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सुप्रीम कोर्ट को माध्यम बनाकर भारत को फिर से गुलाम बना रही है मोदी सरकार ?

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देश को सोचने-समझने की जरूरत है. दो प्रधानमंत्री, दो सरकार, एक ही मुद्दा लेकिन व्यवहार दो अलग-अलग तरह का. कौन है ईमानदार ?

साल 1962 : भारत सैकड़ों वर्ष की ग़ुलामी से निकला था, जिसमें आख़िरी ग़ुलामी आरएसएस के प्रिय और देश को खोखला कर गये अंग्रेजों की थी. ऊपर से स्थिति ऐसी थी कि देश में अपना कुछ नहीं बनता था. संसाधनों की नितांत कमी थी. देश अशिक्षा, भूख और गरीबी से त्रस्त था.

तब नेहरू जी के सामने चुनौती थी कि पैसा व संसाधन फ़ौज और हथियारों पर लगायें या देश की जनता की बुनियादी ज़रूरतों पर ? उन्होंने जनता को चुना. साथ ही पड़ोसियों से टकराव न हो इसलिए पंचशील का सिद्धांत देते हुए दुनिया से अपील किया कि युद्ध के विनाश से बचा जाए और धन को अपने-अपने देश के विकास पर खर्च किया जाए.

चीन हिंदी चीनी भाई-भाई के नारे लगाकर दगा दे गया और आक्रमण कर दिया. हम तैयार नहीं थे फिर भी पीठ नहीं दिखाई, बल्कि ऐसी बहादुरी से लड़े कि वह खुद ही मैदान छोड़कर एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर भाग खड़ा हुआ. इस पर भी हमें नुक़सान हुआ और उसी सदमे में नेहरू जी दुनिया छोड़ गए.

उसके बाद राजनीतिक इच्छाशक्ति और जनता के कठोर परिश्रम ने भारत को सिर्फ 3 ही साल में मजबूत बना दिया और 1965 में पाकिस्तान तथा 1967 में चीन को धूल चटा दी. इसके चार वर्ष बाद ही 1971 में ही नहीं बल्कि उससे भी पहले 1960 में गोवा और उसके बाद के वर्षों में बड़ी समझदारी तथा शांतिपूर्वक अरुणाचल, सिक्किम सहित बहुत सारा इलाक़ा भारत का हिस्सा बनाकर भारतीय उपमहाद्वीप का इतिहास और भूगोल दोनों बदल दिये.

यह कांग्रेसी सरकारों की ही उपलब्धि कही जायेगी कि भारत जल्दी ही दुनिया की चार बड़ी आर्थिक, सामरिक और अंतरिक्ष विज्ञान में सुदृढ़ शक्तियों में शामिल हो गया.

यह 1962 की ही बात है जब चीन को लेकर संघी स्वयंसेवक अटल बिहारी वाजपेयी ने सरकार पर हमला किया और संसद में बहस की मांग की. उसे प्रधानमंत्री नेहरू ने तुरंत स्वीकार कर लिया लेकिन निर्दलीय सांसद लक्ष्मी मल्ल सिंघवी की मांग थी कि यह संवेदनशील मामला है इसलिए चर्चा बंद कमरे में होनी चाहिए. परन्तु लोकतंत्र तथा पारदर्शी व्यवस्था के पक्षधर नेहरू जी ने मना कर दिया और कहा कि चर्चा खुले सदन में की जानी चाहिए ताकि देश की जनता को सच्चाई तथा अपनी कमजोरी मालूम हो सके.

चर्चा हुई जिसमें 165 सांसदों ने अपने विचार व्यक्त किये. कांग्रेस के कई सांसदों ने अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ बोला लेकिन नेहरू किसी से भी नाराज़ नहीं हुए.

साल 2022 : फिर उसी चीन का मामला सामने है. कुछ समय पहले भाजपा के अरुणाचल प्रदेश के सांसद ने लोकसभा में बताया था कि आप यहां हिंदू-मुस्लिम कर रहे हैं और उधर चीन अरुणाचल में 16 किलोमीटर भारतीय क्षेत्र में अंदर घुस कर निर्माण कर रहा है.

