याय व्यवस्था नहीं न्यायपालिका के नाम पर मज़ाक है.

संजीव भट्ट को अज्ञात जगह रखा गया है. उनके साथ किसी अमानवीय प्रताड़ना की पूरी संभावना है. कोर्ट इस नज़र से देख ही नहीं रहा है कि उस इंसान के साथ ऐसा व्यवहार अचानक से क्यों किया जा रहा है ? 1996 नारकोटिक्स के मनगढ़ंत प्रकरण को आधार बनाकर उन्हें गिरफ्तार किया गया था. मोदी संजीव से व्यक्तिगत दुश्मनी निकाल रहे हैं. कहा जा रहा था संजीव ने साहब की कुछ ऐसी जानकारी निकाली है, जो उनका राजनीतिक करियर खत्म कर देगा, वे सही समय के इंतजार में थे, इससे पहले ही उन्हें पकड़ लिया गया. एक ईमानदार आईपीएस जिन्होंने गुजरात दंगों पर एफिडेविट देकर कहा था, ‘मोदी ने हिंदुओं को गुस्सा निकालने देने कहा था’ के साथ फ़ासिस्ट सरकार दुश्मनी निकाल रही है.

दूसरी ओर देश की न्यायपालिका तमाशबीन बनी हुई है. कल को संजीव भट्ट के साथ अगर कुछ गलत होता है तो इसका जिम्मेदार सिर्फ मोदी नहीं ही नहीं देश का सुप्रीम कोर्ट, जस्टिस रंजन गोगोई भी होंगे.

विक्रम सिंह चौहान के पोस्ट यह बताने के लिए तो पर्याप्त है कि आज भारतीय न्यायपालिका किस प्रकार पंगु बनी हुई है, जो केवल गरीब, असहायों और ईमानदारों पर ही भारी पड़ती है. परन्तु, इस न्यायपालिका का सर्वश्रेष्ठ विश्लेषण अमर शहीद भगत सिंह ने वर्षों पहले ही ‘अदालत एक ढकोसला है’ नामक आलेख में स्पष्ट कर चुके हैं, यह अलग बात है कि तब अंग्रेजी हुकूमत की अदालतें हुआ करती थी और अब अंग्रेजों के चेले-चपाटे और हिन्दुत्ववादी फासिस्टों की सरकार है, जिसके पैरों की जूती बन गई है न्यायपालिका समेत देश की तमाम संवैधानिक संस्थानें. आईयें, देखते हैं, न्यायपालिका के बारे में भगत सिंह के विचारों को –




अदालत एक ढकोसला है : छह साथियों का एलान

कमिश्नर,
विशेष ट्रिब्यूनल,
लाहौर साज़िश केस, लाहौर

जनाब,

अपने छह साथियों की ओर से, जिनमें कि मैं भी शामिल हूं, निम्नलिखित स्पष्टीकरण इस सुनवाई के शुरू में ही देना आवश्यक है. हम चाहते हैं कि यह दर्ज़ किया जाये.

हम मुकदमे की कार्यवाही में किसी भी प्रकार भाग नहीं लेना चाहते, क्योंकि हम इस सरकार को न तो न्याय पर आधारित समझते हैं और न ही कानूनी तौर पर स्थापित. हम अपने विश्वास से यह घोषणा करते हैं कि ‘समस्त शक्ति का आधार मनुष्य है. कोई व्यक्ति या सरकार किसी भी ऐसी शक्ति की हकदार नहीं है जो जनता ने उसको न दी हो क्योंकि यह सरकार इन सिद्धान्तों के विपरीत है इसलिए इसका अस्तित्व ही उचित नहीं है. ऐसी सरकारें जो राष्ट्रों को लूटने के लिए एकजुट हो जाती हैं, उनमें तलवार की शक्ति के अलावा कोई आधार कायम रहने के लिए नहीं होता, इसीलिए वे वहशी ताकत के साथ मुक्ति और आज़ादी के विचार और लोगों की उचित इच्छाओं को कुचलती हैं.

हमारा विश्वास है कि ऐसी सरकारें, विशेषकर अंग्रेज़ी सरकार जो असहाय और असहमत भारतीय राष्ट्र पर थोपी गयी है, गुण्डों, डाकुओं का गिरोह और लुटेरों का टोला है जिसने कत्लेआम करने और लोगों को विस्थापित करने के लिए सब प्रकार की शक्तियां जुटायी हुई हैं. शान्ति-व्यवस्था के नाम पर यह अपने विरोधियों या रहस्य खोलने वाले को कुचल देती है.

हमारा यह भी विश्वास है कि साम्राज्यवाद एक बड़ी डाकेजनी की साज़िश के अलावा कुछ नहीं. साम्राज्यवाद मनुष्य के हाथों मनुष्य के और राष्ट्र के हाथों राष्ट्र के शोषण का चरम है. साम्राज्यवादी अपने हितों, और लूटने की योजनाओं को पूरा करने के लिए न सि़र्फ न्यायालयों एवं कानून का कत्ल करते हैं, बल्कि भयंकर हत्याकाण्ड भी आयोजित करते हैं. अपने शोषण को पूरा करने के लिए जंग जैसे ख़ौफनाक अपराध भी करते हैं. जहां कहीं लोग उनकी नादिरशाही शोषणकारी मांगों को स्वीकार न करें या चुपचाप उनकी ध्वस्त कर देने वाली और घृणा योग्य साज़िशों को मानने से इन्कार कर दें तो वह निरपराधियों का ख़ून बहाने से संकोच नहीं करते. शान्ति-व्यवस्था की आड़ में वे शान्ति-व्यवस्था भंग करते हैं. भगदड़ मचाते हुए लोगों की हत्या, अर्थात हर सम्भव दमन करते हैं.