फिर लद्दाख में गलवान घाटी सहित कई जगह चीन भारतीय सीमा के अंदर घुस गया. हमारे सैनिक शहीद हुए. हमारी हजारों वर्ग किलोमीटर ज़मीन पर चीन ने क़ब्ज़ा कर लिया और प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में बयान दिया कि ‘न कोई आया, न ही कोई घुसा और न ही हमारी ज़मीन पर किसी का क़ब्ज़ा है.’

इसके बावजूद भी रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री चीन के पूर्व की स्थिति में जाने वाले बयान लगातार देते जा रहे हैं और दोनों देशों में उच्चस्तरीय सैन्य अधिकारियों के बीच लगातार बातचीत हो रही है.

सैटेलाइट तस्वीरों के जरिए सारी दुनिया जानती है कि हालिया सालों में चीन ने भारतीय क्षेत्र में कई जगहों पर क़ब्ज़ा करके पक्के निर्माण और बस्तियां बसा ली हैं. ऐसी तस्वीरें सैटेलाइट से लगातार प्राप्त हो रही हैं. अभी 9 दिसम्बर को ही चीन ने फिर अतिक्रमण किया है लेकिन मोदी जी चीन को क्लीन चिट देकर देश की जनता की आंखों में धूल झोंक रहे हैं.

इस बार संसद में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस दोनों सदनों में मांग करता रहा कि देश को सच मालूम होना चाहिए तथा देश को विश्वास में लेकर एकजुट होकर इसका मुक़ाबला करना चाहिए. परन्तु गला फाड़-फाड़कर राष्ट्रवाद के गीत गाने वाले आरएसएस के स्वयंसेवकों की यह सरकार एक बार भी चीन पर संसद में मुंह खोलने को तैयार नहीं हुई.

हर मुद्दे पर हाथ नचाते हुए कांग्रेस की बुराई करने वाले और नेहरू-गांधी परिवार को पानी पी-पीकर गालियां देने वाले नरेन्द्र मोदी ने मौन साध लिया है. यही नहीं सदन में चर्चा से बचने के लिए संसद का शीतकालीन सत्र अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया‌.

अब देश मोदी एंड कंपनी की इस नपुंसकता का कारण तलाश रहा है. ढूंढ़ रहा है वो लाल आंखें और मोदी जी के ‘न कोई आया, न ही कोई घुसा और न ही हमारी ज़मीन पर किसी का क़ब्ज़ा है’ कहने तथा वो साबरमती के तट पर झूला झूलने के पीछे का रहस्य !

कुल मिलाकर देश को ही समझना है प्रधानमंत्री और प्रधानमंत्री का अंतर, सरकार और सरकार का अंतर, सोच और सोच का अंतर, योग्यता-क्षमता और योग्यता-क्षमता का अंतर.

अलोकतांत्रिक होता भारत का न्यायपालिका

देश की तमाम संवैधानिक संस्थाओं को किस तरह घुटने टेकने के लिए विवश कर दिया गया है, यह सर्वत्र दिखाई दे रहा है. न्यायिक प्रक्रिया भी इससे अछूती नहीं रही. सुप्रीम कोर्ट को भी किस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया गया है, यह हम पिछले सालों में देख चुके हैं. इसके कुछ उदाहरणों पर विचार करना चाहिए.

1. जनवरी 2018, सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस

देश में पहली बार 12 जनवरी, 2018 को सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों जे. चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी. लोकुर और न्यायमूर्ति कुरियन जोसफ ने प्रेस कांम्फ्रेंस कर सार्वजनिक रूप से बताया कि वहां सबकुछ ठीक नहीं चल रहा था.

जजों ने यह प्रेस कांम्फ्रेंस खासतौर पर विशेष सीबीआई अदालत के जज बी. एच. लोया की मौत के मामले की सुनवाई में मुख्य न्यायाधीश के रोस्टर चयन पर सवाल खड़े करने के लिए की थी. साथ ही जजों ने यह चिंता भी जाहिर की, कि देश में अगर न्यायपालिका निष्पक्ष नहीं रहेगी तो लोकतंत्र जीवित नहीं रहेगा. प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जजों ने सुप्रीम कोर्ट की कार्यप्रणाली को लेकर अनेक सवाल उठाए.