हम मानते हैं कि स्वतन्त्रता प्रत्येक मनुष्य का अमिट अधिकार है. हर मनुष्य को अपने श्रम का पफल पाने जैसा सभी प्रकार का अधिकार है और प्रत्येक राष्ट्र अपने मूलभूत प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण स्वामी है. अगर कोई सरकार जनता को उसके इन मूलभूत अधिकारों से वंचित रखती है तो जनता का केवल यह अधिकार ही नहीं बल्कि आवश्यक कर्त्तव्य भी बन जाता है कि ऐसी सरकार को समाप्त कर दे क्योंकि ब्रिटिश सरकार इन सिद्धान्तों, जिनके लिए हम लड़ रहे हैं, के बिल्कुल विपरीत है, इसलिए हमारा दृढ़ विश्वास है कि जिस भी ढंग से देश में क्रान्ति लायी जा सके और इस सरकार का पूरी तरह ख़ात्मा किया जा सके, इसके लिए हर प्रयास और अपनाये गये सभी ढंग नैतिक स्तर पर उचित हैं. हम वर्तमान ढांचे के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्रों में क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने के पक्ष में हैं. हम वर्तमान समाज को पूरे तौर पर एक नये सुगठित समाज में बदलना चाहते हैं. इस तरह मनुष्य के हाथों मनुष्य का शोषण असम्भव बनाकर सभी के लिए सब क्षेत्रों में पूरी स्वतन्त्रता विश्वसनीय बनायी जाये. जब तक सारा सामाजिक ढांचा बदला नहीं जाता और उसके स्थान पर समाजवादी समाज स्थापित नहीं होता, हम महसूस करते हैं कि सारी दुनिया एक तबाह कर देने वाले प्रलय-संकट में है.

जहां तक शान्तिपूर्ण या अन्य तरीकों से क्रान्तिकारी आदर्शों की स्थापना का सम्बन्ध है, हम घोषणा करते हैं कि इसका चुनाव तत्कालीन शासकों की मर्ज़ी पर निर्भर है. क्रान्तिकारी अपने मानवीय प्यार के गुणों के कारण मानवता के पुजारी हैं. हम शाश्वत और वास्तविक शान्ति चाहते हैं, जिसका आधार न्याय और समानता है. हम झूठी और दिखावटी शान्ति के समर्थक नहीं, जो बुज़दिली से पैदा होती है और भालों और बन्दूकों के सहारे जीवित रहती है.

क्रान्तिकारी अगर बम और पिस्तौल का सहारा लेता है तो यह उसकी चरम आवश्यकता में से पैदा होता है और आखि़री दांव के तौर पर होता है. हमारा विश्वास है कि अमन और कानून मनुष्य के लिए है, न कि मनुष्य अमन और कानून के लिए.

फ्रांस के उच्च न्यायाधीश का यह कहना उचित है कि कानून की आन्तरिक भावना स्वतन्त्राता समाप्त करना या प्रतिबन्ध लगाना नहीं, वरन स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखना और उसे आगे बढ़ाना है. सरकार को कानूनी शक्ति बनाये गये उन उचित कानूनों से मिलेगी जो केवल सामूहिक हितों के लिए बनाये गये हैं, और जो जनता की इच्छाओं पर आधारित हों, जिनके लिए यह बनाये गये हैं. इससे विधायकों समेत कोई भी बाहर नहीं हो सकता.




कानून की पवित्रता तभी तक रखी जा सकती है जब तक वह जनता के दिल यानी भावनाओं को प्रकट करता है. जब यह शोषणकारी समूह के हाथों में एक पुर्ज़ा बन जाता है, तब अपनी पवित्राता और महत्त्व खो बैठता है. न्याय प्रदान करने के लिए मूल बात यह है कि हर तरह के लाभ या हित का ख़ात्मा होना चाहिए.

ज्यों ही कानून सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करना बन्द कर देता है त्यों ही ज़ुल्म और अन्याय को बढ़ाने का हथियार बन जाता है. ऐसे कानूनों को जारी रखना सामूहिक हितों पर विशेष हितों की दम्भपूर्ण ज़बरदस्ती के सिवाय कुछ नहीं है.

वर्तमान सरकार के कानून विदेशी शासन के हितों के लिए चलते हैं और हम लोगों के हितों के विपरीत हैं. इसलिए इनकी हमारे ऊपर किसी भी प्रकार की सदाचारिता लागू नहीं होती.

अतः हर भारतीय की यह ज़िम्मेदारी बनती है कि इन कानूनों को चुनौती दे और इनका उल्लंघन करे. अंग्रेज़ न्यायालय, जो शोषण के पुर्जे हैं, न्याय नहीं दे सकते. विशेषकर राजनीतिक क्षेत्रों में, जहां सरकार और लोगों के हितों का टकराव है. हम जानते हैं कि ये न्यायालय सिवाय न्याय के ढकोसले के और कुछ नहीं हैं. इन्हीं कारणों से हम इसमें भागीदारी करने से इन्कार करते हैं और इस मुकदमे की कार्यवाही में भाग नहीं लेंगे.

5.5.30

(जज ने नोट किया – यह रिकॉर्ड में तो रखा जाये लेकिन इसकी कॉपी न दी जाये, क्योंकि इसमें कुछ अनचाही बातें लिखी हैं.)




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