2. नवंबर 2018, प्रधानमंत्री ने मुख्य न्यायाधीश से रात में की एकांत-वार्ता

पहली बार देश के प्रधानमंत्री ने मुख्य न्यायाधीश से एकांत में वार्तालाप किया और वह भी रात्रि के समय, सुप्रीम कोर्ट का कमरा नंबर एक खुलवाकर. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 25 नवंबर, 2018 को मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई से 50 मिनट तक बातचीत करने के बाद रात 10:10 बजे वहां से बाहर निकले. परम्परा के विरुद्ध ऐसी मनमानी करके देश को यह संदेश दिया गया कि प्रधानमंत्री ही सर्वोच्च है और वह निरंकुश होकर कुछ भी कर सकता है.

3. दिसंबर 2018, राफेल विमान सौदे में घोटाला

फ्रांस से 36 राफेल लड़ाकू विमानों की खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मोदी सरकार को क्लीन चिट देते हुए सौदे में कथित अनियमितताओं के लिए सीबीआई जांच की मांग करने वाली सभी याचिकाएं रद्द कर दी थी. तब कोर्ट ने कहा था, ‘व्यक्तियों के यह अनुमान कि सौदे में गड़बड़ी हुई है, जांच का आधार नहीं हो सकते.’

किन्तु, न्यायालय ने इसके 11 महीने बाद एक अन्य मामले में पूरी तरह व्यक्तियों के कोरे अनुमानों और मान्यताओं के आधार पर आदेश पारित कर दिया, जिसकी चर्चा नीचे क्रमांक 5 पर की गई है.

4. अप्रैल 2019, मुख्य न्यायाधीश पर महिला ने लगाया यौन उत्पीड़न का आरोप

देश के न्यायालयों की पवित्रता, विश्वास और नैतिक मूल्यों को कलंकित करने की एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना भी इसी कालखंड में देखने को मिली, जब देश के मुख्य न्यायाधीश पर एक महिला द्वारा यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया गया.

तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर अप्रैल 2019 में उनकी पूर्व जूनियर असिस्टेंट ने यौन उत्पीड़न के संगीन आरोप लगाए. इस पर मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई का कहना था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बहुत गंभीर ख़तरे में है और यह न्यायपालिका को अस्थिर करने की एक ‘बड़ी साजिश’ है क्योंकि यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला के पीछे कुछ बड़ी ताक़तें हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने रंजन गोगोई के खिलाफ लगे उक्त आरोप पर स्वत: संज्ञान लेते हुए जांच शुरू की थी, जिसे फरवरी 2021 में न्यायपालिका के खिलाफ साजिश बताते हुए बंद कर दिया गया.

जुलाई 2021 में अंतरराष्ट्रीय मीडिया कंसोर्टियम ने पेगासस प्रोजेक्ट के तहत यह खुलासा किया कि रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली उस महिला और उसके पति समेत 10 रिश्तेदारों तथा सुप्रीम कोर्ट के कुछेक अधिकारियों के फोन कथित तौर पर हैक कर उनके माध्यम से कुख्यात इस्रायली स्पाइवेयर पेगासस के जरिए जासूसी की जा रही थी या फिर वे संभावित निशाने पर थे.

5. नवंबर 2019, राम मंदिर पर आदेश

नवंबर 2019 को अयोध्या स्थित कथित राम जन्मभूमि मंदिर पर तमाम ऐतिहासिक महत्व के दस्तावेजों और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की रिपोर्ट की अनदेखी कर सुप्रीम कोर्ट ने केवल बहुसंख्यक हिंदुओं की धार्मिक आस्था और अंधविश्वास के आधार पर आदेश जारी कर दिया. जबकि कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की रिपोर्ट के आधार पर 9 नवंबर, 2019 को अपने आदेश में कहा कि ‘मंदिर तोड़कर मस्जिद बनाने की पुख्ता जानकारी नहीं है.’

चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली 5 जजों की विशेष पीठ ने सर्वसम्मति से उक्त जमीन पर उस ‘रामलला’ का हक बताया जिसके जन्म तथा उसके उपरांत के जीवन का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं. और जो केवल एक काल्पनिक कहानी का पात्र व एक समुदाय की कोरी आस्था में मौजूद है.

कोर्ट ने 6 दिसंबर, 1992 को गिराए गए कथित बाबरी ढांचे पर कहा कि मस्जिद को गिराना कानून का उल्लंघन था लेकिन उक्त विध्वंस के तमाम साक्ष्य और प्रमाण होते हुए भी किसी एक को भी इसका कसूरवार नहीं ठहराया. रंजन गोगोई ने बाद में राफेल विमान सौदे सम्बन्धी घोटाले में भी सरकार को बड़ी राहत दी, जिसके बाद भाजपा द्वारा उन्हें पुरस्कार स्वरूप राज्यसभा सदस्यता प्रदान की गई.

6. मार्च 2022, पीएम केअर्स फंड

सार्वजनिक धर्मार्थ ट्रस्ट पीएम केयर्स (PM CARES) फंड का संचालन प्रधानमंत्री कार्यालय से किया जाता है और उसकी वेबसाइट पर भी इसे दर्ज किया गया है. हालांकि इस निधि के गठन सम्बन्धी दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किए गए हैं, फिर भी भारत सरकार ने कहा है कि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, फंड के अध्यक्ष हैं और ट्रस्टियों में रक्षा मंत्री, राजनाथ सिंह, गृहमंत्री अमित शाह और वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण शामिल हैं.

इस ट्रस्ट में सभी सरकारी, अर्द्धसरकारी, स्थानीय निकायों, अर्द्धसैनिक बलों, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के कर्मचारियों के वेतन और सांसदों व विधायकों की क्षेत्रीय विकास निधि तथा कॉरपोरेट घरानों के सीएसआर कोष से अरबों-खरबों रुपए जमा कराए गये लेकिन इस फंड को भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) द्वारा ऑडिट करने तथा सूचना का अधिकार कानून की सीमा से बाहर रखा गया है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस फंड के खातों, व्यय विवरण तथा गतिविधि का खुलासा करने और इसे भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा ऑडिट के लिए खोलने हेतु केंद्र सरकार को निर्देश देने की मांग वाली याचिका पर विचार करने से आश्चर्यजनक रूप से इनकार कर दिया, जबकि देश में पंजीकृत एवं कार्यरत सभी सरकारी या गैर सरकारी संगठन/संस्थाओं का सरकार द्वारा नियमित रूप से ऑडिट किया जाता है.

7. जनवरी 2023, नोटबंदी पर दिया गया ताज़ा आदेश

नोटबंदी को लेकर दिया गया सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया ताज़ा आदेश भी इसी तरह का है. सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति एस. ए. नजीर की अध्यक्षता वाली पांच न्यायधीशों की संविधान पीठ ने नवंबर 2016 के 1,000 और 500 रुपये के करेंसी नोटों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले को चुनौती देने वाली सभी 58 याचिकाओं को रद्द करते हुए नोटबंदी को वैधानिक करार दिया है और कहा कि नोटबंदी के निर्णय में कोई त्रुटि नहीं है. इस आदेश से केंद्र सरकार को बड़ी राहत मिली है.

न्यायालय द्वारा नोटबंदी के परिणामों को विचारणीय नहीं मानना तो किसी हद तक स्वीकार कर भी लिया जाए तो उसकी प्रक्रिया में तो बड़ा भारी गड़बड़झाला है.

रिजर्व बैंक के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल के दस्तखत वाले नये डिजाइन के 500 रुपए मूल्य के नोट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी की घोषणा के 19 महीने पहले अप्रैल 2015 से लेकर 2016 के बीच छापे गए थे, जबकि उर्जित पटेल 5 सितंबर, 2016 को आरबीआई के नए गवर्नर के तौर पर नियुक्त किए गए थे. यानी कि उर्जित पटेल को रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किये बिना और तमाम कानूनी प्रावधानों का पालन किये बिना ही उनके हस्ताक्षर नये नोट के डिजाइन पर करवा लिये गये.

यह रहस्योद्घाटन एक RTI के जवाब में करंसी नोट प्रेस नासिक द्वारा दी गई सूचना से हुआ है. क्या सुप्रीम कोर्ट की दृष्टि में यह भी नियम-कानून के अंतर्गत सही है ? क्या किसी पद पर नियुक्ति से प्राप्त अर्हता एवं शक्ति की अनिवार्यता नहीं होते हुए भी कोई व्यक्ति सरकारी कामकाज कर सकता है ? आखिरकार क्या कारण है कि सुप्रीम कोर्ट ने इतने महत्वपूर्ण मुद्दे पर विचार करना उचित नहीं समझा ?

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय को सत्ता प्रतिष्ठान का मुखापेक्षी बनाया जा चुका है. तभी वह अपेक्षा तथा आवश्यकतानुसार अपने दायित्व का निर्वहन करते हुए नीरक्षीर निर्णय देने की बजाय न्यायेतर कारकों को ध्यान में रखकर आदेश पारित कर देता है जिसकी पुष्टि उपरोक्त चंद उदाहरणों से होती है. और, शायद यह भारत को गुलामों का देश बनाने की मुहिम का हिस्सा है.

मित्रों, मैं कोई कानून का छात्र नहीं हूं और न ही मुझे कानूनी प्रक्रिया का कोई ज्ञान है; फिर भी सामान्य बुद्धि से मैं न्याय की जो परिभाषा समझ पाया हूं, वह इस तरह से है.

न्याय—वादी, प्रतिवादी और गवाहों के बयानों, रिकॉर्ड में मौजूद साक्ष्यों, प्रमाणों, नियम, कानून, संवैधानिक प्रावधानों आदि को ध्यान में रखते हुए तथा वकीलों की विधिसंगत बहस सुनने के बाद सत्यता के बहुत निकट निकाले गये परिणामस्वरूप दिया गया ‘निर्णय’ न्याय है. लेकिन हालिया सालों में देखा गया है कि न्यायालय अब न्यायपूर्ण निर्णय नहीं बल्कि आदेश जारी कर देते हैं, जबकि निर्णय यानी फैसले और आदेश में बहुत बड़ा फर्क होता है.

जैसा कि सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस बी. वी. नागरत्ना ने नोटबंदी को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपने असहमतिपूर्ण फैसले में कहा कि भारतीय रिज़र्व बैंक ने केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित 500 और 1000 रुपये के प्रचलित सभी नोटों को रद्द करने की सिफारिश करने में स्वतंत्र रूप से विवेक का इस्तेमाल नहीं किया.

उन्होंने कहा है कि नोटबंदी की यह सिफारिश भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 26 (2) के तहत बैंक द्वारा नहीं की गई थी, बल्कि इसका प्रस्ताव केंद्र सरकार द्वारा बैंक को लिखे गए 7 नवंबर, 2016 के पत्र के माध्यम से किया गया था. केंद्र सरकार से दिया गया प्रस्ताव बैंक के केंद्रीय बोर्ड की सिफारिश यानी उसके प्रस्ताव के समान नहीं है.

जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि आरबीआइ द्वारा इस तरह के प्रस्ताव को दी गई सहमति को आरबीआई अधिनियम की धारा 26 (2) के तहत ‘सिफारिश’ के रूप में नहीं माना जा सकता है.

दरअसल नोटबंदी के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 26 (2) के तहत केंद्र सरकार को अनुशंसा यानी सिफारिश (recommend) करता है लेकिन इसके उल्टा इस बार नोटबंदी का प्रस्ताव केंद्र सरकार द्वारा बैंक को लिखे गए 7 नवंबर, 2016 के पत्र के माध्यम से किया गया और उस पर सिर्फ 24 घंटे के भीतर नोटबंदी की पूरी प्रक्रिया सम्पन्न कर ली गई. जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 के बहुमत से ‘निर्णय’ नहीं बल्कि ‘आदेश’ जारी कर सरकार द्वारा की गई नोटबंदी को वैध घोषित कर दिया.

हालांकि जानकार लोगों ने तब भी इस पर कहा था कि नोटबंदी की घोषणा प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि रिजर्व बैंक के गवर्नर द्वारा की जानी चाहिए थी लेकिन जब प्रधानमंत्री के सिर पर बनिये का पोस्टर ब्वॉय बनने तक गिर जाने का भूत सवार हो तो फिर नियम, कानून, संविधान, परंपरा, मर्यादा, आदर्श, लिहाज़, शर्म आदि सबका परित्याग कर देना स्वाभाविक है.

  • आनन्द सुराना, श्याम सिंह रावत

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ROHIT SHARMA

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